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1. शुद्ध निश्चयनय :
आलापपद्धति91 में उपाधिरहित गुण और गुणी में अभेद को विषय करनेवाले नय को शुद्ध निश्चयनय कहा है। यशोविजयजी ने भी आत्मद्रव्य और उसके निरूपाधिक शुद्ध गुणों के मध्य अभेद दर्शाने वाले नय को शुद्ध निश्चयनय कहा है। जैसे- जीव केवलज्ञानादिरूप है।192 जीव केवलज्ञानात्मक है, केवल दर्शनात्मक है, अनंत वीर्यात्मक है, आदि कथन शुद्ध निश्चयनय का विषय है। केवलज्ञानादि जीव के निरूपाधिक अर्थात् कर्मरूप उपाधि से सहित सहज शुद्ध गुण है। अतः इन शुद्ध गुणों से आत्मा का अभेद सम्बन्ध को मुख्य रूप से अपने दृष्टिकोण में लेनेवाला नय शुद्धनिश्चयनय है।
2. अशुद्ध निश्चयनय :
आलापपद्धति:93 के अनुसार सोपाधिक गुण और गुणी में भेद को विषय करने वाले नय को अशुद्ध निश्चयनय कहा है।
आत्मद्रव्य और उसके क्षयोपशमिक भावजन्य अशुद्ध गुणों के बीच अभेद बताने वाले नय को ही यशोविजयजी ने अशुद्ध निश्चयनय कहा है। जैसे-जीव मतिज्ञानादि रूप है।194 जीव मतिज्ञानरूप है, श्रुतज्ञानरूप है, चक्षुदर्शनरूप है इत्यादि कथन अशुद्ध निश्चयनय का विषय हैं। क्योंकि मतिज्ञान आदि आत्मगुण कर्मोपाधि सहित होने से अशुद्ध गुण है और इन अशुद्ध गुण और जीवद्रव्य के मध्य अभेद का प्रतिपादन करने से प्रस्तुत नय अशुद्ध निश्चयनय है।
इस प्रकार गुणों की शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर निश्चयनय के दो भेद किये गये हैं।
491 तत्र निरूपाधिक गुण गुण्यभेद विषयकः 492 जीव केवलादिक यथा रे, शुद्ध विषय निरूपाधि ...... 493 सोपाधिक गुण गुण्य भेद ................ 494 मइनाणादिक आत्मा रे, अशुद्ध सोपाधि रे
आलापपद्धति, सूत्र 216 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/2 आलापपद्धति, सू. 217 वही, गा. 8/2
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