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इत्यादि को समझाना उद्देश्य नहीं है। 36 जैसे जीव और अजीव पदार्थात्मक है, जबकि पुण्य, पाप आदि स्वरूपात्मक है। दो मूल तत्त्व जीव और अजीव द्रव्य है तो शेष सात तत्त्व उनकी शुभाशुभ पर्यायें हैं। अतः केवल जीव और अजीव जानने योग्य ज्ञेय तत्त्व हैं। बंध जीव को संसार में परिभ्रमण कराने के कारण हेय है। मोक्ष मुख्य साध्य होने से उपादेय है। आश्रव तत्त्व बंध का हेतु होने से वह भी हेय है। मोक्ष उपादेय है तो उसकी प्राप्ति में असाधारण कारण संवर और निर्जरा भी उपादेय है। पुण्य और पाप बंध तत्त्व के ही भेद हैं। शुभफल की प्राप्ति पुण्य से एवं अशुभ फल की प्राप्ति पाप से होती है।537
इस प्रकार हेय, ज्ञेय, उपादेय का विवेक करने के प्रयोजन से नौ तत्त्वों का भिन्न-भिन्न प्रतिपादन किया गया है। परन्तु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय के भिन्न उपदेश में ऐसा कोई भिन्न प्रयोजन नहीं है। नयविभाग में इतरव्यावृति ही साध्य है। दूसरे शब्दों में नय विभाजन में मूल उद्देश्य एक नय दूसरे नय से किस प्रकार भिन्न है ? नयों के विषयों में क्या भेद है ? यही बताना होता है। अतः भिन्न-भिन्न विषयग्राही होने से ही भिन्न-भिन्न नयों का उपदेश दिया जाता है। भिन्न विषय के बिना ही नयों में भेद का प्रवेश करना युक्तिसंगत नहीं है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का विषय सप्त नयों के विषयों से भिन्न नहीं होने के कारण नौ नयों का प्रतिपादन उत्सूत्र भाषण है।538
द्रव्यार्थिक नय के दस भेद अपूर्ण हैं -
नयचक्र में दिगम्बराचार्य देवसेन ने एक-एक उदाहरण को दृष्टि समक्ष रखकर द्रव्यार्थिक नय के 10 और पर्यायार्थिक नय के 6 जो नियत संख्या में भेद किये हैं, वे भेद भी अपूर्ण और अधूरे हैं। क्योंकि ये भेद अन्य अनेक भेदों का
536 तेहनई कहिइं जे-तिहां
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/17 5937 जीव अजीए ए दो मुख्य पदार्थ ...
वही, 8/17 538 ते माटि “सतमूलनयो पन्नता" एहवू सूत्रई ............. वही, 8/17
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