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निश्चयनय और व्यवहारनय उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में दिगम्बर मन्तव्यानुसार तर्कशास्त्र की दृष्टि से नौ नय और उपनय को समझाने के पश्चात् अध्यात्मिक दृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय इन दो मूल नयों की चर्चा की है।
विभिन्न दृष्टिकोणों से आत्मा और आत्मा से सम्बन्धित विषयों का विचार करके अध्यात्म का पोषण करने वाले नय अध्यात्मनय है।480 अध्यात्म की अपेक्षा से मूलभूत दो नय हैं – निश्चयनय और व्यवहारनय ।
निश्चयनय और व्यवहारनय -
वस्तु के अभिन्न, स्वाश्रित और परनिरपेक्ष परिणमन को प्रधानरूप से प्रतिपादन करने वाला नय निश्चयनय है और ठीक इससे विपरीत भेदरूप, पराश्रित और परसापेक्ष परिणमन को मुख्यता देने वाला नय व्यवहारनय है।481
व्यवहारनय भेद और उपचार से वस्तु का प्रतिपादन करता है। जबकि निश्चयनय अभेद और अनुपचाररूप से वस्तु का निर्णय करता है।482
एक वस्तु में निहित विभिन्न धर्मों में कथंचित् भेद का उपचार करना व्यवहारनय का विषय है और इससे विपरीत निश्चयनय का विषय है। निश्चयनय अभेद का कथन करता है।483 एक द्रव्य के परिणमन को अन्य द्रव्य में समारोपण करना उपचार है। जैसे- संग्राम भूमि में शूरवीर योद्धा युद्ध करते हैं। परन्तु लोक व्यवहार में यही कहा जाता है कि राजा युद्ध करता है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कर्मरूप में परिणमन पुद्गल द्रव्य में ही होता है। परन्तु उसके कर्तृत्व
480 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक- अभयशेखरसूरि, पृ. 245 481 आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनयः – ......... समयसार, गा. 272 पर आत्मख्याति टीका 482 अ) अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चियत इति निश्चयः ........... आलापपद्धति, सूत्र 204
ब) भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः ............. वही. सूत्र 205 483 जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवस्थुस्स .................. नयचक्र, गा. 264
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