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में गुणों की अवधारणा से अन्य दर्शनों, विशेष रूप से न्यायदर्शन की गुणों की अवधारणा से उसका कितना साम्य और कितना वैषम्य है, यह भी स्पष्ट किया गया है। जहाँ द्रव्य की अवधारणा में हमारी दृष्टि मुख्य रूप से समीक्षात्मक रही, वहीं गुणों की अवधारणा के संदर्भ में समीक्षा के साथ-साथ तुलना की गई है।
इस शोधग्रन्थ का पंचम अध्याय मुख्य रूप से पर्याय की अवधारणा से सम्बन्धित है। पर्याय की अवधारणा जैनदर्शन की मुख्य अवधारणा है। इसकी चर्चा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में प्रायः अनुपलब्ध ही है। अतः इस अध्याय में पर्याय का अर्थ, परिभाषा और स्वरूप की चर्चा है, किन्तु इसके साथ यह देखने का प्रयत्न भी किया गया है कि पर्याय की अवधारणा की क्या आवश्यकता थी और जैनदर्शन ने इस अवधारणा को क्यों स्वीकार किया ? वैसे तो जैनदर्शन इस बात को मानकर चलता है कि जहाँ द्रव्यों की संख्या सीमित है, वहाँ पर्याय की संख्या अनन्त है। यशोविजयजी ने समीक्ष्य ग्रन्थ में सामान्य और विशेष गुणों की दृष्टि से न केवल गुणों के प्रकारों को बताने का प्रयत्न किया, अपितु उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ की 14 वीं ढाल में पर्यायों के विभिन्न प्रकारों की विस्तृत चर्चा की है, जिसका उल्लेख प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में किया है।
शोधप्रबन्ध का छठाँ अध्याय द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करता है। यह द्रव्य, गुण और पर्याय के पारस्परिक भिन्नत्व और अभिन्नत्व की अवधारणा जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त और नयसिद्धान्त के आधार पर खड़ी हुई है। यशोविजयजी ने इसे अनेकान्तवाद और नयवाद के आधार पर ही स्पष्ट किया है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने इस शोधग्रन्थ में की है।
शोधप्रबन्ध का अन्तिम अध्याय उपसंहार रूप है। जिसमें विभिन्न अध्यायों के चर्चा के सार के साथ-साथ इस सम्बन्ध में हमने अपने मंतव्यों को भी प्रस्तुत किया
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