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नय-विभाजन
जैनदर्शन के अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म निहित हैं। इन सभी धर्मों का एक साथ एक ही वाक्य में कथन करना असंभव है। कोई भी व्यक्ति एक वाक्य में वस्तु के किसी एक ही धर्म का ही कथन कर सकता है, किन्तु जब व्यक्ति एकान्त रूप से वस्तु के किसी एक धर्म का कथन करता है तो अन्य गुणधर्मों का निषेध हो जाता है। अतः अनन्त धर्मात्मक वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए इस प्रकार के वाक्य के प्रयोग की आवश्यकता होती है, जो वस्तु के विवक्षित गुणधर्म को कथन करने पर भी अन्य अविवक्षित गुणधर्मों का निषेध या निराकरण नहीं करे। इस प्रकार वस्तुतत्त्व के किसी विशेष गुणधर्म के सम्बन्ध में वक्ता के निहित अभिप्राय विशेष ही नय है।
वस्तु के विभिन्न पक्षों को विभिन्न दृष्टियों से अभिव्यक्त किया जा सकता है। विभिन्न दृष्टिकोण या विभिन्न नयों का आधार वस्तु तत्त्व की बहुआयामिता है। सर्वार्थसिद्धि में नय को अनन्त प्रकार का बताया गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की अनन्त शक्तियाँ हैं।183 सिद्धसेन दिवाकर के मत में वस्तुगत धर्मों की अभिव्यक्ति के लिए कथन के जितने प्रकार हो सकते हैं उतने ही नयवाद हैं तथा जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय है। 84 अतः स्पष्ट है कि कथन के जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय होते हैं और उस कथन को निरपेक्ष से सत्य मानने वाले उतने ही पर समय अर्थात् दार्शनिक सिद्धान्त हो सकते हैं।
प्राचीन आगम ग्रन्थों में मुख्य रूप से द्रव्यार्थिकनय एवं पर्यायार्थिक नय या निश्चयनय एवं व्यवहार नय, इन्हीं दो प्रकार के नयों की चर्चा उपलब्ध है। जैन दार्शनिक ग्रन्थों में नय के एक, संक्षेप में दो, विस्तार से सात और अतिविस्तार से संख्यात भेद भी किये गये हैं।185
द्रव्यस्थानन्तशक्तै प्रतिशक्ति विभद्यमाना बहुविकल्पा जायन्ते ......... तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि 1/33 जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया।। ..........
. सन्मतिसूत्र, गा. 3/47 "सामान्य देशतस्ताचदेक एव नयस्थितिः .................
श्लोकवार्तिक, 1/33/2
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