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शीघ्रम' की कहावत के अनुसार धनजी सूरा ने शीघ्र ही दो हजार चांदी के दीनारों की हुण्डी लिखकर काशी भेज दी।15
काशीगमन और न्यायविशारद की विरुद -
नयविजयजी यशोविजयजी को लेकर उग्र विहार करके काशी पहुंचे। काशी में षड्दर्शनों के सर्वोच्च पंडित और नव्यन्याय के प्रकाण्ड विद्वान एक मट्टाचार्य रहते थे। उनके पास यशोविजयजी अध्ययन करने लगे। वैसे तो न्याय-मीमांसा और षड्दर्शनों का अध्ययन करने के लिए आठ वर्ष चाहिए। परन्तु यशोविजयजीनेअद्भुत अपनी ग्रहणशक्ति तथा आश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण मात्र तीन वर्षों में ही व्याकरण, तर्क, न्याय, षड्दर्शन आदि के साथ-साथ अन्यान्य शास्त्रों में पारंगत विद्वान बन गये। विद्यागुरू भट्टाचार्य से नव्यन्याय जैसे गंभीर विषय एवं 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक दुर्बोध ग्रन्थ का भी गहरा अभ्यास करके नव्यन्याय के बेजोड़ विद्वान बने तथा षड्दर्शन वेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। यशोविजयजी की वाद-विवाद की शक्ति भी अकाट्य और अद्वितीय थी।
उन दिनों में कश्मीर भी काशी के समान विद्याधाम था। ऐसे कश्मीर का एक सन्यासी अन्य स्थानों पर वाद-विवाद में विजय प्राप्त करके काशी में आया और काशीवासियों से वाद के लिए घोषणा करने लगा। दुर्भाग्य से काशी जैसी नगरी से कोई भी पंडित, उस कश्मीर के पंडित से वाद-विवाद करने के लिए साहस नहीं दिखा पाया। क्योंकि वाद-विवाद में केवल पांडित्य से ही कार्यसिद्धि नहीं होती अपितु स्मृति, तर्कशक्ति और प्रत्युत्पन्नमति आदि की भी आवश्यकता रहती है। काशी की प्रतिष्ठा पर आँच आते देखकर भट्टाचार्य के युवा शिष्य यशोविजयजी, कश्मीर के पंडित से वाद-विवाद करने के लिए आगे आये। वादसभा का आयोजन किया गया। वाद-विवाद में यशोविजयजी के तर्कसंगत अकाट्य उत्तरों को सुनकर कश्मीर
15 धनजी सूरा साह, वचन गुरूनुं सुणी हो लाल
आणी मन उच्छाह, कहै इन ते गुणी हो लाल दोई सहस दीनार, रजतना खरचस्युं हो लाल
.............. सुजसवेलीभास, गा. 2/1
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