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भी वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता है। नय अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध किये बिना एक धर्म की प्ररूपणा करता है।181
उपाध्याय यशोविजयजी ने भी लगभग इसी बात का समर्थन अपने ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में किया है। नय अनंत धर्मात्मक वस्तु को जानता है। परन्तु उन अनन्त धर्मों को मुख्य और अमुख्य रूप से जानता है।12 जब नित्यता धर्म की विवक्षा से वस्तु के नित्य धर्म को मुख्य रूप से जानता है तब अनित्यता आदि अनन्त धर्मों को अमुख्य रूप से (उपचार से) जानता है।
181 एगेण वथुणोऽणेग धम्मुणो .............. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2180 182 इहां पणि मुख्य अमुख्यपाई, अनंत धर्मात्मक वस्तु ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा गा. 5/1
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