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पं. धीरजभाई डाह्यालाल ने अगुरूलघुत्वगुण को स्पष्ट करने के प्रयत्न में आलापपद्धति025 की पंक्तियों को उद्धृत करके उसके आधार पर कहा है- जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्यों में प्रतिसमय अनंतभागवृद्धि आदि छह प्रकार की हानि-वृद्धि के रूप में परिणमन करने की योग्यता है, वह अगुरूलघुत्वगुण है। इस गुण के कारण प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय छहों प्रकार की हानि-वृद्धि में से किसी भी एक प्रकार में अवश्य परिणमन होता रहता है। द्रव्य किसी एक ही स्वरूप में स्थिर नहीं रहता है। 1026 इस प्रकार प्रतिसमय षट्स्थान हानि-वृद्धि होने पर भी एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के रूप में, एक गुण का परिणमन दूसरे गुण के रूप में नहीं होना, द्रव्य के गुणों का बिखरकर पृथक् नहीं होना तथा उनका न्यूनाधिक नहीं होना अगुरूलघुत्वगुण है।1027 आचार्य तुलसी के अनुसार द्रव्य का स्व स्वरूप से विचलित नहीं होना तथा उसके अनंतगुणों को बिखरकर अलग-अलग नहीं होना अगुरूलघुत्वगुण है। 1028 इस गुण के कारण पर्याय में हानि-वृद्धि होने पर भी गुण कभी कम या अधिक नहीं होते हैं, त्रैकालिक द्रव्यगुण एकरूप ज्यों के त्यों स्थित रहते हैं।
6. प्रदेशत्व -
प्रदेश के भाव को प्रदेशत्व कहते हैं। जिसका दो भाग नहीं हो सकता है ऐसा अविभाज्य पुद्गल परमाणु जितने आकाश या क्षेत्र को घेरता है, वह प्रदेश है। 1029 अतः प्रदेशत्व का अर्थ होता है क्षेत्रत्व। द्रव्य का क्षेत्रव्यापीपना ही प्रदेशत्व गुण है।
1025 आलापपद्धति, सूत्र 15, 16, 17 1026 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 541 1027 नयचक्र विवेचन -पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.7 1028 स्वस्वरूपमविचलत्वं -अगुरूलघुत्वं .................... जैनसिद्धान्तदीपिका, सू. 1/38 1029 प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं .... .............................................. आलापपद्धति, सू. 100
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