SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयसिद्धान्त का ऐतिहासिक विकास क्रम - नय वक्ता के अभिप्राय को सम्यग् प्रकार से समझने का एक उपक्रम है। क्योंकि जो कथन जिस दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है, उसकी सत्यता उसी दृष्टिकोण तक रहती है। सामान्यतया कोई भी दर्शन दृष्टि निरपेक्ष नहीं है। सभी दर्शनों ने तथ्यात्मक कथन अपेक्षाओं के आधार पर ही किया है। इसलिए यह कहा जाता है कि वक्ता के अभिप्राय को सम्यग् प्रकार से समझने के लिए जो दृष्टिकोण उस कथन के पीछे निहित है, उसे समझना नय है। भारतीय और पाश्चात्य सभी दर्शनों में कहीं न कहीं यह नयदृष्टि उपस्थित रही है। डॉ.चन्द्रधर शर्मा के शब्दों में- "व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोणों का } यह अन्तर सदैव ही रखा जाता रहा है। विश्व के सभी दार्शनिकों ने इसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है । हेराक्लिटस के Kato और Ane पारमेनीडीज के मत और सत्य, सुकरात के रूप और आकार (World and Form ), प्लेटो के संवेदना (Sense) और प्रत्यय (Idea), अरस्तु के पदार्थ और चालक ( Mover), स्पिनोजा के द्रव्य (Substance) और पर्याय (Modes), कॉट के प्रपंच ( Phenomenal) और तत्त्व (noumerial), हेगल के विपर्यय ( Illusion ) और निरपेक्ष (absolute) तथा ब्रेडले के आभास (Appearance) और सत् (Reality) किसी न किसी रूप में उसी व्यवहार और परमार्थ की धारणा को स्पष्ट करते हैं। भले ही इनमें नामों की भिन्नता हो, लेकिन उनके विचार इन्हीं दो दृष्टिकोणों की ओर संकेत करते हैं । 12 198 भारतीय दर्शनों में प्राचीन काल में मुख्यता दो दृष्टिकोण प्रमुख रहे जिन्हें परमार्थ और व्यवहार के रूप में जाना जाता है। जैनदर्शन में भी आगमरूप में हमें मुख्य रूप से निश्चय और व्यवहार इन दो दृष्टियों या नयों का उल्लेख मिलता है तथा साथ में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का भी उल्लेख मिलता है । इस प्रकार प्रारम्भ में निश्चय एवं व्यवहार या द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक नयों का ही उल्लेख 512 A Critical Survey of Indian Philosophy, Page. 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy