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विश्व व्याख्या की दृष्टि से द्रव्य की प्रथम परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध होती है। इस सूत्र में तत्त्व और द्रव्य दोनों की मीमांसा हुई है। मोक्षमार्गगति नामक अध्ययन में प्रमेय के रूप में षड्द्रव्यों के लक्षण, भेद, गुण, और पर्याय के लक्षण आदि की विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई है।91 यहां द्रव्य को गुणों का आश्रय कहा गया है। इसी सूत्र के छत्तीसवें जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययन में जीव और अजीव तत्त्व का निरूपण अतिविस्तार और सूक्ष्म रूप से किया गया है। वहाँ धर्माधर्म आदि षड्द्रव्यों का देश, प्रदेश आदि सहित गहन चर्चा उपलब्ध होती है।592 मूलतः तत्त्व दो हैं, 1. जीव और 2. अजीव। शेष पंचास्तिकाय उनका विस्तार है। पंचास्तिकाय के साथ काल का समावेश करने से द्रव्य छह कहे जाते हैं। यह षड्द्रव्य पंचास्तिकाय का ही उत्तरकालीन विकास है।
उपर्युक्त विवेचन के निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आगम युग में लोक के आधारभूत मूल घटकों के लिए अस्तिकाय द्रव्य और तत्त्व शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। आगम युग में सत् शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। यद्यपि अस्तिकाय और सत् दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही सूचक शब्द हैं। फिर भी अस्तिकाय जैनदर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है।593
परवर्ती युग में द्रव्य की अवधारणा का विकास -
उमास्वातिजी ने ही सर्वप्रथम आगमिक तत्त्वों को सूत्रबद्ध शैली में गुंफित करके आगमिक अस्तिकाय, द्रव्य, तत्त्व के साथ-साथ द्रव्य के लक्षण के रूप में सर्वप्रथम 'सत्' शब्द का प्रयोग किया है। ‘सत् द्रव्य लक्षणम्' कहकर द्रव्य और सत् में अभेद स्थापित किया और सत् को ही द्रव्य कहा है।594 सत् को
591 उत्तराध्ययन - 28/5-13
592 उत्तराध्ययन - 36 593 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा - प्रो. सागरमल जैन, पृ.3 594 तत्त्वार्थभाष्य
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