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की तरह आधार बनाकर शक्तिरूप मानें। यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरण के तृतीय खण्ड की 10 वीं, 11 वी, 12 वीं, 13 वीं 14 वीं और 15 वीं गाथाओं को उद्धृत करके कहा है कि गुण पर्याय से पृथक् अन्य तत्त्व नहीं है। जो गुण है वही पर्याय है और जो पर्याय है वही गुण है। केवल सहभावी और क्रमभावी लक्षण की अपेक्षा से कथंचित भेद परिलक्षित होता है।356 सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार परिगमन, पर्याय, अनेककरण और गुण समानार्थक पर्यायवाची शब्द हैं। वस्तु को भिन्न-भिन्न रूप में परिणत करने वाली पर्याय है और वस्तु को अनेकरूप करने वाला गुण है। इस तरह गुण और पर्याय दोनों तुल्यार्थक ही हैं। 'गुणकोस्वतन्त्रतत्त्व नहीं कहा जाता है। भगवान की देशना पर्यायार्थिकनय की है। गुणार्थिकनय की नहीं है।1357
इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी1358 लिखते हैं 'अनेककरण' पर्याय और गुण दोनों का लक्षण है। क्रमभावित्व की तरह अनेककरण भी पर्याय का लक्षण है। नर-नारक आदि पर्यायें जीव को अनेक करती है। यथायह जीव नर है, यह जीव नारक है, यह जीव देव है इत्यादि। विवक्षित जीवद्रव्य तो एक ही होता है। इसी प्रकार पर्याय की तरह गुण भी जीव को अनेक करता है। यथा- ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा इत्यादि। इसलिए जो गुण है वह पर्याय ही है तथा जो पर्याय है वह गुण ही है। पुनः व्यवहार में और आगम में जिस प्रकार पर्याय की प्रसिद्धि है उस प्रकार गुण की प्रसिद्धि नहीं है। क्योंकि भगवान की देशना द्रव्य–पर्याय की है, न कि द्रव्यगुण की। सत्ता का विवेचन गुणार्थिक नय से नहीं होता है अपितु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से होता है।
1356 पर्यायथी गुण भिन्न न भाखीओ, सम्मति ग्रंथि विगति रे।
जेहनो भेद विवक्षावशथी, ते किम कहिइ शक्तिं रे।। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/11
1357 परिगमणं पज्जाओ, अनेगकरणं गुणत्ति एगट्ठा।
तह वि ण गुणत्ति भण्णई, पज्जवणयदेसणा जम्हा।। ......... सन्मतिप्रकरण, गा. 3/12 1358 जिम क्रमभविपणु पर्याय- लक्षण छइ, तिम अनेक करवू, ते पणि पर्याय- लक्षण छइ, द्रव्य तो एक ज छइ, ज्ञान-दर्शनादिक भेद कहइ छइ, ते पर्यायज छइ, पणि गुण न कहिइं - ..
........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/11 का टब्बा
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