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विशिष्ट करने पर अर्थात् मृद्रव्य को अर्पित (मुख्य) करके तथा स्थास-कोश आदि प्रतिनियत आकृति रूप स्वपर्यायों को अनर्पित (गौण) करके विचार करने पर स्थास आदि में अभेद भी परिलक्षित होता है। जैसे मृद्रव्य की अपेक्षा से स्थास-कोश-कुशूल-घट आदि में अभेद है। परन्तु भिन्न-भिन्न आकृतियों से विशिष्ट होने पर अर्थात् पर्यायों को अर्पित करके तथा मृद्रव्य को अनर्पित करके विचार करने पर स्थास आदि में भेद भी अवश्यमेव विद्यमान है। यह भेद और अभेद ही सैकड़ों नयों का मूल कारण है। द्रव्य और पर्याय की अर्पणा और अनर्पणा करने से सात मूल नयों के 700 भेद बनते हैं, जिनका उल्लेख वर्तमान में अनुपलब्ध 'शतारनयचक्राध्ययन' में था, वर्तमान में 'द्वादशारनयचक्र' नामक ग्रन्थ में नैगम आदि प्रत्येक नय के विधि, विधिविधि आदि बारह-बारह भेद वर्णित है।1456
इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में जहाँ किसी एक अपेक्षा से एक स्वरूप होता है, वहाँ उसी पदार्थ में अन्य अपेक्षा से उससे विपरीत दूसरा स्वरूप भी हो सकता है। इसलिए भेदाभेद को भी एक साथ अपेक्षा भेद से रहने में कोई विरोध नहीं आता है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु एकान्त रूप से न भेदरूप है और न अभेद रूप है, न नित्य है और न अनित्य है, न सामान्यरूप है और न विशेषरूप है, अपितु भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप, सामान्यविशेषरूप है। वस्तु के इस अनेकान्तिक स्वरूप को प्रकाशित करनेवाली निर्दोष भाषा पद्धति ही स्याद्वाद है। स्याद्वाद में एकान्त कथनों का निराकरण करके, अपेक्षा विशेष के आधार पर वस्तु को कथंचित् भेदरूप कथंचित् अभेदरूप, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि बताया जाता है। इस भाषा प्रणाली में वस्तु के किसी भी धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए विधि, निषेध के आधार पर सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है। यही सप्तभंगी है जिसकी चर्चा हमने दूसरे अध्याय में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के साथ विस्तार से की है। अनेकान्तवाद के प्रबल समर्थक यशोविजयजी
1456 ए भेद नई अभेद छइ, ते सइगमे नयनो मूलहेतु छइ, सात नयना जे सातसंइ भेद छइं,
ते ऐ रीते द्रव्य-पर्यायनी अर्पणा-अनर्पणाई थाइं
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