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प्रमाण का ही एक अंश है । यदि नय वाक्य अस्तित्व धर्मों के साथ नास्तित्व धर्मों को गौण रूप से अंगीकार नहीं करता है तो विकलादेश होकर मात्र नय ही रह जायेगा, किन्तु प्रमाणरूप नहीं हो सकता है। अस्तित्व, नास्तित्व आदि सभी धर्मों को मुख्य और गौण रूप से प्रतिपादन करने वाला नय ही सुनय होकर प्रमाणरूप बनता है। इस प्रकार निश्चय नय की विवक्षा में भी अन्य धर्मों का उपचार अवश्य होता है ।
प्रत्येक नय को अपने अपने प्रतिपाद्य विषय ही सत्य है, ऐसा गर्व अवश्य होता है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे अन्य नय की बात को मिथ्या मानते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहां निश्चयनय की प्रधानता होती है वहां व्यवहारनय की गौणता (उपचार) होती है, और जहां व्यवहारनय की प्रधानता होती है वहां निश्चयनय की गौणता (उपचार) होती है। अतः निश्चयनय में उपचार नहीं होने से उपनय नहीं होते हैं और व्यवहारनय में उपचार होने से उपनय होते हैं ऐसा दिगम्बराचार्य का कथन शास्त्र विरूद्ध मार्ग का पुष्टि करने वाला बनता है ।
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काल्पनिक होने से व्यवहारनय मिथ्या है और अकाल्पनिक होने से ( उपचार नहीं होने से) निश्चयनय सत्य है । निश्चय और व्यवहारनय की देवसेन कृत प्रस्तुत व्याख्या शास्त्र संगत नहीं है ऐसा कहकर यशोविजयजी ने विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि कृत निश्चय और व्यवहारनय के लक्षण को विस्तार से समझाया है।
जिनभद्रगणि ने “तत्त्वार्थग्राही नयो निश्चय', लोकाभिमतार्थग्राही व्यवहारः " ऐसा निश्चय और व्यवहारनय का लक्षण दिया है। 554 जो नय तत्त्वभूत अर्थ को ग्रहण करता है, वह निश्चयनय एवं जो लौकिक व्यवहार में प्रयुक्त अर्थ को ग्रहण करता है वह व्यवहारनय है। ‘तत्त्वभूत अर्थ का तात्पर्य है युक्तियों से सिद्ध होने वाला अर्थ या पारमार्थिक अर्थ है 555 जैसे भंवरा पंच वर्ण वाला है। भंवरे का शरीर अनंत
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553 स्वस्वार्थइ सत्यपणानो अभिमत तो सर्वनयइं
वही,
554 ते माटइं निश्चय व्यवहारनुं लक्षण भाष्यइ - विशेषावश्यकइं कहिइं छई,
तिम निरधारो तत्त्वार्थग्राही नयो निश्चयः, लोकाभिमतार्थग्राही व्यवहारः । ... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.8/21 का टब्बा
SSS तत्त्व अर्थते युक्तिसिद्ध अर्थ जाणव
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8 / 21
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