________________
309
श्वेताम्बर परम्परा सम्मत काल सम्बन्धी दूसरी मान्यता की चर्चा करते हुए यशोविजयजी कहते हैं – कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने काल को अन्य द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् स्वतन्त्र और पारमार्थिक या निरूपचरित द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि किसी भी पदार्थ में अन्य द्रव्य के उपकार के बिना स्वतः परिणमन नहीं होता है। यद्यपि परिवर्तन में द्रव्य स्वयं उपादानकारण है, फिर भी पर्याय परिवर्तन में निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है। अतः जिस प्रकार स्वयं गतिशील, स्थितिशील और अवकाशशील जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति, स्थिति और अवगाहन में अपेक्षा कारण के रूप में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल के परत्व, अपरत्व, पुरानत्व, नवीनत्व आदि पर्यायों के लिए भी कोई अपेक्षा कारण चाहिए और वही कालद्रव्य है। यही निश्चयकाल है। इसकी सिद्धि ज्योतिष्कचक्र की गति से होती है।832
सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कचक्र जंबूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में स्थित मेरूपर्वत के चारों ओर भ्रमण करते रहते हैं।833 इनकी विशिष्ट गति पर ही दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल विभाग किया जाता है।334 सूर्य के उदय से लेकर अस्त तक की गति क्रिया में जितना काल लगता है, उससे ही दिन का व्यवहार होता है। दिन के आधार पर पक्ष, मास, वर्ष आदि-आदि काल विभाग किया जाता है। दिन, रात्रि आदि स्थूल काल है। दूसरे शब्दों में इन्हें व्यवहारकाल भी कहा जा सकता है।
संसार में वस्तु के परत्व (ज्येष्ठ) अपरत्व (कनिष्ठ), प्राचीनता, नवीनता आदि पर्यायों का व्यवहार होता है। वस्तु की परत्व आदि पर्यायें स्थूल या व्यंजन पर्याय हैं। वस्तु में अचानक परत्व आदि पर्यायों का उद्गम नहीं होता है। वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। बच्चा अचानक बड़ा नहीं होता है। साड़ी अचानक पुरानी नहीं होती है। बच्चे के शरीर, मन, बुद्धि आदि में क्षण-क्षण परिवर्तन होते-होते ही बच्चा
...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/12
832 बीजा भाषइ रे जोइसचक्रनइं चारई जे थिति तास ।
काल अपेक्षा रे कारण द्रव्य छइं, षटनी भगवइ भास।। ... 833 नित्यगतोनृलोके ................ तत्त्वार्थसूत्र, 4/14 834 ततकृतः कालविभाग .......... तत्वार्थसूत्र, 4/5
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org