________________
137
10. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय :
परमभाव को ग्रहण करनेवाला नय परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। जैसे ज्ञानस्वरूप आत्मा।262
जीव के पांच भाव होते हैं - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणमिक हैं।263 औपशमिक आदि चार भाव कर्मजन्य या कर्मक्षयजन्य है। पारिणामिकभाव जीव का सहज-शुद्धभाव है। इस शुद्ध-सहज पारिणामिकभाव को अपना विषय बनानेवाला नय परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय है।
जो द्रव्य के अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभाव को छोड़कर परम स्वभाव को ही ग्रहण करता है, वह परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।284 द्रव्यानुयोगतर्कणा85 में भी परमभाव संग्राही को द्रव्यार्थिक नय का दसवां भेद बताया गया है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी ने परमभाव के ग्राहक को परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहा है। जैसे- ज्ञान स्वरूपी आत्मा। आत्मा में अनंतगुणधर्म हैं। जैसे- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य लेश्यादि ...... | परन्तु इन सभी गुणों में ज्ञान गुण उत्कृष्ट-सारभूत असाधारण गुण है। क्योंकि ज्ञान गुण ही जीव को अन्य द्रव्यों से पृथक् करता है।267 अक्षर का अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञानगुण तो अनावृत रहता ही है। इस प्रकार ज्ञानगुण आत्मा का परमभावगुण होने से आत्मा को ज्ञान स्वरूपी कहना इस नय का विषय है। यह नय द्रव्यों के परमभाव को ग्रहण करता है। ये द्रव्य, गुण और पर्याय के सम्बन्ध में द्रव्यार्थिक नय के दस भेद हुए हैं।
आलापपद्धति, सू. 56
262 परम-भावग्राहक-द्रव्यार्थिको .. 263 तत्त्वार्थ सूत्र, 2/1 264 गेण्हइ दव्वसहाव असुद्धसुद्धोवयारपरिचतं . 265 परमभाव संग्राही असुद्ध सुद्धोवयारपरिचतं 266 परमभावग्राहक कहिओ, दशमो भेद
.......
........
नयचक्र, गा. 198 द्रव्यानुयोग तर्कणा, श्लो. 5/19 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/19
वही, टब्बा।
267 दर्शन, चारित्र, वीर्य ............
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org