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आम्रफल में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि एक ही समय में, एक साथ, सर्वप्रदेशों में व्याप्त रहने से परस्पर अभिन्न हैं परन्तु चाक्षुष प्रत्यक्ष, घ्राणज प्रत्यक्ष, रासनप्रत्यक्ष, स्पार्शन प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में भिन्न-भिन्न कार्य उत्पन्न करने से वर्णादि परस्पर भिन्न-भिन्न भी है। उसी प्रकार उत्पाद, आदि एकक्षेत्र और एक कालवर्ती होने अभिन्न तथा भिन्न-भिन्न कार्योत्पत्ति में शक्तिस्वरूप होनेसेभिन्न-भिन्न भी है।
इसलिए उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परस्पर भिन्नाभिन्न होने से, इन तीनों में से किसी एक के व्यवहार करने के प्रसंग में 'स्याद- शब्द का उपयोग करना चाहिए। 'स्यादुत्पद्यते' कहने पर व्यय और ध्रौव्य का निषेध नहीं होता है।
कार्यभेद से कारण भेद -
घटव्यय शोकजनक है, मुकुट उत्पाद प्रमोदजनक है और तदुभयभिन्न सुवर्ण माध्यस्थभावजनक है। शोक, प्रमोद और माध्यस्थभाव के रूप में तीन प्रकार के कार्य होने से कार्योत्पादक शक्तिरूप कारण भी तीन प्रकार के होने चाहिए। शोकादि तीन कार्यों को उत्पन्न करने वाले उत्पाद आदि कारण भी तीन होते हैं। इसलिए सुवर्णद्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य के रूप में त्रयात्मक है।
द्रव्य भिन्न-भिन्न कार्यों को उत्पन्न करनेवाला एक ही शक्ति के रूप में अविकारी नहीं हो सकता है। द्रव्य को अविकारी और एकशक्ति स्वभाव वाला मानने पर कार्योत्पादक शक्ति रूप भिन्न-भिन्न कारणों के अभाव में शोक आदि भिन्न-भिन्न कार्यों की भी संभावना नहीं रहेगी।163 कारणभेदों के अभाव में कार्यभेद का भी अभाव हो जाता है। एक ही कारण भिन्न-भिन्न कार्यों को करता है, ऐसा मानने पर विश्व-व्यवस्था में संगति नहीं बैठ सकती है, क्योंकि किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जायेगा। मिट्टी से घट-पट आदि सभी कार्य तथा तन्तु से
663 बहु कारय कारण एक जो कहिइं ते द्रव्यस्वभाव ।
तो कारणभेदाभावथी हई कारयभेदाभाव।। .....
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/5
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