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गुण सदा ध्रौव्यरूप में ही रहते हैं। इस प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतवीर्य, अनंतचारित्र आदि गुणात्मक पर्यायों में भी प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिलक्षण घटित होते हैं।
किसी भी पदार्थ या उसके गुणों में त्रिलक्षण को अस्वीकार करने पर वस्तु शशशृंग, आकाशकुसुम या वंध्यापुत्र की तरह अभाव रूप ही हो जायेगी। क्योंकि उत्पाद आदि त्रिलक्षण के योग से ही वस्तु सत् बनती है। 08
जीवादि षड़द्रव्यों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य -
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच द्रव्य परमार्थिक द्रव्य हैं तथा काल औपचारिक द्रव्य है। इन छओं द्रव्यों में प्रतिसमय अनेक प्रकार से उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य घटित होते रहते हैं। व्यवहार नय की अपेक्षा से जीव और पुद्गल परिणामी हैं। भिन्न-भिन्न द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव के संयोग से इन दोनों द्रव्यों में उस-उस रूप में परिणमन होता है। उदाहरणार्थ - मनुष्य मरकर देव बनने पर उसका देह ही नहीं बदलता अपितु जीवद्रव्य भी उस रूप में परिणमित होता है। अन्नभक्षी, व्यक्तवाणीवाला और विवेकशील मनुष्य मरकर देव बनने पर लोमाहारी, अव्यक्तवाणीवाला, अवधिज्ञानी बन जाता है। देवायुष्य पूर्ण कर पशु बनने पर तृणभक्षी, अस्पष्टवाणीवाला, अविवेकशील बन जाता है। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अन्य द्रव्यादि का निमित्त पाकर उस रूप में परिणमित होता है। कीचड़ में गिरा हुआ हलवा भी कीचड़ की तरह हो जाता है। स्वपर्यायों से ही उत्पाद-व्यय वाले होते
हैं।
707 द्वितीय क्षणइं भाव-आद्यक्षणइं संबंध-परिणामइं नाश पाम्यो .......... वही, गा. 9/17 का टब्बा 708 नही तो ते वस्तु अभाव थइ जइ, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य योग ज भाव लक्षण छ........... वही, गा. 9/17 का टब्बा 709 इम निजपर्यायइ जीव पुद्गलनइं ........................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/18
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