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हो गया तो मोक्ष किसका होगा ? पूर्व में किये हुए चोरी आदि के लिए भी व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। क्योंकि जिसने चोरी की, वह तो नष्ट हो गया। पुनः ऋण देनेवाला अपने ऋणी को पहचानकर ऋण को वसूल भी नहीं कर सकता है। 'यह वही है जिसने ऋण लिया था, ऐसा प्रत्यभिज्ञान क्षणिकवाद में संभव नहीं हो सकता है। परिमाणस्वरूप परिवर्तन के इस दौड़ में एक दूसरे को पहचान नहीं पाते। इस प्रकार क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञान, दान का फल, पापों का भोग, बन्ध और मोक्ष आदि घटित नहीं होते हैं।
यही कारण है कि जैनदर्शन वस्तु का सर्वथा नाश नहीं मानता है, अपितु केवल उसका रूपान्तरण या अवस्थान्तरण ही स्वीकार करता है। चूंकि अवस्थाएं या पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होने से ऐसा कहा जाता है कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय होता है। परन्तु परमार्थ से द्रव्य का न तो उत्पाद होता है और न ही व्यय होता है। द्रव्य तो त्रिकाल स्थायी और अनादिनिधन है। द्रव्य के पर्यायों का ही उत्पाद और व्यय होता है। द्रव्य का द्रव्यत्व तो सदा ध्रुव रहता है। बौद्धदर्शन द्रव्य के इस ध्रुवता को अस्वीकार करके केवल उत्पाद और विनाश को ही मानता है। इस दर्शन के मतानुसार पर्याय ही वास्तविक है। द्रव्य वास्तविक नहीं है।
जैनदर्शन और न्याय–वैशेषिकदर्शन -
जैनदर्शन गुण को द्रव्य के आश्रित और द्रव्य को गुणों का समुदाय मानता है। द्रव्य और गुण परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। न्याय–वैशेषिकदर्शन भी द्रव्य को गुण और क्रिया का आधार तो मानते हैं, परन्तु उनके अभिमत में गुण और द्रव्य सर्वथा भिन्न है। प्रथम क्षण में द्रव्य गुणों से रहित होता है, तदनंतर समवाय नामक पदार्थ से दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है। परन्तु समवाय सम्बन्ध से अनवस्था का दूषण आता है। यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो पुनः प्रश्न उठता है कि समवाय सम्बन्ध गुण और द्रव्य में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि समवाय सम्बन्ध अन्य समवाय सम्बन्ध से गुण और द्रव्य में रहता है तो उस समवाय के लिए
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