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शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय :
जो गुणधर्म द्रव्य के मूलभूत स्वाभाविक गुण है तथा जो अनादि-अनन्त काल तक द्रव्य में सहज रूप से निहित रहते हैं, वे गुण-धर्म द्रव्य के शुद्ध गुणधर्म होते हैं। जैसे आत्मद्रव्य का ज्ञान गुण। उपाधि रहित शुद्ध स्वाभाविक गुण और शुद्ध गुणी एवं उपाधि रहित शुद्ध पर्याय और शुद्ध पर्यायवान् में अभेद होते हुए भी संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के आधार पर भेद करनेवाला उपनय सद्भूत व्यवहार उपनय
है।445
उपाध्याय यशोविजयजी ने शुद्ध धर्मों एवं शुद्ध धर्मियों में भेद दर्शाने वाले उपनय की ही सद्भूत व्यवहार उपनय कहा है। जैसे आत्मद्रव्य में केवलज्ञान का होना। इसमें षष्टी विभक्ति द्वारा भेद बताया गया है। केवलज्ञान आत्मद्रव्य के साथ अनादिकाल से होने से मूलगुण है और क्षायिक भाव का गुण होने से शुद्धगुण है। केवलज्ञानी की आत्मा भी कर्मोपाधिरहित होने से शुद्ध है। इस प्रकार यह उदाहरण शुद्ध गुण और गुणी में भेद करनेवाला शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय का है। इसी प्रकार रसादि पुद्गल द्रव्य के गुण है, गति सहायकता, स्थिति सहायकता, अवगाह सहायकता और वर्तना सहायकता इत्यादि गुणधर्म धर्मास्तिकाय आदि शेष चार द्रव्यों के है। इस प्रकार कहना भी शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय के उदाहरण हैं।
अशुद्ध सद्भूत व्यवहार उपनय :
जो गुणधर्म द्रव्यों के उत्तरभेद रूप हो और क्षयोपशमादि के कारण निश्चित काल स्थिति वाले हैं,वे अशुद्ध गुणधर्म कहलाते हैं।447
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4444 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचन – धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 282 445 शुद्ध सद्भूत व्यवहारो यथा शुद्धगुण गुणिनो
आलापपद्धति, सू. 82 446 शुद्ध धर्म-धर्मीना भेदधी ..
... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, टब्बा, गा.7/2 447 टागगनोगस लेखक-शीगनलाल टाहाालाल महेता 220
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