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अभव्यस्वभाव की आवश्यकता पर बल देते हुए यशोविजयजी कहते हैं1115इस स्वभाव के अभाव में विवक्षित द्रव्य का अन्य द्रव्य के संयोग से द्रव्यान्तर हो जायेगा। जैसे जीव का अनादिकाल से शरीर और कर्मरूप में परिणत पुद्गलों के साथ रहने से उसका पुद्गल के रूप में द्रव्यान्तर हो जायेगा। परन्तु ऐसा नहीं होता है। अभव्यस्वभाव के कारण एक क्षेत्र में अवगाहित रहने पर भी द्रव्यों का द्रव्यान्तर नहीं होता है। जैसे धर्म, अधर्म एक ही आकाशक्षेत्र में व्याप्त रहने पर भी धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के रूप में और अधर्मद्रव्य धर्मद्रव्य के रूप में त्रिकाल में नहीं बदलते हैं। इसी प्रकार अभव्यस्वभाव के कारण से धर्मद्रव्य में स्थिति सहायकता, अधर्मद्रव्य में गति सहायकता, आकाश में अवगाहन सहायकता आदि कार्यसंकरन नहीं होता है। इस कारण से प्रत्येक द्रव्य भव्य स्वभाव भी है और अभव्यस्वभाव भी है।
11. परमस्वभाव -
प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाला स्वतः सिद्ध पारिणामिकस्वभाव परमभाव है।116 वस्तु के अनंतधर्मों में से जिस धर्म को प्रधानधर्म के रूप में लिया जाता है, वही उसका परमभावस्वभाव है।117 वस्तु के अनंतधर्मात्मक होने पर भी उन सभी धर्मों के द्वारा वस्तु नहीं समझी जा सकती है। परन्तु अनन्त धर्मों में से जो प्रसिद्ध धर्म है, उन्हीं के द्वारा वस्तु सरलता से समझी जाती है और वह प्रसिद्धधर्म ही वस्तु का लक्षण बन जाता है। यही प्रसिद्ध लक्षण या मूलस्वभाव या परमस्वभाव है। द्रव्य का लक्षण रूप जो पारिणामिक भाव है, वह उसके अनंतधर्मों में से प्रधान धर्म होने से परमस्वभाव कहलाता है। जैसे कि आत्मा के अनंतगुणधर्मों से युक्त होने पर भी ज्ञानरूप प्रधान
1115 अनइं अभव्यस्वभाव न मानिइं तो द्रव्यनइं संयोगई द्रव्यान्तरपणु थयुं जोइइं ..........
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/11 का
टब्बा
1116 पारिणामिक स्वभावत्वेन परमस्वभावः
आलापपद्धति, सू. 116
1117 परमभाव पारिणामिकभाव, प्रधानताइ लिजइ जी ...........
.. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 11/12
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