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________________ 340 पर्याय के रूप में परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तित होते हुए नित्य रहता है। सत्ता अपने अनादि स्वभाव से न तो उत्पन्न होती है और नहीं व्यय होती है, किन्तु उसकी अवस्थाओं का उत्पाद–व्यय होता रहता है। जहाँ ब्रह्मवादी सत् के उत्पाद-व्यय पक्ष या पर्याय को अवास्तविक मानते हैं और ध्रौव्यपक्ष या द्रव्य को वास्तविक मानते है, वहाँ जैनदर्शन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही सत के रूप में व्याख्यायित करता है। क्योंकि सर्वथानित्य या पर्याय निरपेक्ष द्रव्य में अर्थक्रिया संभव नहीं हो सकती है और जो अर्थक्रिया से रहित है उसकी सत्ता ही नहीं है।945 ___ एकान्त नित्य मानने पर वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगी। उसमें कुछ भी परिवर्तन संभव नहीं होगा। मिट्टी सदा मिट्टी ही रहेगी। उससे कभी भी घट नहीं बन सकता है। बालक सदा बालक ही रहेगा, वह युवा न हो पायेगा। युवा युवा ही रहेगा, वह कभी वृद्ध नहीं हो पायेगा। वृद्ध सदा वृद्ध ही बना रहेगा, वह मर न पावेगा। जो जैसा है, वह वैसा ही रहेगा। ऐसी स्थिति में जगत को मिथ्या या असत् ही मानना पड़ेगा। क्योंकि हमारे अनुभूति में आने वाला जगत तो परिवर्तनशील है। जगत की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा परिवर्तन से रहित हो।946 इसी प्रकार सर्वथा नित्य आत्मा दान, पूजा, हिंसा आदि शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकती है।947 सर्वथा नित्य आत्मा तो वही हो सकती है जिसके स्वभाव में भी परिवर्तन नहीं होता है। पुनः आत्मा नित्य या अपरिवर्तनशील है या तो वह सदा संसारी रूप में रहेगी या मोक्षावस्था में ही रहेगी। न उसका बंधन हो सकता है और नहीं मुक्ति हो सकती है।948 ऐसी स्थिति में बंधन और मुक्ति की व्याख्या, धर्मसाधना आदि सब कुछ अर्थहीन हो जायेंगे। 945 नयचक्र, गा. 45 946 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 9 947 नयचक्र, गा. 46 948 योगबिन्दु, श्लो. 483 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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