Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र सप्तम भाग शतक २५-४१ (সচা ) श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 0 (01462) 251216, 257699, 250328 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ४६ वा रत्न गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) सप्तम भाग (शतक १५ से ४१ तक सम्पूर्ण) -सम्पादकपं. श्री घेवरचन्दजी बांठिया “वीरपुत्र" (स्वर्गीय पंडित श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 - (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 02626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 0 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० । स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक)22252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 323233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 85461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 0236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 20 25357775 | १३. श्री संतोषकुमार बोथरावर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 सम्पूर्ण सेट मूल्य : ३००-०० चतुर्थ आवृत्ति वीर संवत् २५३२ १००० विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 0 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्ति पर प्रस्तावना भगवती सूत्र का यह सातवाँ-अंतिम--भाग, निग्रंथ-प्रवचन-प्रिय भव्यात्माओं के समक्ष उपस्थित करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। प्रथम भाग विक्रम संवत् २०२१ में प्रकाशित हुआ था और यह अन्तिम भाग अब प्रकाशित हो रहा है । इसके पूर्ण होने में आठ वर्ष लग गये। इस संस्करण में मूलपाठ का अनुवाद है। विवेचन अधिकांश टीका के अनुसार हैं। कहीं-कहीं कुछ विशेष विचार भी हुआ है। पाठकों की सुगमता के लिये कठिन शब्दार्थ ही दिये गये हैं। वे भी अंतिम दो भागों में तो बहुत ही कम दिये गये हैं। यह संस्करण एक सामान्य प्रकार का है। मैं चाहता था कि स्थान-स्थान पर विशेष टिप्पण दिये जायें और प्रत्येक भाग की भूमिका, मुख्य विषयों का हार्द स्पष्ट करते हुए लिखी जाय । प्रथम भाग की प्रस्तावना में तो मैने कुछ लिखा भी था, किंतु बाद में नहीं लिख सका। इस बार भी अवकाश कहाँ है, फिर भी कुछ खास बातों पर लिख रहा हूँ। जीव भोगी और अजीव भोग्य एकान्तवादी कहते हैं कि जीव भोगी नहीं, जीव, अजीव को ग्रहण नहीं कर सकता भोग नहीं कर सकता। उनका ऐसा कथन असत्य है। भगवती सूत्र श. २५ उ. २ पृ. ३२०८ में स्पष्ट विधान है कि--'अजीव-द्रव्य, जीव-द्रव्य के परिभोग में आता है।' जीव-द्रव्य ही अजीव को शरीर इन्द्रियों एवं आहार आदि रूप से ग्रहण करता और परि. भोग में लाता है । श. ७ उ. ७ भा. ३ पृ. ११७० में भी काम और भोग जीव के ही होना बतलाया है। एकान्तवादी मत, जीव की विभिन्न स्थितियां नहीं मानता। इतना ही नहीं, वह जीव की प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली और अनुभव में आने वाली दशा का लोप कर के एक अंश को ही पकड़े हुए है, जब कि जिनागमों में जीव की सभी स्थितियों का वर्णन है। भगवती सूत्र श. १ उ. १ में दो प्रकार के जीव बतलाये हैं--संसार-समापनक और असंसार-समापनक (भा. १ पृ.८४) असंसार-समापनक जीव सिद्ध भगवंत हैं । इनके For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) न तो शरीर है, न इन्द्रियाँ, न कर्म, न भोग और न परिभ्रमण । ये सादि-अपर्यवसित एक ही स्थिति में स्थिर, अचल, अडोल, अकम्प और अवस्थित रहते हैं। जो संसार-समापनक-संसार में परिभ्रमण करने वाले-जीव हैं, वे ही विविध भावों एवं परिणामों में परिवर्तित होते रहते हैं । इनके शरीर हैं, इन्द्रियाँ हैं, कर्म हैं और भोग है । अजीव से सम्बन्ध, वेदना, निर्जरादि इन्हीं के हैं और पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, संयमतप आदि भी संसारी जीवों के ही है । इसीसे तो कहा है कि-"जीवों के आधार से अजीव हैं और जीव, कर्म-प्रतिष्ठित = कर्मों के आधार पर हैं, अजीव को जीव ने संग्रहित किया है और जीव को कर्मों ने संग्रहित किया है" ( श. १ उ. ६ भा. १ पृ. २७६ ) । संसारी जीवों का अजीव से सम्बन्ध होने के कारण ही उनमें कम्पन होता है (श. ३ उ. ३ भा. २ पृ. ६५६)। एकान्तवादी मत जो जीव का स्वरूप बतलाता है. वह 'असंसार-समापन्नक' जीवों का है । वे अजीव के सम्बन्धादि से रहित हैं। सिद्ध भगवंतों में मात्र उपयोग-ज्ञान-दर्शनोपयोग ही है । इसी को लक्ष्य कर एकान्तवादी कहा करते हैं कि-'आत्मा तो मात्र ज्ञातादृष्टा ही है, कर्ता-भोक्तादि नहीं। वह ज्ञान ही कर सकता है, कर्म नहीं ?' यह इनका एकान्तवाद है । परन्तु वे इस स्थिति पर भी स्थिर नहीं रहते ।. जब उनके सामने संसारसमापनक जीवों की स्थिति आती है, तो इसका कारण वे अज्ञान भाव--मिथ्या उपयोग बतलाते हैं । यहीं उनकी गाड़ी अटक जाती है । यदि वे अज्ञान को भी बात्मा का गुण मानते हैं, तो उनके सामने प्रश्न खड़ा होता है कि-- जब अज्ञान को भी आत्मा का गुण मानते हो, तो गुण को भी परिवर्तित मानना होगा, अन्यथा जो अज्ञानी है, वह सदैव अज्ञानी ही रहेगा। वह कभी ज्ञानी हो ही नहीं सकेगा । क्योंकि ज्ञान गुण तो जीव द्रव्य का ही है । द्रव्य में ही गुण है और गुणे में पर्याय हैं (उत्तरा. २८--६)। - यदि द्रव्य के गुण में परिवर्तन मानो, तो कर्म-परिणाम भी मानना ही पड़ेगा, जिसके उदय से अज्ञानी बना और क्षयोपशम से ज्ञानी हुआ । यदि कहा जाय कि ज्ञानअज्ञान तो पर्याय है, गुण नहीं, तो प्रश्न होगा कि पर्याय आई कहाँ से ? गुणों में से ही पर्याय उत्पन्न हुई । गुण से पर्याय सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती। ' द्रव्य में गुण दो प्रकार के होते हैं, एक द्रव्य-सापेक्ष और दूसरे संयोगजन्य । द्रव्यसापेक्ष गुण, द्रव्य में सदा विद्यमान रहते हैं । ज्ञानादि गुण द्रव्य-सापेक्ष है । संयोगजन्य गुण अन्य द्रव्य के संयोग से होते हैं और संयोग सम्बन्ध रहने तक रहते हैं । ये संयोगजन्य गुण For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) पुद्गल में परस्पर भी होते हैं तथा जीव और पुद्गल में भी । दोनों द्रव्य सक्रिय हैं। परमाणु से द्वयणुकादि स्कन्ध बनना पुद्गल का परस्पर संयोग है और जीव के साथ शरीर, इन्द्रियादि रूप से जडना, जीव-द्रव्य और पुदगल-द्रव्य का संयोग सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को भगवती सूत्र श. ८ उ.६ में 'प्रयोग बन्ध' कहा है और उसके भेद-प्रभेद बतलाये हैं (मा. ३ पृ. १४७५) इसी से जीव को 'पुद्गली' भी कहा है (श. ८ उ. १० पृ. १५६६)। आत्मा में ही पाप, धर्म, बुद्धि, मति, उत्थानादि, गति, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, मत्यादि ज्ञान-अज्ञान, औदारिकादि शरीर, योग और उपयोगादि सब आत्मा में ही होते हैं, आत्मा के अतिरिक्त अन्य अजीव-द्रव्य में नहीं होते (श. २० उ. ३ भा. ६ पृ. २८४१ तथा श. १८ उ. ४ पृ. २६९२) । जीव अपनी आत्म-ऋद्धि, आत्म-कर्म एवं आत्म-प्रयोग से ही परभव में उत्पन्न होता है, पराई ऋद्धि से नहीं (श. २५ उ. ८ पृ. ३५४२) । _जब तक जीव का पुद्गल के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह कामी-भोगी भी है ही। जीव स्वयं प्रेरक है, प्रयोग करने वाला है, गाहक है--संग्राहक है। यह प्रत्यक्ष में भी दिखाई दे रहा है । अजीव का भोग-परिमोग करते हुए भी अपने आपको सिद्ध के समान अशरीरी, अकर्मक, अभोगी आदि मानना असत्य है। रुचक प्रदेश श. २५ उ. ४ पृ. ३३३३ में अस्तिकाय के आठ मध्य (रुचक) प्रदेशों का उल्लेख है । इनमें जीवास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेशों का भी उल्लेख है । इनके विषय में एक मत-भेद चल रहा है। कहा जाता है कि--'ये रुचक प्रदेश कर्म-बन्धनों से सर्वथा रहित निर्मल एवं स्वच्छ है ।' किन्तु यह बात आगम-विधान से प्रमाणित नहीं होती । इसी भगवती सूत्र के श. १ उ. ३ (भा. १ पृ. १६३) में कांक्षामोहनीय कर्म-बन्ध के स्वरूप निरूपण में प्रश्न है कि-- (१) 'कांक्षा-मोहनीय कर्म-दलिक--१ देश से देशकृत है २ देश से सर्वकृत है ३ सर्व से देशकृत है या ४ सर्व से सर्वकृत है ?' भगवान् का उत्तर है कि "गौतम ! न तो देश से देशकृत है, न देश से सर्वकृत है और न सर्व से देशकृत For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) है, किन्तु सर्व से सर्वकृत है।" तात्पर्य यह कि समस्त कर्म-दलिक, समस्त आत्म-प्रदेशों से ग्रहण किये जाते (बंधते) हैं। ऐसा नहीं होता कि कर्मों का कुछ अंश, आत्मा के कुछ अंशों--प्रदेशों से किया (बांधा.) जाता है और शेष कर्म आत्मा के शेष प्रदेशों से नहीं किये जाते, या आत्मा के कुछ प्रदेशों से ही समस्त कर्म किये जाते हैं, या समस्त आत्म-प्रदेशों से कुछ ही कर्म बांधे जाते हैं। नहीं, ऐसा नहीं होता। सभी कर्म, सभी आत्म-प्रदेशों से बाँधे जाते हैं । भगवान् का यह उत्तर स्पष्ट बता रहा है कि कर्म के समस्त स्कन्ध, आत्मा के समस्त प्रदेशों से कृत एवं बद्ध होते हैं । इनमें से एक भी प्रदेश वंचित नहीं रहता। यदि कहा जाय कि-भगवती सूत्र श.८ उ.९ के प्रयोग बन्ध (भा. ३ पृ.१४७५) में जीव के आठ मध्य-प्रदेशों का प्रयोग-बन्ध अनादि-अपर्यवसित बताया है । इससे लगता है कि ये आठ आत्म-प्रदेश सदैव यथावत् ही रहते हैं । इनमें कोई परिवर्तन नहीं भाता। शेष प्रदेश इधर-उधर आ-जा सकते हैं, तो यह कथन भी समीचीन नहीं है। यह अनादि अपर्यवसित बन्ध, आठ मध्य-प्रदेशों का पारस्परिक है। वहाँ स्पष्ट लिखा है कि--"तत्थ वि णे तिण्हं तिण्हं अणाईए अपज्जवसिए सेसाणं साईए।" अर्थात् इनमें से तीन-तीन प्रदेशों का बन्ध अनादि-अपर्यवसित है, शेष का सादि-सपर्यवसित । अनादि-अपर्यवसित बन्ध सदाकाल वैसा ही रहता है--किसी भी अवस्था में, चाहे संसारी जीव हो या सिद्ध परमात्मा हो । शेष आत्म-प्रदेश आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होते रहते हैं। आठ रुचक प्रदेश केन्द्र स्थानीय है। इन आठ प्रदेशों में चार ऊपर है. और चार नीचे । इनमें का प्रत्येक प्रदेश अन्य तीनतीन प्रदेशों से बद्ध है। इनका सम्बन्ध ध्रुव है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि इन आठ प्रदेशों पर कर्मों का बन्ध नहीं होता और ये पूर्णरूप से निर्मल रहते हैं। "सम्वेणं सव्वे कडे"--यह आप्त-वाक्य सभी आत्म-प्रदेशों को बद्ध बतला रहा है। (२) उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३ गा. १८ में भी स्पष्ट लिखा है कि "सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छहिसागयं । सम्वेसु वि पएसे सु सव्वं सम्वेण बद्धगं ॥" सभी जीवों के कर्म, छहों दिशाओं से संग्रहित हैं और जीव के समस्त प्रदेश सभी प्रकार के कर्मों से बंधे हुए हैं। (३) विशेष स्पष्टता के लिए भगवती सूत्र श. ८ उ. १० का निम्न विधान अवलोकनीय है । श्री गौतम स्वामी ने पूछा-"भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक आत्म For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग पलिच्छेद से आवेष्टित परिवेष्टित "एगमेगेणं मंते ! णेरइयस्त्र एगमेगे जीवपए से णाणाव रणिन्न.......भगवान् फरमाते हैं " गोयमा ! णीयमं अनंते हि " -- नियम से निश्चय ही अनन्त अविभागपलिच्छेद से आवेष्टित-परिवेष्टित हैं । -- भगवान् का यह उत्तर इतना स्पष्ट है कि इससे विपरीत किसी की कोई बात टिक ही नहीं सकती । ने (४) भगवती के इस अंतिम भाग श. २५ उ. ४ पृ. ३३३४ में गणधर महाराज पूछा -- " भगवान् ! जीवास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश आकाश के कितने प्रदेशों का अवगाहन करते हैं ?" भगवान् फरमाते हैं - " जघन्य एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और आठ प्रदेशों का अवगाहन करते हैं, परन्तु सात प्रदेशों का अवगाहन नहीं करते ।" यह विधान स्पष्ट बता रहा है कि जिन आठ मध्य प्रदेशों को निर्बंन्ध बताया जा रहा है, वे निर्बन्ध नहीं है । उनमें संकोच - विस्तार भी होता है। कभी वे एक ही आकाश प्रदेश पर टिक जाते हैं और कभी दो से लगा कर छः और आठ पर भी रह जाते हैं । यह संकोच - विस्तार ही उन्हें कर्मबद्ध बता रहा है। निगोद के सूक्ष्म शरीर में होने पर वे सुकड़ कर एक भाकाश-प्रदेश पर भी रह जाते हैं और बादर शरीर अथवा केवली -समुद्घात के समय यावत् आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं । संकोच - विस्तार कर्मबद्ध अवस्था में ही होता है, मुक्त अवस्था में नहीं । यह भी तर्क दिया जाता है कि - 'जीव के ज्ञान का अक्षर का अनन्तव भाग खुला रहता है, वह अनन्त भाग इन आठ प्रदेशों का ही है ।' परन्तु यह तर्क भी उचित नहीं लगता । अक्षर का अनन्त भाग जो सदैव खुला रहता है, वह समस्त आत्म-प्रदेशों का खुला रहता है, केवल आठ प्रदेशों का ही नहीं । नन्दी सूत्रकार ने इस विधान के आगे बादलों से छुपे हुए चन्द्र-सूर्य की प्रभा का जो उदाहरण दिया है ( श्रुतज्ञानाधिकार सू. ३६) वह समस्त आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा है । चन्द्र-सूर्य पर बादलों का काला आवरण छा जाने पर भी जो प्रभा निकलती है, वह समस्त चन्द्र-सूर्य से निकलती है, किसी एक अंश या मध्य के अंश से नहीं। इसी प्रकार अक्षर का अनन्तवाँ भाग जो खुला है, वह भी समस्त प्रदेशों का । इसीसे हमें शरीर के किसी भी प्रदेश पर कोई स्पर्श होता है, तो वहां के आत्म- प्रदेश से हमें ज्ञात हो जाता है। यदि अक्षर का अनन्तवां अनावरित भाग वहां नहीं होता, तो हमें मालूम For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) ही नहीं हो सकता, पाँवों में लगे काँटे आदि का कष्ट नहीं हो सकता । अतएव आत्मा के आठ मध्य-प्रदेशों को अनावरित बताना उचित नहीं है। निग्रंथ-दर्शन निग्रंथों का विषय श. २५ उ. ६ में है। निग्रंथों में कषाय-कुशील का चारित्र निर्दोष होता है । उनके चारित्र में किसी प्रकार का दोष नहीं होता (पृ. ३३६७) निग्रंथ और स्नातक भगवंतों का चारित्र भी सर्वथा निर्दोष होता है । दोष लगता है-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील निग्रंथों के चारित्र में। इनके स्वरूप के विषय में कुछ भ्रम जैसा चल रहा है। पुलाकपन तो संयमी जीवन में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता ( पृ. ३४२६ ) । जब तक रहता है, तब तक ही दोष लगता है । इसके बाद या तो वे शुद्ध हो कर कषायकुशील रूप उच्च श्रेणी में प्रविष्ट हो जाते हैं, या असंयमी बन जाते हैं (पृ. ३४१३) इनके विषय में व्याख्याकारों का मत है कि पुलाक-निग्रंथ उस समय पुलाक-लब्धि को सक्रिय करते हैं, जब कि कोई प्रचण्ड धर्म-द्वेषी, जिनधर्म एवं संघ पर क्रूर बन कर भयंकर क्षति पहुँचाने को तत्पर हो और किसी प्रकार समझना एवं शान्त होना नहीं चाहता हो, तब उस उपद्रव से संघ की रक्षा करने के लिए वे इस शक्ति का उपयोग कर के उस क्रूर की शक्ति नष्ट करते हैं । पुलाक-लब्धि में इतनी शक्ति होती है कि वह शक्तिशाली महात्मा अपनी क्रुद्ध दृष्टि से लाखों मनुष्यों की सेना का भी निरोध कर सकते हैं । उनकी शक्ति के आगे शस्त्रबल व्यर्थ हो जाता है। . पुलाक-लब्धि, निर्दोष साधना करने वाले कषाय-कुशील संयतों में से ही किसी विशिष्ट साधक को अनायास प्राप्त होती है (पृ. ३४१६) बकुश या प्रतिसेवना-कुशील को नहीं होती (पृ. ३४१५) । तात्पर्य यह कि निर्दोष चारित्र के सद्भाव में ही किसी को पुलाक-लब्धि उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थिति में अन्य कोई मार्ग नहीं देख कर वे लब्धि का प्रयोग करते हैं, तब भी उनमें तीन शुभ लेश्या में से कोई लेश्या रहती है, अशुभ लेश्या नहीं रहती (पृ. ३४०२) और आहारादि संज्ञा के उपयोग युक्त भी नहीं होते (पृ. ३४१८) किन्तु उस समय उनका चारित्र हीनकोटि का हो जाता है (पृ. ३३९०)। उनका चारित्र दूषित होता है, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील से भी हीन (पृ. ३३६५) । यदि वे सावधान हो कर अपने दोष की शुद्धि कर लें, तो पुनः कषाय-कुशील निग्रंथ हो कर निर्दोष For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) चारित्री हो सकते हैं । यदि उस पुलाक भाव से नहीं लौटे और आत्मा में कलुषितता बनी रहे, तो असंयम में आ गिरें। उनके लिये दो ही स्थान रहते हैं--विगद्ध संयम या असंयम । संयमी रहेंगे, तो कषाय-कुशील-निर्दोष संयमी, अन्यथा अमयमो । बकुश नहीं, प्रतिसेवना-कुशील नहीं और संयमासंयमी भी नहीं। बकुश-निग्रंथ का चारित्र भी दूषित रहता है । वे प्राणातिपातादि मूल गणों में तो दोष नहीं लगाते, किंतु उनके उत्तरगुणों में से किसी में दोष लगता है (पृ. ३३६६) । बकुश का अर्थ है--चारित्र रूपी स्वच्छ चद्दर में दोष रूपी धब्बे लगाने वाला। प्रतिसेवना-कुशील मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाने वाला। पुलाक निग्रंथ तो इस समय नहीं होते और न निग्रंथ और स्नातक ही होते हैं । इस काल में बकुश, कषय-कुशील और प्रतिसेवना-कुशील ही होते हैं । कषाय-कुशील निग्रंथ का चारित्र तो निर्दोष ही होता है । वे मूलगुणों और उत्तर गुणों में किञ्चित् भी दोष नहीं लगाते । संज्वलन कषाय के उदय के कारण उन्हें 'कुशील' कहा गया है । यदि इनमें से कषाय-भाव निकल जाय, तो तत्काल यथाख्यात-चारित्री वीतराग एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाय । वे महात्मा कषाय को नष्ट करने में प्रयत्नशील रहते हैं। बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के विषय में कुछ विशेष स्पष्ट करना प्रसंग एवं समयानुकूल लगता है। इस विषय में वर्तमान में कई प्रकार के विचार-भेद उत्पन्न हुए हैं। .. कुछ विचारक सोचते हैं कि बकुश-निग्रंथ शिथिलाचारी होते हैं । वे उत्तर गणों में दोष लगाते रहते हैं और प्रतिसेवना-कुशील के तो मूलगुणों में भी क्षति होती है और उत्तर गुणों में भी। इन दोनों का संयम निर्दोष नहीं होता। ये जीवनभर सुखशीलिये रहते हैं, फिर भी इनमें संयम होता है। आगमों में इन्हें 'निग्रंय' माना है और ये छठेसातवें गुणस्थान में रहते हैं। अतएव शिथिल आचार वाले साधुओं को भी निग्रंथ ही मानना चाहिए। उपरोक्त विचार ठीक नहीं लगता। शिथिलाचारी बना ही रहने वाला व्यक्ति निग्रंथों की गणना में नहीं आ सकता। भगवती सूत्र में जिन्हें 'बकुश' और 'प्रतिसेवना. कुशील' कहा गया, वह अपेक्षा विशेष से है। जिस निग्रंथ को किसी समय बकुश या प्रतिसेवनापन की प्राप्ति हुई और दोष का सेवन हुआ, वह कुछ देर बाद सम्भल कर पुनः कषायकुशीलपन में आ गया और साधना यथावत् करने लगा। किंतु उसने जो दोष सेवन किया, For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10) उस दोष की शुद्धि नहीं की और आगे बढ़ गया । ज्ञानादि के उत्तरगुण में बकुश ने या मूलोत्तरगुण में प्रतिसेवी ने जो दोष लगाये, उनकी शुद्धि नहीं कर के यों ही छोड़ कर साधना करता रहा । जैसे किसी साधु ने पात्र को सुशोभित बनाया । बनाते समय उनकी भावना दूषित हुई और बनाने के बाद भी उनकी सुन्दरता से तुष्टि की भावना कुछ काल रही, लेकिन बाद में वह भावना हट गई और संयम में रमण करने लगे। इस प्रकार की स्थिति में ही निग्रंथता सुरक्षित रह सकती है, अन्यथा नहीं। उन्हें बकुश इसलिये कहा कि उनमें उस अवस्था का दोष विद्यमान है । वे शुद्धि कर के निर्दोष नहीं हुए। __ पाँव में कांटा लगा हो, उसकी हलकी-सी टीस हो, किन्तु उसकी उपेक्षा कर के चलते रहे । कांटा नहीं निकाला और यात्रा आगे बढ़ती रही। यही स्थिति बकुश और कुशील की है । यदि कांटा लगे, वहीं पथिक बैठ जाय और आगे नहीं बढ़े, तो उसका न तो आगे बढ़ना होता है और न वह 'पथिक' ही रहता है, फिर तो उसका स्थायी निवास वहाँ हो जाता है । इसी प्रकार यदि बकुश और कुशील, उस दूषित अवस्था के भावों में ही रमे रहें, तो वे 'निग्रंथ' नहीं रह कर 'सग्रंथ' हो जाते हैं । उनकी स्थिति संयतासंयती अथवा असंयती की हो जाती है। भगवती सूत्र बतलाता है कि बकुश और प्रतिसेवना कुशील की स्थिति वैसी नहीं है । वे दूषित भावों से ऊपर उठ कर साधना करते हैं और उनमें से कई आराधक भी होते हैं (पृ. ३३८३) उनमें से कोई विरोधक हो, तो भी वे कम-से-कम प्रथम स्वर्ग में तो जाते ही हैं, अन्यथा बकुश और प्रति-सेवना कुशील उत्कृष्ट बारहवें स्वर्ग-अच्युत कल्प तक जा सकते हैं (पृ. ३३८२) यहां तक पहुंचने वाला बकुश और प्रतिसेवना कुशील को शिथिलाचारी एवं जीवन भर दोष सेवन करने वाला कैसे माना जा सकता है ? जो संयम की विराधना करने वाला है, वह तो जघन्य भवनपति में और उत्कृष्ट सौधर्म स्वर्ग में जाता है (भ. श. १ उ. २ भा. १ पृ. १५३) ऐसी स्थिति में इन्हें विराधना करने वाला कैसे माना जाय? बकुश और प्रतिसेवना कुशील छठे और सातवें गुणस्थान में होते हैं । जो साधु अप्रमत्त होता है, उसे शिथिलाचार में ही रत कैसे माना जाय ? , बकुश और प्रतिसेवना कुशील केवल स्थविर-कल्प में ही नहीं होते, जिनकल्प में भी होते हैं (पृ. ३३६२) जिनकल्पी को शिथिलाचारी मानना तो किसी भी प्रकार उचित नहीं हो सकता। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) - - इस प्रकार की स्थिति में जिनका जीवन शिथिलाचार या दुराचार पूर्ण बन गया है और जो उस दूषित जीवन में ही संतुष्ट रहते हैं, उत्सूत्रभाषी एवं स्वच्छन्द बन चुके हैं, वे तो निग्रंथ के किसी भी भेद में नहीं आते, नहीं आ सकते । उन्हे पासत्यादि पांच प्रकार के कुशीलियों में से किसी में गिनना चाहिए । शंका-भगवती सूत्र कुशीलियों को भी 'निग्रंथ' मानता है, तब आप क्यों नहीं मानते ? समाधान-कषाय-कुशील निग्रंथ और पासत्यादि कुशील में महान् अन्तर है । निग्रंथ तो केवल कषायोदय के कारण कुशील कहलाये, किन्तु ये तो चारित्र-हीन होते हैं । एक ही शब्द का अपेक्षा भेद से अर्थ भेद हो जाता है । भगवती सूत्र का कषाय-कुशील शुद्धाचारी महात्मा है । दीक्षित होने के समय से केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त होने के कुछ समय पूर्व तक (वर्षों तक) तीर्थंकर भगवंत भी कषाय-कुशील निग्रंथ रहते हैं । कषाय-कुशील के गुणस्थान ६ से १० पर्यंत पाँच गुणस्थान हैं । उन महात्माओं का चारित्राचार तो शुद्ध है, किन्तु दबते या नष्ट होते हुए कषाय के उदय के कारण पूर्ण विशुद्ध-यथाख्यात नहीं हो सके । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना से अच्छे, उत्तम एवं प्रशंसनीय होते हुए भी यथाख्यात से हीन कोटि के हैं। कषाय के कारण ही वे 'कुशील' माने गये हैं, आचरण या · पालन की अपेक्षा नहीं । परन्तु पासत्यादि कुशीलिये तो दुराचारी हैं (उत्तरा. १७-२०) और प्रतिसेवना-कुशील निग्रंथ से भी अत्यंत हीन हैं। इन निग्रंथों की, उन पापश्रमण • कुशीलियों से बराबरी नहीं हो सकती। ये भगवती सूत्र श. १ उ. २ के विराधक की कोटि के हैं । यदि उनकी देवगति हो भी तो जघन्य भवनपति की हो। उपरोक्त कारणों से स्पष्ट है कि बकुश और प्रतिसेवना कुशील निग्रंथों का संयमीजीवन शिथिलाचार वाला नहीं होता । किसी समय लगे हुए दोष की शुद्धि नहीं कर के आगे बढ़ने के कारण वे बकुश और कुशील कहलाते हैं। .. x ... निग्रंथ का गुणस्थान ग्यारहवां और बारहवां होता है । ग्यारहवें गुणस्थानी महात्मा 'उपशांत-मोह वीतराग' होते हैं और बारहवें गुणस्थानी 'क्षीण-मोह वीतराग ।' क्षीण-मोह वीतराग तो स्नातक बन कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु उपशांत-मोह वीतराग, अपने गुणस्थान की स्थिति पूरी हाने पर गिरते हैं और पुनः कषाय-कुशील हो जाते हैं । यदि यहां भी नहीं सम्भले, तो संयमासंयमी या असंयमी तक हो सकते हैं । यदि उपशांत-मोह गुणस्थान में ही मृत्यु हो जाय, तो सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देव हो जाते हैं । एक समय For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) - के उपशांत-मोह वीतराग भगवान् यदि मिथ्यात्व में चले जायें और उत्कृष्ट काल तक संसार परिभ्रमण करे, तो अर्ध पुद्गल-परावर्तन तक जन्म-मरण करने के बाद मुक्त होते हैं (पृ. ३४२७)। निग्रंथ और संयत में लेश्या निग्रंथ और संयत में लेश्या कितनी होती है ? इस विषय में प्रथम भाग की प्रस्तावना में कुछ विचार किया गया है । विशेष में; भगवती सूत्र श. ८ उ. २ पृ. १३४७ में ९६ वा प्रश्न है-"कृष्ण-लेश्या वाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी ?" उत्तर है-"यथा सइन्द्रिय ।" सइन्द्रिय सूत्र है-पृ. १३३२ का ८६ वौं । उसमें सइन्द्रिय में चार ज्ञान और तीन अज्ञान--भजना से बताये हैं । जब मन:पर्यव ज्ञान में भी कृष्णलेश्या हो सकती है, तो निग्रंथ संयत में भी छह लेश्या माननी चाहिये। मनःपर्यवज्ञानी तो साधु ही है, क्योंकि मनःपर्यवज्ञान साधु को ही होता है, गृहस्थ को नहीं। (२) कषाय-कुशील निग्रंथ में भी छह लेश्या होने का स्पष्ट उल्लेख पृ. ३४०३ में हुआ है, यहाँ तक कि--" कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए।" (३) सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत अधिकार पृ. ३४६६ के ४९ वें प्रश्न के उत्तर में भी उपरोक्त कषाय-कुशील निग्रंथ के समान छह लेश्या होना बतलाया है। ___ यद्यपि साधुओं के प्रमत्त-संयत गुणस्थान में छहों लेश्याओं का सद्भाव माना है, तथापि मुख्यता तीन शुभ लेश्याओं की रहती है और सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति भी शुभ लेश्याओं में ही होती है। प्राप्ति के बाद कभी अशुभ निमित्त से अशुभ लेश्या उत्पन्न होने की संभावना भी संयमी अवस्था में रहती है। तथा संभावना यह भी है कि जिस आत्मा ने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु का बंध कर लिया, उसे कालान्तर में सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति भी प्राप्त हो सकती है। इतना होते हुए भी मृत्यु के समय उनमें अशुभ लेश्या आ ही जाती है और उसी अशुभ लेश्या में मृत्यु प्राप्त कर के वे नरक में उत्पन्न होते हैं। ऐसे साधुओं में कोई-कोई तो आहारक-लब्धि और मनःपर्यवज्ञानी भी होते हैं (भगवती श. २४ उ. १ भाग ६ पृ. ३०२६ प्रश्न ६२) । जब तीर्थकर नामकर्म के बन्धक जैसी उच्च आत्माओं में से भी कोई तीसरे नरक तक जा सकते हैं और उनमें श्रावक और साधु भी होते हैं, तथा नरक में जाते समय अशुभ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) लेश्या होती ही है, तब मानना चाहिए कि संयत अवस्था में कभी अशुभ लेश्या का आ जाना असंभव नहीं है। ऐसे प्रसंग किसी संयत के जीवन में आ भी सकते हैं कि किसी दुष्ट के द्वारा अत्यंत पीडित हो कर वे क्रुद्ध हो जायँ, इतने क्रुद्र कि उस दुष्ट को भस्म ही कर दें। जैसे कि तपस्वी संत श्री सुमगल अनगार ने गाशालक के जीव विमलवाहन को रथ, घोड़े और सारथि सहित तेजोलेश्या से भस्म करने का उल्लेख है (भ. श. १५ भा. ५ पृ. २४८६) अतएव श्रमण अवस्था में कमी अशश लेश्या का आ जाना असम्भव नहीं है। चतुर्थ कर्मग्रंथ के, मार्गणाओं के अल्प-बहुत्व अधिकार गा. ३७ में निरूपण है कियथाख्यात चारित्र, सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र और केवल ज्ञान-केवल दर्शन, इन चार मार्गणाओं में एक शुक्ल लेश्या है । शेष ४१ मार्गणाओं में छहों लेश्या है । वे ४१ मार्गणाएँ ये हैं; १ देवगति १ मनुष्यगति १ तिर्यंचगति १पंचेन्द्रिय जाति । त्रसकाय ३ योग ३ वेद ४ कषाय ४ ज्ञान ३ अज्ञान ३ चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि) १ देशविरति १ अविरति ३ दर्शन १ भव्यत्व १ अभव्यत्व ३ सम्यक्त्व (क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक) १ सास्वादन १ मिश्र १ मिथ्यात्व १ सज्ञित्व १ आहारकत्व और १ अनाहारकत्व । उपरोक्त ४१ मार्गणाओं में सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र भी है, जिसमें छहों लेश्या है । (परिहारविशुद्धि में भी छहों लेश्या बताई, यह आगम-विरुद्ध है । भगवती श. २५ उ. ७ पृ. ३४६६) । अप्रशस्त विनय शतक २५ उ. ७ पृ. ३५१७ में 'मन-विनय' प्रशस्त के साथ अप्रशस्त भी बताया है । इसी प्रकार वचन और काय-विनय भी । अप्रशस्त मन-वचन को 'विनय' नामक 'आभ्यंतर तप' में गिना । इसका तात्पर्य है- 'अप्रशस्त मन-वचन नहीं होने देना'--बचे रहना । कुछ लोग इसका अर्थ करते हैं कि अपवाद-मार्ग में पापकारी सावध भादि मनवचन धारण करना भी 'विनय' नामक तप है। किंतु ऐसा मानना सत्य नहीं है । इस सूत्र में तो केवल नाम ही बताये हैं, स्वीवार या अस्वीकार करने का उल्लेख नहीं है। किन्तु उववाई सूत्र २० में स्पष्ट रूप से अप्रशस्त मन-विनय के १२ भेद बतलाने के बाद मूलपाठ में ही लिखा है कि-"तहप्पगारं मणो णो धारेज्जा"--इस प्रकार के मन को धारण For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) नहीं करना । इस मूलपाठ से स्पष्ट हो गया कि भगवती के पाठ का भी यही अर्थ है । इसके अतिरिक्त व्यवहार सूत्र के भाष्य पीठिका गा. ७७ में भी लिखा है कि " माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासओ मुणीयव्यो । अकुसल मणोनिरोहो, कुसलमणउदीरणं चैव ॥" टीका--" मानसिकः पुनविनयः समायतः संक्षेपेण द्विविधो द्विप्रकारो मुणितव्यो ज्ञातव्यः, तदेव द्वैविध्यमुपदर्शयति, अकुशलस्य आर्त्तध्यानाद्युपगतस्थ मनसो निरोधः अकुशलमनोनिरोधः, कुशलस्य धर्मध्यानाद्युत्थितस्य मनस उदीरणं ।" इससे भी अप्रशस्त मन का निरोध अर्थ ही प्रमाणित होता है । यही बात अप्रशस्त वचन और काय-विनय के विषय में भी जाननी चाहिए । (२) भगवती सूत्र इस पाठ के समान स्थानांग सूत्र स्था. ७ में भी पाठ है और इनमें सात भेद ही किये हैं, किन्तु उववाह सूत्र में विशेष भेद हैं। यथा- १ सावद्यकारी २ सक्रिय ३ कर्कश ४ कटु ५ निष्ठुर ६ परुष (स्नेह रहित ) ७ आस्रवकारी ८ छेद कर ९ भेद कर १० परितापकारी ११ उपद्रवकारी और १२ भूतोप घातक । लोकोपचार विनय विनय का सातवी भेंद 'लोकोपचार विनय' है। यह लोकोपचार विनय भी विवाद का कारण बन गया है । लोकोपचार का क्षेत्र विशाल है। गृहस्थ भी लोकोपचार का पालन करते हैं । किन्तु आभ्यंतर तप के भेद में यहं भेद गृहस्थ-निरपेक्ष है। इसका सम्बन्ध संयतों के साथ है । इसके पूर्व के छह भेद तो प्रायः स्वतः से सम्बन्धित थे, परंतु यह सातवाँ भेद विशेषतः अन्य साधुओं से सम्बन्ध रखता है । इसलिए इसका नाम 'लोकोपचार विनय' दिया है । इसके अभ्यासवर्तक आदि भेद ही अपना सम्बन्ध बता रहे हैं। अतएव लोकोपचार विनय का सम्बन्ध साधुओं का गृहस्थों के साथ जोड़ना अनुचित है । साधुं द्वारा गृहस्थ की विनय तो प्रायश्चित्त का कारण है। एक सर्वविरत निर्दोष संयमी का असंयत अविरत गृहस्थ वर्ग के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता । जनता की इच्छानुसार श्रमण चले - "परछंदानुवत्तिय" यह कैसे हो सकता है ? 'व्यवहार सूत्र के भाष्य की गाथा ८५ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15) में स्पष्ट किया है कि-"लोगोवयार विणओ, इय एसो वणितो सपक्खम्मि।" ... टीका-" इति एव मुक्तेन प्रकारेण एष लोकोपचार विनयः स्वपक्षे सुविहित लक्षणे वणितः।" स्पष्ट हुआ कि लोकोपचार विनय, लौकिक मनुष्यों के साथ नहीं है। इस लोकोपचार-विनय का सातवां भेद है-'सर्वत्र अप्रतिलोमता।' इसका अर्थ भी यों किया जाने लगा है कि 'समस्त जनता के अनुकूल रहना,' 'लोगों की अनुकूलता के अनुसार प्रवृत्ति करना।' किंतु इस प्रकार का अर्थ भी असत्य है। व्यवहार सूत्र के भाष्य की पीठिका गाथा ८४ में · सर्वत्र अप्रतिलोमता' का अर्थ बताते हुए लिखा है कि- . . "समायारीपरूवणणिद्देसे चेव बहुविहे गुरुओ। एमेयत्ति तहत्तिय सम्वत्यणुलोमया एसा ॥८४ ॥" टीका--"गुरोः समाचारी प्ररूपणे किमक्तं भवति, इच्छामिच्छादिरूपायो तस्यां समाचार्या गुरुणा प्ररूप्यमाणायां एवमेतत् यथा भगवतो वदंति नान्यथेति प्रतिपत्तिस्तथा बहुविधे बहुप्रकारे निवेशे तत्कर्तव्यता ज्ञापनलक्षणे गुरोप्रेरणा क्रियमाणे या तथेति वचनतः कर्तव्यतया च प्रतिप्रति रेषा सर्वापि सर्वानुलोमता नाम विनय ।" .. ____ इच्छामिच्छाकारादि समाचारी सिद्धांतानुकूल प्ररूपणा गुरु आदि के निर्देशानुसार आज्ञा-पालक होना भगवदाज्ञा से अन्यथा वर्तन नहीं करना इत्यादि अनेक प्रकार से कर्तव्य का पालन करना, गुरु के अनुकूल वर्तना आदि सर्वानुलोमता = सर्वत्र अप्रतिलोमता है। . तात्पर्य यही कि 'लोकोपचार विनय' और उसका भेद 'सर्वत्र अप्रतिलोमता' का सम्बन्ध भी गुर्वादि साधुओं से सम्बन्धित है और इसीसे यह वैयावृत्य तप के समान आभ्यन्तर तप हो सकता है। जो गृहस्थ, साधु का सहचारी नहीं, सांभोगिक नहीं और आभ्यन्तर भी नहीं, बाह्य है । उसके विनय को आभ्यन्तर तप में माना ही कैसे जा सकता है ? धर्मध्यान के भेद-प्रभेद धर्म-साधना का सही स्वरूप जैन तत्त्वज्ञान में परिपूर्ण भरा है। किन्तु धार्मिकजनों में पूरी जानकारी नहीं हो, या अन्य भावना का असर हो, तो धर्म-भावना में भी विकृति For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) आ जाती है। समय का परिवर्तन और उदय भाव की विचित्रता से कई तत्वज्ञ माने जाने वाले भी अधर्म को धर्म मान कर भ्रम फैलाते हैं । तत्त्वज्ञ लोग समझते हैं कि धर्म है, वह पाप के निरोध ( आस्रव त्याग ) रूप संवर और आत्म-शुद्धि रूप निर्जरा के पालन में है । धर्म-साधना का सम्बन्ध इन्हीं दो तत्त्वों से है, जिससे मोक्ष तत्व की प्राप्ति होती है । भगवती सूत्र श. २५ उ. ७ पृ. ३५३० में धर्मध्यान और इसके लक्षण, अवलम्बन और अनुप्रेक्षा का विधान हुआ है। इस पर विचार करते स्पष्ट लगता है कि धर्म कितना उत्तम, पवित्र एवं विशुद्ध है, जिसकी साधना से आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ती ही जाती है। जो धर्मसाधना करना चाहता है और धर्म का चिन्तन करने का इच्छुक है, उसे आज्ञाविजय आदि चारों भदों, उसके लक्षण, अवलम्बन और अनुप्रेक्षा ( चिन्तन - भावना ) पर ध्यान देना चाहिए । यदि साधना में इनका पूरा उपयोग किया जाय, तो संवर और निर्जरा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यह साधना आत्म-लक्षी है। वर्तमान युग में आत्म-लक्ष गौण और पर-लक्ष मुख्य हो गया है और यह पर लक्ष भी द्रव्योपकारक है, भावोपकार ( भाव दया) नहीं । पर लक्ष प्रायः बन्ध प्रधान है, भले ही वह शुभ बन्ध हो । 'द्रव्य - परोपकार की भावना बन्ध- प्रधान-पुण्य - प्रधान है और आत्म-साधना के समस्त विधान एवं तत्त्व विशुद्धियुक्त मोक्ष-प्रधान है । धर्मध्यान के प्रकार, लक्षण, रुचि और अनुप्रेक्षा इन सब में आत्म-संरक्षण और आत्म-वृद्धि के विधान ही दिखाई देते हैं । कहाँ है'चरितेण निगिण्हाइ, तवेग परिसुज्झइ" (उत्तरा २८ - ३५) संवर और निर्जरा के सभी भेद-प्रभेद आत्म-साधना को ही प्रधानता देते हैं । इसके अतिरिक्त द्रव्यपरोपकार के जितने भी कार्य हैं, वे आत्म-धर्म की सीमा से परे हैं । 1 उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में धर्मध्यान के अवलम्बन और अनुप्रेक्षा के प्रश्न नं. १६ . से २३ तक का फल आत्म-शुद्धि ही बताया है । इनमें शुभबन्ध का उल्लेख ही नहीं है । इतना ही नहीं, इस २९ वें अध्ययन के साधना सम्बन्धी सभी प्रश्नों में से केवल चार प्रश्नों के उत्तर में ही निर्जरा के साथ शुभ बन्ध भी बतलाया है, शेष में बन्ध का विधान नहीं है । वे प्रश्न है, क्रमांक--४ गुरुसाधर्मी शुश्रूषा १० वीं वन्दना, २३ वीं धर्म-कथा और ४३ व वैयावृत्य सम्बन्धी है ! ו तात्पर्य यह कि धर्म की साधना तो आत्म-रक्षा और शुद्धि करते हुए मुक्ति प्राप्त करने की ही है । शेष सभी विचार, चिन्तन, प्रचार एवं प्रवृत्ति बन्ध- प्रधान है, भले ही 'उससे पुण्य बन्ध विशेष मात्रा में होता हो । For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) परोपकार में शुभ राग मुख्य रहता है। इसमें प्राणी-दया, पर दुःख-कातरतादि भाव होता है । विचार होता है कि ऐसे भावों का समावेश क्या धर्मध्यान के अन्तर्गत हो सकता है ? .. जब हम धर्मध्यान के स्वरूप और भेदों को देखते हैं, तो ऐसा नहीं लगता । तब इस प्रकार के भावों का समावेश किसमें हो ? विचार होता है कि इस प्रकार की भावना का समावेश 'शुभ आत्तं' में होना उपयुक्त है। आगम में जो आर्तध्यान का स्वरूप बतलाया है, वह अशुभ है और स्वार्थ-प्रधान है, साथ ही पाप-बन्धक है। किंतु परहितकारी विचारणा शुभ है और पुण्य प्रकृति की बन्धक है । भगवती सूत्र श. ७ उ. ६ में "पाणाणुकंपयाए" आदि का फल सातावेदनीय नामक पुण्य-प्रकृति का बन्ध माना है। शुभराग की प्रमुखता में पुण्य-बन्ध प्रमुख रहता है और विराग की मुख्यता में कर्म-निर्जरा को मुख्यता रहती है । धर्मध्यान में विराग की प्रबलता है, परोपकार की नहीं। यह अन्तर . ध्यान देने योग्य है। . यह मेरा अपना विचार है। आगम-मर्मज्ञ इस पर विचार कर के योग्य निर्णय करें, वहीं सत्य होगा। संयम से बन्ध नहीं होता सम्यक्त्व युक्त व्रत प्रत्याख्यान संयम एवं तप का फल पुण्य-बन्ध नहीं, संवरनिर्जरा ही है। प्रश्न-धर्म-साधना से कर्म-बन्ध होता ही नहीं; ऐसा कसे कहा जा सकता है ? जब कि श्रमण-निग्रंथों को धर्म की साधना करते हुए भी बन्ध होता है । सतत सात कर्मों 'का बन्ध होता रहता है ? .. उत्तर-बन्ध का कारण मुख्यतया कषाय है । श्रमण निग्रंथों के भी संज्वलन कषायी चौक का उदय होता है। जब तक कषाय रहता है, तब तक साधना करते हुए भी बन्ध होता रहता है । साधना करते हुए कषाय के सद्भाव में जो बन्ध होता है, उसमें पुण्य-बन्ध की प्रचुरता रहती है । ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है और गुणस्थान बढ़ते जाते हैं, त्योंत्यों बन्ध की प्रकृतियां कम होती जाती है। बन्ध का मुख्य कारण है कषाय और सहकारी कारण है योग । संवर-निर्जरा की साधना से कर्म-बन्ध नहीं होता । इसी सूत्र श. ४१ उ. १ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) पूः ३७९१ उत्तर ९ में बताया है कि "जीव आत्म-यश (संयम) से उत्पन्न नहीं होते, आत्म-अयश (असंयम) से उत्पन्न होते हैं।" इसका तात्पर्य यही है कि संयम, बन्धोदय का कारण नहीं है । इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र श. २ उ. ५ भा. १ पृ. ४८० में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविर भगवंतों के उत्तर का उल्लेख है । श्रमणोपासकों ने पूछा;- "भगवन् ! संयम और तप का क्या फल है ?" "आर्यो ! संयम का फल अनात्रव और तप का फल व्यवदान (कर्मों का उन्मूलन) है ?" स्थविर मगवंतों के इस उत्तर पर से श्रमणोपासकों ने पुनः पूछा "भगवन् ! यदि संयम का फल अनास्रव और तप का फल व्यवदान है, तो देवलोक में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? अर्थात् संयमी एवं तपस्वी संत, देवलोक में क्यों उत्पन्न होते हैं ?" स्थविर कालिकयुत्र ने उत्तर दिया--"पूर्वतप (सराग तप) के कारण देवलोक में उत्पन्न होते हैं ?" मेधिल स्थविर ने कहा--"पूर्वसंयम (सराग संयंम) से देवलोक में उत्पत्ति होती है।" आनन्दरक्षित स्थविर ने कहा--"कर्मोदय से वेव में उत्पत्ति होती है ? काश्यप स्थविर ने कहा-ससंगता (द्रव्यादि से रागात्मक सम्बन्ध) के कारण देवलोक में उत्पन्न होते हैं।" ... . स्थविर भगवंतों के उत्तरों का समर्थन भ. महावीर ने भी किया और कहा'मैं भी कहता हूँ कि पूर्व तप, पूर्व संयम, समिता और संगीपन के कारण देवलोक में उत्पत्ति होती है ।" (पृ. ४९०)। ... इसके अतिरिक्त श. ७ उ. ७ मा. ३ पृ. ११७६ में लिखा है कि.... "मोगी जीव, मोगों का त्याग करता हुआ, महानिर्जरा और महापर्यवसान (कर्मों के महान् अन्त) को प्राप्त होता है।" • . प्रश्न--भगवती सूत्र श. ७ उ. ६ में स्पष्ट लिखा है कि-जीव प्राणातिपातादि पापकर्म करने से कर्कश-वेदनीय (दुःखद) कर्म बांधते हैं और प्राणातिपातादि अठारह पाप For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (19) का त्याग करने से अकर्कश-वेदनीय (जो दुःखद नहीं - सुखद हो) कर्म बाँधता है (भाग ३ पृ. ११५३) इससे सिद्ध हो रहा है कि विरति = संयम से पुण्य-बन्ध होता है । उत्तर-यह विधान अपेक्षापूर्वक हुआ है । ऐसा हा विधान श. ५ उ. ६ भा. २ पृ. ८३९ तथा ८४३ तथा श. ७ उ. १० पृ.१२ २४ में भी हुआ है । प्रश्नकार ने कर्म-बन्ध की मुख्यता से प्रश्न पूछा है। प्रश्न है --दुःखदायक कर्म किस आचरण से बन्धता है और सुख-दायक कर्म बांधने का क्या उपाय है ? इसके उत्तर में उपरोक्त विधान है, सो यह भी पूर्व-तप पूर्व-संयमवत् ठोक ही है। क्योंकि सराग-दशा में राग के कारण कर्म-बन्ध होता रहता है। पुण्य-प्रकृति तो प्रथम गुणस्थान में भी बन्धती है और चतुर्यादि गुणस्थानों में भी। फिर विरति एवं संयम और तप का महत्त्व ही क्या रहा ? इसी सूत्र के आगे पृ. ११५६ में साता-वेदनीय कर्म-बन्धने का कारण--"पाणाणकंपयाए भयाणकंपयाए............ आदि भी बतलाया है । प्राणानुकम्पा तो प्रथम गुणस्थान में भी हो सकती है और आगे, अविरत के भी और विरत के भी। फिर विरति का महत्त्व ही क्या ? प्राणानुकम्पा में प्रशस्त राग और पर-दृष्टि मुख्य रहती है और विरति में विराग-निर्वेद मुख्य रहता है। इसीसे वीतरागता की ओर गति होती है। : ...... भगवती सूत्र के उपरोक्त विधान 'बन्ध-सापेक्ष' हैं । प्रश्न भी बन्ध की अपेक्षा से ही पूछा गया है। जब तक कषायोदय रहता है, तब तक बन्ध (साम्परायिकी-क्रिया जन्य बन्ध) होता रहता है । निर्दोष-संयमी के भी बन्ध होता है । संयम निर्दोष हो, तो संवरनिर्जरा विशेष होती है, परन्तु कषायोदय के कारण बन्ध तो होता रहता है । इसीलिए निर्दोष संयमी को 'कषाय कुशील' कहा है (श. २५. उ. ६ पृ. ३३६७) और इनके ६, ७ या ८ कर्मों का बन्ध होता है (पृ. ३४०९) । प्रश्न--कषाय ही नहीं, योग से भी बन्ध होता है । आप कषाय से ही बन्ध कैसे बताते हैं ? उत्तर--हाँ, बन्ध कषाय और योग--दोनों से होता है, किन्तु मुख्यता कषाय की है। योग तो कर्मवर्गणा को आकर्षित कर के आत्म-प्रदेशों से जोड़ते हैं और प्रकृति बन्ध तक रह जाते हैं । किंतु उनमें रस और स्थिति तो कषाय के अनुसार ही वन्धती है । अतएव योग महत्त्वपूर्ण नहीं है । अकषायी भगवान् के कषायोदय नहीं होता, केवल योग ही होता है--ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक। उनके केवल स्पर्श मात्र--दो समय की स्थिति वाला ही बन्ध होता है । अतएव योग महत्त्वपूर्ण नहीं है । योग का काम राजा या उच्चा For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (20) धिकारी के सेवक जैसा है, जो आज्ञा पा कर किसी को ला कर योग्य स्थान पर बिठा देता है । आज्ञा देने वाला अधिकारी है--स्वामी है और बुला कर लाने वाला सेवक है । तात्पर्य यह कि योग, कषाय का सेवक है और महत्त्वहीन है। प्रश्न--क्रोधादि कषायें तो पाप रूप है। अठारह पाप में इनका स्थान महत्वपूर्ण है । इनसे पाप-प्रकृति का ही बन्ध हो सकता है, पुण्य का नहीं । पुण्य-प्रकृति का बन्ध धर्म.. साधना से ही हो सकता है अतएव कषाय से पुण्य-प्रकृति का बन्ध बताना कैसे उचित हो सकता है ? उत्तर--यदि आत्मा पाप परिणति (क्रोधादि भावना) युक्त है तो उसमें पापप्रकृति का बन्ध मुख्य होता है और परापकारादि पुण्य-भाव अथवा संवर-निर्जरादि धर्म परिणति युक्त है, तो तदनुसार उच्च पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है । किन्तु सत्ता में रहा हुआ और संयम-साधना के समय अव्यक्त उदय में रहा हुआ कषाय विवशता युक्त है। इसमें संयम की मुख्यता है, इसलिये बन्ध भी शुभ अधिक होता है । कषाय पाप-प्रकृति में ही गिनी गई है, इसका कारण यह कि एक तो इनमें पाप की प्रधानता रही हुई है--बहुत अधिक । अनन्तानन्त प्राणी इसके प्रभाव से भव-भ्रमण कर के दुःख-परम्परा के चक्कर में पड़े हुए हैं, तथा अनन्तानन्त जीवों को पाप, प्रिय लगा हुआ है । दूसरी बात यह कि पाप-पुण्य भी बन्ध के बेटे हैं । मोक्षार्थियों के लिए तो बन्धमात्र हेय है । बन्ध का मूल है--राग और द्वेष । कहा है कि-- ___ "रागो य दोसो विय कम्मबीयं" (उत्तरा. ३२-७)। राग और द्वेष में क्रोधादि चारों कषायें रही हुई है । राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध और मान । कर्म-बन्ध इन्हीं से होता है। ... उग्र-तीव्र कषाय पाप-बन्ध करवाती है और मन्द कषाय में पुण्य-बन्ध की प्रमुखता रहती है। जिस प्रकार तीव्र विष भी, शोधित हो कर मारकपन छोड़ कर रोग-शामक हो जाता है । तीव्रतम एवं अशोभनीय काला रंग, अन्य प्रयोग से हलका होता हुआ शोभनीय एवं आकर्षक बन जाता है, उसी प्रकार पाप-प्रकृति भी पुण्य-परिणति अथवा धर्मभावना के योग से पापीपन छोड़ कर पुण्यमय बन जाती है । इसीलिये देव-गुरु-धर्म के प्रति होने वाले राग को 'शुभ राग' कहा है। योग की क्रिया पच्चीस प्रकार की है। इनमें से २४ साम्परायिकी है और एक ईर्याथिको । ईपिथिकी तो मात्र योग से ही सम्बन्धित रहती है, परन्तु साम्परायिकी For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (21) क्रियाएँ कषाय से अनुप्राणित है। इन सब में योग-प्रवृत्ति रहते हुए भी इन्हें "सामरायिक" नाम दिया है । बन्ध के ये दो ही भेद किये हैं-ऐ-पथिक और साम्परायिक (श. ८ उ. ८ भा. ३ पृ. १४३५) आठों कर्म इस साम्परायिक बन्ध के अंतर्गत हैं । प्रथम गुणस्थान से लगा कर नौवें गुणस्थान पर्यंत साम्परायिक कर्म-बन्ध होता है और दसवें गुणस्थान तक उदय रहता है । यह सिद्धांत है कि क्रोध-मान-माया और लोभ के उदय में साम्परायिक क्रिया ही लगती है (श. ७ उ. १ भा. ३ पृ. १०९३) । इन गुणस्थानों में जो भी बन्ध होता है, वह कषाय से अनुप्राणित रहता ही है । इसीसे तो संयम के साथ भी कषाय-राग का उल्लेख आगम में हुआ है । यथा-"संयम दो प्रकार का-१ सराग संयम और २ वीतराग संयम। सराग-संयम भी दो प्रकार का--१ सूक्ष्म सम्पराय सराग-संयम और बावर-सम्पराय सराग-संयम" (ठाणांग ठा. २-१) जो रागोदय युक्त संयम है, वह सूक्ष्म-सम्पराय संयम या बादर-सम्पराय संयम है । इस प्रकार संयम के साथ सरागता रहेने से बन्ध होता है। कषाय के सद्भाव में चारित्रात्माओं के भी पुण्य-प्रकृति बन्धती है और ज्यों-ज्यों चारित्र की विशुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पुण्य-बंध भी रुकता जाता है । जैसे पुण्य-प्रकृतियां ४२ हैं, +इनमें से सप्तम गुणस्थानी मनुष्य के-मनुष्यत्रिक, तप, उद्योत तथा औदारिक द्विक और प्रथम संहनन नहीं बंधता, आयु-बन्ध भी प्रारंभ नहीं होता। आहारक-द्विक बन्धती है, वह भी अपूर्वकरण गुणस्थान में रुक जाती है, साथ ही, देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शुभ विहायोगति आदि अनेक पुण्य-प्रकृतियां रुक जाती है । इतना ही नहीं, तीर्थकर मामकर्म की उत्तमोत्तम पुण्य-प्रकृति का बन्ध भी रुक जाता है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि न्यों-ज्यों कषाय कम होती जाती है, त्यों-त्यों पुण्य-प्रकृतियों का बन्ध भी रुक जाता है और कपायोदयं रुका कि तज्जन्य सभी पुण्य-प्रकृतियां रुक जाती है। फिर वह चारित्र भी वीतराग चारित्र हो जाता है, जिसमें ऐयंपिथिकी का दो समय + नोकषाय-मोहनीय में स्त्री-वेद और नपुंसक-वेद भी है। मोहनीय की सभी प्रकृतियाँ पाप जन्य ही मानी है, किंतु इनमें भी तरतमता है । नपुंसक-वेद का बन्ध प्रथम गुणस्थान तक ही होता है और स्त्रीवेद का बन्ध दूसरे गुणस्थान तक । किंतु पुरुषवेद का बन्ध नौवें गुणस्थान के प्रथम विभाग तक होता है। मिथ्यात्व-मोहनीय का बन्ध और उदय प्रथम गुणस्थान तक है, किंतु सम्यक्त्व-मोहनीय का सातवें गुणस्थान तक । यद्यपि ये पाप-प्रकृतियां हैं, परन्तु अपेक्षा से इन्हें पुण्य-प्रकृति भी किन्हीं आचार्य ने मानी है-ऐसा मैंने किसी स्थल पर पढ़ा है। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122) का सातावेदनीय का बन्ध होता है। औदारिकादि पांचों शरीर का बन्ध पुण्य-प्रकृति है । इनमें से औदारिक और वैक्रिय शरीर बन्ध तो अविरत के भी होता है किन्तु आहारक-शरीर का बन्ध तो अप्रमत्त-संयती के ही होता है और इस बन्ध का कारण भगवती सूत्र श. ८ उ. ९ में लिखा है-"सवीयता, सद्रव्यता, कर्मोदय, योग, भाव, आयुष्य यावत् लब्धि से और आहारक शरीर प्रयोग नाम-कर्म के उदय से बन्ध होता है (भा. ३ पृ. १५१३) । सातावेदनीय कर्म, प्राणियों पर अनुकम्पा करने आदि से बन्धता है (पृ. १५२१ तथा श. ७ उ. ६ पृ. ११५६) देवायु का बन्ध सराग-संयम, संयमासंयम, बाल तप और अकाम निर्जरा से होता है । (पृ. १५२३)। .... प्रज्ञापना सूत्र पद २४ उ. २ में स्पष्ट विधान है कि सातावेदनीय कर्म यदि ऐर्यापथिक हो, तो दो समय की स्थिति का और साम्परायिक हो, तो जघन्य १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम का बन्धता है। यह साम्परायिक कर्म पुण्य-प्रकृति रूप है और 'सूक्ष्म-संपराय' नामक दसवें गुणस्थान में बन्धता है। इन आगम प्रमाणों से सिद्ध है कि सरागता और सकर्मकतादि कारणों से पुण्यप्रकृति का बन्ध होता है, संयम, व्रत, त्याग-तपादि से नहीं । संयम-तप तो कर्म-क्षय कर आत्म-शुद्धि के ही कारण है । कहा है कि-. ... ... . । "खवित्ता पुन्यकम्माइं संजमेण तवेण य” (उत्तरा. २८ दशवं. ३) .... और सूत्रकृतांग श्रु. १ अ.८ गा. १४ से संयम तप को 'अकर्मक वीर्य' कहा है। -जिससे कर्म का बन्ध नहीं हो। संवर तत्त्व कर्म-बन्ध रोकता है और निर्जरा कर्म काटती है । इन्हें बन्धनकारक नहीं माना जा सकता। : जन्म नपुंसक की मुक्ति आगमों में नपुंसक मनुष्य के सिद्ध होने का उल्लेख है । इसकी व्याख्या में टीकाकार कृत्रिम नपुंसक होना लिखते हैं। यही धारणा विशेष रूप से प्रचलित है । किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं लगता । यह बात भगवती सूत्र के मूलपाठ से सिद्ध है। भगवती सूत्र का २६ वां शतक 'बन्धी शतक' कहलाता है। इसमें जीव के कर्मबन्ध के विषय में भूत, वर्तमान और भविष्यकाल की अपेक्षा विचार हुआ है । यह विचारणा निम्नलिखित चार भंगों से हुई है For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (23) १ जीव ने पहले पाप-कर्म बाँधा था, अभी बाँधता है और आगे भी बाँधेगा। २ बांधा था, अभी भी बांधता है, परंतु भविष्य में नहीं बाँधगा। ... ३ बाँधा था, नहीं बाँधता है, किन्तु आगे बांधगा। . ४ बाँधा था, अभी नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बाँधगा । उपरोक्त चार भंगों से जीव आदि ४७ भेदों से विचार किया गया है। ये भेद इस प्रकार हैं-- समुच्चय जीव, सलेशी कृष्णादि छह लेश्या और अलेशी, इस प्रकार लेश्या के कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष, दृष्टि, ज्ञानी और पान ज्ञान, अज्ञानी और तीन अज्ञान, आहागदि संज्ञोपयुक्त और नोसंज्ञोपयुक्त, सवेदक तीन वेद और अवेदक, सकषायी चार कषाय और अकषाय, सयोगी तीन योग और अयोग, साकार और अनाकार उपयोग। . इन ४७ भेदों पर प्रथम उद्देशक में विचार हुआ है । दूसरे उद्देशक में 'अनन्तरोपपन्नक' (तत्काल के--एक सूक्ष्म समय के अन्तर बिना ही उत्पन्न होने वाले) जीवों के विषय में निर्णय हुआ है । पृ. ३५७३ में प्रश्नोत्तर चौथा इस प्रकार है;-- प्रश्न- हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सलेशी नरयिक ने पाप-कर्म बांधा था ? .. ' उत्तर--हे गौतम ! पूर्ववत् तीसरा भंग जानो। इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त सर्वत्र तीसरा ही भंग है। मनुष्य से लगा कर वैमानिक तक भी इसी प्रकार है । मनुष्यों के विषय में सभी स्थानों पर तीसरा-चौथा भंग होता है । कृष्णपक्षी के लिए तीसरा भंग ही है । भिन्नता सभी स्थानों में पूर्ववत् है। ... उपरोक्त निर्णय में मनुष्य के लिए सर्वत्र तीसरा और चौथा, ये दो भंग ही बतलाये हैं। तीसरा भंग है-अनन्तरोपपन्नक मनुष्य ने आयु-कर्म का बन्ध किया था, अभी नहीं करता, किंतु आगे बन्ध करेगा। - चौथा भंग है--आयु का बन्ध पहले तो किया था, किन्तु अभी नहीं करता और भविष्य में भी नहीं करेगा। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (24) ये दोनों भंग अनन्तरोपपन्नक मनुष्य पर घटित होते है । अनन्तरोपपन्नक कोई भी जीव वर्तमान में आयु-बन्ध करता ही नहीं। तीसरे भंग वाला भविष्य में आयु का बंध करेगा, परन्तु चौथे भंग वाला नहीं करेगा। यह चौथे भंग वाला मनुष्य आयु का बन्ध नहीं करेगा, तो मर कर कहाँ उत्पन्न होगा ? स्पष्ट है कि वह मर कर मुक्ति ही प्राप्त करेगा। जिसके आगामी भव का आयुष्य नहीं बंधा, वह मर कर सिद्ध भगवान् ही हो सकता है, यह निश्चित् तथ्य है । मनुष्य में यह अनन्तरोपपन्नक भंग कृष्णपक्षी छोड़ कर मनुष्य में पाये जाने वाले पैंतीस भेदों में तीसरा और चौथा भंग ही पाया जाता है। समुच्चय मनुष्य में पूर्वोक्त ४७ बोल पाये जाते हैं । इनमें से अनन्त रोपपन्नक मनुष्य में एक तो कृष्ण-पाक्षिक और अनन्तरोपपन्नक में न घटित होने वाले अलेशी आदि ११ बोल छोड़ कर शेष ३५ में तीसरा और चौथा भंग घटित होता है । इनमें नपुंसकवेदी अनन्तरोपपन्नक मनुष्य भी सम्मिलित है। प्रथम उद्देशक में दिये मूल पाठ को इस दूसरे उद्देशक में संकुचित करते हुए मात्र इतना ही लिखा है कि-- ___ "मणुस्साणं सव्वत्थ तइय-च उत्था ' भंगा, णवरं कण्हपक्खिएसु तइमओ मंगो, सम्वेसि णाणताई ताई चेव ।" . अर्थात्-मनुष्य में सर्वत्र तीसरा और चौथा भंग है, किंतु कृष्णपाक्षिक में तीसरा भंग है और भिन्नता तो सभी में पूर्ववत् है। - उपरोक्त मूलपाठ में स्पष्ट बताया है कि ऊपर बताये ४७ भेदों में से कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर शेष सभी में, भिन्नतापूर्वक तीसरा और चौथा-ये दो भंग पाया जाता है। इन ४७ भेदों में ३३ वा भेद नपुंसक्वेद का है । इसमें भी तीसरा और चौथा-ये दो भेद हैं । चौथा भेद है "अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य ने भूतकाल में आयुष्य का बन्ध किया था, किंतु वर्तमान में नहीं कर रहा है और भविष्य में भी नहीं करेगा।" इसका मूलपाठ इस प्रकार हो सकता है- "णपुंसएणं भंते ! अणंतरोववण्णए मणुस्से आउयं कम्मं किं बंधी-- पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगहए बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ । अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ।" भगवती का यह विधान-तत्काल उत्पन्न हुए नपुंसकवेदी मनुष्य में चौथा भंग भी स्वीकार करता है और तत्काल उत्पन्न नपुंसक-वेदी मनुष्य तो नपुंसक-वेद के साथ, ही For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) उत्पन्न होता है । वह कृत्रिम हो ही नहीं सकता । अतएव सिद्ध है कि जन्म नपुंसक भी सिद्ध हो सकता है यह भगवती सूत्र का अभिप्राय है । शंका -- स्थानांग सूत्र ३ - ४ तथा बृहत्कल्प सूत्र के चौथे उद्देशक में नपुंसक को दीक्षा देने का निषेध किया है। जब नपुंसक दीक्षित ही नहीं हो सकता, तो मुक्ति कैसे प्राप्त कर सकता है ? समाधान -- उपरोक्त निषेध अनतिशय ज्ञानियों के लिये है, किन्तु जो अतिशय ज्ञानी है, वे प्रव्रजित कर सकते हैं। जैसे कि भिक्षु प्रतिमा लगभग ३० वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले और पूर्वधर आदि विशेषता वाले साधु ही स्वीकार कर सकते हैं । किन्तु भगवान् अरिष्टनेमिजी ने श्री गजसुकुमाल मुनि को दीक्षित होते ही भिक्षु की महाप्रतिमा की आराधना करने की अनुमति दे दी । इसी प्रकार नपुंसक वेदी को अतिशयज्ञानी दीक्षा दे सकते हैं और मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। इसमें किसी प्रकार को बाधा नहीं है । टीकाकार ने नपुंसक लिंग के विधान का अर्थ 'कृत्रिम नपुंसक' किया, यह भगवती सूत्र के इस विधान से बाधित होता है । अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी तो जन्म नपुंसक ही होता है, कृत्रिम नहीं और आगमों के मूलपाठों में तो कहीं कृत्रिम अकृत्रिम का उल्लेख ही नहीं है, 4 कृत्रिम नपुंसक ही मानने पर यह आगम-विधान खण्डित होता है, जो नहीं होना चाहिये ! वेद का उदय भी विचित्र प्रकार का होता है। कई तीव्रतर वेदोदय वाले होते हैं, तो कई मन्दत । वैमानिक देवों में प्रथम द्वितीय स्वर्ग की अपेक्षा तृतीय- चतुर्थ स्वर्ग में कम उदय । यों ऊपर-ऊपर के देवलोकों में क्रमशः कम होते-होते अनुत्तर विमानों में तो अत्यंत मंद होता है । यही बात मनुष्यों में भी है। कई पुरुष और स्त्रियाँ तीव्र वेदोदय वाले भी होते हैं और मन्द उदय वाले भी । प्रथम गुणस्थान स्थित गृहस्थ भी कोई मंद उदय वाले मिल सकते हैं और कई चतुर्थ गुणस्थानी भी तीव्र वेदोदयी होते हैं। जिनका वेदोदय मंद हो, वे क्रमशः देशविरत, सर्वाविरत एवं अप्रमत्तादि होते हुए कोई अवेदी भी हो सकते हैं । यह स्थिति तीनों वेदों में होती है । फिर पुरुष और स्त्री वेदी को तो अवेदी होना मानना और नपुंसक वेदी को नहीं मानना यह कैसे उचित हो सकता है ? और ऐसा मानना तो अनुचित ही होगा कि नपुंसकवेदी मन्दोदयी एवं अनुदयी हो ही नहीं सकता । शंका- निग्रंथों के प्रकरण में पुलाक निग्रंथ को 'पुरुष नपुंसकवेदी' बताया । इसका अर्थ ही यह है कि वह कृत्रिम नपुंसक है, अन्यथा केवल 'नपुंसकवेंदी' ही लिखा होता ? For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) समाधान---नपुंसकवेदी दो प्रकार के होते हैं-१ स्त्री-नपुंसक और २ पुरुषनपुंसक । 'पंच संग्रह' ग्रन्थ के प्रथम द्वार गाथा २४ और इसकी टीका से भी स्पष्ट है कि असन्नी पंचेंद्रिय (जो वेद की दृष्टि से केवल नपुंसकवेदी ही होते हैं) भी पुरुष-लिंगी और स्त्री-लिंगी होते हैं । इस गाथा के मूलपाठ में लिखा है कि -" च उचउ पुमिथिए, सव्वाणि नपुंससंपराएसु।" अर्थात् जीव के १४ भेदों में से पुरुष और स्त्री-वेद असंज्ञी और संज्ञी अपर्याप्त और पर्याप्त पंचेंद्रिय-इन चारों में होता है और नपुंसकवेद तो सभी में होता है। भगवती के विधान का तात्पर्य इतना ही है कि पुलाक-निग्रंथ न तो स्त्रीवेदी होते हैं और न स्त्री-नपुंसकवेदी । इसमें कृत्रिम-अकृत्रिम का भेद करने की आवश्यकता नहीं रहती। यहां यही समझना चाहिये कि पुलाक-निग्रंथ, पुरुषवेदयुक्त पुरुषलिंगी अथवा नपुंसकवेदयुक्त पुरुषलिंगी होते हैं । पुलाक-निग्रंथ के अतिरिक्त बकुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील निग्रंथ तथा सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत तथा नपुंसकलिंग-सिद्ध जन्म-नपुंसक भी हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं माने, तो बताना चाहिये कि अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य के चतुर्थ भंग-"बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ" की संगति किस प्रकार करेंगे ?? सूत्रकार स्वयं अपने शब्दों में अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य के लिये--"मणुस्साणं सव्वत्थ तइय-चउत्था भंगा" स्पष्ट रूप से बतला रहे हैं । इसकी संगति वे ४७ भेदों में से ३३ वें भेद में आयु-बन्ध के साथ चतुर्थ भंग के साथ किस प्रकार करेंगे ?? निश्चय ही यहां उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चतुर्थ भेद का पात्र अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य, जन्म-नपुंसक ही है और वह एकमात्र सिद्धगति ही प्राप्त करेगा। सम्यक्त्य में आयु-बन्ध सम्यक्त्व प्राप्त होने के पूर्व ही आयु का बन्ध हो जाय, तो वह सम्यक्त्वी आत्मा अपने बन्ध के अनुसार नरकादि चार गतियों में से किसी भी गति में जा सकती है । किंतु सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् आयुष्य का बन्ध हा, तो मनुष्य और तिथंच तो देव गति का आयुष्य ही बांध सकते हैं और वह भी भवनपति, व्यंतर और ज्योतिषी का नहीं, किंतु एकमात्र वैमानिक देव के आयु का ही बन्ध कर सकते हैं, अन्य नहीं । और नारक तथा देव, एकमात्र मनुष्य आयु का ही बंध कर सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) भगवती सूत्र शतक ३० में 'समवसरण' की प्ररूपणा है । क्रियावादी आदि चार प्रकार के समवसरण की अपेक्षा प्रश्नोत्तर है । यों तो चारों वादी मिथ्यादृष्टि के रूप में प्रसिद्ध हैं, किन्तु इस स्थान पर क्रियावादी को मुख्य रूप से सम्यग्दृष्टि आदि मान कर प्ररूपणा की गई है । अलेशी - लेश्या - रहित अयोगी-केवली और सिद्धों को भी क्रियावादी (पृ. ३६०१ उत्तर ४ ) और सम्यग्दृष्टि के लिये - " सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा, मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपविखया" (पृ. ३६१० उत्तर ५ ) बताया है । इसके आगे उत्तर ६ में ज्ञानी यावत् केवलज्ञानी, अवेदक, अकषायी और अयोगी को भी अलेशी के समान क्रियावादी लिखा है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि का क्रियावादी मान कर ही विचार किया गया है। आचारांग सूत्र श्रु १ अ. १ उ. १ सूत्र में भी ऐसा ही निरूपण हुआ है । इसका आशय यही है कि जो व्यक्ति और जो विचारधारा, आत्मा को कर्म का कर्ता - भोक्ता और आत्म-शुद्धि के योग्य ज्ञान- दर्शनादि क्रिया में श्रद्धा करे, वह क्रियावादी है । अतएव इस प्रकरण में क्रियावादी सम्बन्धी विधान सम्यग्दृष्टि विषयक समझ कर विचार किया जा रहा है । (१) समुच्चय जीव सम्बंधी प्रश्न के उत्तर (पृ. ३६१६ उत्तर १० ) में बताया है कि- "क्रियावादी जीव, नैरयिक और तिर्यंच आयु का बन्ध नहीं करते, मनुष्यायु और वायु का ही बन्ध करते हैं । यह ठीक है । क्योंकि नारक जीव, न तो पुन: नरकायु बाँध सकते हैं और न देवायु का ही बन्ध कर सकते हैं। वे मनुष्यायु और तिर्यंच आयु का ही बंध करते हैं । इसी प्रकार देव भी नरक और देवायु का बन्ध नहीं करते । इनके लिए. मनुष्य और तिर्यंच आयु का बन्ध ही शेष रहता है । जो क्रियावादी नारक और देव हैं, वे तियंचाय का बन्ध नहीं कर के एक मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं । इसलिये मनुष्यायु का विधान, देव और नारक जीवों की अपेक्षा हुआ है (पृ. ३६२३ उ. २३ - २५ और पू.. . ३६३१ का अंतिम उत्तर) और देवायु का विधान मनुष्य और तियंत्र की अपेक्षा से हुआ है। इसके आगे ग्यारहवें प्रश्न के उत्तर में बताया है कि देवायु भी भवनपति का नहीं, व्यंतर का नहीं और ज्योतिषी देवों का भी नहीं, एकमात्र वैमानिक देव का आयुष्य ही है । (२) कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले नैरयिक जीवों सम्बन्धी १४ वें प्रश्न के - उत्तर (पृ. ३६१७) में स्पष्ट लिखा है कि वे देव, नारक और तिर्यंच आयु का बन्ध नहीं कर के मात्र मनुष्यायु का ही बंध करते हैं । नारकों में ये तीन लेश्या ही है । समुच्चय तेजोलेशी क्रियावादी जीवों के लिये मनुष्य और देवायु का बन्ध ( पृष्ठ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28) ३६१८ उ. १५) है। वह देवों और मनुष्य-तियंच की अपेक्षा है । देव, मनुष्यायु और मनुष्य तथा तिथंच देवायु का बन्ध करते हैं--वैमानिक देवायु का । यही बात पद्म और शुक्ल लेश्या के विषय में भी समझनी चाहिए (उ. १६)। . (३)तियंच पंचेंद्रिय क्रियावादी के विषय में पृ. ३६२६ उ. २८ में लिखा है कि"जहा मणपज्जवणाणी"--मनःपर्यय ज्ञानी के समान, और मनःपर्यवज्ञानी तो मात्र वैमानिक देव का ही आयु बाँधते हैं (पृ. ३६२१ उ. २१-२२) यही विधान मनुष्य के लिए भी है-"जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियच्या" (पृ. ३६२७ उ. २९) । अतएव निश्चित हो गया कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिथंच एकमात्र वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधते हैं, दूसरा नहीं। प्रश्न-वैमानिक देवों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्या ही है । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य-तियंच, इन शुभ लेश्या में आयु-बन्ध करे, तो वैमानिक देवों का कर सकते हैं, किंतु जो कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या में हों, तो वे वैमानिक देव का आयुष्य कैसे बांध सकते हैं ? उत्तर-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियंच, देव आयुष्य का बंध नहीं कर सकते। यह बात इसी २६ वें प्रश्न के उत्तर पृ. ३६२६ में स्पष्ट लिखी है । प्रश्न है _ "हे भगवन् ! कृष्णलेशी क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिथंच जीव, नैरयिक तियंच, मनुष्य अथवा देव आयु का बन्ध कर सकता है ?" इसके उत्तर में स्पष्ट लिखा है कि-- "नहीं. नरयिक तियंच, मनुष्य और देव का आयु नहीं बाँध सकता"--"गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेइ, णो तिरिक्ख० णो मणुस्साउयं० णो देवाउयं पकरेइ ।" आगे लिखा है-" जैसा कृष्णलेश्या का विधान है, वैसा ही नील और कापोत लेश्या का है"जहा कण्हलेस्सा एवं णीललेस्सा वि काउलेस्सावि ।" इसी सूत्र में आगे चल कर विशेष स्पष्ट किया है कि--"सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवणाणी तहेव माणियाउयं पकरेइ"--अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव, मनःपर्यव ज्ञानी के समान वैमानिक देवायु का ही बंध करता है (पृ. ३६२६)। (४) उपरोक्त समवसरण प्ररूपणा के अतिरिक्त भगवती श. १ उ. ८ के प्रश्न २५९ से २६३ पर्यंत (भाग १ पृ. ३११-१२) में बताया है कि एकान्त बाल तो चारों गति के आयुष्य का बन्ध कर सकता है, किन्तु एकान्त पंडित और बाल-पंडित तो वैमानिक For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (29) देव का ही आयुष्य बाँध सकता है। बाल पंडित वैमानिक देव का आयुष्य क्यों बाँधता है ? इसके उत्तर में बताया है कि- "बालपंडित मनुष्य तथारूप के श्रमण-ब्राह्मण से एक भी धार्मिक आर्यवचन सुन कर धारण करता है और देशविरत होता है, देश-प्रत्याख्यानी होता है । इसलिये वह निदेव का ही आयुष्य बाँधता है । इस स्थल की टीका में श्री अभयदेवाचार्य, अविरत सम्यग्दृष्टि के विषय में लिखते हैं कि- "बालत्वे समानेऽपि अविरत सम्यग्दृष्टिमनुष्यो देवायुरेवं प्रकरोति न शेषाणि ।" अर्थात् बालत्व की अपेक्षा समान होते हुए भी अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी देवायु का ही बन्ध करता है, अन्य नहीं । (५) शतंक ६ उ. ४ के अन्तिम सूत्र (भाग २ पृ. ९९८ उ. १० ) में बताया है कि " वैमानिक देवों में ही प्रत्याख्यान, प्रत्याख्याना प्रत्याख्यान देशविरत ) और अप्रत्याख्यान से बद्ध आयु वाले होते हैं, शेष नरकादि तीन गति में 'अप्रत्याख्यान निबद्धायु' ही जाते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि सर्वप्रत्याख्यानी और देशप्रत्याख्याना ( श्रावक ) आयु का बन्ध करते हैं, तो एक वैमानिक का हा, क्योंकि देश या सर्वप्रत्याख्यान में केवल देवायु का ही बन्ध होता है, शेष तीन गति के आयु का बन्ध नहीं होता । उपरोक्त सूत्र से यह मी स्पष्ट होता है कि -- अप्रत्याख्यानी भी देवायु का बंध करते हैं, उसमें सम्यग्दृष्टि युक्त बद्धायु भी होते ही हैं। जब मिथ्यादृष्टि भी देवायु का - बन्ध कर सकते हैं, तो जिसने अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और मिथ्यात्व एवं मिश्र-मोहनीय का क्षयोपशम या क्षय कर दिया, वह वैमानिक देव का आयु-बन्ध करे, इसमें तो सन्देह ही नहीं होना चाहिए । (६) शतक २६ उ. १ बन्धी शतक के अंतिम सूत्र (पृ. ३५६६ ) में लिखा है किपंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान और अवधिज्ञान, इन पाँच के आयु बन्ध में दूसरा भंग छोड़ कर पहला, तीसरा और चौथा भंग होता है । यथा१ पूर्वभव में आयु बन्ध किया था, वर्तमान में (देवायु) बाँधता है और भविष्य ( देवभव) में मनुष्यायु बन्ध करगा । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) ३ पूर्व में आयु बाँधा था, वर्तमान में नहीं बाँधता, किन्तु भविष्य में बांधेगा । यह तीसरा भंग यों घटित होता है कि उसने पहले आयु बाँधा था, वर्तमान उपशम सम्यक्त्व में या अबन्ध काल में नहीं बाँधता है, किन्तु भविष्य में बाँधेगा । चौथा भंग उस दशा में घटित होता है कि उस पंचेन्द्रिय तिर्यंच ने पहले मनुष्यायु का बन्ध कर लिया, उसके बाद सम्यक्त्वी हुआ । अब वह आयु का बन्ध नहीं करेगा और पूर्वबद्ध मनुष्याय से मनुष्य भव पा कर सिद्ध हो जायगा । इसलिए वह न तो अब आयु का बन्ध करता है और न आगे ही करेगा । मनुष्य के लिए भी सम्यक्त्व आदि पाँच बोलों में इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष में चौथे भंग में चरम शरीरी क्षपक भी हो सकता है । इस प्रकार सम्यक्त्व में मनुष्य - तिर्यंच के आयु-बन्ध हो, तो एक देव-भव का ही हो सकता है, अन्य नहीं । (७) भगवती सूत्र श. २ उ. १ ( भाग १ पृ. ४१० ) में मनुष्य मर कर पुनः मनुष्य हो, तो उसे 'तद्भव मरण' माना है और यह बाल-मरण के १२ भेदों में का चौथा भेद है। तद्भव मरण मिथ्यात्व दशा में होता है इस दृष्टि से भी कोई मनुष्य यदि मनुष्यायु का बन्ध करे, तो वह मिथ्यात्व दशा में ही करता है, जिसका फल स्वयं सूत्रकार ने अनंत संसार - परिभ्रमण बताया है ( पू. ४९१ ) ऐसा सम्यक्त्वी के लिए नहीं कहा जाता । (८) तीसरे कर्मग्रंथ गाथा ८ में पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चौथे गुणस्थान में " " सुराउ सरि संमे "सूर -- देव आयु सहित ७० प्रकृतियों का बन्ध बताया है । आयु-बन्ध में केवल देवायु ही बन्धना इससे भी सिद्ध है और गाथा 8 में मनुष्य के लिए भी तियंच के समान देव आयु सहित ७० और विशेष में एक जिन नामकर्म, यों ७१ प्रकृतियों का बन्ध होना लिखा है । ६ गाथा १३ में औदारिक मन वचन और काय योग के बन्ध में भी मनुष्य के समान चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों का बंध होना स्वीकार किया है, जिसमें आयुष्य-कर्म की प्रकृति तो एकमात्र देवगति की ही है । प्रश्न - सुमुख गाथापति (सुखविपाक ) ने संसार परिमित किया, वे सम्यग्दृष्टि थे, फिर उन्होंने मनुष्यायु का बन्ध क्यों किया ? उत्तर-- आयु तो पूरे जीवन में केवल एक बार ही बंधता है और सम्यक्त्व तो एक जीवन में प्रत्येक हजार बार आ-जा सकती है (अनुयोग द्वार ) तब यह कैसे माना जाय कि सुमुख गाथापति ने मनुष्य का आयुष्य, सम्यक्त्व के सद्भाव में बाँधा ? और आयु-बन्ध For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (31) करते समय सुमुख में सम्यक्त्व थी ही ? यह सत्य है कि संसार-परिमित करते समय वह अवश्य ही समकिती था, परन्तु आयु-बन्ध के समय सम्यक्त्व का वमन हो कर मिथ्यात्व आ चुका था । इसी प्रकार मेघकुमार के हाथी-भव के विषय में भी समझना चाहिए । प्रश्न- दशाश्रुतस्कन्ध अ. ६ में सम्यग्दृष्टि क्रियावादी के नरक में जाने का उल्लेख है । इस विषय में आप क्या कहेंगे ? उत्तर - यह प्रश्न ही व्यर्थ है । सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व या सम्यक्त्व वमन के पश्चात् नरकादि किसी भी गति का आयुष्य बाँधा जा सकता है और तदनुसार उत्पन्न होते हैं । इसमें तो मतभेद है ही नहीं । सम्यक्त्व युक्त छठे नरक तक जाने का सिद्धांत वचन है। (श. १३ उ. १ भाग ५ पृ. २९५३ ) तथा सम्यग्दृष्टि ही नहीं, मनः पर्यव ज्ञान वाले संत भी मृत्यु पा कर कोई सम्यक्त्व युक्त छठे नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं (श. २४ उ. १ (भाग ६ पृ. ३०२६) यही बात पृथ्वीकाय के विषय में भी है, (श. २४ उ. १२ पृ. ३०९४ ) अतएव मिथ्यात्व अवस्था में बांधे हुए. आयुष्य के अनुसार सम्यग्दृष्टि नरकादि किसी भी गति में जा सकते हैं । दशाश्रुतस्कन्ध में ऐसे ही सम्यग्दृष्टियों का उल्लेख है । किन्तु यहाँ विचार हो रहा है - सम्यक्त्व के सद्भाव में आयु-बन्ध करने के विषय में । अतएव इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रश्न- यदि यह मान लिया जाय कि सम्यक्त्व युक्त वैमानिक देव का आयु-बन्ध करने वाले मनुष्य-तियंच, विशिष्ट कोटि के क्रियावादी हैं और उन्हीं का भगवती सूत्रादि में उल्लेख हुआ है, सामान्य कोटि के क्रियावादी मनुष्य-तियंच तो मनुष्यायु का बन्ध भी कर सकते हैं, तो ऐसा मानने पर मतभेद नहीं रहेगा । उत्तर - एक अप्रामाणिक बात का समन्वय करना, सिद्धांत के लिए बाधक हो जाता है । वैसे सामान्य विशेष के बन्ध का उल्लेख भी आगम में है ही (श. १ उ. २ पृ. १५३ तथा उववाई सूत्र ४१ और प्रज्ञापना पद २० ) में अविराधक श्रमण की जघन्य सोधर्म देवलोक और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान की, तथा श्रावक की जघन्य सोधमं स्वर्ग उत्कृष्ट अच्युत कल्प की गति बताई । श. ८ उ. १० जघन्य ज्ञान और दर्शन आराधक के लिए भी जघन्य तीन और उत्कृष्ट ७-८ भव बताये हैं । उत्कृष्ट तो सर्वोच्च है ही, जघन्यउत्कृष्ट गति आदि के विधान में सामान्य और विशेष सभी का समावेश हो जाता है । जघन्य से बाहर कोई सामान्य रह ही नहीं सकता । सामान्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य - तिथंच भी सौधर्म स्वर्ग से कम अन्य गति का आयुष्य नहीं बाँध सकता । अतएव तर्क व्यर्थ है । आज से ४०-४२ वर्ष पूर्व तक समस्त जैन समाज और उसके विभिन्न समुदायों For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (32) का इसमें कोई मतभेद नहीं था । यह मतभेद हुआ ४०-४२ वर्ष पूर्व ही और एक आचार्य की स्वयं की विचारणा से । इसके पीछे कल्पना के अतिरिक्त सैद्धांतिक आधार कुछ भी नहीं है । अतएव सैद्धांतिक धारणा यही है कि सम्यक्त्व के सद्भाव में मनुष्य और तिर्यंच एक वैमानिक देव की आयु का ही बंध करते हैं । अंतिम निवेदन भगवती सूत्र का आदि से अंत तक का प्रकाशन कर के स्वाध्याय प्रेमियों तक पहुँचाने का कार्य पूर्ण करते हुए मुझ संतोष का अनुभव हो रहा है। इस विशाल आगम का अनुवाद, समाज के जाने-माने और अनुभवी विद्वान् पं. श्री घेवरचंदजी बांठिया वीरपुत्र ने किया और समाज के धर्म-रसिक, श्रुतज्ञान प्रचार के प्रेमी, उदार हृदयी दानवीर महानुभावों के द्रव्य सहयोग से अ. भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ से इसका प्रकाशन हुआ । मैं तो प्रूफ देखने वाला और छपाई आदि प्रकाशन की व्यवस्था करने वाला रहा । प्रूफ देखने में भी मुझ से अनेक प्रकार की भूलें रह गई है। यही काम यदि कोई अनुभवी अधिकारी विद्वान् करता, तो बहुत अच्छा होता। फिर भी जैसी-तैसी सेवा बन गई, उससे एक अभाव की पूर्ति तो हो गई है और यही संतोष है । मेरी अल्पज्ञता, असावधानी एवं प्रतिकूल परिस्थिति से जो भी भूलें रही, उसका में भगवद् साक्षी से मिच्छामि दुक्कडं देता हुआ क्षमायाचना करता हूँ । परिशिष्ट में भगवती सूत्र की हुंडी भी दी जा रही है । यह हुंडी धर्म- रसिक उत्साही युवक श्री घीसूलालजी पितलिया ने भेजी थी। जैसी आई. वैसी छपने को दे दी गई । उस समय यदि में स्वस्थ होता और अवकाश मिलता तो स्वयं भी कुछ परिश्रम कर के दूसरे रूप में उपस्थित करता । फिर भी श्री पितलियाजी का परिश्रम पाठकों को विशेष सुविधा प्रदान कर ही देगा । कार्तिक शुक्ला ज्ञानपंचमी वीर सं. २४९९, वि. सं. २०२९ दिनांक ११-११-७२ नोट-- उपरोक्त प्रस्तावना में पृष्ठ क्रमांक इस नयी आवृत्ति के अनुसार कर दिये गये है ताकि पाठकों को वह आगम स्थल देखने में सुविधा रहे -- स. सं. - रतनलाल डोशी For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन हमारी श्वेताम्बर परम्परा के मान्य बत्तीस आगम साहित्य में भगवती सूत्र ( व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र) का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन को विशेष रूप से समझने एवं तत्त्व ज्ञान की दृष्टि से यह सूत्र जितना गंभीर है, उतना ही सामग्री की विशालता लिए हुए है। वर्तमान में उपलब्ध सभी सूत्रों में इसकी सामग्री विशाल एवं सर्वाधिक है। नंदी सूत्र के निम्न पाठ के अनुसार यह सूत्रराज ३६००० प्रश्नोत्तरों का श्रुतभंडार है । "छत्तीसं वागरणसहस्साइं दो लक्खा अट्ठी सीइं पयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा' 99 अर्थ - ३६००० प्रश्नोत्तर है, २ लाख ८८ सहस्र पद है । संख्येय अक्षर है । ( वर्तमान में १५७५ श्लोक परिमाण अक्षर है) अनन्त गम है, अनन्त पर्यव है, परित्त त्रस है, अनन्त स्थावर है। सभी ३६००० प्रश्न भगवान् के प्रथम गणधर गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए हैं एवं प्रभु महावीर के मुखारविन्द से उनके उत्तर फरमाये गए हैं। यह सूत्रराज द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग चारों अनुयोगों के संमिश्रण की सामग्री संजोये हुए हैं। जैन समाज की अनेक संस्थाओं द्वारा भगवती सूत्र का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। किन्तु संघ द्वारा प्रकाशित यह भगवती सूत्र क्या-क्या विशेषता लिए हुए है, इसका विषद विवेचन आदरणीय डोशी सा. द्वारा लिखित प्रस्तावना में दिया गया है। उसकी पुनरावृत्ति करना उचित नहीं है। सुज्ञ पाठक वर्ग को इस सूत्रराज का स्वाध्याय आरम्भ करने से पूर्व उस प्रस्तावना को अवश्य पढ़ लेना चाहिए, ताकि सम्बन्धित भाग की विषय सामग्री के साथ संघ के इस प्रकाशन की विशेषताओं की भी जानकारी हो जाय । संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेन शाह For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग ७ की यह चतुर्थ आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस चतुर्थ आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) संघ सेवक दिनांकः ४-४-२००६ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पंक्ति १३ अशुद्ध नरयिअसंखेज्जपएसोगढाई शुद्ध नैरयिअसंखेज्जपएसोगाढ़ाई पृष्ठ ३१९५ ३२१३ ३२२८ ३२५७ ३२६७ ३२८१ ३२८७ ३२६२ GO ३३१७ णिज्जुत्तिमीसओ अणोगाढे निष्कम्प दसपएसियाखंधा दव्वट्ठयाए परस्थानाश्रयी स्कन्ध उनसे भविष्यत् णलिणंगे ज्जाओ होज्जा ! एवं णियंठे वि.. बकुश अनुत्तर होज्जा, णो अलेस्से होज्जा। ३३३१ ३३४५ ३३६८ णिज्जुत्तिमीसआ अणोएाढे निकम्प दसएसियाखंधा दब्वट्ठयाए परस्थानश्रयी स्कन्ध उगसे भविष्गत् णालिणांगे ज्जओ होज्जा? वकुश अनृतर होज्जा। वाले-आनु हुआ हाज्जा छओवट्ठावणिए अहवखायसंजमस्स चारित जस सिद्धिगति संयत १७ ३३८३ - ४ ३४०३ हुआ ३४४३ ३४५६ ३४५८ १७ होज्जा छेओवढावणिए वि अहमखायसंजयस्स चारित्र जब सिद्धगति संयत के ३४७२ ३४७६ ३४८० १८ १६ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (36) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध यथाख्यास यथाख्यात ३५.८ प्रणीतररस प्रणीत रस ३५०९ २ उक्कुडुयसाणिए उक्कुडुयासणिए ३५१८ अण्णहयकरे अण्हयकरे ३५३५ स्परूप स्वरूप ३५४७ १४ मिथ्याइष्टि . मिथ्यादृष्टि ३५५४ अणगारोव उत्ते अणागारोवउत्ते ३५५६ वांधेगे बांधेगे ३५६५ बंधो बंधी ३५६७ १४ ज्ञानवरणीय कर्म ज्ञानावरणीयकर्म ३५७१ यजोगोण वयजोगो ण ३५७३. १८ अणंतराववण्णए अणंतरोववण्णए ३६०२ अणगारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ३६०४ विषय विषम ३६१० लोभकसायी जाव लोभकसायी जहा ३६१९ १४ का ३६९२ चरमान्त में चरमान्त से ३७१० कहना ३७३४ यहान् ३७४० एकेद्रिन्य एकेन्द्रिय ३७४१ १३ १५ उत्तर १५ प्रश्न ३७६२ . १२ संचिट्ठाणा संचिट्ठणा ३८१३ २० बांचन वांचन नोट--टाइप घिसे होने के कारण मुद्रण दोष से कहीं-कहीं मात्राएँ (, , , , , ,,) अनुस्वार () रेफ (") और अक्षर (श, भ, प, त्र, क, य, २, स, न त आदि) साफ नहीं उठे हैं । किन्तु पूर्वापर संबंध के साथ पढ़ने से इनमें भूल होने की संभावना नहीं है । पाठकगण कृपया अपनी प्रति ठीक कर लेवें--स. सं.। का आयु हना महान् For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषयानुक्रमणिका शतक २५ पृष्ठ | क्रमांक विषय उद्देशक १ ७२२ लेश्मा का उल्लेख ७२३ संसारी जीवों के चौदह भेद ७२४ योगों का अल्प- बहुत्व ७२५ योग पन्द्रह उद्देशक २ ७२६ द्रव्य प्ररूपणा ७२७ जीव, अजीव का परिभोग ७२८ असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य ७.२६ जीव, स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित - ७३२ संस्थान के प्रदेश • ७३३ श्रेणियों के भेद और परमाणु की गति ७३४ गणिपिटक के भेद ७३५ गति आदि का अल्प-बहुव उद्देशक ४ उद्देशक ३ ७३० संस्थान के भेद और अल्प- बहुत्व ३३१७ ७३१ संस्थान पाँच ३२२१ ३२२६ ७३६ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ७३७ सकम्प - निष्कम्प ३१९६ ३१९७ ३१९८ ३२०२ ३२०६ ३२०८ ३२१० ३२१२ ३२.५३ ३२५७ ३२५८ ३२६२ ३२८० विषय पृष्ठ ७३८ परमाणु आदि का अल्प- बहुत्व ३२८३ ७३९ पुद्गल और युग्म ३२६७ ७४० परमाणु आदि सार्द्ध है या अनर्द्ध ३३०९ ३३१० ३३३३ ७४१ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प ७४२ अस्तिकाय के मध्य प्रदेश उद्देशक ५ ७४३ पर्यव के भेद ७४४ आवलिका यावत् पुद्गल - परिवर्तन के समय ७४५ निगोद के भेद: ७४६ औयिकादि नाम उद्देशक ६ ७४७ निर्ग्रन्थों का स्वरूप ७४८ वेद द्वार ७४९ राग द्वार ७५० कल्प द्वारा *७५१ चारित्र द्वार ७५२ प्रतिसेवना द्वार ७५३ ज्ञान द्वार ७५४ श्रुत द्वार ७५५ तीर्थ द्वारा ७५६ लिंग द्वार For Personal & Private Use Only ३३३६ 11 ३३४८ " ३३५१ ३३५७ ३३६० ३३६१ ३३६४ ३३६५ ३३६७ ३३६९ ३३७० ३३७२ www.jalnelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (38) wwwwwww क्रमांक विषय पृष्ठ क्रमांक विषय पृष्ठ ३४०५ ७५७ शरीर द्वार ७५८ क्षेत्र द्वार ७५९ काल द्वार ७६० गति द्वार ७६१ संयम-स्थान ७६२ सन्निकर्ष-द्वार ७६३ योग द्वार ७६४ उपयोग द्वार ७६५ कषाय द्वार ७६६ लेश्या द्वार ७६७ परिणाम द्वार '७६८ कर्म-बाध द्वार ७६९ कर्म-वेदना द्वारा ७७० कर्म उदीरणा द्वार ७७१ उपसंपद हान द्वार ७७२ संज्ञा द्वार ७७३ आहार द्वार ७७४ भव द्वार ७७५ आकर्ष द्वार ७७६ काल द्वार ७७७ अन्तर द्वार ७७८ समुद्घात द्वार ७७९ क्षेत्रावगाहन द्वार ७८० क्षेत्र-स्पर्शना द्वार ७८१ भाव द्वार ७८२ परिमाण द्वार ३३७२ | ७८३ अला-बहुत्व द्वार ३४३७ ३३७४ उद्देशक ७ ३३७५ ७८४ संयत के भेद ३४३९ ३३८१ ७८५ संयतों का स्वरूप ३४४१ ३३८६ ७८६ सवेदी अवेदी ३४४३ ३३८८ ७८७ सराग-वीतराग ३३९८ ७८८ स्थित-कल्प अस्थित-कल्प ३४४५ ३३९९ ७८६ संयत पुलाकादि निग्रंप होते हैं ? ३४४६ ३४०० ७९० प्रतिसेवना ३४४८ ३४०२ ७९१ ज्ञान द्वार ३४४९ ७९२ श्रुत द्वार ३४०९ ७६३ तीर्थ द्वार ७९४ लिंग द्वार ३४१२ ७९५ शरीर द्वार ३४१५ ७९६ क्षेत्र द्वार ३४५३ ३४१० ७९७ काल द्वार . ३४१६ ७६८ गति द्वार ३४५४ ३४२० ७६६ देवायु स्थिति ३४५६ ३४२१ ८०० संयम-स्थान .३४५७ ३४२४ ८०१ चारित्र-पर्यव ३४५९ ३४२७ ८०२ योग द्वार ३४६४ ३४२९ ८.३ उपयोग द्वार ८०४ कषाय द्वार ३४६५ ३४३२ ८०५ लेश्या द्वार ३४६६ ३४३३ ८०६ परिणाम द्वार १४६७ ३४३४ | ८०७ कम-बन्ध ३४७० ३४३१ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय ८०८ कर्म-वेदन ८०६ कर्म - उदीरणा ८१० उपसंपद-हान ८११ संज्ञा द्वार ८१२ भव द्वार ८१३ आकर्ष द्वार ८१४ स्थिति द्वार ८१५ अन्तर काल द्वार ८१६ समुद्घात द्वार ८१७ लोक स्पर्श द्वार ८१८ भाव द्वारा ८१६ परिमाण द्वार ८२० अल्प. बहुत्व द्वारा ८२१ प्रतिसेवना ८२२ आलोचना के दोष ८२३ आलोचना के योग्य ८२४ आलोचना देने योग्य ८२५ समाचारी के भेद ८२६ प्रायश्चित्त के भेद ८२७ तप के भेद ८२८ अनशन तप ८२६ उनोदरी तप ८३० भिक्षाची तप ८३१ रस परित्याग तप ८३२ काय-क्लेश तप ८३३ प्रतिसंलीनता तप ८३४ प्रायश्चित्त तप (39) पृष्ठ ३४७१ | ८३५ विनय तप ३४७२ ८३६ वैयावृत्य तप ३४७३ ८३७ स्वाध्याय तप ३४७६ ८३८ ध्यान के भेद ३४७७ ८३९ आतं ध्यान ३४७८ ८४० रौद्र ध्यान ३४८१ ८४१ धर्म ध्यान ३४८४ ३४८६ | ८४३ व्युत्सर्ग ३४८७ ३४८८ ३४८९ ३४९० ३४९२ ३४६३ ३४९४ ३४९६ ३४६६ ३४६८ ३५०० ३५०१ ३५०४ ३५०७ ३५०८ "1 क्रमांक विषय ३५०९ ३५१३ ८४२ शुक्ल ध्यान उद्देशक १० ८४७ अभव्य जीवों की उत्पत्ति उद्देशक ८ ८४४ जीवों के उत्पन्न होने का उदाहरण ३५४० ८४५ आत्म- ऋद्धि से उत्पत्ति ३५४२ उद्देशक ११ ८४८ सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति पृष्ठ उद्देशक ९ ८४६ भवसिद्धिक जीवों की उत्पत्ति ३५४५. ३५१४ ३५२४ ३५२५ उद्देशक १ ८५० जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा ? ८५१ नैरयिक के पाप-बन्ध ३५२६ ३५२८ ३५३० ३५३३ ३५३७ For Personal & Private Use Only ३५४६ उद्देशक १२ ८४९ मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति ३५४७ ( शतक २६ बन्धी शतक) "1 ३५५० ३५५७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०८ ३५७८ ३५७६ ३६८४ क्रमांक विषय उद्देशक २ ८५२ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध उद्देशक ३ ८५३ परम्परोपपत्रक के बन्ध उद्देशक ४ ८५४ अनन्तरावगाढ़ के बन्ध उद्देशक ५ ८५५ परम्परावगाढ़ बन्धक उद्देशक ६ ८५६ अनन्तराहारक बन्धक उद्देशक ७ ८५७ परम्पराहारक बन्धक उद्देशक ८ ८५८ अनन्तर पर्याप्तक बन्धक उद्देशक ९ ८५९ परम्पर पर्याप्तक बन्धक उद्देशक १० ८६० चरम बन्धक उद्देशक ११ ८६१ अचरम बन्धक शतक २७ ८६२ (करिंसु शतक) शतक २८ ८६३ (कर्म समर्जक शतक) शतक २९ ८६४ (कर्म प्रस्थापन शतक) पृष्ठ क्रमांक विषय शतक ३० ३५७१ | ८६५ (समवसरण) शतक ३१ ३५७५ | ८६६ (उपपात शतक) ३६४० शतक ३२ ३५७७ | ८६७ (उद्वर्तन शतक) ३६५८ शतक ३३ .. ८६८ (एकेन्द्रिय शतक) ३६६१ शतक ३४ ८६६ (श्रेणी शतक) शतक ३५ ३५८० ८७० (महायुग्म शतक) ३७३० ३५८१ शतक ३६ ८७१ (बेइन्द्रिय महायुग्म शतक) ३७५९ ३५८२ शतक ३७ (तेइन्द्रिय महायुग्म शतक) ३७६५ ३५८३ शतक ३८ (चोरिन्द्रिय महायुग्म शतक) ३७६६ शतक ३९ ८७४ (असंज्ञी पंचेन्द्रिय महायुग्म शतक) ३७६७ ३५९० शतक ४० ८७५ (संज्ञी महायुग्म शतक) ३७६८ . शतक ४१ ३५६३ ८७६ (राशि-युग्म शतक) ३७८७ ८७७ उपसंहार ३८१. ६६०० । ८७८ भगवती सूत्र की हुण्ढी १-२८ ३५८४ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये । ) १७. सूर्य ग्रहणखंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये ।) १६. चन्द्र ग्रहण - १८. राजा का अवसान होने पर, १६. युद्ध स्थान के निकट २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक नया राजा घोषित न हो (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य लिए १०० हाथ । उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता । उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता । ) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा २५- २८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा२६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए । नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only जब तक युद्ध चले जब तक पड़ा रहे दिन रात दिन रात Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र शतक २५ १ लेसा य २ दव्व ३ संठाण ४ जुम्म ५ पजव ६ णियंठ ७ समणा य। ८ ओहे ९-१० भवियाभविए ११ सम्मा १२ मिच्छे य उद्देसा ॥' भावार्थ-१ लेश्या आदि के विषय में प्रथम उद्देशक है, २ द्रव्य के विषय में दूसरा उद्देशक है, ३ संस्थान आदि के सम्बन्ध में तीसरा, ४ युग्म (कृतयुग्म) आदि राशि के विषय में चौथा, ५ पर्यव आदि के विषय में पांचवां, ६ पुलाक आदि निर्ग्रन्थ के विषय में छठा, ७ सामायिकादि संयत आदि के विषय में सातवा, ८ ओघ (सामान्य अर्थात् भव्याभव्यादि विशेषण रहित सामान्य नरयिक आदि की उत्पत्ति) के विषय में आठवाँ, ९ भव्य नरयिकादि की उत्पत्ति के विषय में नौवां, १० अभव्य नैरयिकादि के विषय में दसवां, ११ सम्यग्दृष्टि नरयिकादि के विषय में ग्यारहवां और १२ मिथ्यादृष्टि नैरयिकादि के विषय में बारहवां उद्देशक है । इस प्रकार इस पच्चीसवें शतक में बारह उद्देशक हैं। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक १ लेश्या का उल्लेख १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीकह णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ?' १ उत्तर-गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा जहा पढमसए बिइए उद्देसए तहेव लेस्साविभागो । अप्पाबहुगं च जाव चउन्विहाणं देवाणं चउव्विहाणं देवीणं मीसगं अप्पाबहुगं ति । कठिन शब्दार्थ-मीसग-मिश्रक-सम्मिलित। * भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ?' १ उत्तर-हे गौतम ! छह लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या इत्यादि प्रथम शतक के दूसरे उद्देशक के अनुसार । लेश्याओं का विभाग और उनका अल्पबहत्व यावत् चार प्रकार के देव और चार प्रकार की देवियों का मिश्रित (सम्मिलित) अल्प-बहुत्व पर्यन्त । - विवेचन-यद्यपि लेश्याओं के नाम और स्वरूप का कथन प्रथम शतक में किया जा चुका है, तथापि अन्य प्रकरण के साथ इनका सम्बन्ध होने से लेश्या और उनके अल्पबहुत्व का कथन फिर किया है । यहाँ संसार-समापन्नक जीवों के योगों के अल्प-बहुत्व का कथन किया जा रहा है । इस प्रकरण से लेश्या का अल्प-बहुत्व भी कहा है। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों के चौदह भेद २ प्रश्न - कविहाणं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! चोद्दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा - १ सुहुम अपज्जत्तगा २ सुहुमपज्जत्तगा ३ बायरअपजत्तगा ४ बायरपज्जत्तगा ५ बेइंदिया अपज्जत्तगा ६ बेइंदिया पज्जत्तगा ७ - ८ एवं इंदिया ९-१० एवं चउरिंदिया ११ असष्णिपंचिंदिया अपज्जत्तगा १२ असणिपंचिंदिया पज्जत्तगा १३ सष्णिपंचिंदिया अपज्जत्तगा १४ सष्णिपंचिंदिया पज्जत्तगा । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! संसारसमापत्रक ( संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! संसारसमापन्नक जीव चौदह प्रकार के कहे हैं । यथा - १ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय २ पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय ३ अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय ४ पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय ५ अपर्याप्त बेइंद्रिय ६ पर्याप्त बेइंद्रिय ७ अपर्याप्त तेइंद्रिय ८ पर्याप्त तेइंद्रिय ९ अपर्याप्त चौरिन्द्रिय १० पर्याप्त चौरिन्द्रिय ११ अपर्याप्त असज्ञी पंचेन्द्रिय १२ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय १३ अपर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और १४ पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय । विवेचन - 'सूक्ष्म' - सूक्ष्म नाम-कर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् असंख्य शरीर इकट्ठे होने पर भी जो चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय न हो, उसे 'सूक्ष्म' कहते हैं । ' बादर' - बादर नाम - कर्म के उदय से बादर अर्थात् स्थूल शरीर वाले जीव बादर कहलाते हैं । 'पर्याप्तक' - जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं, वह जब उतनी For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९८ भगवती सूत्र-शः २५ उ. १ योगों का अल्प-बहुत्व www पर्याप्तियां पूरी कर लेता है, या करने की योग्यता हो, उसे 'पर्याप्त' कहते हैं । एकेंद्रिय जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास-इन चार पर्याप्तियों को पूरी करने पर, बेइंद्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, उपर्युक्त चार पर्याप्तियों और पांचवीं भाषा पर्याप्ति पूरी करने पर तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय उपर्युवत पाँच और छठी मन:पर्याप्ति पूरी करने पर 'पर्याप्तक' कहे जाते हैं। 'अपर्याप्तक'- जिस जीव की पर्याप्तियां पूरी न हुई हों अर्थात् जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा न बांध लिया हो और जो स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी होने से पहले ही मरने वाला हो, वह अपर्याप्तक' कहलाता है। अपर्याप्त अवस्था में मरने वाले जीव तीन पर्याप्तियां पूर्ण कर के चौथी (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति अधूरी रहने पर ही मरते हैं, पहले नहीं । क्योंकि आगामी भव की आयु बाँध कर ही जीव मृत्यु प्राप्त करते हैं और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों के होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय-ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हों। __ सूक्ष्म, बादर, अपर्याप्त और पर्याप्त-ये चार भेद एकेन्द्रिय जीवों के हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञो पञ्चेन्द्रिय, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो भेद होते हैं । इस प्रकार जीवों के चौदह भेद होते हैं। योगों का अल्प-बहुत्व >३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! चोदसविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवाणं जहण्णुपकोसगस्स जोगस्स कयरे कयरे० जाव विसे. साहिया वा? ३ उत्तर-गोयमा ! १ सव्वत्थोवे सुहुमस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए २ बायरस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ३ बेइंदि. यस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ४ एवं तेइंदियस्स For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगबती सूत्र-श. २५ उ १ योगों का अल्प-बहुत्व ३१९९ ५ एवं चउरिं दियस्स ६ असण्णिस्स पंचिंदियस्म अपजत्तगस्स जहपणए जोए असंखेजगुणे ७ सण्णिस्स पचिंदियम्स अपजत्तगरस जहण्णए जोए असंखेजगुणे ८ सुहुमस्स पजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ९ बायरस्स पजत्तगस्स जहण्ण जोए असंखेजगुणे १० सुहुमस्स अपजत्तगस्म उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ११ वायरस्स अपज तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १२ सुहमरस पजत्त गस्त उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १३ बायरस्स पजत्तगस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे १४ बेइंदियस्स पजत्तगस्स जहण्णए जोए असखे. जगुणे १५ एवं तेइंदियस्स वि १८ एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्स पज्जत्तगस्त जहण्णए जोए असंखेजगुणे १९ बेइंदियस्स अपजत्तगस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे २० एवं तेइंदियस्स वि २१ एवं चरिंदियस्स वि २३ एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्स अपजत्तगस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे २४ बेइंदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे. जगुणे २५ एवं तेइंदियस्स वि पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे. जगुणे २६ चउरि दियस्स पजत्तगस्स उकोसए जोए असंखे. जगुणे २७ असण्णिपंचिंदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २८ एवं सण्णिपंचिंदियस्स पजत्तगस्स उकोसए जोए असंखेजगुणे। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! इन चौवह प्रकार के संसारसमापनक For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श २५ उ. १ योगों का अल्प-बहुत्व जीवों के जघन्य और उत्कृष्ट योग से कौन जीव, किन से अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! १ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग सब से अल्प है । २ उससे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है। ३ उससे अपर्याप्त बेइन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ४ उससे अपर्याप्त तेइन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ५ उससे अपर्याप्त चौरिन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है। ६ उससे अपर्याप्त असंज्ञी पंचे. न्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ७ उससे अपर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ८ उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ९ उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । १० उससे अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है। ११ उससे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । १२ उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । १३ उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है। १४ उससे पर्याप्त बेइन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यात गुण है । १५-१८ उससे पर्याप्त तेइन्द्रिय, पर्याप्त चौरिन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुण है। १९ उससे अपर्याप्त बेइन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । २०-२३ इसी प्रकार अपर्याप्त तेइन्द्रिय, अपर्याप्त चौरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुण है। २४ उससे पर्याप्त बेइन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । २५ इसी प्रकार अपर्याप्त तेइन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है। २६ उससे पर्याप्त चौरिन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । २७ उससे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । २८. उससे पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. १ योगों का अल्प-बहुत्व ____४ प्रश्न-दो भंते ! णेरइया पढमसमयोववण्णगा कि समजोगी, किं विसमजोगी ? ४ उत्तर-गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय समजोगी, सिय विसमजोगी' ? . उत्तर-गोयमा ! आहारयाओ वा से अगाहारए, अणाहारयाओ वा से आहारए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अभहिए । जइ होणे असंखेजहभागहीणे वा, संखेजइभागहीणे वा, असंखेजगुणहीणे वा, संखेजगुणहीणे वा । अह अब्भहिए असंखेजइभागमभहिए वा, संखेजइभागमभहिए वा, संखेजगुणमभहिए वा, असंखेजगुणमन्भहिए वा, से तेणटेणं जाव सिय 'विसमजोगी। एवं जाव वेमाणियाणं। . भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते हैं या विषमयोगी ? . ४ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि-कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक से आहारक नारक कदाचित् हीन-योगी, कदाचित् तुल्य-योगी और कदाचित् अधिक योगी होता है। यदि वह हीन-योगी होता है, तो असंख्यातवें For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. १ योग पन्द्रह । भाग हीन, संख्यातवें भाग हीन, संख्यात गुण हीन या असंख्यात गुण हीन होता है । यदि अधिक योगी होता है, तो असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक, संख्यात गुण अधिक या असंख्यात गुण अधिक होता है । इस कारण कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। योग पन्द्रह - VAARARARE५ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! जोए पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! पण्णरसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-१ सच्चमणजोए २ मोसमणजोए ३ सच्चामोसमणजोए ४ असच्चामोसमणजोए ५ सच्चवहजोए ६ मोसवइजोए ७ सच्चामोसवइजोए ८ असञ्चामोसवइजोए ९ ओरालियसरीरकायजोए १० ओरालियमीसासरीरकायजोए ११ वेउब्बियसरीरकायजोए १२ वेउन्वियमीसासरीरकाय. जोए १३ आहारगसरीरकायजोए १४ आहारगमीसासरीरकायजोए १५ कम्मासरीरकायजोए। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! योग पन्द्रह प्रकार के कहे गये हैं। यथा१ सस्य मनयोग २ मृषा मनयोग ३ सत्यमषा मनयोग ४ असत्यामषा मनयोग ५ सत्य वचनयोग ६ मृषा वचनयोग ७ सत्यमषा वचनयोग ८ असत्यामृषा वचनयोग ९ औदारिक-शरीर काययोग १० औदारिकमिश्र-शरीर काययोग For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. १ योग पन्द्रह ११ वेत्रिय शरीर काययोग, १२ वैक्रियमिश्र - शरीर काययोग, १३ आहारकशरीर काययोग, १४ आहारक मिश्र - शरीर काययोग, १५ कार्मण-शरीर काययोग | ३२०३ ६ प्रश्न - एयस्स णं भंते ! पण्णरसविहस्स जहष्णुको सगस्स जोगस्स करे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? ६ उत्तर - गोयमा ! १ सव्वत्थोवे कम्मगसरीरगस्स जहण्णए जोए २ ओरालियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ३ वेउव्त्रियमी सगरस जहणए जोए असंखेज्जगुणे ४ ओरालियसरीरगस्स जहणए जोए असंखेज्जगुणे ५ वेउव्वियसरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ६ कम्मगसरीरस्स उक्कोस ए जोए असंखेज्जगुणे ७ आहारगमीसस्स जहणए जोए असंखेज्जगुणे ८ तस्स चेव उक्कोसर जोए असंखेजगुणे ९-१०, ओरालियमीसगस्स, वेडव्वियमीसगस्स य एएसि णं उक्कोस जोए दोह वि तुल्ले असंखेज्जगुणे असच्चा मोसमणजोगस्स जहore जोए असंखेज्जगुणे १२ आहारगसरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे १३-१९ तिविहस्स मणजोगस्स चउव्विहस्स वयजोगस्सएएसि सतह बि तुल्ले जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे २० आहारगसरीरस्स उकोसर जोए असंखेजगुणे २१-३० ओरालियस रीरस्स, चव्विहस्स य मणजोगस्स, चउव्बिहस् य वह यसरी For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. १ योग पन्द्रह जोगस्स-एएसि णं दसण्ह वि तुल्ले उकोसए जोए असंखेजगुणे । की 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति । * ॥ पणवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्य-६ प्रश्न-हे भगवन् ! इन पन्द्रह प्रकार के योगों में कौन योग किस योग से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! १ कार्मण-शरीर का जघन्य काय योग सब से अल्प है, २ उससे औदारिक-मिश्र का जघन्य योग असंख्यात गुण है, ३ उससे वैक्रिय मिश्र का जघन्य योग असंख्यात गुण है। ४ उससे औदारिक शरीर का जघन्य योग असंख्य गुण है। ५ उससे वैक्रिय-शरीर का जघन्य योग असंख्य गुण है । ६ उससे कार्मण-शरीर का उत्कृष्ट योग असंख्येय गुण है । ७ उससे आहारक-मिश्र का जघन्य योग असंख्यात गुण है । ८ उससे आहारक मिश्र का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है। ९-१० उससे औदारिक-मिश्र और वैक्रियमिश्र का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है और परस्पर तुल्य है। ११ उससे असत्यामषा मनोयोग का जघन्य योग असंख्यात गुण है । १२ उससे आहारकशरीर का जघन्य योग असंख्यात गुण है । १३-१९ उससे तीन प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचनयोग, इन सात का जघन्य योग असंख्यात गण है और परस्पर. तुल्य है । २० उससे आहारक-शरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है-। २१-३० उससे औदारिक-शरीर, वैक्रिय-शरीर, चार प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचन योग, इन दस का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुण है और परस्पर तुल्य है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--योग-आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन (कम्पन) को 'योग' कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. १ योग पन्द्रह - ३२०५ वीर्यान्तराय. कर्म के क्षयोपशमादि की विचित्रता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव का योग दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है । उपर्युक्त जीवों के चौदह भेदों सम्बन्धी प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट भेद होने से अट्ठाईस भेद होते हैं। वहां योगों के अल्प-बहुत्व का कथन किया है । इनमें सूक्ष्म, अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य योग सब से अल्प है, क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से (अपूर्ण होने के कारण) दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सब से अल्प होता है और यह कार्मण-शरीर के व्यापार के समय में होता है। तत्पश्चात् समयसमय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है। अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग, पूर्वोक्त की अपेक्षा असंख्यात गुण होता है । बादर होने के कारण - उसका योग असंख्यात गुण बड़ा होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । यद्यपि पर्याप्त ते इन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्तक बेइन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, सख्यात योजन होने से संख्यात गुण ही होती है, तथापि यहाँ परिस्पन्दन (कम्पन-हलन चलन) रूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम विशेष की सामर्थ्य से असंख्यात गुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प ही होता है, और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत ही होता है, क्योंकि इससे विपरीतता भी देखी जाती है । जैसे-अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकाय वाले का परिस्पंदन अल्प भी होता है। नरक क्षेत्र में प्रथम समय में उत्पन्न नैरयिक 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहलाता है। इस प्रकार के दो नैरयिक जीव जिनकी उत्पत्ति विग्रहगति से अथवा ऋजुगति से आ कर अथवा 'एक की विग्रहगति से और दूसरे की ऋजुगति से आ कर हुई है, वे 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहलाते हैं। जिन दोनों के योग समान हों, वे 'समयोगी' कहलाते हैं और जिनके विषम हों, वे 'विषमयोगी' कहलाते हैं । ____ आहारक नारक की अपेक्षा अनाहारक नैरयिक हीन-योग वाला होता है, क्योंकि जो नैरयिक ऋजुगति से आ कर आहारकपने उत्पन्न होता है, वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गलों से उपचित (बढ़ा हुआ) होता है। इसलिये वह अधिक योग वाला होता है । जो नैरयिक विग्रहगति से आ कर अनाहारकपने उत्पन्न होता है, वह अनाहारक .. होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है, अतः हीन-योग वाला होता है। जो समान समय For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ द्र प्ररूपणा की विग्रहगति से आ कर अनाहारकपने उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजुगति से आ कर आहारकपने उत्पन्न होते हैं, वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा समान योग वाले होते हैं । जो ऋजुगति से आ कर आहारक उत्पन्न हुआ हैं और दूसरा विग्रहगति से आ कर अनाहारक उत्पन्न हुआ है, वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से अत्यधिक विषम-योगी होता है। सूत्र में हीनता और अधिकता का कथन कर दिया गया है । समान धर्मता रूप तुल्यता प्रसिद्ध होने के कारण उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया है । ३२०६ आगे प्रकारान्तर से पन्द्रह प्रकार के योग का कथन करके उसका अल्प-बहुत्व बताया गया है । यहाँ परिस्पन्दन रूप योग की विवक्षा की गई है । ॥ पच्चीसवें शतक का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक २ द्रव्य प्ररूपणा १ प्रश्न - कदविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहां - जीवदव्बा अजीवदन्वा य । २ प्रश्न - अजीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रूविअजीवदव्वा For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ द्रव्य प्ररूपणा ३२०७ य अरूविअजीवदव्वा य । एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपजवा जाव से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-'ते णं णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता'। ३ प्रश्न-जीवदम्बा णं भंते ! किं संखेजा, असंखेजा, अणंता? ३ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता।, प्रश्न-केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-'जीवदव्वा णं णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता' ? ____उत्तर-गोयमा ! असंखेजा णेरइया जाव असंखेजा वाउकाइया अणंता वणस्सइकाइया, असंखेजा बेइंदिया, एवं जाव वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से तेणटेणं जाव 'अणंता'। . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-जीव-द्रव्य और अजीव-द्रव्य । . . २ प्रश्न-हे भगवन् ! अजीव द्रव्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-रूपी अजीवद्रव्य और अरूपी अजीव-द्रव्य । इस अमिलाप (सूत्रपाठ)द्वारा प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पद में कथित अजीव पर्यवों के अनुसार, यावत् हे गौतम ! इस कारण कहा जाता है कि अजीव-द्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किंतु अनन्त है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव-द्रव्य संख्यात है, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम! जीव-द्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि जीव-द्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ जीव, अजीव का परिभोग नहीं, अनन्त हैं ? उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक असंख्यात हैं यावत् वायुकायिक असंख्यात हैं और वनस्पतिकायिक अनन्त हैं। बेइन्द्रिय यावत् वैमानिक असंख्यात हे तथा सिद्ध अनन्त हैं। इस कारण यावत् जीव अनन्त हैं। जीव, अजीव का परिभोग ४ प्रश्न-जीवदव्वा णं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? ४ उत्तर-गोयमा! जीवदव्वाणं अजीपदव्वा परिभोगत्ताए हन्य. मागच्छंति, णो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। ... प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव 'हव्वमागच्छंति' ? उत्तर-गोयमा ! जीपदव्वा णं अजीवदव्वे परियाइयंति, अजीवदव्वे परियाइइसा ओरालियं वेउब्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं, सोइं. दियं जाव फासिंदियं, मणजोगं, वइजोगं, कायजोगं, आणापाणुत्तं च णिवत्तयंति, से तेणटेणं जाव 'हन्धमागच्छंति' ।। - कठिन शब्दार्थ- परिभोगत्ताए-परिभोग रूप से, हव्वं-शीघ्र, परियाइयंति-ग्रहण करते हैं। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अजीव-द्रव्य, जीव-द्रव्यों के परिभोग में आते हैं या जीव-द्रव्य, अजीव-द्रव्यों के परिभौग में आते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! अजीव-द्रव्य, जीव-द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ २ जीव, अजीव का परिभोग ३२.९ परन्तु जीव-द्रव्य, अजीव-द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् जीव-द्रव्य, अजीव-द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते ?' . उत्तर-हे गौतम ! जीव-द्रव्य, अजीव-द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण कर के उनको औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् और कार्मण---इन पांच शरीर और श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय--इन पाँच इन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास में परिणमाते हैं। इस कारण अजीवद्रव्य, जीव-द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीव-द्रव्य, अजीव-द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। ५ प्रश्न-णेरंइयाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदवाणं णेरइया परिभोगत्ताए ? ५ उत्तर-गोयमा ! गेरइयाणं अजीवदव्या जाव हन्वमागन्छंति, णो अजीवदवाणं णेरइया हव्वमागच्छंति.। ___प्रश्न-से केणटेणं० ? उत्तर-गोयमा ! गेरइया अजीवदव्वे परियाइयंति, अजीवदव्वे परियाइइत्ता वेउब्विय सेयग-कम्मगं सोइंदियं जाव फासिंदियं आणा. पाणुत्तं च णिव्वत्तयंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-एवं जाव वेमाणिया । णवरं सरीरइंदियजोगा भाणियव्वा जस्स जे अत्थि । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अजीव-द्रव्य, नैरयिकों के परिमोग में आते हैं, या नैरयिक अजीव-द्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? . ५ उत्तर-हे गौतम ! अजीव-द्रव्य, नेरयिकों के परिभोग में आते हैं, परंतु For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१० भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य नैरयिक, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण कि यावत् परिभोग में नहीं आते ? उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के उन्हें वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ्वास में परिणत करते हैं । इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन है । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त, किंतु जिसके जितने शरीर, इन्द्रिय और योग हों, उसके उतने जानना चाहिये । विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के पाँचवें पद में जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यों के पर्यायों का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । जीव द्रव्य सचेतन है और अजीव द्रव्य अचेतन है । इसलिये जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण कर के उनको अपने शरीरादि रूप में परिणत करते हैं । यह उनका परिभोग है । जीव द्रव्य परिभोक्ता है और अजीव-द्रव्य अचेतन होने से ग्रहण करने योग्य है, अतः वे भोग्य हैं। इस प्रकार जीव-द्रव्य और अजीव द्रव्यों में भोक्तृ-भोग्य भाव है । असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य ६ प्रश्न - से पूर्ण भंते! असंखेज्जे लोए अनंताई दव्वाई आगासे भयव्वाई ? ६ उत्तर - हंता गोयमा ! असंखेज्जे लोए जाव भइयव्वाई | ७ प्रश्न - लोगस्स णं भंते! एगंमि आगासपपसे कहदिसिं पोग्गला चिज्जति ? ७ उत्तर - गोयमा ! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पहुन्च सिय For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य ३२११ तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं । ८ प्रश्न-लोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे कइदिसिं पोग्गला छिजंति ? . ८ उत्तर-एवं चेव, एवं उवचिजंति, एवं अवचिजति ? कठिन शब्दार्थ-चिजति-एकत्रित होते हैं, छिज्जति-पृथक होते हैं । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य रह सकते ६ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के एक आकाश-प्रदेश में पुद्गल कितनी . दिशाओं से आ कर एकत्रित होते हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! निर्व्याघात से (व्याघात-प्रतिबन्ध न हो, तो) छहों दिशाओं से और व्याघात हो, तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से पुद्गल आ कर एकत्रित होते हैं। ८ प्रश्न हे-भगवन् ! लोक के एक आकाश-प्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं में पृथक् होते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार (अन्य पुद्गलों के मिलने से) पुद्गल स्कन्ध रूप में उपचित होते हैं और पृथक होने पर अपचित होते हैं । विवेचन-असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य समा सकते हैं। इस विषय में प्रश्न पूछने का आशय यह है कि असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य कैसे समा सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे-एक कमरा एक दीपक के प्रकाश से परिपूर्ण है, उसमें दो, चार, दस आदि दीपक विशेष रखने पर उनके प्रकाश के पुद्गल भी उसी कमरे में समा जाते हैं, क्योंकि पुद्गल परिणाम की विचित्रता है । इसी प्रकार असंख्य प्रदेशात्मक लोक में अनन्त द्रव्य समा जाते हैं । इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । पुद्गलों का परिणाम इसी प्रकार का है । असंख्य प्रदेशात्मक लोक में अनन्त द्रव्य रह जाते है, अतः एक-एक प्रदेश में उनका चयापचय होता हैं । बहुत-सी दिशाओं से आ For Personal & Private Use Only | Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ जीव, स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित कर एक स्थान पर इकट्ठा होना (एक आकाश-प्रदेश में समा जाना) 'चय' कहलाता है । वहां से पृथक् होना 'छेद' कहलाता है । स्कन्ध रूप पुद्गल, दूसरे पुद्गलों के सम्पर्क से बढ़ जाते हैं, यह 'उप वय' कहलाता है और स्कन्ध रूप पुद्गलों में से प्रदेशों के पृथक् हो जाने से वह स्कन्ध कम हो जाता है, इसे 'अपचय' कहते हैं । इन चार बातों को बताने के लिये शास्त्रकार ने चार शब्द दिये हैं, वे क्रमशः इस प्रकार हैं-'चिज्जति, छिज्जति, उचिज्जति, अवचिज्जति'। जीव, स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित .. -AVMARRRRR ९ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जाई दवाइं ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाइं गेण्हइ, अठियाई गेण्हइ ? ९ उत्तर-गोयमा ! ठियाई पि गेण्हइ, अठियाइं पि गेण्हइ । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव जिन पुद्गल द्रव्यों को औदारिक शरीरपने ग्रहण करता है, वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को? ९ उत्तर-हे गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी। विवेचन-जितने आकाश क्षेत्र में जीव रहा हुआ है, उस क्षेत्र के अन्दर रहे हुए, जो पुद्गल द्रव्य हैं, वे 'स्थित द्रव्य' कहलाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं। वहां से खींच कर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कहना है कि जो गति रहित द्रव्य हैं, वे 'स्थित द्रव्य' कहलाते है और जो गति सहित द्रव्य हैं, वे 'अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं। १० प्रश्न-ताई भंते ! किं दव्वओ गेण्हइ, खेत्तओ गेण्हइ, For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ जीव, स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित ३२१३ कालओ गेहइ, भावओ गेण्हइ ? १० उत्तर - गोयमा ! दव्वओ वि गेण्डर, खेत्तओ वि गेहह, कालओ व गेहड़ भावओ वि गेहइ । ताइं दव्वओ अनंतपएसियाई दब्वाई, खेत्तओ असंखेजपरसोगाढाई एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुस, जाव णिव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायं पटुच्च सिय तिदिसिं सिय उदिसिं सिय पंचदिसिं । भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वह उन द्रव्यों को द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से ग्रहण करता है ? १० उत्तर - हे गौतम ! वह उन द्रव्यों को द्रव्य से भी, क्षेत्र, काल और भाव से भी ग्रहण करता है । वह द्रव्य से अनन्त प्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता 1 है । क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार, यावत् निर्व्याघात से छहों दिशाओं से और व्याघात हो, तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है । ११ प्रश्न - जीवे णं भंते! जाई दव्वाई वेउव्वियसरीरत्ताए use ताई किं ठियाई गेण्हह, अठियाई गेण्हह ? ११ उत्तर - एवं चेव, णवरं नियमं छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरत्ताए वि । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव, जिन द्रव्यों को क्रिय शरीरपने ग्रहण करता है, तो क्या स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता या अस्थित द्रव्यों को ? ११ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । विशेष में जिन द्रव्यों को वैक्रिय For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ जीव स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित शरीरपने ग्रहण करता है, वे नियम से छहों दिशाओं से आये हए होते हैं। इसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में भी समझना चाहिये। विवेचन-वैक्रिय-शरीर वाला, वैक्रिय-शरीर के योग्य छहों दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इस कथन का अभिप्राय यह है कि उपयोग पूर्वक वैक्रिष-शरीर करने वाला प्रायः पञ्चेन्द्रिय ही होता है और वह सनाड़ी के मध्यभाग में होता है । इसलिए उसके छहों दिशाओं का आहार संभव है । कुछ आचार्यों का ऐसा मत है कि-- त्रसनाड़ी के बाहर भी वायुकाय के वैक्रिय शरीर होता है, किन्तु अप्रधानता के कारण उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। तथा कुछ आचार्यों का ऐसा मत है कि--. लोकान्त के निष्कुटों (कोणों) में वैक्रिय-शरीरी वायु नहीं होती । यह पिछला अभिप्राय ठीक मालूम होता है। . - १२ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं तेयगसरीरत्ताए गिण्हइपुच्छा । १२ उत्तर-गोयमा ! ठियाइं गेण्हइ, णो अठियाइं गेण्हइ, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स । कम्मगसरीरे एवं चेव । एवं जाव भावओ वि गिण्हइ। __भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, जिन द्रव्यों को तेजस् शरीरपने ग्रहण करता है, इत्यादि ? | १२ उत्तर-हे गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित को नहीं । शेष कथन औदारिक-शरीरवत् । कार्मण-शरीर के विषय में भी इसी प्रकार । इस प्रकार यावत् ‘भाव से भी ग्रहण करता है' पर्यन्त। .. १३ प्रश्न-जाई दबाई दवओ गेण्हइ ताई किं एगपएसियाई गेण्डइ, दुपएसियाई गेण्हइ ? For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ जीव, स्थिर द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित ३२१५ १३ उत्तर - एवं जहा भासापए, जाव 'आणुपुविं गेव्हह, णो अणापुवि गेह' । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, वे एक प्रदेश वाले होते हैं, या दो प्रदेशी, इत्यादि ? १३ उत्तर - हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के 'भाषा' नामक ग्यारहवें पद के अनुसार, यावत् आनुपूर्वी ( क्रमपूर्वक ) ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी ( ऋप रहित ) नहीं । १४ प्रश्न - ताई भंते! कइदिसिं गेण्हह ? १४ उत्तर - गोयमा ! णिव्वाघापणं० जहा ओरालियम्स । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितनी दिशाओं से आये हुए द्रव्य ग्रहण करता है ? १४ उत्तर - हे गौतम ! निर्व्याघात हो तो छहों दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि औदारिक-शरीरवत् । १५ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जाई दव्वाई सोइंदियत्ताए गेव्ह ० ? १५ उत्तर - जहा वेउव्वियसरीरं, एवं जाव जिम्भिदियत्ताए, फासिंदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं, मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं । णवरं नियमं छद्दिसिं, एवं वहजोगत्ताए वि, कायजोगत्ताए जहा ओरालियसरीरस्स । भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रियपने ग्रहण करता है, इत्यादि ? For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३२१६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ जीव, स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित १५ उत्तर-हे गौतम ! वैक्रिय-शरीरवत् यावत् जिव्हेन्द्रिय पर्यन्त । स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में औदारिक-शरीर के समान । मनोयोग के विषय में कार्मण-शरीरवत् । यह नियम से छहों दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार वचन योग के द्रव्य भी । कायायोग के द्रव्य औदारिकशरीर के समान हैं। १६ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं आणापाणुत्ताए गेण्हइ। जहेव ओरालियसरीरत्ताए, जाव सिय पंचदिसि । । १६ उत्तर-केइ चउवीसदंडएणं एयाणि पयाणिभण्णंति-'जस्स जं अत्थि'। * : सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति। * ॥ पणवीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तों ॥ भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, जिन द्रव्यों को श्वासोच्छवासपने ग्रहण करता है, इत्यादि० ? १६ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक-शरीरवत् यावत् कदाचित् तीन, चार या पांच दिशा से आये हुए द्रव्य ग्रहण करता है । कोई-कोई आचार्य-इन पदों को चौबीस दण्डक में कहते है । यावत् 'जस्स ज अत्थि' अर्थात् 'जिसके जो हो, उसके लिये वही कहना चाहिये. 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--तेजस्-शरीर जीव के अवगाह क्षेत्र के भीतर रहे हुए द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, उससे बाहर रहे हुए द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता । क्योंकि उन्हें खीचने का स्वभाव उसमें नहीं है। अथवा वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित को नहीं। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सून-श. २५ उ. ३ संस्थान के भेद और अल्प-बहुत्व ३२११ क्योंकि उसका इसी प्रकार का स्वभाव होता है । आगे जिन शरीरों के लिये जिनका अतिदेश किया गया है, तदनुसार ' स्थित या अस्थित आदि द्रव्यों को ग्रहण करता है'--यह जानना चाहिये । यहां पाँच शरीर, पाँच इन्द्रियाँ. तीन योग और श्वासोच्छ्वास, ये चौदह पद हैं । इन चौदह पद सम्बन्धी चौदह दण्डक हैं, जिनका कथन यथा-योग्य रूप से किया गया है । ॥ पचीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक ३ संस्थान के भेद और अल्प-बहुत्व .१ प्रश्न-कइ णं भंते ! संठाणा पण्णता ? __ १ उत्तर-गोयमा ! छ संठाणा पण्णत्ता, तं जहा-१ परिमंडले, २ वट्टे, ३ तंसे, ४ चउरंसे, ५ आयते, ६ अणित्थंथे । कठिन शब्दार्थ--अणित्यंथे--अनित्थंस्थ--अर्थात् परिमण्डल आदि संस्थानों से अतिरिक्त संस्थान । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! संस्थान छह प्रकार के कहे हैं । यथा-परिमण्डल, वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र, आयत और अनित्थंस्थ। For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३२१८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के भेद और अल्प-बहुत्व २ प्रश्न-परिमंडला गं भंते ! संठाणा दवट्ठयाए कि संखेजा, असंखेजा, अणता ? २ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता। .. भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात है, या अनन्त हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। ३ प्रश्न-पट्टा णं भंते ! संठाणा० ? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव अणित्थंथा, एवं पएसट्टयाए वि, एवं दवट्ठपएसट्टयाए वि। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त है ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं। इसी प्रकार यावत् अनित्यंस्थ संस्थान पर्यन्त । इसी प्रकार प्रदेशार्य रूप से और द्रव्यार्थप्रवेशार्थ रूप से भी जानना चाहिये। ४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परिमंडल-बट्ट-तंस-चउरंस आयतअणित्थंथाणं संठाणाणं दबट्टयाए परसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ४ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा परिमंडलसंठाणा दवट्ठयाए, वट्टा संठाणा दवट्ठयाए संखेजगुणा, चउरंसा संठाणा दवट्ठयाए संखेज. For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान भेद अल्प-बहुत्व ३२१९ गुणा, तंसा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, आयतसंठाणा दवट्टयाए संखेजगुणा, अणिथंथा संठाणा दवट्ठयाए असंखेजगुणा । पएसट्टयाए सबथोवा परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए, वट्टा संठाणा पएसट्टयाए संखेजगुणा, जहा दवट्टयाए तहा पएसट्टयाए वि, जाव अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेनगुणा । दवट्ट-पएसट्टयाए सव्वत्थोवा परिमंडला संठाणा दव्वट्टयाए, सो चेव गमओ भाणियव्वो, जाव अणित्थंथा संठाणा दवट्टयाए असंखेजगुणा, अणित्थंथेहितो संठाणेहिंतो दव्वट्टयाए परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा, वट्टा संठाणा पएसट्टयाए संखेजगुणा सो, चेव पएसट्टयाए गमओ भाणि. यब्वो जाव अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेजगुणा। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र, आयत और अनित्थं स्थ, इन संस्थानों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ रूप से कौन संस्थान किन संस्थानों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? .' ४ उत्तर-हे गौतम ! १ द्रव्यार्थ रूप से परिमण्डल संस्थान सभी से अल्प है, २ उससे वृत्त संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात गुण है, ३ उससे चतुरस्र संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात गुग है, ४ उससे व्यत्र संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात गुण है, ५ उससे आयत संस्थान द्रव्यार्थ रूप से संख्यात गुण है, ६ उससे अनित्थंस्थ संस्थान द्रव्यार्थ रूप से असंख्यात गुण है । प्रदेशार्थ रूप-१ परिमण्डल संस्थान प्रदेशार्थ रूप से सभी से अल्प है, २ उससे वृत्त संस्थान प्रदेशार्थ रूप से संख्यात गुण है, इत्यादि जिस प्रकार द्रव्यार्थ रूप से कहा है, उसी प्रकार प्रदेशार्थ रूप से भी यावत् अनित्थंस्थ संस्थान प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है पर्यंत । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के भेद और अल्प-बहुत्व ____द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ रूप से-परिमण्डल संस्थान सभी से अल्प है, इत्यादि द्रव्यार्थ सम्बन्धी पूर्वोक्त गमक (पाठ) जानना चाहिये, यावत् 'अनित्थंस्थ संस्थान द्रव्यार्थ रूप से असंख्यात गुण है । द्रव्यार्थ रूप अनित्थंस्थ संस्थान से परिमण्डल संस्थान प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है, उससे वृत्त संस्थान प्रदेशार्थ रूप से संख्यात गुण है' इत्यादि पूर्वोक्त प्रदेशार्थ रूप का गमक यावत् 'अनित्यंस्थ संस्थान प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है' पर्यन्त । विवेचन-आकार को 'संस्थान' कहते हैं। जीव के छह संस्थान होते हैं और अजीव के भी छह संस्थान होते हैं । यहां अजीव के छह संस्थान कहे गये है। यथा परिमण्डल-चूड़ी जैसा गोल आकार । वृत्त-कुम्भकार के चक्र जैसा गोल आकार । व्यस्र-सिंघाड़े जैसा त्रिकोण आकार । चतुरस्र-बाजोट जैसा चतुष्कोण आकार । आयत-लकड़ी जैसा लम्बा आकार । अनित्यंस्थ-अनियत आकार अर्थात् परिमण्डल आदि से भिन्न विचित्र प्रकार का आकार । संस्थान द्रव्यार्थ रूप से, प्रदेशार्थ रूप से और उभय रूप से (द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ रूप से) अनन्त हैं। इसके पश्चात् संस्थानों की अवगाहना का विचार किया है। जो संस्थान जिस संस्थान की अपेक्षा बहु प्रदेशावगाही होता हैं, वह स्वाभाविक रूप से थोड़ा होता है। परिमण्डल संस्थान जघन्य बीस प्रदेशावगाही होता है और वृत्त, चतुरस्र और आयत संस्थान जघन्य से अनुक्रमशः पांच, चार, तीन और दो प्रदेशावगाही होता है । अतः परिमण्डल संस्थान बहतर प्रदेशावगाही होने के कारण सब से थोड़ा है । उससे वृत्त आदि संस्थान अल्प-अल्प प्रदेशावगाही होने से संख्यात गुण अधिक-अधिक होते हैं । अनित्थंस्थ संस्थान वाले पदार्थ, परिमण्डलादि द्वयादि संयोग वाले होने से उनसे बहुत अधिक हैं । इसलिये यह उन सब से असंख्यात गुण अधिक है । प्रदेश की अपेक्षा अल्प-बहुत्व भी इसी प्रकार है। क्योंकि प्रदेश द्रव्यों के अनुसार होते हैं और इसी प्रकार द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ रूप से भी अल्पबहत्व जानना चाहिये । किन्तु द्रव्यार्थ रूप के अनित्थंस्थ संस्थान से परिमण्डल प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान पाँच .. MDMIPARAw ५ प्रश्न-कइ णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? ५ उत्तर-गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता, तं जहा-परिमंडले, जाव आयये। ६ प्रश्न-परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं संखेजा, असंखेजा, अणंता ? ६ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता । ७ प्रश्न-वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा० ? ७ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव आयया । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे हैं ? ... ५ उत्तर-हे गौतम ! संस्थान पांच कहे हैं। यथा-परिमण्डल यावत् • आयत । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, परन्तु अनन्त हैं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । यावत् आयत संस्थान पर्यंत । ८ प्रश्न-इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा किं संखेजा, असंखेजा, अर्णता ? For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२२ वि । भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान पाँच ८ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जा, जो असंखेज्जा, अनंता । ९ प्रश्न - वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा, असंखेजा० ? ९ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव आयया । १० प्रश्न - सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा ०? १० उत्तर - एवं चेव, एवं जाव आयया । एवं जाव अहेसत्तमाए । ११ प्रश्न - सोहम्मे णं भंते! कप्पे परिमंडला संठाणा० ? ११ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव अच्चुए । १२ प्रश्न - गेवेज्ज विमाणाणं भंते ! परिमंडलसंटाणा० ? १२ उत्तर - एवं चेव, एवं अणुत्तरविमाणेसु वि, एवं ईसिफभाराए भावार्थसंख्यात हैं, असंख्यात है, या अनन्त है ? ८ उत्तर - हे गौतम! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में वृत्त संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् यावत् आयत संस्थान पर्यंत । - १० प्रश्न - हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी में परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? -८ प्रश्न हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में परिमण्डल संस्थान १० उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् यावत् आयत संस्थान तक और अध:सप्तम पृथ्वी पर्यंत । इत्यादि ? ११ प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, For Personal & Private Use Only } Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. 25 उ. 3 संस्थान पाँच 3223 11 उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् आयतं संस्थान तक और अच्युतकल्प पर्यन्त / 12 प्रश्न-हे भगवन् ! ग्रेवेयक विमानों में परिमण्डल संस्थान संख्यात है, इत्यादि ? 12 उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्रागभारा पृथ्वी पर्यन्त / विवेचन--संस्थान की प्ररूपणा इसके पूर्व भी की जा चुकी है, किंतु यहाँ रत्नप्रभादि के विषय में प्ररूपणा करने की इच्छा से पुन: संस्थान सम्बन्धी प्रश्न किया है / जिसके उत्तर में पांच संस्थानों का ही नाम निर्देश किया है। यहाँ अनित्थंस्थ संस्थान का कथन नहीं करने का कारण यह है कि वह परिमण्डल आदि दूसरे संस्थानों के संयोग से बनता है / अतः उसकी विवक्षा नहीं की गई। 13 प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमज्झे - तत्थ परिमंडला संठाणा किं संखेजा, असंखेना, अणंता ? 13 उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता / 14 प्रश्न-वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा, असंखेना ? 14 उत्तर-एवं चेव, एवं जाव आयया। ' 15 प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे वट्टे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा ? 15 उत्तर-एवं चेव, वट्टा संठागा एवं चेव, एवं जाव आयया। . एवं एक्केकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा / कठिन शब्दार्थ-जवमो-यवमध्य, चारेयवा-विचार करना चाहिए। भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ एक यवाकार(जो के आकार) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२४ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान पाँच परिमण्डल संस्थान है, वहाँ अन्य परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! वहाँ वृत्त संस्थान संख्यात हैं० ? १४ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् आयत संस्थान तक । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्त संस्थान है, वहाँ परिमण्डल संस्थान कितने हैं ? १५ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । वहाँ वृत्त संस्थान यावत् आयत संस्थान भी इसी प्रकार अनन्त हैं । प्रत्येक संस्थान के साथ पाँचों संस्थानों के सम्बन्ध का विचार करना चाहिये ।. १६ प्रश्न - जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवी एगे परिमंडले ठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेजापुच्छा । । १६ उत्तर - गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेज्जा, अनंता । प्रश्न- वट्टा णं भंते! संठाणा किं संखेजा ? उत्तर - एवं चेव, एवं जाव आयया । १७ प्रश्न - जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वट्टे संठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेजापुच्छा। १७ उत्तर - गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अनंता । वट्टा संठाणा एवं चेव, एवं जाव आयया । एवं पुणरवि एक्के केणं संठा For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान पाँच णं पंच विचारेयव्वा जहेव हेट्टिल्ला जाव आयएणं, एवं जाव असत्तमाए, एवं कम्पेसु वि, जाव ईसीपव्भाराए पुढवीए । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में जहाँ यत्रमध्य, यवमध्याकार परिमण्डल संस्थान है, वहाँ दूसरे परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? १६ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! वहाँ वृत्त संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत्, यावत् आयत पर्यन्त । १७ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में जहाँ यवाकार एक वृत्त संस्थान है, वहाँ परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? ३२२५ १७ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । वृत्त यावत् आयत संस्थान तक। यहाँ भी पूर्ववत् प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का विचार करना चाहिये तथा आगे अधःसप्तम पृथ्वी, कल्प यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पर्यन्त । विवेचन - यह सम्पूर्ण लोक परिमण्डल संस्थान वाले पुद्गल-स्कन्धों से निरन्तर व्याप्त है । उनमें से तुल्य प्रदेश वाले, तुल्य प्रदेशावगाही और तुल्य वर्णादि पर्याय वाले जो-जो परिमण्डल द्रव्य हैं, उन सब को कल्पना से एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिये । उसके ऊपर और नीचे एक - एक जाति वाले परिमण्डल द्रव्यों को एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार इनमें अल्प- बहुत्व होने से परिमण्डल संस्थान का समुदाय यवाकार बनता है । इनमें जघन्य प्रदेशिक द्रव्य स्वभाव से ही अल्प होने के कारण प्रथम पंक्ति छोटी होती है और उसके बाद की पंक्तियाँ अधिक अधिकतर प्रदेश वाली होने से अनुक्रम से बड़ी-बड़ी होती हैं । इसके पश्चात् क्रम से घटते घटते अन्त में उत्कृष्ट प्रदेश वाले द्रव्य अत्यन्त अल्प होने से अन्तिम पंक्ति अत्यन्त छोटी होती है। इस प्रकार तुल्य प्रदेश वाले और उससे भिन्न परिमण्डल द्रव्यों द्वारा यवाकार क्षेत्र बनता है । जहाँ एक यवाकार निष्पादक परिमण्डल संस्थान समुदाय होता है, उस क्षेत्र में यवाकार निष्पादक परिमण्डल के सिवाय दूसरे परिमण्डल संस्थान कितने होते हैं, यह प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर दिया गया है कि वे परिमण्डल संस्थान अनन्त होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश इसी प्रकार वृत्तादि संस्थानों के विषय में भी समझना चाहिये । संस्थान के प्रदेश १८ प्रश्न-पट्टे णं भंते ! संठाणे कइपएसिए कइपएसोगाढे पण्णत्ते ? - १८ उत्तर-गोयमा ! वट्टे संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाघणवट्टे य पयरवट्टे य । तत्थ णं जे से पयरवट्टे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य। तत्थ णं जे से ओयपएसिए . से जहण्णेणं पंचपएसिए, पंचपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेजपएसोगाढे । तत्थ गंजे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं बारसपएसिए, बारसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेजपएसोगाढे। तत्थ णं जे से घणवट्टे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य. जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं सत्तपए-. सिए, सत्तपएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपए. सोगाढे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं बत्तीसपएसिए, बत्तीसपएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज पएसोगाढे पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ३२२७ भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान कितने प्रदेश और कितने प्रदेशावगाढ़ कहा है? १८ उत्तर-हे गौतम ! वृत्त संस्थान दो प्रकार का कहा है । यथाघनवृत्त और प्रतरवृत्त । प्रतरवृत्त के दो भेद कहे हैं । यथा-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । इनमें से ओजप्रदेशिक प्रतरवृत्त जघन्य पंच प्रदेशिक और पंच प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक प्रतरवृत्त जघन्य बारह प्रदेशिक और बारह प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। घनवत्त संस्थान दो प्रकार का कहा है। यथा-ओजप्रवेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक नधन्य सप्त प्रदेशिक और सप्त प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। युग्म प्रदेशिक घनवृत्त संस्थान जघन्य बत्तीस प्रदेशिक और बत्तीस प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाड़ होता है। १९ प्रश्न-तंसे गं भंते ! संठाणे कइपएसिए कइपएसोगाढे पण्णते? ___ १९ उत्तर-गोयमा ! तसे णं संठाणे दुविहे पण्णत्ते । तं जहाघणतंसे य पयरतंसे य । तत्थ णं जे से पयरतंसे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं तिपएसिए तिपएसोगाढे पण्णत्ते, उकोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से "ओयपएसिए से जहण्णेणं पणतीसपएसिए पणतीसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए-तं चेव । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं चउप्पएसिए, चउप्पएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए-तं चेव। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! व्यस्त्र संस्थान कितने प्रदेशिक और कितने प्रदेशावगाढ़ होता है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! यस संस्थान दो प्रकार का कहा है। यथाधनव्यस्र और प्रतरत्र्यस्र । प्रतरत्र्यस्र दो प्रकार का कहा है । यथा-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक जघन्य तीन प्रदेश वाला और तीन प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक भौर असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। युग्मप्रदेशिक प्रतरत्र्यस्र जघन्य छह प्रदेशिक और छह प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश वाला और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है है । घनत्र्यस्र दो प्रकार का है । यथा-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक घनत्र्यस्त्र जघन्य पैंतीस प्रदेश और पैंतीस प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक घनश्यत्र जघन्य चतुष्प्रदेशिक और चतुष्प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। २० प्रश्न-चउरंसे णं भंते ! संठाणे कइपएसिए-पुच्छा। - २० उत्तर-गोयमा ! चउरं से संठाणे दुविहे पण्णत्ते, भेदो जहेव वट्टस्स जाव तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं णवपएसिए णवपएसोगाढे पण्णत्ते, उकोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २५ उ.३ संस्थान के प्रदेश ३२२९ पणत्ते । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहणणेणं चउपएसिए चउ. पएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए-तं चेव । तत्थ णं जे से घणचउरं से से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएमिए से जहण्णेणं सत्तावीसइपए सिए सत्तावीसइपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपसिए तहेव । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहणेणं अट्ठपएसिए अट्ठपएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! चतुरस्र संस्थान कितने प्रदेश का और कितने प्रदेशावगाढ़ कहा है ? २० उत्तर-हे गौतम ! वृत्त संस्थान के समान चतुरस्र संस्थान दो प्रकार का कहा है । यथा-घनचतुरस्र और प्रतरचतुरस्र । प्रतरचतुरस्र के दो भेद है-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक जघन्य नव प्रदेश और नव प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। युग्मप्रदेशिक जघन्य चतुष्प्रदेशिक और चतुष्प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । घनचतुरस्र दो प्रकार का कहा है । यथा-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक घनचतुरस्र जघन्य सत्ताईस प्रदेश और सत्ताईस प्रदेशावगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक धनचतुरस्त्र जघन्य अष्ट प्रदेश और अष्ट प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। ___२१ प्रश्न-आयए णं भंते ! संठाणे कइपएसिए कइपएसोगाढे पण्णते ? For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ___ २१ उत्तर-गोयमा ! आयए णं संठाणे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा-सेढिआयए, पयरायए, धणायए । तत्थ णं जे से सेहिआयए से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं तिपएसिए तिपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए-तं चेव । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं दुपएसिए दुपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ णं जे से पयरायए से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य। तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं पण्णरसपएसिए पण्णरसपएसोगाढे, उकोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ णं जे से घणायए से दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं पणयालीसपएसिए पणयालीसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव । तत्थ ण जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं बारसपएसिए बारसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव। भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! आयात संस्थान कितने प्रदेश का और कितने प्रदेशावगाढ़ होता है ? २१ उत्तर-हे गौतम ! आमत संस्थान तीन प्रकार का है-श्रेणीआयत, प्रतरआयत और घनआयत । श्रेणीआयत के दो भेद हैं । यथा-ओजप्रवेश और युग्मप्रवेश । ओजप्रदेश श्रेणीआयत, जघन्य तीन प्रदेश और तीन For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ३२३१ प्रदेशावगाढ़ और उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक असंख्य प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक श्रेणीआयत जघन्य द्विप्रदेशिक, द्विप्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । प्रतर-आयत दो प्रकार का है ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिकप्रतर-आयत जघन्य पन्द्रह प्रदेश, पन्द्रह प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक प्रतर-आयत जघन्य छह प्रदेश, छह प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। घनआयत दो प्रकार का है-, ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक । ओजप्रदेशिक घनआयत जघन्य पैंतालीस प्रदेश, पैंतालीस प्रदेशावगाढ़ और उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । युग्मप्रदेशिक-घनआयत जघन्य बारह प्रदेश, बारह प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। २२ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे कइपएसिए-पुच्छा । २२ उत्तर-गोयमा ! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य । तत्थ णं जे से पयरपरिमंडले से जहण्णेणं वीसइपएसिए वीसइपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव । तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहण्णेणं चत्तालीसहपएसिए चत्तालीसपएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते । ___ भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान कितने प्रदेश और कितने प्रवेशावगाढ़ कहा है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! परिमण्डल संस्थान दो प्रकार का है-घन परिमण्डल और प्रतर परिमण्डल । प्रवर परिमण्डल जघन्य बीस प्रदेश, बीस For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३२ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । घनपरिमण्डल जघन्य चालीस प्रदेश, चालीस प्रदेशावगाढ़ और उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशक, असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है। , विवेचन-पाँच संस्थानों में प्रथम 'परिमण्डल' संस्थान है, अतः उसका कथन पहले किया जाना चाहिये, किन्तु यहाँ परिमण्डल को छोड़ कर 'वृत्त' त्र्यस आदि नाम से कथन किया है, इसका कारण यह है कि इन चारों में सम प्रदेश और विषम प्रदेशो का कथन होने से सभी में प्रायः समानता है । इसलिये पहले इनका कथन किया है और परिमण्डल का पीछे कथन किया है, अथवा सूत्र का क्रम विचित्र होने से इस प्रकार कथन किया है। एक, तीन, पाँच आदि विषम (एकी वाली) संख्या को 'ओज' कहते हैं और दो चार, छह आदि सम (जोड़े वाली) संख्या को 'युग्म' कहते हैं। __ लड्डू अथवा गेन्द के समान जो गोल हो, उसे 'घनवृत्त' कहते हैं और मण्डक(पकाया हुआ एक प्रकार का अन्न घेवर) के समान, जो गोल होने पर भी मोटाई में कम हो, उसे 'प्रतरवृत्त' कहते हैं। : ओज-प्रदेशी प्रतरवृत्त में दो प्रदेश ऊपर, एक प्रदेश बीच में और दो प्रदेश नीचे होते हैं। युग्म-प्रदेशी प्रतरवृत्त में बारह प्रदेश होते हैं। ऊपर दो प्रदेश, उसके नीचे चार प्रदेश, उसके नीचे फिर चार प्रदेश और उसके नीचे दो प्रदेश होते हैं । ओज-प्रदेशिक घनवृत्त में सात प्रदेश होते हैं। एक मध्य परमाणु के ऊपर एक परमाणु और नीचे एक परमाणु तथा उसके चारों ओर चार परमाणु होते हैं। .. युग्मप्रदेशिक घनवृत्त में बत्तीस प्रदेश होते हैं। उनमें से दो ऊपर, चार नीचे, फिर चार नीचे और उनके नीचे दो प्रदेशी स्थापित करना चाहिये। उसके ऊपर इसी प्रकार का बारह प्रदेशों का दूसरा प्रतर रखना चाहिये और दोनों प्रतरों के मध्य भाग के चार प्रदेशों के ऊपर दूसरे चार प्रदेश ऊपर और चार प्रदेश नीचे रखना चाहिये । इस प्रकार बत्तीस प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घनवृत्त होता है। ओजप्रदेशिक घनश्यस जघन्य पैंतीस प्रदेशों का होता है, जिनमें से पहले पन्द्रह प्रदेशों का प्रतर रखना चाहिये । उसके ऊपर दस प्रदेशों का प्रतर, उसके ऊपर तीसरा छह प्रदेशों का प्रतर, उसके ऊपर चौथा तीन प्रदेशों का प्रतर और उसके ऊपर एक प्रदेश रखना चाहिये । इस प्रकार ये पैंतीस प्रदेश होते हैं। . For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 、 भगवती सूत्र - श २५ उ ३ संस्थान के प्रदेश घनत्र्यस्त्र के चार भेदों में से तीसरे भेद का आकार वृत्त संस्थान स्थापना में दिया है । शेष तीन भेदों का कथन भावार्थ में दे दिया है । आज प्रदेशिक घनचतुरस्र सत्ताईस प्रदेशों का होता है । नौ प्रदेशों का प्रतर रख कर उसके ऊपर उसी प्रकार के दो प्रतर और रखने चाहिये । चतुष्प्रदेशी प्रतर के ऊपर दूसरा चतुष्प्रदेशी प्रतर रखने से आठ प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घनचतुरस्र होता है । यह तीसरा और चौथा भेद है । इनके ऊपर न रखने से क्रमश: पहला और दूसरा भेद बन जाता है । प्रदेशों की लम्बी श्रेणी को 'श्रेणीआयत' कहते हैं । जघन्य ओजप्रदेशिक श्रेणीतीन प्रदेशात्मक होता है और युग्मप्रदेशिक श्रेणीआयत दो प्रदेशों का होता है । दो, तीन इत्यादि विष्कम्भ श्रेणी रूप 'प्रतरआयत' कहलाता है । मोटाई और विष्कम्भ सहित अनेक श्रेणियों को 'घनआयत' कहते हैं । ओजप्रदेशिक श्रेणीआयत जघन्य तीन प्रदेशों का होता है और युग्मप्रदेशिक श्रेणीआयत द्विप्रदेशिक होता हैं । प्रदेशिक प्रतरआयत जघन्य पन्द्रह प्रदेशों का होता है । युग्मप्रदेशिक प्रतर आयत छह प्रदेशों का होता है । पन्द्रह प्रदेशों के प्रतरआयत पर दूसरे दो उसी प्रकार के प्रतरआयत रखने से जवन्य पैंतालीस प्रदेशों का ओजप्रदेशिक घनआयत होता है । छह प्रदेशों के युग्मप्रदेशिक प्रतरआयत के ऊपर उसी प्रकार का दूसरा प्रतरआयत रखने से बारह प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घनआयत होता है । परिमण्डल संस्थान केवल युग्मप्रदेशिक होता है । इनमें से प्रतरपरिमण्डल जघन्य बी प्रदेशों का होता है । उसके ऊपर दूसरा प्रतरपरिमण्डल रखने से जघन्य चालीस प्रदेशों का घनपरिमण्डल होता है । आकार निम्नानुसार है --- वृत संस्थान स्थापना | १ १ १ । १ ओज प्रदेशी प्रतर १ १ १ १ १ For Personal & Private Use Only ३२३३ १ १ १ १ १ १ | 1 युग्म प्रदेशी प्रतर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३४ भगवती-सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश २। २ २ | २ ओज प्रदेशी घनवृत्त युग्म प्रदेशी घनवृत्त ओज प्रदेशी प्रतर व्यस्र युग्म प्रदेशी प्रतर यस्र ओज प्रदेशी घन यस्र युग्म प्रदेशी घन व्यस्र ओज प्रदेशी प्रतर चतुरस्र युग्म प्रदेशी प्रतर चतुरस्र ३ ३ ३ ओज प्रदेशी घन चतुरस्र युग्म प्रदेशी घन चतुरस्र For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगव श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ३२३५ ओज प्रदेशी श्रेणी आयत युग्म प्रदेशी श्रेणी आयत ओज प्रदेशी प्रतर आयत युग्म प्रदेशी प्रतर आयत ३ ३ | ३/३ | ३ | ३ | ३ | ३ | ३ ३ ओज प्रदेशी घन आयत युग्म प्रदेशी घन आयत २ | २ | २ | २ | २ | २ | २ | २ युग्म प्रदेशी प्रतर परिमंडल युग्म प्रदेशी धन परिमन्डल नोट-इनमें जो अंक रखे गये हैं उतने प्रदेश ऊंची, नीची, घनता (जाडाई) समझनी वाहिए। २२ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे दवट्ठयाए किं कडजुम्मे, तेयोए, दावरजुम्मे, कलियोए ? २२ उत्तर-गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेयोए, णो दावरजुम्मे, कलियोए। For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ गंस्थान के प्रदेश प्रश्न-वट्टे णं भंते ! संठाणे दवट्टयाए ? उत्तर-एवं चेव, एवं जाव आयए । भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है, व्योज है, द्वापरयुग्म है अथवा कल्योज है ? . २३ उत्तर-हे गौतम ! कृतयुग्म नहीं, त्र्योज नहीं, द्वापरयुग्म भी नहीं, परन्तु कल्योज है। प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है, इत्यादि ? उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् ! इसी प्रकार यावत् आयत संस्थान पर्यंत। २४ प्रश्न-परिमंडला णं भंते ! संठाणा दवट्ठयाए किं कडजुम्मा, तेयोया-पुच्छा। २४ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, सिय तेयोगा, सिय दावरजुम्मा, सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेयोगा, णो दावरजुम्मा, कलियोगा एवं जाव आयया । भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है, व्योज है, द्वापरयुग्म है या कल्योज है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से-सामान्यतः सर्व समुदित रूप में कदाचित कृतयुग्म, कदाचित् व्योज, कदाचित् द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज होते हैं। विधानादेश--प्रत्येक की अपेक्षा कृतयुग्म नहीं, व्योज नहीं, द्वापरयग्म नहीं, किन्तु कल्योज हैं, यावत् आयत संस्थान पर्यन्त । २५ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे पएसट्टयाए कि कडजुम्मे For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश पुच्छा । २५ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मे, सिय तेयोगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलियोए । एवं जाव आयए । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म है o ? २५ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज है, यावत् आयत संस्थान पर्यन्त । २६ प्रश्न - परिमंडला णं भंते! संटाणा परसट्टयाए किं कडजुम्मा - पुच्छा । २६ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, तेयोगा वि, दावरजुम्मा वि कलियोगा वि । एवं जाव आयया । ३२३७ कठिन शब्दार्थ - ओघादेसेणं - ओघादेश - - सामान्य रूप से, विहाणावेसेणं- विधानादेश -- प्रत्येक की अपेक्षा से । भावार्थ - २६ प्रश्न - हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म है ० ? २६ उत्तर - हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज होते हैं । विधानादेश से कृतयुग्म भी होते हैं, त्र्योज भी, द्वापरयुग्म भी और कल्पोज भी होते हैं, यावत् आयत संस्थान तक । २७ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मपएसोगाढे जाव कलियोगपएसोगाढे ? For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. ३ संस्थान के प्रदेश २७ उत्तर-गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेयोगपएसोगाढे, णो दावरजुम्मपएसोगाढे, णो कलियोगपएसोगाढे। भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है, यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है ? २७ उत्तर-हे गौतम ! वह कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है, किन्तु व्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं, द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ भी नहीं और कल्योज प्रदेशावगाढ़ भी ' नहीं है। २८ प्रश्न-वट्टे णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मे-पुच्छा। २८ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे, सिय तेयोगपएसोगाढे, णो दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे । भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान कृतयुग्मं प्रदेशावगाढ़ है, इत्यादि ? __२८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है, कदाचित् योज प्रदेशावगाढ़ है, किन्तु द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ नहीं होता, हां, कदाचित् कल्योज प्रदेशावगाढ़ होता है । २९ प्रश्न-तंसे णं भंते ! संठाणे-पुच्छा। २९ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे, सिय तेयोगपए. सोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, णो कलियोगपएसोगाढे । ... भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! त्र्यस्र संस्थान कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश २९ उतर- हे गौतम! कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ, कदाचित् त्र्योज प्रदेशावगाढ़ और कदाचित् द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ होता है, किन्तु कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं होता । ३० प्रश्न - चउरंसे णं भंते! संठाणे० ? ३० उत्तर - जहा वट्टे तहा चउरंसे वि । जानना चाहिये । भावार्थ र्य - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! चतुरस्र संस्थान कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है ० ? ३० उत्तर - हे गौतम ! वृत्त संस्थान समान चतुरस्र संस्थान भी ३२३९ ३१ प्रश्न - आयए णं भंते !० - पुच्छा । ३१ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मपरसोगाढे जाव सिय कलियोगपए सोगा | भावार्थ - ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! आयत संस्थान० ? ३१ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ और यावत् कदाचित् कल्पोज प्रदेशावगाढ़ होता है । ३२ प्रश्न - परिमंडला णं भंते! संठाणा किं कडजुम्मपरसोगाढा, तेयोगपए सोगाढा - पुच्छा ! ३२ उत्तर - गोयमा । ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्म परसोगाढा, णो तेयोगपरसोगाढा, णो दावरजुम्मपएसो गाढा, णो कलियोग एसो गाढा | For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ है या योजप्रदेशावगाढ़ है. ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! भोघादेश और विधानादेश से भी कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ है, किन्तु योजप्रदेशावगाढ़ नहीं है, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ़ नहीं है और कल्योजप्रदेशावगाढ़ भी नहीं हैं। ३३ प्रश्न-वट्टा णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढापुच्छो । ___ ३३ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णोतेयोगपएसोगाढा, णो दावरजुम्मपएसोगाढा, णो कलियोगपएसोगाढा । विहाणादेसेगं कडजुम्मपएसोगाढा वि, तेयोगपएसोगाढा वि, णोदावरजुम्मपएसोगाढा, कलियोगपएसोगाढा वि। . भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! वृत्त संस्थान कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ है. ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ है, किन्तु योजप्रदेशावगाढ़ नहीं हैं, द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ़ नहीं हैं और कल्योजप्रदेशावगाढ़ भी नहीं हैं। विधानादेश से कृतयुग्मप्रवेशावगाढ़ भी हैं, योजप्रदेशावगाढ़ भी है, किन्तु द्वापरयुग्मप्रदेशावगाढ़ नहीं हैं । हाँ, कल्योजप्रदेशावगाढ़ हैं। ३४ प्रश्न-तंसा णं भंते ! संठाणा कि कडजुम्म०-पुच्छा ? . .३४ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेयोगपएसोगाढा, णो दावरजुम्मपएसोगाढा, णो कलियोगपएसोगाढा। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ा. २५ उ. 3 मंस्थान के प्रदेश ३२४१ विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि, तेयोगपएमोगाढा वि, दावर जुम्मपएसोगाढा वि, णो कलियोगपएसोगाढा । चउरंसा जहा वट्टा। भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! यस संस्थान कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं? ३४ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं हैं। विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ भी हैं, व्योज प्रदेशावगाढ़ भी हैं और द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ भी हैं, परन्तु कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं हैं। वृत संस्थान के समान चतुरस्र संस्थान भी जानना चाहिए। ३५ प्रश्न-आयया णं भंते ! संठाणा-पुच्छा । ३५ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेयोगपएसोगाढा, णो दावर जुम्मपएसोगाढा,णो कलियोगपएसोगाढा। विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि । ... भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! आयत संस्थान कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है? ___३५ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, परन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं हैं। विधामादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ भी हैं यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ भी हैं। ३६ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मसमयठिईए तेयोगसमयठिईए, दावरजुम्मसमयठिईए, कलियोगसमयटिईए ? । ३६ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयठिईए जाव सिय कलि. For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश योगसमयठिईए एवं जाव आयए। भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है, व्योज समय की स्थिति वाला है, द्वापरयुग्म समय की स्थिति वाला है या कल्योज समय की स्थिति वाला है ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है यावत् कदाचित् कल्योज समय की स्थिति वाला है। इस प्रकार यावत् आयत संस्थान पर्यन्त । ३७ प्रश्न-परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमयठिईया-पुच्छा। ३७ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयठिईया जाव सिय कलियोगसमयठिईया । विहाणादेसेणं कडंजुम्मसमयटिईया वि जाव कलियोगसमयठिईया वि एवं जाव आयया । भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं. ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं, यावत् कदाचित् कल्योज समय की स्थिति वाले हैं। विधानादेश से कृतयुग्म समय की स्थिति वाले भी हैं, यावत् कल्योज समय की स्थिति वाले . भी हैं । इस प्रकार यावत् आयत संस्थान पर्यन्त । ३८ प्रश्न-परिमंडले णं भंते ! संठाणे कालवण्णपजवेहिं किं काडजुम्मे जाव कलियोगे? For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ३२४३ ३८ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मे, एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ठिईए, एवं णीलवण्णपज्जवेहि, एवं पंचहिं वण्णेहिं, दोहिं गंधेहि, पंचहिं रसेहिं, अट्टहिं फासेहिं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं । ___ भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! परिमण्डल संस्थान के काले वर्ण के पर्याय कृतयुग्म है, यावत् कल्योज हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म रूप होते हैं, इत्यादि पूर्वोक्त स्थिति पाठ के अनुसार । इसी प्रकार नीला, लाल आदि पांच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श के विषय में, यावत् रूक्ष स्पर्श पर्याय तक। विवेचन-परिमण्डल संस्थान द्रव्न रूप से एक है । एक वस्तु में चार-चार का अपहार (भाग) नहीं होता । वह एक ही शेष रहता है । इसलिये वह कल्योज है । इस प्रकार वृत्त आदि संस्थान भी जानना चाहिये । परन्तु सामान्य रूप से यदि सभी परिमण्डल संस्थानों का विचार किया जाय, तब उनका चार-चार से अपहार करते हए, किसी समय कुछ भी शेष नहीं रहता, कदाचित् तीन, कदाचित् दो और कदाचित् एक शेष रहता है । इसलिये कदाचित् कृतयुग्म हाते है और यावत् कदाचित् कल्योज भी होते है। जब विधानादेश से अर्थात् विशेष दृष्टि से प्रत्येक संस्थान का विचार किया जाता है, तब चार .से अपहार न होने के कारण एक ही शेष रहता है । अत: वह कल्योज होता है। . जब परिमण्डल संस्थान का प्रदेशार्थ रूप से विचार किया जाता है, तब बीस आदि । क्षेत्र प्रदेशों में जो प्रदेश परिमण्डल संस्थान रूप से व्यवस्थित होते हैं, उनकी अपेक्षा से बीस आदि प्रदेशों का कथन किया गया है। उन प्रदेशों में चार-चार का अपहार करते हुए जब चार शेष रह जाते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं । जब तीन शेष रहते हैं, तब त्र्योज होते हैं, दो शेष रहने पर द्वापरयुग्म और एक शेष रहने पर कल्योज होता है, क्योंकि एक प्रदेश पर भी बहत-से परमाण अवगाढ होते हैं। 'अवगाह के विषय में कथन करते हए परिमण्डल संस्थान बीस प्रदेशावगाढ़ बताया गया है । बीस में चार का अपहार करते हुए चार शेष रहते हैं, अत: वह कृतया देशावगाढ़ ही होता है । इसी प्रकार आगे भी कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़, व्योज प्रदेशात - युग्म प्रदेशावगाढ़ और कल्योज प्रदेशावगाढ़ के विषय में यथायोग्य विचार करना न ये। परिमण्डल आदि संस्थानों का पहले एक वचन सम्बन्धी विचार किया है, For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश पश्चात् बहुवचन सम्बन्धी विचार किया है । उसमें ओघादेश और विधानादेश-ये दो भेद किये हैं । सामान्यतः सर्व समुदाय रूप का कथन 'ओघादेश' है और पृथक्-पृथक् विचार 'विधानादेश' है । इनके कथन में जो कृतयुग्म आदि परिमाण बनता है, वह वस्तु-स्वभाव होने से उस-उस प्रकार को कृतयुग्म, त्र्योज आदि परिमाण बनता है। इस प्रकार क्षेत्र विषयक विचार कर के काल और भाव से विचार किया है, जिसका अर्थ यह है कि-- परिमण्डलादि संस्थानों से परिणत स्कन्ध कितने काल तक ठहरते हैं और उन समयों में चतुष्कादि का अपहार करने पर कितने शेष बचते हैं, जिससे वे कृतयुग्मादि संख्या वाले बनते हैं । इसी प्रकार पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श, इन बीस बोलों की अपेक्षा भी कृतयुग्मादि का विचार किया है । ३९ प्रश्न-सेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं संखेजाओ, असं. खेजाओ, अणंताओ ? ____३९ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ, णो असंखेजाओ, अणंताओ। भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाश-प्रदेश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? । ३९ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं। ... ४० प्रश्न-पाईणपडीणाययाओ णं भंते ! सेढीओ दवट्ठयाए किं संखेजाओ० ? ४० उत्तर-एवं चेव । एवं दाहिणुत्तराययाओ वि, एवं उड्ढमहा. ययाओ वि । कठिन शब्दार्थ-पाईण-पूर्व दिशा, पडीण-पश्चिम दिशा । भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्व और पश्चिम लम्बी श्रेणियां द्रव्यार्थ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश ३२४५ रूप से संख्यात हैं ? ४० उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर लम्बी तथा ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिये । ४१ प्रश्न-लोगागाससेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं संखे. जाओ, असंखेजाओ, अणंताओ ? ४१ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ, असंखेजाओ, णो अणं. ताओ। भावार्थ-४.१ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम! संख्यात नहीं, अनन्त भी नहीं, किन्तु असंख्यात हैं। ४२ प्रश्न-पाईणपडीणाययाओ णं भंते ! लोगागाससेढीओ दव्वट्टयाए कि संखेजाओ० ? ४२ उत्तर-एवं चेव, एवं दाहिणुचराययाओ वि, एवं उड्ढमहाययाओ वि। ____ भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्व-पश्चिम लम्बी लोकाकाश की श्रेणियां द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार दक्षिण-उत्तर लम्बी तथा ऊर्ध्व अधो लम्बी लोकाकाश की श्रेणियां भी हैं। ४३ प्रश्न-अलोगागाससेढीओ णं भंते ! दवट्टयाए किं For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४६ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश संखेज्जाओ, असंखेजाओ, अनंताओ ? ४३ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जाओ, णो असंखेजाओ, अणंताओ । एवं पाईणपडीणाययाओ वि, एवं दाहिणुत्तराययाओ वि एवं उमहाययाओ वि । भावार्थ - ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? ४३ उत्तर - हे गौतम! संख्यात नहीं और असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम लम्बी, दक्षिण-उत्तर लम्बी तथा ऊर्ध्व-अधो लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियां भी हैं । ४४ प्रश्न - सेढीओ णं भंते ! परसट्टयाए किं सखेज्जाओ ? ४४ उत्तर - जहा दव्वट्टयाए तहा पट्टयाए वि जाव उड्दमहाययाओ वि सव्वाओ अनंताओ । भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! आकाश की श्रेणियां प्रदेशार्थ रूप से संख्यात हैं, ० ४४ उत्तर - हे गौतम! द्रव्यार्थवत् यावत् ऊर्ध्व और अधो लम्बी सभी श्रेणियां अनन्त हैं । ४५ प्रश्न - लोगागाससेढीओ णं भंते ! परसट्टयाए किं संखेज्जाओ - पुच्छा | ४५ उत्तर - गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेजाओ, गो अनंताओ । एवं पाईणपडीणाययाओ वि, दाहिणुत्तराययाओ वि एवं For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश चैव, उड्ढमहाययाओ णो संखेजाओ, असंखेजाओ, णो अनं ', ताओ । भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियां प्रदेशार्थ से संख्यात हैं ० ? ४५ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात प्रदेश हैं, किन्तु अनन्त नहीं । इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तरदक्षिण लम्बी श्रेणियां भी हैं । ऊर्ध्व-अधो लम्बी लोकाकाश की श्रेणियां संख्यात नहीं और अनन्त भी नहीं, किन्तु असंख्यात हैं । ३२४७ ४६ प्रश्न - अलोगागाससेढीओ गं भंते ! परसट्टयाए - पुच्छा ? ४६ उत्तर - गोयमा ! सिय संखेजाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अनंताओ । भावार्थ - ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थ से संख्यात हैं० ? ४६ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त हैं । ४७ प्रश्न - पाईणपडीणाययाओ णं भंते ! अलोगा ० - पुच्छा ? ४७ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जाओ, णो असंखेज्जाओ, अणंताओ । एवं दाहिणुत्तराययाओ वि । भावार्थ - ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! पूर्व-पश्चिम लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियां प्रदेशार्थ से संख्यात है० ? ४७ उत्तर - हे गौतम! संख्यात नहीं और असंख्यात मी नहीं, किन्तु For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४८ भगवती सूत्र-श. २५ उ ३ श्रेणी निरूपण . अनन्त हैं । इस प्रकार दक्षिण-उत्तर लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिये। ४८ प्रश्न-उड्ढमहाययाओ-पुच्छा ? ४८ उत्तर-गोयमा ! सिय संखेजाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ। भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊर्ध्व और अधो लम्बी अलोकाकांश की श्रेणियां प्रदेशार्थ से संख्यात हैं. ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त हैं। विवेचन--यद्यपि पंक्ति मात्र को 'श्रेणी' कहते हैं, तथागि यहाँ आकाश-प्रदेश की पंक्तियां श्रेणी शब्द से कही है । श्रेणी के सामान्यत: चार भेद होते हैं । यथा-लोकालोक की विवक्षा किये बिना सामान्य श्रेणी, पूर्व और पश्चिम लम्बी श्रेणी, दक्षिण और उत्तर लम्बी श्रेणी और ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणी। इस प्रकार लोक सम्बन्धी चार और अलोक 'सम्बन्धी चार श्रेणियाँ होती हैं । सामान्य आकाशास्तिकाय की श्रेणियाँ अनन्त है और लोकाकाश की श्रेणियाँ असंख्यात । क्योंकि लोकाकाश असंख्यात प्रदेशात्मक ही है । अलोकाकाश की श्रेणियाँ अनन्त हैं, क्योंकि अलोकाकाश अनन्त प्रदेशात्मक है। ___ लोकाकाश की पूर्व-पश्चिम लम्बी और उत्तर-दक्षिण लम्बी श्रेणियाँ संख्यात प्रदेश रूप हैं । इस विषय में चूर्णिकार का कथन है कि वृत्ताकार लोक के दन्तक जो अलोक में गये हुए हैं, उनकी श्रेणियाँ संख्यात प्रदेशात्मक हैं और अन्य श्रेणियाँ असंख्यात प्रदेशात्मक हैं। प्राचीन टीकाकार ने इस विषय में शंका-समाधान पूर्वक कथन किया है और निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि लोकाकाश वृत्ताकार होने से पर्यन्तवर्ती श्रेणियां संख्यात प्रदेश की हैं, अनन्त नहीं, क्योंकि लोकाकाश के प्रदेश अनन्त नहीं है । - लोकाकाश की ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणी असंख्यात प्रदेश की है, संख्यात या अनन्त प्रदेश की नहीं है । अधोलोक के कोण से अथवा ब्रह्म देवलोक के तिरछे प्रान्त भाग से जो श्रेणियाँ निकली हैं, वे भी इस सूत्र के कथन से संख्यात प्रदेश की या अनन्त प्रदेश For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २५ उ. ३ श्रेणी निरूपण ३२४६ की नहीं, असंख्यात प्रदेश की ही हैं। ___ अलोकाकाश की संख्यात और असंख्यात प्रदेश की जो श्रेणियाँ कही हैं, वे लोक मध्यवर्ती क्षुल्लक प्रतर के पास में आई हुई ऊर्ध्व-अधो लम्बी, अधोलोक की श्रेणियों की अपेक्षा समझना चाहिये । इनमें से प्रारम्भ की श्रेणियाँ संख्यात प्रदेशी हैं और उसके बाद को श्रेणियाँ असंख्यात प्रदेशो हैं । तिरछी लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ तो निश्चित रूप से अनन्त प्रदेशी ही हैं। ४९ प्रश्न-सेदीओ णं भंते ! १ कि साइयाओ सपज्जवसियाओ २ साइयाओ अपजवप्सियाओ ३. अणाइयाओ सपजवसियाओ ४ अणाइयाओ अपजवसियाओ ? ४९ उत्तर-गोयमा ! णो साइयाओ सपनवसियाओ, णो साइ. याओ अपज्जवसियाओ, णो अणाइयाओ सपज्जवसियाओ, अणाइयाओ अपजवसियाओ। एवं जाव उड्ढमहाययाओ। कठिन शब्दार्थ--साइयाओ-आदि-प्रारंभयुक्त, सपज्जवसियाओ--सपर्यवसितअन्त सहित । .. भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रेणियां सादि-सपर्यवसित (आदि और अन्त सहित) हैं, सादि अपर्यवसित (आदि सहित और अन्त रहित) हैं, अनादिसपर्यवसित (आदि रहित और अन्त सहित) हैं, अनादि-अपर्यवसित (आदि और अन्त रहित) हैं ? ४९ उत्तर-हे गौतम ! सादि-सपर्यवसित नहीं, सादि-अपर्यवसित नहीं और अनादि-सपर्यवसित भी नहीं हैं किन्तु अनादि-अपर्यवसित हैं। इस प्रकार * यावत् ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिये। ५० प्रश्न-लोगागाससेदोओ णं भंते ! किं साइयाओ सपज्ज For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५० भगवमी सूत्र-श. २५ उ. ३ श्रेणी निरूपण वसियाओ-पुच्छा। ५० उत्तर-गोयमा ! साइयाओसपज्जवसियाओ, णो साइयाओ अपज्जवसियाओ, णो अणाइयाओ सपज्जवसियाओ, णो अणाइयाओ अपज्जवसियाओ। एवं जाव उइदमहाययाओ। भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ क्या सादिसपर्यवप्तित हैं. ? ५० उत्तर-हे गौतम ! सादि-सपर्यवसित हैं, किन्तु सादि-अपर्यवसिल नहीं, अनादि-प्सपर्यवसिल नहीं और अनादि-अपर्यवसित भी नहीं हैं । इस प्रकार यावत् ऊर्ध्व और अधो लम्बी लोकाकाश श्रेणियाँ भी जाननी चाहिए। ५१ प्रश्न-अलोगागाससेढीओणं भंते ! किं साइयाओ०-पुच्छा? ५१ उत्तर-गोयमा ! १ सिय साइयाओ सपज्जवसियाओ २ सिय साइयाओ अपज्जवसियाओ ३ सिय अणाइयाओ सपजवसियाओ ४ सिय अणाइयाओ अपजवसियाओ । पाईणपडीणाययाओ दाहिशुतराययाओ य एवं चेव । णवरं णो साइयाओ सपज्जवसियाओ, सिय साइयाओ अपजवसियाओ, सेसं तं चेव । उड्ढमहाययाओ जहा ओहियाओ तहेव चउभंगो । भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियां सादि-सपर्यवसित है? ५१ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् सादि-सपर्यवसित हैं, कदाचित् सादिअपर्यवसित हैं, कदाचित् अनादि-सपर्यवसित हैं और कदाचित् अनादि-अपर्यवसित हैं। पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा दक्षिण-उत्तर लम्बी श्रेणियां भी इसी प्रकार, किंतु वे सादि-सपर्यवसित नहीं हैं। कदाचित् सादि-अपर्यवसित है, शेष पूर्ववत् । ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों के विषय में औधिक कथित चार भंग जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ श्रेणी निरूपण ५२ प्रश्न-सेढीओ णं भंते ! दव्वटुयाए किं कडजुम्माओ, तेओयाओ - पुच्छा । ५२ उत्तर - गोयमा ! कडजुम्माओ, णो तेओयाओ, णो दावरजुम्माओ, णो कलिओगाओ । एवं जाव उड्ढमहाययाओ । लोगागाससेढीओ एवं चैव । एवं अलोगागाससेढीओ वि । भावार्थ - ५२ प्रश्न - हे भगवन् ! आकाश की श्रेणियां द्रव्यार्थ से कृतयुग्म हैं, त्र्योज हैं० ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! वे कृतयुग्म हैं, किन्तु त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं । इसी प्रकार ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियां भी जाननी चाहिये । लोकाकाश की श्रेणियां और अलोकाकाश की श्रेणियां भी इसी प्रकार हैं । ३२५१ पुच्छा। ५३ प्रश्न - सेढीओ णं भंते ! परसट्टयाए किं कडजुम्माओ० - ५३ उत्तर एवं चैव एवं जाव उढमहाययाओ । भावार्थ - ५३ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रदेशार्थ से श्रेणियां कृतयुग्म हैं० ? ५३ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियां भी है । ५४ प्रश्न - लोगागाससेढीओ णं भंते ! परसट्टयाए - पुच्छा ? ५४ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्माओ, णो तेओयाओ, सिय दावरजुम्माओ, णो कलिओगाओ । एवं पाईणपडीणाययाओ वि, दाहिणुत्तराययाओ वि । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ श्रेणी निरूपण भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियां प्रदेशार्थ से कृतयुग्म हैं ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म है, व्योज नहीं है, कदाचित् द्वापरयुग्म है, परन्तु कल्योज नहीं है। इस प्रकार पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा • दक्षिण-उत्तर लम्बी श्रेणियां भी हैं। ___५५ प्रश्न-उड्ढमहाययाओ f०-पुच्छा ? ५५ उत्तर-गोयमा ! कडजुम्माओ, णो तेओयाओ, णो दावरजुम्माओ, णो कलिओगाओ। भावार्थ-५५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऊर्ध्व-अधो लम्बी लोकाकाश की श्रेणियां प्रदेशार्थ से कृतयुग्म हैं ? . ५५ उत्तर-हे गौतम ! वे कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं। ५६ प्रश्न-अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए-पुच्छा ? : ५६ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्माओ. जाव सिय कलि. ओगाओ। एवं पाईणपडीणाययाओ वि, एवं दाहिणुत्तराययाओ वि, उड्ढमहाययाओ वि एवं चेव । णवरं णो कलिओगाओ, सेसं तं चेव । भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रदेशार्थ से अलोकाकाश की श्रेणियां कृतयुग्म हैं ? - ५६ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज है । इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा दक्षिण-उत्तर लम्बी तथा ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियां भी हैं, परन्तु वे कल्योज नहीं हैं, शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगानी गुन-. २५ उ. ३ श्रेणियों के भेद और परमाणु की गति ३२५३ विवेचन-किसी भी प्रकार का विशेषण लगाये बिना सामान्य श्रेणियों में अनादिअपर्यवमित भंग पाया जाता है, शेष तीन भंग नहीं पाये जाते । लोकाकाश की श्रेणियों में 'मादि-मपर्यवसित' भंग पाया जाता है, शेष नहीं । क्योंकि लोकाकाश परिमित है । अलकाकाश की श्रेणियों के विषय में चारों भंगों का सद्भाव बताया है, वह इस प्रकार घटित होता है कि-मध्यलोकवर्ती क्षुल्लक प्रत र के र.मीप आई हुई ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियों की अपेक्षा 'सादि-सान्त' प्रथम भंग बनता है । लोकान्त से प्रारम्भ हो कर चारों ओर जाती हुई धेणियों की अपेक्षा 'सादि-अनन्त' दूसरा भंग घटित होता है । लोकान्त के निकट सभी श्रेणियों का अन्त होने से उनकी अपेक्षा 'अनादिसान्त' तीसरा भंग घटित होता है और लोक को छोड़ कर जो श्रेणियाँ हैं, उनकी अपेक्षा 'अनादि-अनन्त' चौथा भंग घटित होता है। अलोक में तिरछी श्रेणियों का सादित्व होने पर भी सपर्यवसितपन (सान्त) न होने से प्रथम भंग नहीं बनता, शेष तीन भंग बनते हैं। रुचक-प्रदेशों से प्रारम्भ हो कर जो पूर्व और दक्षिण लोकार्द्ध है, वह पश्चिम और उत्तर लोकार्द्ध के बराबर है। इसलिये पूर्व-पश्चिम श्रेणियाँ और दक्षिण-उत्तर श्रेणियाँ सम-संख्यक प्रदेशों वाली हैं। उनमें से कोई कृतयुग्म प्रदेशों वाली हैं और कोई द्वापरयुग्म प्रदेशों वाली हैं, किन्तु व्योज और कल्योज प्रदेशों वाली नहीं हैं । इसके लिये प्रदेशों की असद्भाव स्थापना बता कर इसी बात को स्पष्ट कर दिया है । अलोकाकाश की श्रेणियों के प्रदेशों में कृतयुग्मादि चारों भेद पाये जाते हैं । इसमें • वस्तु-स्वभाव ही मुख्य है। -WORDARARAM श्रेणियों के भेद और परमाणु की गति ५७ प्रश्न-कइ णं भंते ! सेढीओ पण्णत्ताओ ? ५७ उत्तर-गोयमा! सत्त सेढीओपण्णत्ताओ, तं जहा-१ उज्जु For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ घभियो । भ: नर परमाणु की गति आयया २ एगओवंका ३ दुहओवंका ४ एगओखहा ५ दुहओखहा ६ चक्कवाला ७ अद्धचक्कवाला । भावार्थ-५७ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही गई है ? . ५७ उत्तर-हे गौतम! श्रेणियाँ सात कहीं हैं । यथा-ऋज्वायत, एकतोवक्रा, उभयतोवक्रा, एकतःखा, उभयतःखा, चक्रवाल और अर्द्धचक्रवाल । . ५८ प्रश्न-परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं अणुसेढिं गई पवत्तइ, विसेदि गई पवत्तइ ? ५८ उत्तर-गोयमा ! अणुसेटिं गई पवत्तइ, णो विसेटिं गई पवत्तइ । कठिन शब्दार्थ-अणु सेढि-अनुश्रेणी-आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार, विसेदि-विश्रेणी । भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! 'परमाण-पुद्गल को गति अनुश्रेणी (आकाशप्रदेशों की श्रेणी के अनुसार) होती है या विश्रेणी (आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के विपरीत) होती है ? __ ५८ उत्तर-हे गौतम ! परमाणु-पुद्गल की गति अनुश्रेणी होती है, विश्रेणी नहीं होती। ५९ प्रश्न-दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढिं गई पवत्तइ, विसेटिं गई पवत्तइ ? ५९ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं । भावार्थ-५९ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध की गति अनुश्रेणी होती है For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ ३ श्रेणियों के भेद और परमाणु की गति ३२५५ या विश्रेणी ? ५९ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध पर्यन्त । ६० प्रश्न - रइयाणं भंते! किं अणुसेदिं गई पवत्तह, विसेटिं गई पत्त ? ६० उत्तर - एवं चैव एवं जाव वेमाणियाणं । " भावार्थ - ६० प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों की अनुश्रेणी गति होती है या विश्रेणी ? ६० उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् वैमानिक पर्यन्त । ६१ प्रश्न - इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवड्या णिरयावासस्यसहस्सा पण्णत्ता ? ६१ उत्तर - गोयमा ! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा पढमसए पंचमुद्देसगे जव 'अणुत्तरविमाण' त्ति । भावार्थ - ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे हैं ? ६१ उत्तर - हे गौतम! तीस लाख नरकावास कहे हैं, इत्यादि प्रथम शतक के पाँचवें उद्देशक के अनुसार, पावत् विमान पर्यन्त । विवेचन-श्रेणियों का वर्णन पहले किया गया है । अब दूसरी प्रकार से वर्णन मरते हुए श्रेणी के सात भेद बताये हैं। जिसके द्वारा जीव और पुद्गलों की गति होती है, उस आकाश-प्रदेश की पंक्ति को 'श्रेणी' कहते हैं । जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान, श्रेणी के अनुसार ही जाते हैं । विश्रेणी : ( विरुद्ध श्रेणी) से गति नहीं होती । १ ऋज्वायता - जिस श्रेणी से जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ श्रेणियों के भेद और परमाणु की गति चले जाते हैं, उसे 'ऋज्वायता श्रेणी' कहते हैं । इस श्रेणी के अनुसार जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है। २ एकतोवक्रा-जिस श्रेणी मे जीव, पहले सीधा जा कर फिर वक्र-गति प्राप्त करे (दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे) उसे 'एकतोवका श्रेणी' कहते हैं । इसके द्वारा जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं। ३ उभयतोवक्रा-जिस श्रेणी से जाता हुआ जीव, दो बार वक्र-गति करे। इस श्रेणी से जाने वाले जीव को तीन समय लगते हैं । यह श्रेणी ऊर्ध्वलोक की आग्नेयी (पूर्वदक्षिण के मध्य का कोण) दिशा से अधोलोक की वायव्य ( उत्तर-पश्चिम कोण) दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव के होती है । पहले समय में वह आग्नेयी दिशा से नीचे की ओर आग्नेयी दिशा में जाता है । दूसरे समय में आग्नेयी दिशा से तिरछा पश्चिम की ओर दक्षिण-दिशा के-नैऋत्य कोण की ओर जाता है । तीसरे समय में वहाँ से तिरछा हो कर उत्तर-पश्चिम-वायव्य कोण की ओर जाता है । यह तीन समय की गति सनाड़ी अथवा उससे बाहर के भाग में होती है। ४ एकतःखा-जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल सनाड़ी के बायें पक्ष से त्रसनाड़ी में प्रवेश करे और फिर असनाड़ी से जा कर उसके बायीं ओर वाले भाग में उत्पन्न होते हैं, उसे 'एकतःखा श्रेणी' कहते हैं । इस श्रेणी की एक ओर त्रसनाड़ी के बाहर का 'ख' अर्थात् आकाश आया हुआ है, इसलिये इसका नाम 'एकतःखा' हैं । इस श्रेणी में दो, तीन या चार समय की वक्र-गति होने पर भी क्षेत्र की अपेक्षा से इसे पृथक कहा है। ५ उभयतःखा-जीव, प्रसनाड़ी के बाहर से बायें पक्ष से प्रवेश कर के सनाड़ी से जाते हुए, दाहिने पक्ष में जिस श्रेणी से उत्पन्न होते हैं, उसे 'उभयतःखा श्रेणी' कहते हैं, क्योंकि उसको सनाड़ो के बाहर बायीं और दाहिनी ओर आकाश का स्पर्श होता है। ६ चक्रवाल-जिस श्रेणी से परमाणु आदि गोल चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं। ७ अर्द्ध चक्रवाल-जिस श्रेणी से परमाणु आदि आधा चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'अर्द्ध चक्रवाल' कहते हैं। श्रेणियों के कथन के पश्चात् परमाणु-पुद्गलादि तथा जीवों की गति का वर्णन किया है । उनकी गति, श्रेणी के अनुमार होती है, विश्रेणी से नहीं होती। For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिपिटक के भेद ६२ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! गणिपिडए पण्णत्ते ? ६२ उत्तर-गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए पण्णत्ते, तं जहाआयारो जाव दिठिवाओ। कठिन शब्दार्थ--गणिपिडए--गणिपिटक--आचार्य की पेटी। भावार्थ-६२ प्रश्न-हे भगवन् ! गणिपिटक कितने प्रकार का कहा है ? ६२ उत्तर-हे गौतम ! गणिपिटक बारह अंग रूप कहा है । यथाआचारांग यावत् दृष्टिवाद । ६३ प्रश्न-से किं तं आयारो ? ६३ उत्तर-आयारे णं समणाणं णिग्गंथाणं आयार-गोयर०एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा जहा गंदीए जाव "सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ णिज्जुत्तिमीसओ भणिओ । तइओ य णिरवसेसो एस विही होइ अणुओगे।" भावार्थ-६३ प्रश्न-हे भगवन् ! आचारांग किसे कहते हैं ? ६३ उत्तर-हे गौतम ! आचारांग सूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों का आचार, गोचर विधि (भिक्षाविधि) आदि चारित्र-धर्म की प्ररूपणा की गई है, नन्दीसूत्र के अनुसार सभी अंग सूत्रों का वर्णन जानना चाहिये, यावत्-“सुत्तत्थो खल पढमो" इस गाथा पर्यन्त । इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है-सर्व प्रथम सूत्र का अर्थ कहना चाहिये, दूसरे में नियुक्ति मिश्रित अर्थ कहना चाहिये और फिर तीसरे में निरवशेष अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ का कथन कहना चाहिये । यह अनुयोग (सूत्रानुसार अर्थ) की विधि है। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ गति आदि का अल्प-बहुत्व विवेचन-रत्नकरण्ड के समान आचार्य के लिये जो पिटक (आचार करण्डक-- आचार की पेटी) हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं। गणिपिटक के आचारांग से ले कर दृष्टिवाद तक बारह भेद कहे हैं । आचारांग सूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के अनेकविध आचार, गोचर (भिक्षा विधि), विनय विनयफल, ग्रहण, आसेवन शिक्षा आदि का वर्णन किया है । नन्दी सूत्र में अंग सूत्रों की प्ररूपणा 'मुत्तत्थो' इत्यादि गाथा पर्यन्त जानना चाहिये । गुरु महाराज द्वारा शिष्य को दी जाने वाली वाचना के विषय में बताया है कि सर्व-प्रथम मल सूत्र और उसका अर्थ मात्र कहना चाहिये । विशेष विस्तार से कहने में प्राथमिक शिष्यों को मतिसम्मोह न हो जाय, इसलिये प्रथम सूत्रार्थ मात्र कहना चाहिये । इसके बाद सूत्र को स्पर्श करने वाली-नियुक्ति (टीका आदि व्याख्या) सहित अर्थ कहना चाहिये । यह दूसरा अनुयोग है । तदनन्तर प्रसंगानुप्रसंग के कथन से सम्पूर्ण व्याख्या कहनी चाहिये । यह तीसरा अनुयोग है । मूल सूत्र का अनुकूल अर्थ के साथ संयोजन करना 'अनुयोग' कहलाता है । यह अनुयोग की विधि है। गति आदि का अल्प-बहुत्व ६४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! णेरइयाणं जाव देवाणं, सिद्धाण य पंचगइसमासेणं कयरे कयरे०-पुच्छा। .. ६४ उत्तर-गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तव्वयाए, अट्टगइ. समासअप्पाबहुगं च । भावार्थ-६४ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक यावत् देव और सिद्ध, इन पांच गति के समुदाय में कौन जीव, किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ६४ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के अनुसार तथा आठ गति के समुदाय का भी अल्प-बहुत्व जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ०५ उ. ३ गति आदि का अल्प-बहुत्व ६५ प्रश्न - एसि णं भंते! सइंदियाणं, एगिंदियाणं जाव अनिंदियाण य कयरे कयरे ० ? ६५ उत्तर - एयं पि जहा बहुवत्तव्वयाए तहेव ओहियं पयं भाणियन्वं, सकाइ अप्पा बहुगं तहेव ओहियं भाणियव्वं । भावार्थ - ६५ प्रश्न - हे भगवन् ! सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय यावत् अनिन्द्रिय जीवों में कौन जीव, किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ६५ उत्तर - हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के 1. औधिक पद के अनुसार जानना चाहिये। सकायिक जीवों का अल्प- बहुत्व भी बहुवक्तव्यता के औधिक पद के अनुसार है । ३२५९ ६६ प्रश्न - एएसि णं भंते! जीवाणं, पोग्गलाणं जाव सव्वपज्जवाणु य कयरे कयरे० ? ६६ उत्तर - जाव बहुवत्तव्वयाए । भावार्थ - ६६ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव और पुद्गल यावत् सर्व पर्यायों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ६६ उत्तर - हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानो । ६७ प्रश्न - एएसि णं भंते! जीवाणं, आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं ? ६७ उत्तर - जहा बहुवत्तव्वयाए जाव आउयस्स कम्मस्स अबंधगा For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६० विसेसाहिया । भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ गति आदि का अल्प-बहुत्व 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ' त्ति । || पणवीमइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ६७ प्रश्न - हे भगवन् ! आयु-कर्म के बन्धक और अबन्धक जीवों में कौन किससे अला, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ६७ उत्तर - हे गौतम! प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के अनुसार, यावत् 'आयु-कर्म के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं' तक । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - नैरयिक, तिथंच मनुष्य, देव और सिद्ध इन पाँच की अल्प- बहुत्व के लिये प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है। वहां का संक्षिप्त सार इस गाथा में बताया है- नर रइयां देवा सिद्धा तिरिया कमेण इह होंति । थोमसंख असंखा अनंतगुणिया अनंतगुणा || अर्थात् सब से थोड़े मनुष्य हैं। उनसे नैरयिक असंख्यात गुण हैं। उनसे देव असंख्यात गुण हैं | उनसे सिद्ध अनन्त गुण हैं और उनसे तियंच अनन्त गुण हैं । आठ गति के अल्प - बहुत्व के लिये भी प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है । वहाँ का सारांश इस प्रकार है- पहले आठ गतियाँ ( जिनका कि अल्प- बहुत्व बताया जा रहा है) के नाम बताये जाते हैं । यथा Roar तिस्तथा तिर्यग् नरामरगतयः । स्त्री पुरुष भेदाद्वेधा, सिद्धिगतिश्चेत्यष्टौ ॥ अर्थात् - - १ नरकगति २ पुरुष तिर्यंच ३ स्त्री तिथंच ( तिर्यंचणी) ४ पुरुष मनुष्य गति ५ स्त्री मनुष्य गति ६ पुरुष देव गति ७ स्त्री देव गति और ८ सिद्ध गति । इनका अल्प- बहुत्व इस प्रकार है- For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ३ गति आदि का अल्प-वहुत्व नारी नर नेरइया तिरित्थि सुर देवि सिद्ध तिरिया य । थोव असंखगुणा चउ संखगुणाणंतगुण दोण्णि || अर्थात् सब से अल्प मनुष्यिती ( स्त्रियां) हैं, उनसे मनुष्य असंख्यात गुण हैं, उनसे नैरयिक असंख्यात गुण है, उनसे तिर्यंचिनी अगख्यात गुण हैं. उनसे देव असंख्यात गुण हैं, उनसे देवियां संख्यात गुण हैं, उनसे सिद्ध अनन्त गुण हैं और उनसे तिर्यंव अनन्त गुण हैं। इसके पश्चात् सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि का अल्प - बहुत्व बताया है । इसके लिये भी प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है। उसका सारांश इस प्रकार है पण च उ-ति- अणिदिय, एगिदिय, सइंदिया, कमा हुति । योवा तिणिय अहिया, दो पंतगुणा विसेसाहिया || अर्थ- सब से अल्प पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनमें तेइन्द्रिय विशेषाधिक है, उनसे बेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनन्त गुण हैं, उनसे एकेन्द्रिय अनन्त गुण है और उनसे सइन्द्रिय विशेषाधिक हैं । सकायिक जीवों के अल्पबहुत्व के लिये भी प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है । सारांश इस प्रकार हैं ३२६१ तस ते उ-पुढ वि, जल-वाउ-काय अकाय-वणस्सड़ सकाया । थोव असंखगुणाहिय तिष्णि उ दोणंतगुण अहिया || अर्थ- सब से थोड़े सकायिक हैं, उनसे तेउकायिक जीव असंख्यात गुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक अपकायिक और वायुकायिक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे अकायिक अनन्त गुण हैं, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्त गुण हैं और उनसे सकायिक विशेषाधिक हैं । इसके पश्चात् जीव, पुद्गल, अद्धा समय, सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेश और सर्व पर्यायों के अल्प- बहुत्व का कथन किया है । यथा जीवा पोग्गल - समया देव्व पएसा य पज्जवा चेव । थोवा णंताणंता विसेसाअहिया दुवेऽणंता || अर्थ- सब से थोड़े जीव हैं, उनसे पुद्गल अनन्त गुण हैं, उनसे अद्धासमय अनन्त गुण हैं, उनसे सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं, उनसे सर्व प्रदेश अनन्त गुण हैं और उनसे सर्व पर्याय अनन्त गुण हैं । प्रज्ञापना सूत्र में इनके अल्प- बहुत्व के कारण का भी कथन किया है । इसके पश्चात् आयु-कर्म के बन्धक, अबन्धक, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुप्त, जाग्रत, For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६२ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा समवहत (समुद्घात को प्राप्त), असमवहत, सातावेदक, असातावेदक, इन्द्रियोपयुक्त (इन्द्रियों के उपयोग वाले), नो-इन्द्रियोपयुक्त, साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीवों के अल्प-बहुत्व का कथन किया है । इसके लिये प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है। ॥ पच्चीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक ४ - MARARIN द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा १ प्रश्न-कइ णं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णता, तं जहा-कडजुम्मे, जाव कलिओगे। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-चत्तारि जुम्मा, पण्णत्ताकडजुम्मे जाव कलिओगे' ? उत्तर-एवं जहा अट्ठारसमसए चउत्थे उद्देसए तहेष जाव से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! युग्म कितने कहे हैं ? For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा १ उत्तर - हे गौतम ! युग्म (राशि) चार प्रकार के कहे हैं। यथाकृतयुग्म यावत् कल्योज । प्रश्न - हे भगवन् ! चार युग्म क्यों कहे हैं ? उत्तर- हे गौतम ! अठारहवें शतक के चौथे उद्देशकानुसार, यावत् इसलिये हे गौतम ! इस प्रकार कहा है । ३२६३ -२ प्रश्न - णेरइयाणं भंते ! कइ जुम्मा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कडजुम्मे जाव कलिओए । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'रइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कडजुम्मे ० १ उत्तर - अट्टो तहेव । एवं जाव वाउकाइयाणं । भावार्थ-२ प्रश्न हे भगवन् ! नैरयिकों में कितने युग्म कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! चार युग्म कहे हैं। यथा- कृतयुग्म यावत् कल्योज । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि नैरयिकों के चार युग्म कहे हैं ? उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत्, यावत् वायुकायिक पर्यन्त । ३ प्रश्न - वणस्सइकाइयाणं भंते ! - पुच्छा । १३ उत्तर - गोयमा ! वणस्सइकाइया सिय कडजुम्मा, सिय तेओगा, सिय दावरजुम्मा, सिय कलिओगा । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चह - 'वणस्सइकाइया जाव कलिओगा' ? For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा उत्तर - गोयमा ! उववायं पडुच्च, से तेणट्टेणं तं चैव । बेइंदियाणं जहा रइयाणं । एवं जाव वेमाणियाणं, सिद्धाणं जहा वणस्स - काइयाणं । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों में कितने युग्म कहे हैं ? ३२६४ उत्तर - हे गौतम! वनस्पतिकायिक जीव कदाचित् कृतयुग्म होते हैं, कदाचित् त्र्योज, द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज होते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि ' वनस्पतिकायिक यावत् कदाचित् कल्योज होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! उपपात (जन्म) की अपेक्षा ऐसा कहा है कि यावत् कल्योज होते हैं । बेइन्द्रिय के विषय में नैरयिकों के समान, यावत् वैमानिक पर्यन्त | सिद्ध वनस्पतिकाधिक जीवों के समान है । विवेचन - राशि अर्थात् संख्या को 'युग्म' कहते हैं । जिस राशि में से चार-चार का अपहार करने पर अन्त में चार शेष रहें, उस राशि को 'कृतयुग्म' कहते हैं, तीन शेष रहें, उसे 'त्र्यो,' दो शेष रहें, उसे 'द्वापरयुग्म' और एक शेष रहें, उसे 'कल्योज' कहते हैं । वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं । इसलिए वे स्वाभाविक रूप से कृतयुग्म ही होते हैं, तथापि दूसरी गति से आ कर एक-दो इत्यादि जीव, उनमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे जीव कृतयुग्म आदि चारों राशि रूप होते हैं । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीव मरण की अपेक्षा भी कृतयुग्मादि चारों राशि होते हैं, किंतु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है । ४ प्रश्न - इविहा णं भंते ! सव्वदव्वा पण्णत्ता ? ४ उत्तर - गोयमा ! छव्विहा सव्वदव्वा पण्णत्ता, तं जहा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! सर्व द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं ? ४ उत्तर - हे गौतम ! सर्व द्रव्य छह प्रकार के कहे हैं। यथा-धर्मास्ति For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा काय, अधर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय ( काल ) । ५ प्रश्न - धम्मत्थिकाए णं भंते ! दव्वट्टयाए किं कडजुम्मे जाव कलिओगे ? ३२६५ ५ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेयोए, णो दावरजुम्मे, कलिए | एवं अहम्मत्थिकाए वि, एवं आगासत्थिकाए वि । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म, यावत् कल्पोज रूप है ? ' ५ उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म नहीं, श्योज नहीं और द्वापरयुग्म भी नहीं है, किन्तु कल्योज रूप है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी जानना चाहिये । ६ प्रश्न - जीवत्थिकाए णं भंते ! पुच्छा । ६ उत्तर - गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जीवास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है० ? ६ उत्तर - हे गौतम ! जीवास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है, परन्तु sयोज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है । ७ प्रश्न - पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! पुच्छा । ७ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे । अद्धा For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६६ भगवती सूत्र-२५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा समए जहा जीवत्थिकाए। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय द्रव्यार्थ से कृतयुग्म ? ७ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज भी होता है । अद्धासमय का कयन जीवास्तिकाय के समान है। ८ प्रश्न-धम्मत्थिकाए णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मेपुच्छा। ८ उत्तर-गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे । एवं जाव अद्धासमए । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! कृतयुग्म है, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है । इसी प्रकार यावत् अद्धासमय पर्यंत । ९ प्रश्न-एएसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय अधम्मस्थिकाय० जाव अद्धासमयाणं दवट्ठयाए० ? ९ उत्तर-एएसि णं अप्पाबहुगं जहा बहुंवत्तव्वयाए तहेव गिरवसेसं । भावार्थ-९ प्रश्न- हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् अद्धासमय, इनमें व्यार्थ से कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? ९ उत्तर--हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के अनुसार इन सब का अल्प-बहुत्व है। For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ३२६७ १० प्रश्न-धम्मत्थिकाए णं भंते ! किं ओगाढे, अणोण्ढे ? १० उत्तर-गोयमा ! ओगाढे, णो अणोगाढे । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय अवगाढ़ (आश्रित) है या अनवगाढ़ है ? १० उत्तर-हे गौतम ! अवगाढ़ है, अनवगाढ़ नहीं। ११ प्रश्न-जइ ओगाढे किं संखेजपएसोगाढे, असंखेजपएसोगाढे, अणंतपएसोगाढे ? __ ११ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजपएमोगाढे, असंखेजपएसोगाढे, णो अणंतपएसोगाढे । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि अवगाढ़ है, तो क्या संख्यात -प्रदेशावगाढ़ है, असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है या अनन्त प्रदेशावगाढ़ है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात प्रदेशावगाढ़ नहीं और अनन्त प्रदेशाव· गाढ़ भी नहीं, किन्तु असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है। १२ प्रश्न-जइ असंखेजपएसोगाढे किं कडजुम्मपएसोगाढेपुच्छा । ____ १२ उत्तर-गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेओग०, णो दावरजुम्म०, णो कलिओगपएसोगाढे। एवं अधम्मत्थिकाए वि, एवं आगासत्थिकाए वि, जीवत्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमए एवं चेव। For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है, तो कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है ० ? १२ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय भी । ३२६८ १३ प्रश्न - इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं ओगाढा, अणोगाढा ? १३ उत्तर - जहेव धम्मत्थिकाए, एवं जाव अहेसत्तमा, सोहम्मे एवं चैव, एवं जाव ईसिन्भारा पुढवी । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! यह रत्न प्रभा पृथ्वी अवगाढ़ है या अनवगाढ़ ? १३ उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय के समान, यावत् अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त तथा सौधर्म यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । विवेचन-धर्मास्तिकाय द्रव्य रूप से एक है । इसलिये उसमें चार का अपहार नहीं होता, एक ही अवस्थित रहता है। जीवास्तिकाय अनन्त होने से कृतयुग्म है । पुद्गलास्तिकाय यद्यपि अनन्त है, तथापि उसके संघात ( मिलने) और भेद ( पृथक् होने) के कारण उसका अनन्तपन अनवस्थित है. इसलिये वह कृतयुग्मादि चारों राशि रूप होता है | अद्वासमय में अतीत-अनागत काल में अवस्थित अनन्तपन होने से कृतयुग्मता है, प्रदेशार्थ रूप से सभी द्रव्य कृतयुग्म हैं, क्योंकि इनमें यथायोग्य असंख्यातपन और अनन्तपन अवस्थित है। धर्मास्तिकायादि तीन एक-एक द्रव्य होने से द्रव्यार्थ से तुल्य हैं और दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय अनन्त गुण हैं। उनसे पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय उत्तरोत्तर अनन्त गुण हैं । प्रदेश रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं, वे परस्पर तुल्य हैं और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा अल्प हैं। उससे जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय और आकाशास्तिकाय उत्तरोत्तर अनन्त गुण हैं । For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा i धर्मास्तिकाय लोकाकाश प्रमाण है । इसलिये वह लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ है । लोक के अमख्यात प्रदेश अवस्थित होने से उनमें कृतयुग्मता है । धर्मास्तिकाय भी लोक प्रमाण होने मे उसमें भी कृतयुग्मता है। इस प्रकार सभी अस्तिकाय लोक प्रमाण होने से उनमें कृतयुग्मता है किन्तु आकाशास्तिकाय के अवस्थित अनन्त प्रदेश होने से तथा आत्मावगाही होने से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ता है और अद्धासमय अवस्थित असंख्येय प्रदेशात्मक मनुष्य क्षत्रावगाही होने मे कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ता है । ३२६६ १४ प्रश्न - जीवे णं भंते ! दव्वट्टयाए किं कडजुम्मे - पुच्छा । १४ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, कलिओए | एवं रइए वि, एवं जाव सिद्धे । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है० ? १४ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म, ज्योज या द्वापरयुग्म नहीं, परन्तु कल्योज है । इस प्रकार नैरयिक यावत् सिद्ध पर्यंत । १५ प्रश्न - जीवा णं भंते ! दव्वट्टयाए किं कडजुम्मा-पुच्छा । १५ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मा, णो तेओगा, जो दावरजुम्मा, णो कलिओगा । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो ओगा, गोदावरजुम्मा, कलिओगा । । भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव ( बहुत जीव ) द्रव्यार्थ से कृतयुग्म हैं० ? १५ उत्तर - हे गौतम ! जीव ओघादेश (सामान्य) से कृतयुग्म हैं, किंतु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं । विधानादेश ( प्रत्येक की अपेक्षा ) कृतयुग्म, त्र्योज और द्वापरयुग्म नहीं, किन्तु कल्योज हैं । १६ प्रश्न - णेरड्या णं भंते ! दव्वट्टयाए - पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ___१६ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, कलिओगा । एवं जाव सिद्धा । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है . ? १६ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं, विधानादेश से कृतयुग्म, त्र्योज और द्वापरयुग्म नहीं, किन्तु कल्योज हैं। इस प्रकार यावत् सिद्ध पर्यंत। १७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मे-पुच्छा । १७ उत्तर-गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे । सरीरपएसे पडुच्च सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे । एवं जाव वेमाणिए । .. भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है. ? १७ उत्तर-हे गौतम ! आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा जीव, कृतयुग्म है, परन्तु व्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है। शरीर-प्रदेशों की अपेक्षा जीव कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज भी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यंत । १८ प्रश्न-सिद्धे णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मे-पुच्छा। १८ उत्तर-गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध, आत्म-प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है ? For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ३२७१ १८ उत्तर-हे गौतम ! कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है। १९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मा ०-पुच्छा। १९ उत्तर-गोयमा ! जीवपएसे पडुच ओघादेसेण वि विहाणा. देमेण वि कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावजुम्मा, णो कलिओगा। सरीरपएसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाब सिय कलिओगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलिओगा वि । एवं रइया वि, एवं जाव वेमाणिया। . प्रश्न-सिद्धा णं भंते !-पुच्छा। उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, णो कलिओगा। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव (बहुत जीव) प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है.? ... १९ उत्तर-हे गौतम ! प्रदेशों को अपेक्षा जीव ओघादेश से और विधानादेश से भी कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं। शरीरप्रदेशों की अपेक्षा जीव ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं, विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्योज भी हैं । इसी प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिक पर्यन्त । . प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध, प्रदेशार्य से कृतयुग्म है. ? उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से और विधानादेश से भी वे कृतयुग्म हैं, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है। विवेचन-जीव, द्रव्य रूप से एक द्रव्य है, इसलिये वह कल्योज है और बहुत से For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७२ भगवती सूत्र- श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा जीव, द्रव्य रूप से अनन्त अवस्थित होने से कृतयुग्म हैं और विधानादेश से अर्थात् प्रत्येक की अपेक्षा वे कल्योज हैं। जीव-प्रदेशों की अपेक्षा समस्त जीवों के प्रदेश अवस्थित अनन्त होने से और प्रत्येक जीव के प्रदेश अवस्थित असंख्यात होने से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहते हैं । अतः कृतयुग्म होते हैं। शरीर-प्रदेशों की अपेक्षा-सामान्य से सभी जीवों के शरीर-प्रदेश संघात और भेद से अनवस्थित अनन्त होने से भिन्न-भिन्न समय में उनमें कृतयुग्मादि चार राशि बन सकती है। विशेष में प्रत्येक जीव, शरीर के प्रदेशों में एक समय में भी चारों राशि पाई जा सकती है, क्योंकि किस' जीव-गरीर के प्रदेश कृतयुग्म होते हैं, तो किसी अन्य जीव-शरीर के प्रदेश न्योजादि राशि रूप होते हैं। इस . प्रकार चारों राशि पाई जाती हैं। २० प्रश्न-जीवे णं भंते ! किं कडजुम्मपएसोगाढे-पुच्छा। __२० उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलिओगपएसोगाढे । एवं जाव सिद्धे । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! जीव कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है. ? २० उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ होता है, यावत् सिद्ध पर्यन्त। २१ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं कडजुम्मपएसोगाढा-पुच्छा । २१ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओग०, णो दावर०, णो कलिओग० । विहाणादेसेणं कडजुम्मपए. सोगाढा वि जाव कलिओगपएसोगाढा वि । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव (बहुत जीव) कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है. ? २१ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, किन्तु For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं हैं। विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ हैं । २२ प्रश्न - णेरइयाणं - पुच्छा । २२ उत्तर - गोयमा ! ओघादेमेणं सिय कडजुम्मपए सोगाटा जाव सिय कलिओगपएसोगाढा । विहाणादेसेण कडजुम्मपए सोगाढा वि जाव कलिओगपएसो गाढा वि । एवं एगिंदिय-सिद्धवज्जा सव्वे वि सिद्धा एगिंदिया य जहा जीवा । ३२७३ भावार्थ - २२ प्रश्न हे भगवन् ! नैरयिक कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है० ? २२. उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है। विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय और सिद्धों को छोड़ कर सभी जीव हैं । सिद्ध और एकेन्द्रिय जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान है । - २३ प्रश्न - जीवे णं भंते ! किं कडजुम्मसमपट्टिईए- पुच्छा । २३ उत्तर - गोयमा ! कडजुम्मसमयट्टिईए, णो तेओग०, णो दावर०, णो कलिओगसमय ट्टिईए । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है ० ? २३ उत्तर - हे गौतम! जीव कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज समय की स्थिति वाला नहीं है । २४ प्रश्न - रइए णं भंते ! पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा २४ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयट्टिईए जांव सिय कलिओगसमट्टिए | एवं जाव वेमाणिए, सिद्धे जहा जीवे । भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक कृतयुग्भ समय की स्थिति वाला है ० ? २४ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति वाला यावत् कदाचित् कल्योज समय की स्थिति वाला है, यावत् वैमानिक पर्यन्त । सिद्ध तो जीव के समान है । ३२७४ २५ प्रश्न - जीवा णं भंते ! पुच्छा । २५ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमपट्टिईया, णो तेओग०, णो दावर०, णो कलिओग० । भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव ( बहुत जीव ) कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं ० ? २५ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश और विधानादेश से कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं, किन्तु त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज समय की स्थिति वाले नहीं हैं ? , २६ प्रश्न--णेरइयाणं-- पुच्छा | २६ उत्तर--गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमय ट्ठईया जाब सिय कलिओगसमयईिया वि । विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयट्टिईया वि जान कलिओगसमय ट्टिईया वि । एवं जाव वेमाणिया, सिद्धा जहा जीवा । For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्ग प्ररूपणा ३२७५ भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक (बहुत नैरयिक) कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं ? २६ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति वाले यावत् कल्योज समय की स्थिति वाले हैं। विधानादेश से कृतयुग्म समय की स्थिति वाले यावत् कल्योज समय की स्थिति वाले हैं। इसी प्रकार यावन् वैमानिक पर्यत । सिद्ध जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान है। विवेचन-औदारिक आदि शरीरों की विचित्र अवगाहना होने से उनमें कृतयुग्मादि चारों भेद पाये जाते है। इसी प्रकार आगे भी कृतयुग्मतादि को स्वयं घटित करना चाहिये। सामान्य जीव की स्थिति सर्वकाल में शाश्वत और सर्वकाल नियत, अनन्त समयात्मक होने से जीव कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है । नैरयिक आदि की भिन्न-भिन्न स्थित्ति होने से किसी समय कृतयुग्म समय की स्थिति वाला होता है, तो किसी समय यावत् कल्योज समय की स्थिति वाला होता है। सामान्यादेश से और विशेषादेश से जीवों की स्थिति अनादि-अनन्त काल की होने से वे कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं। सभी नैरयिकादि जीवों की स्थिति के समयों को एकत्रित किया जाय और उनमें चार-चार का अपहार किया जाय, तो सभी नैरयिक सामान्यादेश से कृतयुग्म समय यावत् । कल्योज समय की स्थिति वाले होते हैं और विशेषादेश से एक समय में कृतयुग्मादि चारों प्रकार के है । . २७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! कालवण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मेपुच्छा। - २७ उत्तर-गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च णो कडजुम्मे जाव णो कलिओगे । सरीरपएसे पडुच्च सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे । एवं जाव वेमाणिए । सिद्धो चेव ण पुच्छिज्जइ । For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा गुग्म प्ररूपणा भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? ___ २७ उत्तर-हे गौतम ! जीव-प्रदेशों की अपेक्षा वह कृतयुग्म, यावत् कल्योज नहीं है । शरीर-प्रदेशों की अपेक्षा वह कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज है, यावत् वैमानिक पर्यंत । यहां सिद्ध के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । २८ प्रश्न-जीवा णं भंते ! कालवण्णपजवेहि-पुच्छा। _२८ उत्तर-गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च ओघादेसेण वि विहाणा. देसेण वि णो कडजुम्मा जाव णो कलिओगा। सरीरपएसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलिओगा वि । एवं जाव वेमाणिया । एवं णील. वण्णपजवेहिं दंडओ भाणियव्वो एगत्तपुहत्तेणं, एवं जाव लुक्ख-फासपजवेहिं । भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव (बहुत जीव) काले वर्ण के पर्यायों को अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? २८ उत्तर-हे गौतम ! प्रदेशों की अपेक्षा जीव ओघादेश और विधानादेश से कृतयुग्म यावत् कल्योज नहीं हैं, किंतु शरीर-प्रदेशों की अपेक्षा ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज है । विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्पोज भी हैं। इस प्रकार यावत् वैमानिक तक । इसी प्रकार एकवचन और बहवचन से नीले वर्ण के पर्यायों का दण्डक तथा इसी प्रकार यावत् रूक्ष स्पर्श के पर्यायों तक जानना चाहिये। २९ प्रश्न-जीवे णं भंते ! आभिणियोहियणाणपजवेहिं किं For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ३२७७ कडजुम्मे-पुच्छा। २९ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे। एवं एगिदियवज्जं जाव वेमाणिए । भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान-पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है? . २९ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज है । इस प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक तक । ३० प्रश्न-जीवा णं भंते ! आभिणियोहियणाणपनवेहिपुन्छ। ३० उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा । विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलिओगा वि । एवं एगिदियवज्ज जाव वेमाणिया । एवं सुयणाणपजवेहि वि । ओहि. णाणपंजवेहि वि एवं चेव । णवरं विगलिंदियाणं णत्थि ओहिणाणं । मणपजवणाणं पि एवं चेव, णवरं जीवाणं मणुस्साण य, सेसाणं. पत्थि । भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! जीव (बहुत जीव) आभिनिबोधिक ज्ञान-पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है. ? । ___ ३० उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं। विधानादेश से कृतयुग्म भी यावत् कल्योज भी होते हैं । इस प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़ कर वैमानिक तक । इसी प्रकार श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के पर्यायों से भी है । भेद यह है कि विकलेन्द्रिय जीवों के अवधिज्ञान नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा मन:पर्ययज्ञान के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार है, परन्तु वह ओघिक जीवों और मनुष्यों को ही होता है, शेष दण्डकों में नहीं होता । ३२७८ ३१ प्रश्न-जीवे णं भंते! केवलणाणपज्जवेहिं किं कडजुम्मेपुच्छा । ३१ उत्तर - गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे । एवं मणुस्से वि. एवं सिद्धे वि । भावार्थ - ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ० ? ३१ उत्तर - हे गौतम ! कृतयुग्म तो है, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य और सिद्ध के विषय में भी है । ३२ प्रश्न - जीवा णं भंते! केवलणाण - पुच्छा ।' ३२ उत्तर - गोयमा ! ओघा देसेण वि विहाणा देसेण वि कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, णो कलिओगा । एवं मणुस्सा वि, एवं सिद्धा वि । भावार्थ - ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव ( बहुत जीव ) केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं० ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! ओघादेश और विधानादेश से कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं । इसी प्रकार मनुष्य और सिद्धों के विषय में भी है । ३३ प्रश्न - जीवे णं भंते! मइअण्णाणपज्जवेहिं कडजुम्मे० ? For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ द्रव्यादि की अपेक्षा युग्म प्ररूपणा ३२७९ ३३ उत्तर-जहा आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तहेव दो दंडगा। एवं सुयण्णाणपज्जवेहि वि, एवं विभंगणाणपज्जवेहि वि । चवखुदंसणअचक्खुदंसण-ओहिदंसणपज्जवेहि वि एवं चेव, णवरं जस्स जं अत्थि तं भाणियव्वं । केवलदसणपज्जवेहिं जहा केवलणाणपज्जवेहिं । भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव मतिअज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों के दो दण्डक के अनुसार । श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षदर्शन और अवधिदर्शन के पर्याय भी इसी प्रकार हैं, किन्तु श्रुतअज्ञानादि में से जिसके जो हो, उसके वह जानना चाहिये । केवलपर्शन के पर्याय, केवल ज्ञान के पर्याय के समान हैं। विवेचन-जीव-प्रदेश अमूर्त होते हैं । इसलिये उनके कालादि वर्ण के पर्याय नहीं होते, परन्तु शरोर-विशिष्ट जीव का ग्रहण होने से शरीर के वर्ण की अपेक्षा कम से कृतयुग्मादि चारों प्रकार की राशि का व्यवहार हो सकता है । यहाँ सिद्ध जीव के विषय में प्रश्न का जो निषेध किया है, इसका कारण यह है कि सिद्ध भगवान् अमूर्त हैं । इसलिये उनमें वर्णादि नहीं होते। आवरण के क्षयोपशम की विचित्रता से आभिनिबोधिक ज्ञान की विशेषताओं को और उसके सूक्ष्म अविभाज्य अंशों को 'आभिनिबो ध ज्ञान के पर्याय' कहते हैं । वे अनन्त हैं, परन्तु क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उनका अनन्तपना अवस्थित नहीं हैं । इसलिये भिन्न-भिन्न समय की अपेक्षा वे चारों राशि रूप होते हैं। एकेन्द्रिय जीव में सम्यवत्व न होने से आभिनिबोधिक ज्ञान नहीं होता, इसलिये एकेन्द्रिय के अतिरिक्त दूसरे जीवों का कथन किया है। ___ सभी जीवों की अपेक्षा, सभी आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों को एकत्रित किया जाय, तो सामान्यादेश से भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा वे चारों राशि रूप होते हैं, क्योंकि क्षयोपशम की विचित्रता से उसके पर्याय अनवस्थित अनन्त होते है । विशेषावेश से एक काल में भी चारों राशि रूप होते हैं । केवलज्ञान के पर्यायों का अनन्तपन अवस्थित होने से For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ सकम्प-निष्कम्प वे कृतयुग्म राशि रूप ही होते हैं । केवलज्ञान के पर्याय अविभागपलिच्छेद (अविभाज्य अंश) रूप होते हैं, इसलिये वे एक ही प्रकार के होते हैं। उनमें विशेषता नहीं होती। ३४ प्रश्न-कइ णं भंते ! सरीरगा पण्णता ? ३४ उत्तर-गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, जाव कम्मए । एत्थ सरीरगपयं णिरवसेसं भाणियव्वं जहा. पष्णवणाए । भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर कितने कहे हैं ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! शरीर पांच कहे हैं। यथा-औदारिक-शरीर यावत् कार्मण-शरीर । यहां प्रज्ञापना सूत्र का बारहवां शरीर-पद सम्पूर्ण जानना चाहिये। - MARRIME सकम्प निष्कंप ३५ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं सेया णिरेया ? ३५ उत्तर-गोयमा ! जीवा सेया वि, णिरेया वि। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जीवा सेया वि णिरेया वि' ? उत्तर-गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संसारसमा. वण्णगा य असंसारसमावण्णगा य । तत्थ णं जे ते असंसारसमा. For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ?' भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ सकम्प - निष्कम्प वण्णगा ते णं सिद्धा । सिद्धा णं दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अनंतरसिद्धा य परंपरसिद्धा य । तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं णिरेया, तत्थ णं जे ते अनंतर सिद्धा ते णं सेया । ३२८१ कठिन शब्दार्थ- सेया- सैज - कम्पन सहित, णिरेया- निरेज- कम्पन रहित । भावार्थ- - ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव सकम्प हैं या निष्कम्प ? ३५ उत्तर - हे गौतम! जीव सकम्प भी हैं और निकम्प भी । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि 'जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प उत्तर - हे गौतम! जीव दो प्रकार के कहे हैं- १ संसारसमापन्नक और २ असंसार समापन - ( मुक्त ) । असंसार समापन्नक सिद्ध दो प्रकार के कहे हैं१ अनन्तर सिद्ध और २ परम्पर सिद्ध । जो परम्पर सिद्ध हैं, वे निष्कम्प हैं और जो अनन्तर - सिद्ध हैं, वे सकम्प हैं । ३६ प्रश्न - ते णं भंते! किं देसेया सव्वेया ? ३६ उत्तर - गोयमा ! णो देसेया, सव्वेया । तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा सेलेसि पडिवण्णगा य असेले सिपडिवण्णगाय । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं णिरेया, तत्थ णं जे ते अमेलेसिपडिवण्णगा ते णं सेया । प्रश्न- ते णं भंते ! किं देसेया सव्वेया ? उत्तर - गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि, से तेणट्टेणं जाव णिरेया वि ? For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८२ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ राकम्प - निष्कम्प भावार्थ - ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! अन्तर सिद्ध देश - कम्पक हैं या सर्व कम्पक ? ३६ उत्तर - हे गौतम ! वे देश-कम्पक नहीं, सर्व-कम्पक हैं । जो संसार समापनक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं-१ शैलेशी प्रतिपत्रक ( शैलेशी अवस्था को प्राप्त) और २ अशैलेशीप्रतिपन्नक ( शैलेशी अवस्था को अप्राप्त) । शैलेशीप्रतिपन्नक निष्कम्प होते है और अशैलेशीप्रतिपन्नक सकम्प होते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! अशैलेशीप्रतिपन्नक देश-कम्पक हैं, या सर्व-कम्पक ? उत्तर - हे गौतम! बे देश (अंशतः ) कम्पक भी हैं और सर्व-कम्पक भी । इस कारण से हे गौतम! यावत् वे निष्कम्प भी हैं । ३७ प्रश्न - णेरड्या णं भंते ! किं देतेया सव्वेया ? ३७ उत्तर - गोयमा ! देसेया वि सव्वेया वि। प्रश्न-से केणट्टेणं जाव सव्वेया वि ?. उत्तर - गोयमा ! रइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - विग्गहगहसमावणगाय अविग्गहगइसमावण्णगा य तत्थ णं जे ते विग्गहसमावण्णा ते णं सव्वेया, तत्थ णं जे ते अविग्गहगहसमा - वणगा ते णं देसेया, से तेणट्टेणं जाव 'सव्वेया वि' । एवं जाव वेमाणिया । भावार्थ- ६- ३७ प्रश्न- हे भगवन् ! नैरयिक देश-कम्पक हैं या सर्व-कम्पक ! ३७ उत्तर - हे गौतम! वे देश-कम्पक भी हैं और सर्व-कम्पक भी । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् सर्व-कम्पक भी हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं । यथा -- ९ विग्रहगति समापत्रक और २ अविग्रहगति समापन्नक । विग्रहगति समापत्रक सर्व-कम्पक हैं। और अविग्रहगति समापन्नक देश-कम्पक हैं । इसलिए हे गौतम ! यावत् For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व सर्वकम्प भी हैं, वैमानिक पर्यन्त । विवेचन - सिद्धत्व की प्राप्ति के प्रथम समयवर्ती जीव, 'अनन्तर सिद्ध' कहलाते हैं, क्योंकि उस समय एक समय का भी अन्तर नहीं होता। जो सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमान सिद्ध जीव हैं, उनमें कम्पन होता हैं, क्योंकि सिद्धि गमन का समय और सिद्धत्व प्राप्ति का समय एक ही होने से और सिद्धि गमन के समय गमन क्रिया होने से उस समय वे सकम्प होते हैं । जिन्हें सिद्धत्व प्राप्ति होने के पश्चात् समयादि का अन्तर पड़ता है, वे 'परम्पर सिद्ध' कहलाते हैं । वे निष्कम्प होते हैं । जो जीव मोक्ष जाने के पहले शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, वे योगों का सर्वथा निरोध कर देते हैं । अतः वे उस समय निष्कम्प होते हैं । सकम्प होते हैं । क्योंकि उनका पूर्व शरीर में रहा निष्कम्प (निश्चल) होता है और जो गति क्रिया कारण वह देशतः सकम्प कहा गया है । जो संसारी जीव मर कर ईलिका गति से उत्पत्ति स्थान में जाते हैं, वे देशत: हुआ अंश, गति क्रिया रहित होने से सहित है, वह अंश सकम्प है । इस ३२८३ विग्रह गति को प्राप्त जीव अर्थात् जो मर कर विग्रहगति से या ऋजुगति से उत्पत्ति स्थान को जाता है, वह गेंद की गति के समान सर्वात्म रूप से उत्पन्न होता है । इसलिये वह सर्वतः सकम्प होता है। जो विग्रह-गति को प्राप्त नहीं है, वे गति में अवस्थित हैं । . वे शरीर में रहते हुए मरण-समुद्घात कर के ईलिका गति से उत्पत्ति क्षेत्र को अंशतः स्पर्श करते हैं । इसलिये वे देशतः सकम्पक होते हैं । अथवा स्वक्षेत्र में रहे हुए जीव अपने हाथ, पैर आदि अवयवों को इधर-उधर चलाते हैं, इस कारण वे देशतः सकम्पक हैं । परमाणु आदि का अल्प - बहुत्व ३८ प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते! किं संखेज्जा असंखेज्जा अनंता ? For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ___३८ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता। एवं जाव अणंतपएसिया खंधा। .. भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुदगल संख्यात हैं, असंख्यात • हैं, या अनन्त ह ? - ३८ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यंत । ३९ प्रश्न-एगपएसोगाढा णं भंते ! पोग्गला किं खेजा, . असंखेजा, अर्णता ? ___३९ उत्तर-एवं चेव । एवं जाव असंखेजपएसोगाढा । __भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाश के एक प्रदेश में रहे हए पुद्गल संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेश में रहे हुए पुद्गल पर्यंत। ४० प्रश्न-एगसमयठिईया णं भंते ! पोग्गला किं संखेज्जा ? ४० उत्तर-एवं चेव, एवं जाव असंखेजसमयट्टिईया। भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! एक समय को स्थिति वाले पुद्गल संख्यात हैं. ? ४० उत्तर-है गौतम ! पूर्ववत्, यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल भी। ४१ प्रश्न-एगगुणकालंगा णं भंते ! पोग्गला किं संखेजा ? ४१ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव अणंतगुणकालगा, एवं अवसेसा For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ३२८१ वि वण्णगंधरसफासा णेयव्वा जाव 'अणंतगुणलुक्ख' त्ति । भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक गुण काले पुद्गल संख्यात है. ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् यावत् अनन्त गुण काले पुद्गल भी पूर्ववत्, शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी, यावत् अनन्तगुण रूक्ष पर्यन्त । ४२ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, दुपएसियाण य खंधाणं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेमाहिया वा ? ४२ उत्तर-गोयमा ! दुपएसिएहिंतो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गला दवट्ठयाए बहुगा। भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल और द्वि प्रदेशो स्कन्ध द्रव्यार्थ से कौन-किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? __ ४२ उत्तर-हे गौतम ! द्वि प्रदेशो स्कन्धों से परमाण-पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं। ४३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! दुपएसियाणं तिप्पएसियाण य खंधाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? ४३ उत्तर-गोयमा ! तिपएसिएहिंतो खंधेहिंतो दुपएसिया खंधा दवट्टयाए बहुया, एवं एएणं गमएणं जाव दसपएसिएहिंतो खंधेहितो णवपएसिया खंधा दव्वट्टयाए बहुया । ___ भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध से त्रिप्रदेशी स्कन्ध वध्यार्थ से कौन-किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८६ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प- बहुत्व ४३ उत्तर - हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्धों से द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं । इस गमक (पाठ) से यावत् दस प्रवेशी स्कन्धों से नव प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं । ४४ प्रश्न - एसि णं भंते ! दसपएसिए० - पुच्छा ? ४४ उत्तर - गोयमा ! दसपए सिहिंतो खंधेर्हितो संखेज पए सिया खंधा वट्टयाए बहुया । भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! दस प्रदेशी स्कन्धों से० ? ४४ उत्तर - हे गौतम! दस प्रदेशी स्कन्धों से संख्यात प्रदेशी स्कन्ध वयार्थ से बहुत हैं । ४५ प्रश्न - एएसि णं भंते ! संखेज० - पुच्छा ? ४५ उत्तर - गोयमा ! संखेजपरसिप हिंतो खंधेहिंतो असंखेज परसिया खधा वट्टयाए बहुया । भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्यात प्रदेशी स्कन्धों से० ? ४५ उत्तर - हे गौतम! संख्यात प्रदेशी स्कन्धों से असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं । ४६ प्रश्न - एएसि णं भंते ! असंखेज ० - पुच्छा ? ४६ उत्तर - गोयमा ! अनंतपपसिहिंतो खंधेहिंतो असंखेज परसिया खधा दव्वट्टयाए बहुया । भावार्थ - ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध० ? For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ ४ परमाण आदि का अल्प-बहत्व ३२८७ ४६ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त प्रदेशो स्कन्धों से असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं। ४७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाण य खंधाणं पएसट्टयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? ४७ उत्तर-गोयमा ! परमाणुपोग्गलेहिंतो दुपएसिया खंधा पए. सट्टयाए बहुया । एवं एएणं गमएणं जाव णवपएसिएहिंतो खंधेहितो दसएसियाखंधा पएसट्टयाए बहुया, एवं सव्वत्थ पुच्छियव्वं । दसपएसिएहिंतो खंधेहितो संखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहु या । संखेजपएसिएहिंतो खंधेहितो असंखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया । भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल और द्विप्रदेशी-स्कन्धों में प्रदेशार्थ से कौन-किससे बहुत हैं ? ४७ उत्तर-हे गौतम ! परमाणु-पुद्गलों से द्विप्रदेशी-स्कन्ध प्रदेशार्थ से बहुत हैं, यावत् नव प्रदेशी स्कन्धों से दस प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से बहुत हैं , इसी प्रकार सर्वत्र प्रश्न करना चाहिये । दस प्रदेशी स्कन्धों से संख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से बहुत है। संख्यात प्रदेशो स्कंधों से असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से बहुत हैं। ४८ प्रश्न-एएसि णं भंते ! असंखेजपएसियाणं-पुच्छा। ४८ उत्तर-गोयमा ! अणंतपएसिएहिंतो खंधेहितो असंखेजपएसिया खंधा पएमट्टयाए बहुया । भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों० ? .. For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-वहुत्व ४८ उत्तर - हे गौतम! अनन्त प्रदेशी स्कन्धों से असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से बहुत है । ३२८८ ४९ प्रश्न - एएस णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपए सोगाढाण य पोग्गलाणं दव्वट्टयाए कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ४९ उत्तर - गोयमा ! दुपए सोगाढेहिंतो पोग्गलेहिंतो एगपएसो गाढा पोग्ला या विसेसाहिया । एवं एएणं गमएणं तिपएसोगाढे हिंतो पोग्गलेहिंतो दुपए मोगाढा पोग्गला दष्वट्टयाए विसेसांहिंया जाव दसपएसोगाढे हिंतो पोग्गले हिंतो णव एसोगाढा पोग्गला ०वट्टयाए विसेसाहिया | दसपएसो गाढेहिंतो पोग्गलेहिंतो संखेजपरसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए बहुया संखेज्जपएसोगा ढेहिंतो पोरग लेहिंतो असंखेज पर सोगाढा पोग्गला दव्बट्टयाए बहुया । पुच्छा सव्वत्थ भाणियव्वा । " . भावार्थ - ४९ प्रश्न - हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ़ और द्वि प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों में द्रव्यार्थ से कौन - किससे यावत् विशेषाधिक है ? ४९ उत्तर - हे गौतम! द्वि प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं । इसी गमक से त्रि प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से द्वि प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं, यावत् दस प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से नव प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक है। दस प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं । संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं । सर्वत्र प्रश्न करना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स.२५ उ.४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ३२८९ ५० प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपएसोगाढाण य पोग्गलाणं पएसट्ठयाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ..५० उत्तर-गोयमा ! एगपएसोगादेहितो पोग्गलेहितो दुपए. सोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए विसेसाहिया, एवं जाव णवपएसोगाढे. हिंतो पोग्गलेहिंतो दमपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए विसेमाहिया, दसपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहितो संखेजपएसोगाढा पोग्गला पएसट्ठयाए बहुया, संखेजपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहितो असंखेजपएसोगाढा पोग्गलापएसट्टयाए बहुया । भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ और द्विप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों में प्रदेशार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? । ५० उत्तर-हे गौतम ! एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से द्विप्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ रूप से विशेषाधिक हैं, यावत् नव प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से दस प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से विशेषाधिक हैं। दस प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से बहुत हैं । संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों से असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से बहुत हैं। ५१ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगसमयट्टिईयाणं दुसमयट्टिईयाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए ? ५१ उत्तर-जहा ओगाहणाए वत्तव्यया एवं ठिईए वि । भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति वाले पुद्गलों में द्रव्यार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ५१ उत्तर-हे गौतम ! अवगाहगा की वक्तव्यता के अनुसार स्थिति भी जाननी चाहिए। ५२ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगगुणकालयाणं दुगुणकालयाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए ? ..' ५२ उत्तर-एएसि णं जहा परमाणुपोग्गलाईणं तहेव वत्तव्वया णिरवसेसा, एवं सव्वेसिं वण्ण-गंध-रसाणं । भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन् ! एक गुण काला और द्वि गुण काला पुद्गलों में द्रव्यार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! परमाणु-पुद्गल आदि को वक्तव्यता के अनुसार। इसी प्रकार सभी वर्ण, गन्ध और रस के विषय में भी जानना चाहिये। ...५३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं दुमुणकवखडाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ___ ५३ उत्तर-गोयमा ! एगगुणकक्खडेहिंतो पोग्गलेहितो दुगुणकक्खडा पोग्गला दबट्ठयाए विसेसाहिया, एवं जाव णवगुणकवखडेहिंतो पोग्गलेहिंतो दसगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्टयाए विसेसाहिया. दसगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहिंतो संखेज्जगुणकाखडा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया, संखेज्जगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहितो असंखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए बहुया, असंखेजगुणकक्खडेहिंतो पोग्गले. हिंतो अणंतगुणकाखडा पोग्गला दव्वट्टयाए बहुया । एवं पएसठ्ठः For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ३२९१ याए । सव्वत्थ पुच्छा भाणियबा । जहा कक्खडा एवं मध्य-गरुयलहु या वि । सीय-उसिण-णिद्ध लुक्खा जहा वण्णा । कठिन शब्दार्थ-कक्खडा-कर्कश, लहुया-लघु, णिद्ध-स्निग्ध । भावार्थ-५३ प्रश्न-हे भगवन् ! एक गुण कर्कश और द्वि गुण कर्कश पुद्गलों में द्रव्यार्थ से कौन-किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ५३ उत्तर-हे गौतम! एक गुण कर्कश पुद्गलों से द्वि गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार यावत् नव गुण कर्कश पुद्गलों से दस गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं । दस गुण कर्कश पुद्गलों से संख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं । संख्यात गुण कर्कश पुद्गलों से असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं । असंख्यात गुण कर्कश पुद्गलों से अनन्त गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं । इसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी हैं। सर्वत्र प्रश्न करना चाहिये । कर्कश स्पर्श के अनुसार मृदु (कोमल), गुरु (भारी) और लघु (हलका) स्पर्श भी समझना चाहिये । शीत (ठण्डा) उष्ण (गर्म) स्निग्ध (चिकना) और रूक्ष (रुखा-लूखा) स्पर्श, वर्ण के समान हैं। . विवेचन-द्वयणुकों से परमाणु सूक्ष्म तथा एकत्व होने के कारण बहुत हैं और द्वि प्रदेशी स्कन्ध परमाणुओं से स्थूल होने से अल्प हैं । इसी प्रकार आगे-आगे के सूत्रों के विषय में भी जानना चाहिये । पूर्व-पूर्व की संख्या बहुत है और पीछे की संख्या अल्प है । दस प्रदेशिक स्कन्धों से संख्यात प्रदेशी स्कन्ध बहुत है, क्योंकि संख्यात के स्थान बहुत हैं । संख्यात-प्रदेशी स्कन्धों से असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध बहुत हैं, क्योंकि संख्यात प्रदेशी स्कन्धों की अपेक्षा असंख्यात के स्थान बहुत हैं, परन्तु असंख्यात-प्रदेशी स्कन्धों से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध अल्प हैं, क्योंकि उनका तथाविध सूक्ष्म परिणाम होता है । प्रदेशार्थ से विचार करते हुए बताया गया है कि परमाणुओं से द्विप्रदेशी स्कन्ध बहुत हैं । जैसे कल्पना की जाय कि द्रव्य रूप से सौ परमाणु और द्विप्रदेशी स्कन्ध साठ हैं, तो प्रदेशार्थ से परमाणु तो सौ ही है, परन्तु द्वयणुक १२० हैं । इस प्रकार ये बहुत हैं । यही विचारणा आगे भी समझनी चाहिये। परमाणु से ले कर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक एक प्रदेशावगाढ़ होते हैं और द्वयणुक For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व से ले कर अनन्त अणु स्कन्ध तक द्विप्रदेशावगाढ़ होते हैं । इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध से ले कर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक त्रिप्रदेशावगाढ़ होते हैं । इस प्रकार चतुष्प्रदेशावगाढ़ यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ़ स्कन्ध तक जानना चाहिये । ५४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, संखेजपएसियाणं, असंखेजपएसियाणं, अणंतपएसियाण य खंधाणं दवट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? . ५४ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया बंधा दव्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दब्वट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा दवट्ठः याए संखेनगुणा, असंखेजपएसिया खंधा दवट्ठयाए असंखेनगुणा, पएसट्टयाए-सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा पएसट्टयाए, परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपएसिया बंधा पपसट्टयाए असंखेज्जगुणा, दव्वट्ठपएमट्टयाए-सब्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दवट्ठयाए, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दब्वटुपएसट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा दव्वट्टयाए संखेजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपएसिया बंधा दवट्ठयाए असंखेजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा । भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से कौन-से पुद्गल-स्कन्ध, किन पुद्गल-स्कन्धों से यावत् विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व ३२९३ ५४ उत्तर - हे गौतम! द्रव्यार्थ से -- सब से थोड़े अनन्त प्रदेशी स्कन्ध हैं। उनसे परमाणु पुद्गल अनन्त गुण हैं। उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशी स्रून्ध असंख्यात गुण हैं । प्रदेशार्थ से - अनन्त ' प्रदेशी स्कन्ध सब से थोड़े हैं, उनसे परमाणु पुद्गल ( अप्रदेशार्थ ) अनन्त गुण हैं । उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध असंख्यात गुण हैं । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से - अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं। उनसे अनन्त प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं। उनसे परमाणुपुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं। उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं । ५५ प्रश्न - एएसि णं भंते ! एगपएमोगाढाणं, संखेज्जपएसोगाढाणं, असंखेज्जपए सोगाढाण य पोग्गलाणं दव्बट्टयाए पर सट्टयाए Goageसया करे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? ५५ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए, संखेजपरसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए संखेजगुणा, असंखेज्जपरसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, परसट्टयाए-सव्वत्थोवा एग एसो गाढा पोग्गला अपएसट्टयाए, संखेजपएसोगाढा पोग्गला परसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला पसट्टयाए असंखेज्जगुणां, दव्वट्टपर सट्टयाए-सव्वत्थोवा एगपए सोगाढा पोग्गला द० अपएस ट्टयाए, संखेजपए सोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए संखेज For Personal & Private Use Only 5 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगबती सूत्र - ग. २५ उ. ४ परमाणु आदि का अल्प-बहुत्व गुणा, ते चैव परसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेजपरसोगाढा पोग्गला दव्वट्टयाए असंखेजगुणा, ते चेत्र परसट्टयाए असंखेज्जगुणा । ३२६४ भावार्थ - ५५ प्रश्न - हे भगवन् ! एक प्रदेशावगाढ़ संख्यात प्रदेशावगाढ़ और असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों में द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से कौन-से पुद्गल किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? ५५ उत्तर -- हे गौतम ! द्रव्यार्थ से -- एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल सब से थोड़े हैं। उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल असंख्यात गुण हैं । प्रदेशार्थ से-- एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अप्रदेशार्थ से सब से थोड़े हैं। उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से+ संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से -- एक प्रदेश!वगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से सब से थोड़े हैं। उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं | ५६ प्रश्न - एएसि णं भंते! एगसमयईियाणं, संखेज्जसमय ट्टिईयाणं, असंखेज्जसमपट्टिईयाण य पोग्गलाणं० १ ५६ उत्तर - जहा ओगाहणाए तहा ठिईए विभाणियव्वं अप्पा बहुगं । भावार्थ - ५६ प्रश्न - हे भगवन् ! एक समय की स्थिति, संख्यांत समय की स्थिति + किसी-किसी प्रति में 'असंख्यात गुण' पाठ है । For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगमती सूत्र--१.२५ उ. ४ परमाण आदि का अल्प-बहत्व और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों में कौन-किससे यावत् विशेषा. धिक है ? ___५६ उत्तर-हे गौतम ! अवगाहना को अल्प-बहुत्व के अनुसार स्थिति के विषय में भी है। ५७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं, संखेजगुणकालगाणं, असंखेजगुणकालगाणं, अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए, पएसट्टयाए, दव्वट्ठपएसट्टयाए० ? ५७ उत्तर-एपसिं जहा परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबहुगं तहा एएसि पि अप्पाबहुंगं, एवं सेसाण वि वण्ण-गंध-रसाणं । भावार्थ-५७ प्रश्न-हे भगवन् ! एक गुण काला, संख्यात गुण काला, असंख्यात गुण काला और अनन्त गुण काला, इन पुद्गलों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल किन पुद्गलों से यावत् विशेषाधिक हैं ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! परमाणु-पुद्गल के अल्प-बहुत्व (सूत्र ५३) के अनुसार । इसी प्रकार सभी वर्ण, गन्ध और रस सम्बन्धी अल्प-बहुत्व भी। ५८ प्रश्न-एएसिं णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं, संखेजगुणकक्खडाणं, असंखेजगुणकक्खडाणं, अणंतगुणकवखडाण य पोग्गलाणं दवट्टयाए, पएसट्टयाए, दवट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? ५८ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा एगगुणकपखडा पोग्गला दबट्ट For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र २५ ८ परमाणु आदि का अल्पबहुत याए, संखेजगुणकक्खडा पोग्गला वट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजगुणक+खडा पोग्गला दव्वटुयाए असंखेजगुणा, अनंतगुणकवखडा पोग्गला दव्वट्टयाए अनंतगुणा, परसट्टयाए एवं चेव, णवरं संवेजगुणकाखडा पोग्गला पसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेमं तं चैव । दवस या सव्वत्थोवा एगगुणक+खडा पोग्गला दष्वट्टपणसट्टयाए, संखेज गुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्टयाएं संखेजगुणा, ते व पट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेजगुणक+खडा दव्वटुयाए असंखेजगुणा, ते चैव परसट्टयाए असंखेजगुणा, अनंतगुणकाखडा दव्वट्टयाए अनंतगुणा, ते चैव पट्टयाए अनंतगुणा । एवं मउय. गरुय-लहुयाण वि अप्पाबहुयं । सीय-उसिणणिद्ध-लुक्खाणं जहा वण्णा तहेव । ३२९६ भावार्थ - ५८ प्रश्न - हे भगवन् ! एक गुण कर्कश, संख्यात गुण कर्कश, . असंख्यात गुण कर्कश और अनन्त गुण कर्कश पुद्गलों में द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल किन पुद्गलों से यावत् विशेषाधिक हैं ? ५८ उत्तर - हे गौतम ! एक गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं। उनसे अनन्त गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं । प्रदेशार्थं से भी इसी प्रकार समझना चाहिये, परन्तु संख्यात गुण कर्कश पुद्गल, प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं । शेष पूर्ववत् । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से एक गुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ प्रवेशार्थ से सब से थोड़े हैं। उनसे संख्यात गुण. कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं । For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म उनसे संख्यात गुण कर्कश पुद्गल, प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात गुणकर्कश पुद्गल, द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं। उनसे असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल, प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं। उनसे अनन्त गुण कर्कश पुद्गल, द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं। उनसे अनन्त गुण कर्कश पुद्गल, प्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं । इसी प्रकार मृदु, गुरु और लघु स्पर्श भी । शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शो का अल्प- बहुत्व वर्णों के अल्पबहुत्व के समान है । विबेचन- प्रदेशार्थता के प्रकरण में परमाणु के लिये जो 'अप्रदेशार्थता' कहीं है, इसका कारण यह है कि परमाणु के प्रदेश नहीं होते, इसलिये अप्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुण कहा है । द्रव्य की विवक्षा में परमाणु द्रव्य है, और प्रदेश की विवक्षा में उसके प्रदेश नहीं होने से अप्रदेश है । इस प्रकार परमाणु की द्रव्यार्थ - अप्रदेशार्थता कही है । क्षेत्राधिकार में क्षेत्र की प्रधानता है । इसलिये परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध से ले कर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी किसी विवक्षित एक क्षेत्रावगाढ़ होते हैं । वहाँ आधार और आधेय में अभेद की वित्रक्षा करने से वे एक प्रदेशावगाढ़ कहे जाते हैं । इसलिये एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण ही हैं । कोई भी ऐसा आकाश प्रदेश नहीं है, जो एक प्रदेशावगाही परमाणु आदि को अवकाश देने रूप परिणाम से परिणत न हो। इसी प्रकार आगे संख्यात प्रदेशावगाढ़ आदि पुद्गलों के विषय में भी विचारना करना चाहिये । (79362JJ00000T पुद्गल और युग्म तेओए, दावरजुम्मे, कलिओगे ? ३२१७ ➡mri i Marr ५९ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते! दव्वट्टयाए किं कडजुम्मे, For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ५९ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओगे । एवं जाव अणतपसि खंधे । ३२९८ भावार्थ - ५९ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल द्रव्यार्थ से कृतयुग्म है, योज है, द्वापरयुग्म है या कल्योज है ? ५९ उत्तर - हे गौतम ! कृतयुग्म, त्र्योज और द्वापरयुग्म नहीं है, कल्योज है । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक । ६० प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते! दव्वट्टयाए किं कडजुम्मा 1 ६० उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा, विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, कलिओगा । एवं जाव अनंतपएसिया खंधा । : पुच्छा भावार्थ - ६० प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल ( बहुत परमाणु- पुद्गल ) द्रव्यार्थ से कृतयुग्मादि हैं० ? ६० उत्तरं - हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं । विधानादेश से कृतयुग्म, ज्योज और द्वापरयुग्म नहीं हैं, किन्तु कल्योज हैं । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यन्त । ६१ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! परसट्टयाए किं कडजुम्मे० पुच्छा | ६१ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, कलिओगे | For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५. उ. ४ पुद्गल और युग्म भावार्थ - ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल, प्रदेशार्थ से कृतयुग्मादि है ? ६१ उत्तर - हे गौतम ! कृतयुग्म, प्रोज और द्वापरयुग्म नहीं है, कल्यज है । ६२ प्रश्न - दुपए सिए - पुच्छा । ६२ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओगे, दावरजुम्मे, णो कलिओगे । युग्म है । ३२९९ भावार्थ - ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! -द्वि प्रदेशी स्कन्ध ० ? ६२ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म, त्र्योज और कल्योज नहीं है, द्वापर ६३ प्रश्न - तिपएसिए - पुच्छा । ६३ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मे, तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे । भावार्थ - ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! त्रि प्रदेशी स्कन्ध ० ? ६३ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है, योज है । ६४ प्रश्न - उप्पए सिए - पुच्छा । ६४ उत्तर--गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओगे, णो दावरजुम्मे, णो कलिओगे | पंचपए सिए जहा परमाणुपोग्गले । छप्पएसिए जहा दुप्पएसिए । सत्तपए सिए जहा तिपएसिए । अट्ठपएसिए जहा चउप्पए For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म सिए । णवपएसिए जहा परमाणुपोग्गले । दसपएसिए जहा दुप्पएसिए। भावार्थ-६४ प्रश्न-हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध ? ६४ उत्तर-हे गौतम ! कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है । परमाणु-पुद्गल के समान पञ्चप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध 'के समान छह प्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्धवत् सप्त प्रदेशी स्कन्ध, चतुप्रष्देशी स्कन्धवत् अष्टप्रदेशी स्कन्ध, परमाणु-पुद्गल के समान नौ प्रदेशी स्कन्ध और विप्रवेशी स्कन्ध जैसा दस प्रवेशी स्कन्ध जानना चाहिए। .. ६५ प्रश्न-संखेजपएसिए णं भंते ! पोग्गले-पुच्छा। ६५ उत्तर-गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओए। एवं असंखेजपएसिए वि, अणंतपएसिए वि। भावार्थ-६५ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात प्रदेशी स्कन्ध ? ६५ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज है । इस प्रकार असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी है। ६६ प्रश्न-परमाणुपोग्गला णं भंते ! पएसट्टयाए किं कडजुम्मापुच्छा । ६६ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, कलिओगा। भावार्थ-६६ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल, (बहुत) प्रदेशार्थ से कृतयुग्मादि हैं ? For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श, २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ६६. उत्तर - हे गौतम् ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्न यावत् कल्योज हैं। विधानादेश से कृतयुग्म, ज्योज और द्वापरयुग्म नहीं हैं, किंतु कल्योज हैं । ६७ प्रश्न - दुष्पपसिया णं-पुच्छा । ६७ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, णो तेओगा, मिय दावरजुम्मा णो कलिओगा । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओगा, दावरजुम्मा, णो कलिओगा । ३३०१ भावार्थ - ६७ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध० ? ६७ उत्तर - हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म और कदाचित् द्वापरयुग्म हैं, किन्तु ज्योज और कल्योज नहीं हैं। विधानादेश से कृतयुग्म, योज और कल्योज नहीं, द्वापरयुग्म हैं । ६८ प्रश्न - तिपएसिया णं - पुच्छा । - ६८ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिगा । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, तेओगा, णो दावरजुम्मा, णो. कलिओगा । भावार्थ - ६८ प्रश्न - हे भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध० ? ६८ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज | विधानादेश से कृतयुग्म, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं, किन्तु त्र्योज़ हैं । ६९ प्रश्न - चउप्पएसिया णं - पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ६९ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कड• जुम्मा, णो तेओगा, णो दावरजुम्मा, णो कलिओगा | पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गला । छप्परसिया जहा दुप्पएसिया । सत्तपएसिया जहा तिपएसिया । अट्ठपएसिया जहा चउपएसिया । णवपएसिया जहा परमाणुपोग्गला । दसपएसिया जहा दुपएसिया | ३३०२ भावार्थ - ६९ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध० ? ६९ उत्तर - है गौतम ! ओघादेश से भी और विधानादेश से भी कृतयुग्म हैं, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं होते । पञ्चप्रदेशी स्कन्धों का स्वरूप परमाणु- पुद्गलों के समान, छह प्रदेशी स्कन्धों का कथन द्विप्रदेशी स्कन्धों जैसा, सप्त प्रदेशी स्कन्धों का वर्णन त्रिप्रदेशी स्कन्धवत्, अष्ट प्रदेशी स्कन्धों का विधान चतुष्प्र देशी स्कन्धों के समान, नौ प्रदेशी स्कन्धों का कथन परमाणु- पुदगलों के समान और दस प्रदेशी स्कन्धों का कथन द्विप्रवेशी स्कन्धों के समान है । ७० प्रश्न - संखेष्वपएसिया णं- पुच्छा । ७० उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा । विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलिओगा वि । एवं असंखेजपएसिया वि, अनंत एसिया वि । भावार्थ - ७० प्रश्न - हे भगवन् ! संख्यात प्रदेशी स्कन्ध० ? ७० उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज हैं । विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्योज भी हैं । इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों के विषय में भी जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ७१ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मपए सोगाढे पुच्छा । ७१ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मपरसोगाढे, णो तेओग०, णो दावरजुम्म०, कलिओगपएसोगादे | ३३०३ भावार्थ - ७१ प्रश्न - हे भगवम् ! परमाणु- पुद्गल कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है ० ? ७१ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ त्र्योज प्रदेशावगाढ़ और द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ नहीं होता, कल्योज प्रदेशावगाढ़ होता है । ७२ प्रश्न - दुपए सिए - पुच्छा । ७२ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेओग०, सिय दावरजुम्मपरसोगाढे, सिय कलिओगपएसोगाढे । भावार्थ - ७२ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध ० ? - ७२ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ और ज्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं, कदाचित् द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ और कदाचित् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है । ७३ प्रश्न - तिपए सिए णं - पुच्छा । ७३ उत्तर - गोयमा ! णो कडजुम्मपएसोगाढे, सिय तेओगपएसोगाढे सिय दावरजुम्मपरसोगाढे, सिय कलिओगपए सोगाढे ३ । भावार्थ - ७३ प्रश्न - हे भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध ० ? ७३ उत्तर - हे गौतम! कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ नहीं, किन्तु कदाचित् यो प्रदेशावगाढ़, द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ और कदाचित् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है। For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०४ भगवती सूत्र - २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ७४ प्रश्न - चउप्पए सिए णं - पुच्छा । ७४ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलिओपरसोगाढे ४ । एवं जाव अनंतपएसिए । भावार्थ - ७४ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध० ? ७४ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कदाचित् कल्यो प्रदेशावगाढ़ होता है। इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यंत । 3 ७५ प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते । किं कडजम्म- पुच्छा । ७५ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, तेओग०, णो दावर०, णो कलिओग० । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपरसोगाढा, णो तेयोग०, जो दावर, कलिओगपरसोगाढ़ा। भावार्थ - ७५ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) कृतयुग्म • प्रदेशावगाढ़ हैं ० ? ७५ उत्तर - हे गौतम! ओघ देश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं होते । विधानादेश से कृतयुग्म, suोज और द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ नहीं होते, कल्योज प्रदेशावगाढ़ होते हैं difie ७६ प्रश्न - दुप्पएसिया णं--पुच्छा ? ७६ उत्तर--गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, पो तेओग०, णोदावर०, णो. कलिओग० । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपरसोगाढा, णो तेओगपएसोगाढा, दावरजुम्मपएसो गाढा वि कलिओपएसो गाढा वि । For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म भावार्थ - ७६ प्रश्न - हे भगवन् ! द्वि प्रदेशी स्कन्ध० ? ७६ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, त्र्योज द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं । विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ और त्र्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं होते, द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ और कल्योज प्रदेशावगाढ़ हैं । ३३०५ ७७ प्रश्न - तिप्पएसिया णं - पुच्छा | ७७ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओग०, गोदावर०, णो कलि० । विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा, तेओगपएसोगाढा वि, दावर जुम्मपए सोगाढा वि, कलिओग परसोगाढा वि३ । भावार्थ - ७७ प्रश्न - हे भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध० ? ७७ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं । विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ नहीं, किंतु पोज प्रदेशावगाढ़, द्वापरयुग्म प्रदेशावगाढ़ और कल्योज प्रदेशाव गाढ़ हैं । ७८ प्रश्न - चउप्परसिया णं - पुच्छा । ७८ उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओग०, गोदावर०, णो कलिओग० । विहाणादेसेणं कडजुम्म परसोगाढा वि जाव कलिओगपएसोगाढा वि ४ । एवं जाव अनंतपरसिया । भावार्थ - ७८ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध० ? For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म ७८ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश मे कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ हैं, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ़ नहीं । विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ यावत् कल्योज प्रदेशावगाढ़ भी हैं। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक । ३३०६ ७९ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मसमर्याट्टईएपुच्छा । ७९ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयट्टिईए जाव सिय कलिओगसमय ट्टिए | एवं जाव अनंतपएसिए । भावार्थ - ७९ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है ० ? ७९ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति यावत् कदाचित् कल्योज समय की स्थिति वाला होता है। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक । ८० प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं कडजुम्म० - पुच्छा । ८० उत्तर - गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमय ट्टिईया जाव सिय कलिओगसमय ट्टिईया ४ । विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयट्टिईया वि जाव कलिओगसमय दिईया वि । एवं जाव अनंतपरसिया | भावार्थ - ८० प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) कृतयुग्म समय की स्थिति वाले हैं ० ? ८० उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल और युग्म यावत् कल्योज समय की स्थिति वाले हैं। विधानादेश से कृतयुग्म समय की स्थिति के भी यावत् कल्योज समय की स्थिति के भी हैं । इसी प्रकार यावत्अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यंत । ८१ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते! कालवण्णपज्जवेहिं किं जुम्मे तेओगे ? ८१ उत्तर - जहा टिईए वत्तत्व्वया एवं वण्णेसु वि सव्वेसु, गंधेसु वि एवं चेव, (एवं ) रसेसु वि जाव 'महुरो रसो 'ति । ३३०७ भावार्थ - ८१ प्रश्न हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है या त्र्योज है० ? ८१ उत्तर - हे गौतम ! स्थिति की वक्तव्यतानुसार । सभी वर्ण, गन्ध, और रस यावत् मधुर रस पर्यंत जानना चाहिए । ८२ प्रश्न - अनंत एसिया णं भंते ! खंधे कक्खडफासपज्जवेहिं किं कडजुम्मे - पुच्छा | ८२ उत्तर - गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे । है । भावार्थ - ८२ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्त प्रदेशी स्कन्ध कर्कश स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि हैं ? ८२ उत्तर - हे गौतम! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज ८३ प्रश्न - अनंत पएसिया णं भंते! खंधा कक्खडफासपज्जवे हिं कडजुम्मा - पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०८ भगवती सूत्र-ग. २५ उ. ४ परमाणु आदि सार्द्ध है या अनर्द्ध -- - - - ८३ उत्तर-गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा ४ । विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि, जाव कलिओगा वि । एवं मउय-गरुय-लहुयो वि भाणियव्वा । सीय-उसिण-णिद्ध लुक्खा जहा वण्णा । भावार्थ-८३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्त प्रदेशी स्कन्ध (बहुत) कर्कश स्पर्श के पर्यापों की अपेक्षा कृतयुग्मादि है ? ८३ उत्तर-हे गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कतयुग्म यावत् कल्योज हैं । विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्योज भी हैं। इस प्रकार मृदु, गुरू और लघु के विषय में भी जानना चाहिये । शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों का कथन भी वर्गों के समान है। विवेचन-परमाणु-पुद्गल अनन्त होने पर भी उनमें संघात और भेद के कारण अनवस्थित स्वरूप होने से वे ओघादेश से कृतयुग्मादि होते हैं। विधानादेश से अर्थात् प्रत्येक की अपेक्षा तो वे कल्योज ही होते है। इसी प्रकार आगे के सूत्रों में भी कृतयुग्मादि संख्या को स्वयमेव घटित कर लेना चाहिये। ___ कर्कश स्पर्श के अधिकार में जो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के विषय में ही प्रश्न किया, इसका कारण यह है कि बादर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ही कर्कश आदि चार स्पर्श वाला होता है, परमाणु आदि नहीं । शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के विषय में जो वर्ण का अतिदेश किया है इसका कारण यह है कि परमाणु आदि भी शीत स्पर्शादि वाले होते हैं । ARRRRRपरमाणु आदि सार्द्ध है या अनर्द्ध ८४ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सड्ढे अणड्ढे ? ८४ उत्तर-गोयमा ! णो सड्ढे, अणड्ढे । For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ परमाणु आदि सार्द्ध है या अनर्द्ध कठिन शब्दार्थ -- सड्ढे -- सार्द्ध---आधा भाग सहित अणड्ढे --अन-आधा भाग रहित । भावार्थ-८४ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु- पुदगल सार्द्ध (आधा भाग सहित ) है या अर्द्ध (आधा भाग रहित ) ? ८४ उत्तर - हे गौतम! सार्द्ध नहीं, अनद्धं है । ३३०९ ८५ प्रश्न - दुपए सिए - पुच्छा । ८५ उत्तर - गोयमा ! सड्ढे, णो अणड्ढे । तिपए सिए जहा परमाणुपोग्गले । चउपसिए जहा दुपए सिंए । पंचपएसिए जहा तिपएसिए । छप्पए सिए जहा दुपए सिए । सत्तपए सिए जहा तिपएसिए । अटुपए सिए जहा दुपए सिए । णवपए सिए जहा तिपए मिए । दसपए सिए जहा दुपए सिए । भावार्थ - ८५ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध सार्द्ध है या अनर्द्ध ? ८५ उत्तर - हे गौतम! सार्द्ध है, अनर्द्ध नहीं । त्रिप्रदेशी स्कन्ध, परमाणुपुद्गल के समान है । चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी के समान है । पञ्च प्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्धवत् है। छह प्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी जैसा है । सप्त प्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी जैसा है । अष्ट प्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान है । नव प्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्धवत् है और दस प्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान है । ८६ प्रश्न - संखेज्जपएसिए णं भंते ! खंधे - पुच्छा ? ८६ उत्तर - गोयमा ! सिय सड्ढे, सिय अणड्ढे, एवं असंखेजपए सिए वि, एवं अनंतपए सिए वि । For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प भावार्थ - ८६ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, सार्द्ध है या अनर्द्ध ? ८६ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् सार्द्ध और कदाचित् अनर्द्ध है । इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी भी है ३३१० ८७ प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं सड्ढा अणड्ढा ? ८७ उत्तर - गोयमा ! सड्ढा वा, अणड्ढा वा । एवं जाव अनंतएसिया । भावार्थ - ८७ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल (बहुत) सार्द्ध हैं या अनर्द्ध ? ८७ उत्तर - हे गौतम! सार्द्ध हैं या अनर्द्ध हैं । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यन्त । विवेचन - सम संख्या वाले प्रदेशों के जो स्कन्ध होते हैं, वे सार्द्ध होते हैं । क्योंकि उनके बराबर दो भाग हो सकते । विषम संख्या वाले प्रदेशों के जो स्कन्ध होते हैं, वे अनर्द्ध होते हैं, क्योंकि उनके दो बराबर भाग नहीं हो सकते । जब बहुत परमाणु सम संख्या वाले होते हैं, तब वे सार्द्ध होते हैं और जब विषम संख्या वाले होते हैं, तब अमर्द्ध होते हैं। क्योंकि संघात (परस्पर मिलना ) और भेद ( पृथक होना) से उनकी संख्या अवस्थित नहीं होती। इसलिये वे सार्द्ध और अनर्द्ध दोनों प्रकार के होते हैं । पुद्गल सकम्प - निष्कम्प ८८ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सेए, णिरेए ? ८८ उत्तर - गोयमा ! सिय सेए, सिय णिरेए। एवं जाव अनंत पएसिए । · For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प भावार्थ - ८८ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल सकम्प है या निष्कम्प ? ८८ उत्तर--हे गौतम । कदाचित् सकम्प और कदाचित् निष्कम्प है । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशो स्कन्ध तक जानना चाहिये । ८९ प्रश्न - परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं सेया, णिरेया ? ८९ उत्तर--गोयमा ! सेया विणिरेया वि । एवं जाव अनंत-पएसिया । ३३११ भावार्थ -- ८९ प्रश्न --हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) सकम्प होते हैं या निष्कम्प ? ८९ उत्तर - हे गौतम! सकम्प भी होते हैं और निष्कम्प भी । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक । ९० प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! सेए कालओ केवचिरं होइ ? ९० उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उनकोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । भावार्थ - ९० प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल सकम्प कितने काल तक रहता है ? ९० उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग तक सकम्प रहता है । ९१ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते! णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? ९१ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एवकं समयं, उनकोसेणं असं For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प खेनं काल । एवं जाव अणंतपएसिए । भावार्थ-९१ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल निष्कम्प कितने काल तक रहता है ? ९१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निष्कम्प रहता है । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक । ९२ प्रश्न-परमाणुपोग्गला णं भंते ! सेया कालओ केवचिरं होति ? ९२ उत्तर-गोयमा ! सव्वद्धं । भावार्थ-९२ प्रश्न--हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) कितने काल तक सकम्प रहते हैं ? ९२ उत्तर-हे गौतम ! सदाकाल सकम्प रहते हैं । .९३ प्रश्न-परमाणुपोग्गला णं भंते ! णिरेया कालओ केवचिरं होति ? ___९३ उत्तर-गोयमा ! सव्वद्धं । एवं जाव अणंतपएसिया । भावार्थ-९३ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) निष्कम्प कितने काल तक रहते हैं ? ९३ उत्तर-हे गौतम ! सदाकाल निष्कम्प रहते है । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यंत । ९४ प्रश्न-परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ गुद्गल सकम्प - निष्कम्प ९४ उत्तर - गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुच जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोमेणं असंखेज्जं कालं, परट्टाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, . उक्को सेणं असंखेज्जं कालं । भावार्थ - ९४ प्रश्न - हे भगवन् ! सकम्प परमाणु- पुद्गल का कितने काल का अन्तर होता है ? ९४ उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान को अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्य काल और परस्थान से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता है । ३३१३ ९५ प्रश्न - णिरेस केवइयं कालं अंतरं होइ ? ९५ उत्तर - गोमा ! साणंतरं पडुच्च जहणेणं एक्कं समयं, उकोसेणं आवलियाए असंखेजड़भागं परद्वाणंतरं पडुच्च जहणणं " एक्कं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । " भावार्थ - ९५ प्रश्न - हे भगवन् ! निष्कम्प परमाणु- पुद्गल का कितने काल का अन्तर होता है ? ९५ उत्तर - हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवां भाग का अन्तर होता है । परस्थान आश्रयी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्य काल का अन्तर होता है । ९६ प्रश्न - - -दुपए सियस्स णं भंते ! खंधस्स सेयस्स पुच्छा । ९६ उत्तर---गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समर्थ, उक्कोसे असंखेज्जं कालं, परट्टानंतरं पटुच्च जहणेणं एक्कं समयं, For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१४ . भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प उक्कोसेणं अणंतं कालं। प्रश्न-णिरेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? उत्तर--गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एवकं समयं, उनको सेणं आवलियाए असंखेजइभागं, परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एवक समयं, उक्कोसेणं अर्णतं कालं । एवं जाव अणंतपएसियस्स। . भावार्थ-९६ प्रश्न-हे भगवन् ! सकम्प द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? ९६ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तथा परस्थान आश्रयी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल का अन्तर होता है। . प्रश्न-हे भगवन् ! निष्कम्प द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थानाश्रयी अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग का तथा परस्थानश्रयी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनंत काल का अन्तर होता है । इस प्रकार यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिये। ९७ प्रश्न--परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? ९७ उत्तर--गोयमा ! त्थि अंतरं । प्रश्न---णिरेया णं केवइयं कालं अंतरं होइ ? उत्तर:-गोयमा ! णत्थि अंतरं । एवं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-किम्प भावार्थ - ९७ प्रश्न - हे भगवन् ! सकम्प परमाणु- पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? ९७ उत्तर - हे गौतम ! अन्तर नहीं होता । प्रश्न - हे भगवन् ! निष्कम्प परमाणु- पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? उत्तर र - हे गौतम ! अन्तर नहीं होता। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यंत । ३३१५ ९८ प्रश्न - एसि णं भंते ! परमाणुपोग्गला णं सेयाणं णिरेयाण य करे करेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ९८ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सेया, णिरेया असंखेज्जगुणा, एवं जाव असंखेज्जपरमियाणं खंधाणं । भावार्थ - ९८ प्रश्न - हे भगवन् ! पूर्वोक्त सकम्प और निष्कम्प परमाणुपुद्गलों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक होते हैं ? ९८ उत्तर - हे गौतम ! सकम्प परमाणु-पुद्गल सब से थोड़े होते हैं और निष्कम्प परमाणु- पुद्गल असंख्यात गुण होते हैं । इस प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक । ९९ प्रश्न - एएसि णं भंते ! अनंतपए सियाणं वधाणं सेयाणं, णिरेयाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? ९९ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपरसिया खंधा णिरेया, या अनंतगुणा । For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्म निष्कम्प भावार्थ ये - ९९ प्रश्न - हे भगवन् ! पूर्वोक्त सकम्प और निष्कम्प अनम्त प्रदेशी स्कन्ध में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ९९ उत्तर - हे गौतम! अनन्त प्रदेशी निष्कम्प स्कन्ध सब से थोड़े हैं । उनसे सकम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध अनन्त गुण है । ३३१६ १०० प्रश्न - एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेज़पए सियाणं, असंखेज्जप सियाणं, अनंतपएसियाण य खंधार्ण सेयाणं णिरेयाण यं दव्वट्टयाए परसट्टयाए दष्वट्टपरसट्टयाए कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? १०० उत्तर - गोयमा । १ सव्वत्थोवा अणतपरसिया खंधा णिरेया दबट्टयाए २ अनंतपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ३ परमाणुोग्गला सेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ४ संखेज्जपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ५ असंखेजपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ६ परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा ७ संखेजपरसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए संखेज्ज - गुणा ८ असंखेजपरसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा । परसट्टयाए एवं चेव । णवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणि - यव्वा । संखेज्जपएसिया खंधा णिरेया परसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेसं तं चैव । भावार्थ - १०० प्रश्न - हे भगवन् ! सकम्प और निष्कम्प परमाणु-पुद्गल, For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल किन पुद्गलों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेष । धिक हैं ? १०० उत्तर - हे गौतम ! निष्कम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं । २ उनसे सकम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं । ३ उनसे सकम्प परमाणु- पुद्गल द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं । ४ उनसे सकम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं । ५ उनसे सकम्प असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्गात गुण हैं । ६ उनसे निष्कम्प परमाणु- पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं । ७ उनसे निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सख्यात गुण हैं । ८ उनसे निष्कम्प असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं । जिस प्रकार द्रव्यार्थ से आठ बोल कहे हैं, उसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी आठ बोल जानना चाहिये, किन्तु परमाणु- पुद्गल में 'प्रदेशार्थ' के बदले 'अप्रदेशार्थ' कहना चाहिये तथा 'निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् । ३३१७ १ दव्वटुपए सट्टयाए - सव्वत्थोवा अनंतपसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए २ ते चैव पएमट्टयाए अनंतगुणा ३ अणतपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ४ ते चेव परसट्टयाए अनंतगुणा ५ परमाणुपोग्गला सेया दव्वट्टअप सट्टयाए अनंतगुणा ६ संखेज्जपएसिया स्वधा सेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा ७ ते चेव परसट्याए संखेज्जगुणा ८ असंखेज पए सिया संधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ९ ते चैव पसट्टयाए असंखेजगुणा १० परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वटअप सट्टयाए असंखेजगुणा ११ संखेज्जपए सिया For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प खंधा णिरेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा १२ ते चेव परसट्टयाए संखेज्जगुणा १३ असंखेज्जपए सिया संधा णिरेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा १४ ते चैव पट्टयाए असंखेज्जगुणा । भावार्थ- द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से- १ निष्कम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं, २ उनसे निष्कम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं, ३ उनसे सकम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं, ४ उनसे कम्प अनन्त प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं, ५ उनसे सकम्प परमाणु'पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से अनन्त गुण हैं, ६ उनसे सकम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, ७ उनसे सकम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं, ८ उनसे सकम्प असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं, ९ उनसे सकम्प असंख्यात प्रदेशौ स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, १० उनसे निष्कम्प परमाणु- पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, ११ उनसे निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, १२ उनसे निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं, १३ उनसे निष्कम्प असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, १४ उनसे fronty असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं । ३३१८ १०१ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते! किं देसेए सव्वेए णिरेए ? १०१ उत्तर - गोयमा ! णो देसेए, सिय सव्वेए, सिय गिरेए । भावार्थ - १०१ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल देश कम्पक ( कुछ अंश में कम्पित होने वाला) है, सर्व कम्पक (सम्पूर्ण कम्पित होने वाला) है free है ? १०१ उत्तर - हे गौतम ! परमाणु- पुद्गल देश कम्पक नही है, किन्तु कदाचित् सर्व कम्पक है और कदाचित् निष्कम्पक है । For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प ३३१९ १०२ प्रश्न-दुपएसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा। १०२ उत्तर-गोयमा ! सिय देसेए, सिय सम्वेए, सिय गिरेए । एवं जाव अणंतपएसिए। भावार्थ-१०२ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध ? १०२ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् देश कम्पक, कदाचित् सर्व कम्पक और कदाचित् निष्कम्पक होता है । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध पर्यत । १०३ प्रश्न-परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं देसेया, सव्वेया, णिरेया ? १०३ उत्तर-गोयमा ! णो देसेया, सव्वेया वि, णिरेया वि । भावार्थ-१०३ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाण-पुद्गल (बहुत) देश कम्पक, सर्व कम्पक या निष्कम्पक होते है ? १०३ उत्तर-हे गौतम ! देश कम्पक नहीं होते, वे सर्व कम्पक भौ होते हैं और निष्कम्पक भी। १०४ प्रश्न-दुपएसिया णं भंते ! खंधा-पुच्छा। १०४ उत्तर-गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि, णिरेया वि। एवं जाव अणंतपएसिया। भावार्थ-१०४ प्रश्न-हे भगवन् ! विप्रवेशी स्कन्ध ? १०४ उत्तर-हे गौतम ! देश कम्पक भी होते हैं, सर्व कम्पक भी होते हैं और निष्कम्पक भी होते हैं । इस प्रकार यावत् अनन्त प्रवेशी स्कन्ध पर्यंत । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प १०५ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! सव्वेए कालओ केवचिरं होइ ? ३३२० १०५ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं । भावार्थ - १०५ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल सर्व कम्पक कितने काल तक रहता है ? १०५ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग तक । १०६ प्रश्न - णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? १०६ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उनकोसेणं असंखेजं कालं । भावार्थ - १०६ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल निष्कम्पक कितने काल तक रहता है ? १०६ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक । १०७ प्रश्न - दुपएसए णं भंते! खंधे देसेए कालओ केवचिरं होइ ? १०७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एवकं समयं उनकोसेणं आवलियाए असंखेजड़भागं । " भावार्थ - १०७ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रवेशी स्कन्ध देश कम्पक कितने काल तक रहता है। For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प ३३२१ १०७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग तक। १०८ प्रश्न-सव्वेए कालओ केवचिरं होइ ? १०८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं · समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं । भावार्थ-१०८ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध सर्व-कम्पक कितने काल तक रहता है ? ___ १०८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका .' के असंख्यातवें भाग तक। १०९ प्रश्न-णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? १०९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं । एवं जाव अणंतपएसिए । . भावार्थ-१०९ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध निष्कम्पक कितने काल तक रहता है ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निष्कम्पक रहता है । इसी प्रकार यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध तक । ___ ११० प्रश्न-परमाणुपोग्गला णं भंते ! सव्वेया कालओ केवचिरं होंति ? ११० उत्तर-गोयमा ! सव्वद्धं । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प भावार्थ-११० प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल (बहुत) सर्व कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? ११० उत्तर-हे गौतम ! सर्वाद्धा (सदा काल) । १११ प्रश्न-णिरेया कालओ केवचिरं होंति ? १११ उत्तर-सव्वद्धं । भावार्थ-१११ प्रश्न-हे भगवन् ! निष्कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? १११ उत्तर-हे गौतम ! सर्व काल । ११२ प्रश्न-दुप्पएसिया णं भंते ! खंधा देसेया कालओ केवचिरं ? ११२ उचर-सव्वद्धं । भावार्थ-११२ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रवेशी स्कंध देश कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? ११३ उत्तर-हे गौतम ! सभी काल । ११३ प्रश्न-सव्वेया कालओ केवचिरं ? ११३ उत्तर-सव्वद्धं । भावार्थ-११३ प्रश्न-हे भगवन् ! विप्रदेशी स्कंध सर्व कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? ११३ उत्तर-हे गौतम ! सभी काल । For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प .. ३३२३ ११४ प्रश्न-णिरेया कालओ केवचिरं ? ११४ उत्तर-सव्वद्धं । एवं जाव अणंतपएसिया । भावार्थ-११४ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कितने काल तक निष्कम्पक रहते हैं ? ११४ उत्तर-हे गौतम ! समस्त काल, यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक। ११५ प्रश्न-परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सव्वेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? . ११५ उत्तर-गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं असंखेज्जं कालं, परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उकोसेणं एवं चेव । भावार्थ-११५ प्रश्न-हे भगवन्! सर्व कम्पक परमाणु-पुद्गल का कितने काल का अन्तर होता है ? . ११५ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल, तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता है । .११६ प्रश्न-णिरेयस्स केवइयं अंतरं होइ ? ११६ उत्तर-सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं, परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प भावार्थ-११६ प्रश्न-हे भगवन् ! निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है ? | ११६ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग, तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल । ११७ प्रश्न-दुपएसियस्स णं भंते ! बंधस्स देसेयस्स केवइयं कालं अंतरं होई? ___११७ उत्तर-सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं अणंतं कालं।. भावार्थ-११७ प्रश्न-हे भगवन् ! देश-कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अंतर कितने काल का होता है ? ११७ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल, तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल । ११८ प्रश्न-सव्वेयस्स केवइयं कालं. ? ११८ उत्तर-एवं चेव जहा देसेयस्स । भावार्थ-११८ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्व-कम्पक द्विप्रवेशी स्कंध का अंतर कितने काल का होता है ? ११८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार देश-कम्पक द्विप्रवेशी का अंतर कहा है, उसी प्रकार सर्व-कम्पक का भी जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प - निष्कम्प ११९ प्रश्न - णिरेयस्स केवइयं ० ? ११९ उत्तर- मट्टानंतरं पडुच जहणेणं एक्कं समयं उकोसेणं आवलियाए असंखेजड़भागं, परट्टानंतरं पडुच जहणेणं एक्कं समयं, कोसे अनंतं कालं । एवं जाव अनंतपए सियस्स । भावार्थ - ११९ प्रश्न- - हे भगवन् ! निष्कम्पक द्विप्रदेशी स्कंध का अंतर कितने काल का होता है ? ११९ उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आलिका के असंख्यातवें भाग तथा परस्थान में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनंत काल का अंतर होता है। इस प्रकार यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध तक । १२० प्रश्न - परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सव्वेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? १२० उत्तर - णत्थि अंतरं । भावार्थ - १२० प्रश्न - हे भगवन् ! सव-कम्पक परमाणु-पुद्गलों का अंतर कितने काल का होता है ? १२० उत्तर - हे गौतम ! अन्तर नहीं होता । ३३२५ १२१ प्रश्न - णिरेयाणं केवइयं ० ? १२१ उत्तर- त्थि अंतरं । भावार्थ - १२१ प्रश्न - हे भगवन् ! निष्कम्पक परमाणु-पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प १२१ उत्तर-हे गौतम ! कोई अन्तर नहीं । १२२ प्रश्न-दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं देसेयाणं केवइयं कालं? १२२ उत्तर-पत्थि अंतरं। भावार्थ-१२२ प्रश्न-हे भगवन् ! देश कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अंतर कितने काल का होता है ? १२२ उत्तर-हे गौतम ! अन्तर नहीं होता। १२३ प्रश्न-सव्वेयाणं केवइयं कालं ? १२३ उत्तर-णत्थि अंतरं । भावार्थ-१२३ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्व-कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अंतर कितने काल का होता है ? . १२३ उत्तर-हे गौतम ! अन्तर नहीं होता। १२४ प्रश्न-णिरेयाणं केवइयं कालं. ? १२४ उत्तर-णत्थि अंतरं । एवं जाव अणंतपएसियाणं । भावार्थ-१२४ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्व-कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अंतर कितने काल का होता है ? १२४ उत्तर-हे गौतम ! अन्तर नहीं होता। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक। १२५ प्रश्न-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सध्वेयाणं गिरे For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प ३३२७ याण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? १२५ उत्तर-गोयमा ! सम्बत्थोवा परमाणुपोग्गला सव्वेया, णिरेया असंखेजगुणा। भावार्थ-१२५ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्व-कम्पक और निष्कम्पक परमाणुपुद्गलों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? १२५ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-कम्पक परमाणु-पुद्गल सब से थोड़े हैं, उनसे निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल असंख्यात गुण हैं। १२६ प्रश्न-एएसि णं भंते ! दुपएसियाणं खंधाणं देसेयाणं, सब्वेयाणं, णिरेयाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? १२६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा दुपएसिया खंधा सम्वेया, देसेया असंखेजगुणा, णिरेया असंखेजगुणा । एवं जाव असंखेजपएसियाणं खंधाणं। भावार्थ-१२६ प्रश्न-हे भगवन् ! देश-कम्पक, सर्व-कम्पक और निष्कम्पक हिप्रदेशी स्कन्ध में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? . १२६ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध सब से थोड़े हैं। उनसे देश-कम्पक असंख्यात गुण हैं और उनसे निष्कम्पक असंख्यात गुण हैं। इस प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक। १२७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! अणंतपएसियाणं खधाणं देसेयाणं, सम्वेयाणं, णिरेयाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प निष्कम्प १२७ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा अणतपसिया खधा सव्वैया, णिरेया अनंतगुणा, देसेया अनंतगुणा । ३३२८ भावार्थ र्य - १२७ प्रश्न - हे भगवन् ! देश-कम्पक, सर्व-कम्पक और निष्कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कन्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? १२७ उत्तर - हे गौतम ! सर्व-कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध राब से थोड़े हैं, उनसे निष्कम्पक अनन्त गुण हैं और उनसे देश-कम्पक अनन्त गुण हैं । १२८ प्रश्न - एसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं, असंखेज्जपए सियाणं, अनंतपए सियाण य खंधाणं देसेयाणं, सव्याणं, णिरेयाणं दव्वट्टयाए, परसट्टयाए, दव्बटुपए सट्टयाए कयरे करे जाव विसेसाहिया वा ? १२८ उत्तर - गोयमा ! १ सव्वत्थोवा अनंतपएसिया खंधा सव्वेया दव्वट्टयाए २ अणतपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ३ अनंतपएसिया खंधा देसेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ४ असंखेज्ज परसिया वधा सव्वेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ५ संखेज्जपए सिया स्वधा सव्वेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा ६ परमाणुपोग्गला सव्वेया दवाए असंखेजगुणा ७ संखेज्जपरसिया खंधा देसेया दव्वट्टयाए असंखे जगुणा ८ असंखेजपएसिया खंधा देसेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ९ परमाणुपोग्गला णिरेया दवट्टयाए असंखेज्जगुणा १० For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प ३३२१ संखेजपएसिया खधा णिरेया दव्वट्टयाए संखेजगुणा ११ असंखेजः पएसिया कंधा गिरेया दवट्टयाए असंखेजगुणा।। ___ पपसट्टयाए-सव्वत्थोवा अणंतपएसिया० । एवं पएसट्टयाए वि । णवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणियव्वा । संखेजपएसिया खंधा णिरेया पएसट्टयाए असंखेजगुणा, सेस तं चेव । भावार्थ-१२८ प्रश्न-हे भगवन् ! देश-कम्पक, सर्व-कम्पक और निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल, संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्य-प्रदेशार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? . १२८ उत्तर-हे गौतम ! १ सर्व-कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सब से थोड़े है, २ उनसे निष्कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध, द्रव्याथं से अनन्त गुण है, ३ उनसे देश-कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं, ४ उनसे सर्व-कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध, द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं ५ उनसे सर्व-कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण है, ६ उनसे सर्व-कम्पक परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण है, ७ उनसे देश-कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण है, ८ उनसे देशकम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, ९ उनसे निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण है, १० उनसे निष्कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से संख्यात गुण हैं, ११ उनसे निष्कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं। प्रदेशार्थ से-सर्व-कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से सब से थोड़े हैं। इस प्रकार प्रदेशार्थ से भी अल्प बहुत्व जानना चाहिये । किन्तु परमागुपुद्गल के लिये 'अप्रदेशार्थ' कहना चाहिये तथा निष्कम्पक संख्यात प्रदेशीरकंध, प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण है-ऐसा कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ पुद्गल संकम्प निष्कम्प १ दव्वटुपए सट्टयाए - सव्वत्थोवा अनंतपएसिया खंधा सव्वेया दब्बट्टयाए २ ते चैव परसट्टयाए अनंतगुणा ३ अनंतप सिया खंधा णिरेया दष्वट्टयाए अनंतगुणा ४ ते चेव पएसट्टयाए अनंतगुणा ५ अणतपएसिया खधा देसेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ६ ते चेव परसट्टयाए अनंतगुणा ७ असंखेजपए सिया संधा सव्वेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा ८ ते चैव परसट्टयाए असंखेजगुणा ९ संखेज्जपरसिया स्वधा सव्वेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा १० ते चेव परसट्टयाए संखेज्जगुणा ११ परमाणुपोग्गला सव्वेया दव्वट्टअपए सट्टयाए असंखेज्जगुणा १२ संखेज्जपएसिया खंधा देसेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा १३ ते चैव परसट्टयाए संखेज्जगुणा १४ असंखेज्जपर सिया स्वधा देया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा १५ ते चेव परसट्टयाए असंखेज्जगुणा १६ परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्टअपए सट्टयाए असंखेज्वगुणा १७ संखेज्जपए सिया संधा णिरेया दव्वट्टयाए संखेज्जगुणा १८ ते चैव परसट्टयाए संखेज्जगुणा १९ असंखेजपएसिया णिरेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा २० ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा । ३३३० भावार्थ- द्रव्यार्थ प्रवेशार्थं से - १ सर्व-कम्पक अनन्त प्रदेशी- स्कंध द्रव्यार्थ से सब से थोड़े हैं, २ उगसे सर्व-कम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रवेशार्थ से अनन्त गुण हैं, ३ उनसे freeम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं, ४ उनसे rिosम्पक अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से अनन्त गुण है, ५ उनसे देश-कम्पक अनन्त प्रवेशी स्कंध द्रव्यार्थ से अनन्त गुण हैं, ६ उनसे देश-कम्पक For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रदेशाथ से अनन्त गुण हैं, ७ उनसे सर्व-कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से अनन्त गण हैं, ८ उनसे सर्व-कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, ९ उनसे सर्व-कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, १० उनसे सर्व कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं, ११ उनसे सर्व-कम्पक परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, १२ उनसे देश कम्पक संख्यात प्रदेशो स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, १३ उनसे देश-कम्पक संख्यात प्रदेशो स्कंध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं, १४ उनसे देश-कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं, १५ उनसे देश-कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, १६ उनसे निष्कम्पक परमाणु पुद्गल द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थ से असंख्यात गुण हैं, १७ उनसे निष्कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से संख्यात गुण है, १८ उनसे निष्कम्पक संख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से संख्यात गुण हैं, १९ उनसे निष्कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण है और २० उनसे निष्कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रवेशार्थ से असंख्यात गुण हैं। विवेचन-परमाणु की निष्कम्प दशा औत्सर्गिक (स्वाभाविक) है । इसलिये : उसका उत्कृष्ट काल असंख्यात है। सकम्प दशा आपवादिक (अस्वाभाविक-कभी-कभी होने वाली) है । इसलिये वह उत्कृष्ट से भी आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक ही रहती है । बहुत परमाणु की अपेक्षा सकम्प दशा सर्व काल रहती है, क्योंकि भूत, भविष्गत और वर्तमान, इन तीनों कालों में भी कोई ऐसा समय नहीं था, नहीं है और नहीं होगा, जिसमें सभी परमाणु निष्कम्प रहते हों और यही बात निष्कम्प दशा के लिये भी समझनी चाहिये अर्थात् सभी परमाणु सदाकाल निष्कम्प रहते हो, ऐसी बात भी नहीं है। ___ अन्तर के विषय में स्वस्थान और परस्थान का जो कथन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि जब परमाणु, परमाणु अवस्था में (स्कन्ध से पृथक्) रहता है, तब स्वस्थान कहलाता है और जब स्कन्ध अवस्था में होता है, तब परस्थान कहलाता है । एक परमाणु एक समय तक चलन क्रिया से बन्द रह कर फिर चलता है, तव स्वस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होवा है और उत्कृष्ट से वही परमाणु असंख्यात काल तक For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प किसी स्थान रह कर फिर चलता है, तब अन्तर असंख्यात काल का होता है । जब परमाणु द्विप्रदेशादि स्कन्ध के अन्तर्गत होता है और जघन्य से एक समय चलन क्रिया से निवृत्त रह कर फिर पृथक् होकर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है । परन्तु जब वह परमाणु असंख्यात काल तक द्विप्रदेशादिक स्कन्ध रूप में रह कर पुनः उस स्कन्ध से पृथक् हो कर चलित होता हैं, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल का होता है । जब परमाणु निश्चल (स्थिर) हो कर जघन्य एक समय तक परिभ्रमण कर के पुनः स्थिर होता है और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप असंख्य समय तक परिभ्रमण कर के पुनः स्थिर होता है, तब अन्तर स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग का होता है। परमाणु निश्चल हो कर स्वस्थान से चलित हो और जघन्य एक समय पर्यंत द्विप्रदेशादि स्कन्ध के रूप में रह कर पुनः पृथक् हो कर निचल हो और उत्कष्ट असंख्यात काल तक द्विप्रदेशादि स्कन्ध रूप में रह कर फिर उससे पृथक हो कर स्थिर हो, तब परस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट होता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध चलित हो कर अनन्त काल तक उतरोतर दूसरे अनन्त पुद्गलों के साथ सम्बन्ध करता हुआ पुन: उसी परमाणु के साथ सम्बद्ध हो कर पुनः चलित हो, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का होता है। सकम्प परमाणु-पुद्गल लोक में सदा पाये जाते है, इसलिये उनका अन्तर नहीं होता। परमाणु-पुद्गल संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की सकम्पता और निष्कम्पता के द्रव्यार्थ से आठ पद होते हैं। इसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी आठ पद होते हैं । द्रग्यार्थ से उभय पक्ष में चौदह पद होते हैं, क्योंकि सकम्प और निष्कम्प परमाणुओं के द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता-इन दो पदों के स्थान में 'द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थता' यह एक ही पद कहना चाहिये । इसलिये सोलह बोलों के स्थान में चौदह बोल ही होते हैं । द्रव्यार्थता सूत्र में निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, निष्कम्प परमाणुओं से संख्यात गुण कहे गये हैं और प्रदेशार्थता सूत्र में वे परमाणुओं से असंख्यात गुण कहे गये हैं, इसका कारण यह है कि निष्कम्प परमाणुओं से निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात गण होते हैं। उनमें के बहुत से स्कन्धों में उत्कृष्ट संख्या वाले प्रदेश होने से वे निष्कम्प पीमाणुओं से प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट संख्या में एक संख्या की वृद्धि होने पर असंख्य हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ४ अस्तिकाय के मध्य प्रदेश परमाणु-पुद्गल आदि सभी के अल्प- बहुत्व अधिकार में द्रव्यार्थ के विचार में परमाणु- पुद्गल के साथ सर्व-कम्पक और निष्कम्पक- ये दो विशेषण लगाये हैं तथा संख्यात प्रदेशी असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी, इन तीनों के साथ देश-कम्पक, सर्व-कम्पक और निष्कम्पक- ये तीन विशेषण लगाये हैं । इस प्रकार य ग्यारह पद होते हैं । प्रदेशार्थ के विषय में भी ये ही ग्यारह पद होते हैं । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थं उभय के विचार में बाईस पद न बता कर बीस ही पद बताये हैं, इसका कारण यह है कि सकम्पं और निष्कम्प परमाणुओं के द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ, इन दो पदों के स्थान में 'द्रव्यार्थ - अप्रदेशार्थ' यह एक ही पद बनता है। इस प्रकार द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ इस उभय पक्ष में बीस ही पद बनते हैं । अस्तिकाय के मध्य-प्रदेश ३३३३ १२९ प्रश्न - कइ णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता ? १२९ उत्तर - गोयमा ! अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ - मज्झपएसा -- मध्य प्रदेश -- बीच के प्रदेश । भावार्थ - १२९ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश कितने कहे हैं ? - १२९ उत्तर - हे गौतम ! धर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश आठ कहे हैं । १३० प्रश्न – कइ णं भंते ! अधम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता ? १३० उत्तर - एवं चैव । भावार्थ - १३० प्रश्न - हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश कितने कहे हैं ? १३० उत्तर - हे गौतम ! इसी प्रकार आठ कहे हैं । For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ४ अस्तिकाय के मध्य प्रदेश १३१ प्रश्न – कइ णं भंते ! आगासत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता ? ३३३४ १३१ उत्तर - एवं चैव । भावार्थ - १३१ प्रश्न - हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के मध्य प्रदेश कितने कहे हैं ? १३१ उत्तर - हे गौतम ! इसी प्रकार आठ कहे हैं । 1 १३२ प्रश्न - कइ णं भंते ! जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता ? १३२ उत्तर - गोयमा ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा पण्णत्ता । भावार्थ - १३२ प्रश्न - हे भगवन् ! जीवास्तिकाय के मध्य प्रदेश कितने कहे हैं ? १३२ उत्तर - हे गौतम ! जीवास्तिकाय के मध्य प्रदेश आठ कहे हैं । १३३ प्रश्न - एए णं भंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा कहसु आगासपएसेसु ओगाहंति ? १३३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कंसि वा दोहिं वा तोहिं वा चउहिंवा पंचहिं वा छहिं वा उक्कोसेणं अनुसु, णो चेव णं सत्तसु । ॥ 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ॥ || पणवीस मेस चउत्थो उद्देसो समत्तो || भावार्थ - १३३ प्रश्न - हे भगवन् ! जीवास्तिकाय के ये आठ मध्य प्रदेश आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों में समा सकते हैं ? १३३ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. - ५ उ. ४ अस्तिकाय के मध्य-प्रदेश ३३३५ उत्कृष्ट आठ प्रदेश में समा सकते हैं, किन्तु सात प्रदेशों में नहीं समाते । _ 'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं। "विवेचन--धर्मास्तिकाय के आठ मध्य-प्रदेश, आठ रुचक-प्रदेशवर्ती होते हैं-ऐमा चूर्णिकार कहते हैं । वे रुचक-प्रदेश मेरु के मूलभाग के मध्यवर्ती हैं । यद्यपि धर्मास्तिकाय आदि लोक प्रमाण होने से उनका मध्यभाग रुचक-प्रदेशों से असंख्यात योजन दूर रत्नप्रभा के अवकाशान्तर में आया हुआ है रुचकवर्ती नहीं है, तथापि दिशा और विदिशाओं के उत्पत्ति स्थान रुचक-प्रदेश होने से धर्मास्तिकायादि के मध्य रूप से उनकी विवक्षा की होऐसा संभावित है। प्रत्येक जीव के आठ रुचक-प्रदेश होते हैं। वे उस जीव के शरीर के ठीक मध्यभाग में होते हैं । इसलिये वे मध्य-प्रदेश कहलाते हैं । संकोच और विकाश (विस्तार)जीवप्रदेशों का धर्म होने से उनके मध्यवर्ती आठ प्रदेश एक आकाश प्रदेश से ले कर छह आकाश-प्रदेशों में रह सकते हैं और उत्कृष्ट आठ आकाश-प्रदेशों में रहते हैं । परन्तु सान आकाश-प्रदेशों में नहीं रहते, क्योंकि वस्तु-स्वभाव ही इस प्रकार का है । ॥ पचीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक ५ vav(PARRRRRपर्यव के भेद १ प्रश्न-कइविहां णं भंते ! पजवा पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पजवा पण्णत्ता, तं जहां-जीवपजवा य अजीवपजवा य । पज्जवपयं गिरवसेसं भाणियव्वं जहा पण्णवणाए। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्यव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पर्यव दो प्रकार के कहे हैं । यथा-जीवपर्यव और • अजीवपर्यव । यहां प्रज्ञापना सूत्र का पांचवां पर्यव पद सम्पूर्ण कहना। विवेचन-पर्यव, गुण, धर्म, विशेष, पर्यय और पर्याय, ये सब शब्द एकार्थवाची (पर्यायवाची) हैं । जीवपर्यव और अजीवपर्यव के लिये प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पद का अतिदेश किया गया है । जीव के पर्यव अनन्त होते हैं। आवलिका यावत् पुद्गल परिवर्तन के समय २ प्रश्न-आवलिया णं भंते ! किं संखेजा समया, असंखेन्जा समया, अणंता समया ? For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय ३३३७ २ उत्तर- गोयमा ! णो संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, णो अनंता समया ? भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! आवलिका संख्यात समय की है, असंख्यात समय की है, या अनन्त समय की है ? २ उत्तर - हे गौतम ! आवलिका संख्यात समय की नहीं और अनन्त समय की भी नहीं, किन्तु असंख्य समय की है । ३ प्रश्न - आणापाणू णं भंते! किं संखेजा० ? ३ उत्तर - एवं चैव । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! आनप्राण ( श्वासोच्छ्वास) संख्यात समय का है ० ? ३ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । ४ प्रश्न - थोवे णं भंते! किं संखेजा० ? ४ उत्तर - एवं चैव । एवं लवे वि, मुहुत्ते वि, एवं अहोरत्ते, एवं पक्खे, मासे, उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससये, वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुवंगे, पुव्वे, तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अबवे, हूहुयंगे, हूहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, णलिणांगे, लिणे, अत्थणिउरंगे, अत्थणिउरे, अउयंगे, अउये, णउयंगे, णउए, पउयंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलियगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, ओमप्पणी, एवं उस्सप्पिणी वि । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! स्तोक संख्यात समय ० ? " For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, (सौ वर्ष), वर्षसहस्र (हजार वर्ष), वर्षशतसहस्र (लाख वर्ष), पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अवांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सपिणी, इन सब के समय जानना चाहिये । इनमें से प्रत्येक में असंख्यात समय होते हैं। ५ प्रश्न-पोग्गलपरियट्टे णं भंते ! किं संखेजा समया, असंखेजा समया, अणंता समया-पुन्छा। ५ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा समया, णो असंखेजा समया, अणंता समया । एवं तीयद्धा, अणागयद्धा, सव्वद्धा । कठिन शब्दार्थ-तीयद्धा-भूतकाल, अणागयद्धा-भविष्यत् काल । 'भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन संख्यात समय का है, असंख्यात समय का है या अनन्त समय का है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात समय का नहीं, असंख्यात समय का भी नहीं, परन्तु अनन्त समय का है । इसी प्रकार भूतकाल, भविष्यत्काल तथा सर्व-काल भी है। ६ प्रश्न-आवलियाओ णं भंते ! किं संखेजा समया-पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा समया, सिय असंखेजा समया, सिय अणंता समया। For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय ३३३९ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! आवलिकाएँ संख्यात समय की हैं. ? ६ उत्तर-हे गौतम ! आवलिकाएँ संख्यात समय की नहीं, कदाचित् असंख्यात समय और कदाचित् अनन्त समय की होती हैं । ७ प्रश्न-आणापाणू णं भंते ! किं संखेज्जा समया ३ ? ७ उत्तर-एवं चेव । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! आनप्राण संख्यात समय के हं० ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । ८ प्रश्न-थोवा णं भंते ! किं संखेजा समया ३ ? ८ उत्तर-एवं चेव । एवं जाव 'ओसप्पिणीओ ति । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! स्तोक संख्यात समय रूप हैं. ? ८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अवसर्पिणी काल तक। ... ९ प्रश्न-पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेजा समया-पुच्छा। __ ९ उत्तर-गोयमा ! णो संखेना समया, णो असंखेजा समया, अणंता समया। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन संख्यात समय० ? ९ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात समय का नहीं और असंख्यात समय का भी नहीं, किन्तु अनन्त समय का है। १० प्रश्न-आणापाणूणं भंते ! किं संखेजाओ आवलियाओपुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ३३४० भगवतो सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय १० उत्तर-गोयमा ! संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ आवलियाओ, णो अणंताओ आवलियाओ। एवं थोवे वि एवं जाव 'सीसपहेलिय' ति। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! आनप्राण संख्यात आवलिका रूप है.? १० उत्तर-हे गौतम ! संख्यात आवलिका का है, असंख्यात या अनन्त आवलिका का नहीं है । इस प्रकार स्तोक यावत् शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त । ११ प्रश्न-पलिओवमे णं भंते ! किं संखेजा ३-पुच्छा । ११ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, असंखे. जाओ आवलियाओ, णो अणंताओ आवलियाओ। एवं सागरोवमे वि एवं ओसप्पिणी वि उस्मप्पिणी वि। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन ! पल्योपम संख्यात आवलिका रूप हैं.? ११ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात आवलिका का भी नहीं और अनन्त आवलिका का भी नहीं, किन्तु असंख्यात आवलिका का है। इसी प्रकार - सागरोपम, अवसपिणी और उत्सपिणो भी हैं। १२ प्रश्न-पोग्गलपरियट्टे-पुच्छा। १२ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखे. जाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ। एवं जाव सव्वदा । ____ भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन कितने आवलिका का है .? १२ उत्तर-हे गोतम ! संख्यात आवलिका और असंख्यात आवलिका का नहीं है, अनन्त आवलिका का है। इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ', आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय ३३४१ । १३ प्रश्न-आणापाणू णं भंते ! किं संखेजाओ आवलियाओपुच्छा । १३ उत्तर-गोयमा ! सिय संखेजाओ आवलियाओ, सिय असंखेजाओ, सिय अणंताओ। एवं जाव सीसपहेलियाओ। भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! आनप्राण संख्यात आवलिका के हैं. ? १३ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् संख्यात आवलिका, असंख्यात आवलिका और कदाचित् अनन्त आवलिका के हैं। इस प्रकार यावत् शीर्षप्रहेलिका तक। ___१४ प्रश्न-पलिओवमा णं-पुच्छा। १४ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, सिय असंखेजाओ आवलियाओ, सिय अणंताओ आवलियाओ। एवं जाव उस्सप्पिणीओ। भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! पल्योपम संख्यात आवलिका के हैं. ? १४ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात आवलिका के नहीं है, किन्तु कदाचित असंख्यात आवलिका और कदाचित् अनन्त आवलिका रूप हैं । इस प्रकार यावत् उत्सर्पिणी पर्यंत । १५ प्रश्न-पोग्गलपरियट्टा णं-पुच्छा । १५ उत्तर-गोयमा ! णो संखेनाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ। For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४२ . भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन संख्यात आवलिका ? १५ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात आवलिका और असंख्यात आवलिका के नहीं, किंतु अनन्त आवलिका के हैं। ___ १६ प्रश्न-थोवे णं भंते ! किं संखेजाओ आणापाणूओ, असंखेजाओ० ? १६ उत्तर-जहा आवलियाए वत्तव्वया एवं आणापाणूओ, वि गिरवसेसा । एवं एएणं गमएणं जाव सीसपहेलिया भाणियव्वा । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! स्तोक संख्यात आनप्राण का है या असंख्यात आनप्राण रूप है. ? १६ उत्तर-हे गौतम ! आवलिका के समान आनप्राण भी है। इसी प्रकार पूर्वोक्त गमक से यावत् शीर्षप्रहेलिका तक समझना चाहिये । १७ प्रश्न-सागरोवमे णं भंते ! किं संखेजा पलिओवमापुच्छा। १७ उत्तर-गोयमा ! संखेजा पलिओवमा, णो असंखेजा पलिओवमा, णो अणंता पलिओवमा । एवं ओसप्पिणीए वि उस्सप्पिणीए वि। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! सागरोपम संख्यात पल्योपम का है. ? १७ उत्तर-हें गौतम ! संख्यात पल्योपम का है, असंख्यात और अनन्त पल्योपम का नहीं । इसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी भी है। For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ५ आवलिका यावत् पुद्गल परिवर्तन के समय १० प्रश्न - पोग्गल परियट्टे णं- पुच्छा । १८ उत्तर - गोयमा ! णो संखेजा पलिओवमा णो असंखेज्जा पलिओमा, अनंता पलिओवमा । एवं जाव सव्वद्धा । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन संख्यात पल्योपम का है ० ? १८ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात और असंख्यात पत्योपम का नहीं, अनन्त पल्योपम का है । इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा पर्यन्त । · १९ प्रश्न - सागरोवमा णं भंते! किं संखेज्जा पलिओवमापुच्छा । १९ उत्तर - गोयमा ! सिय संखेज्जा पलिओवमा, सिय असंखेजा पलिओवमा, सिय अनंता पलिओवमा । एवं जाव ओसप्पिणी वि. उस्सप्पिणी वि । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! सागरोपम संख्यात पल्योपम रूप हैं ० ? १९ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् संख्यात पत्योपम, असंख्यात पल्योपम और कदाचित् अनन्त पल्योपम के हैं । इस प्रकार यावत् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी भी हैं !.. ३३४३ २० प्रश्न - पोग्गलपरियट्टा णं- पुच्छा । २० उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जा पलिओवमा, णो असंखेज्जा पलिभवमा, अनंता पलिओवमा । भावार्थ६- २० प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गल परिवर्तन संख्यात पत्थोपम रूप हैं ० ? For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४४ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल परिवर्तन के समय २० उत्तर - हे गौतम! संख्यात पल्योपम और असंख्यात पल्योपम नहीं, अनन्त पल्योपम के है । २१ प्रश्न - ओसपिणी णं भंते! किं संखेजा सागरोवमा० ? २१ उत्तर - जहा पलिओवमस्स वत्तव्वया तहा सागरोवमस्स वि । भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! अवसर्पिणी संख्यात सागरोपम की है ० ? २१ उत्तर - हे गौतम ! पत्योपम के समान सागरोपम भी है । २२ प्रश्न - पोग्गलपरियट्टे णं भंते! किं संखेज्जाओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ-पुच्छा । २२ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ, णो असंखेज्जाओ, अनंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । एवं जाव सव्वद्धा । भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गल - परिवर्तन संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का है० ? २२ उत्तर - हे गौतम! संख्यात और असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी का नहीं, अनन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप है । इस प्रकार यावत् सर्वाद्धा पर्यंत । २३ प्रश्न - पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ - पुच्छा । २३ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ, असंखेजाओ, अनंताओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के रामय ३३४५ भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-परिवर्तन संख्यात अवसर्पिणी और उत्सपिणी रूप हैं ? २३ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात और असंख्यात अवपिणी-उत्सपिणी रूप नहीं, अनन्त अवपिणी-उत्सर्पिणी रूप है । . २४ प्रश्न-तीयद्धा णं भंते ! किं संखेजा पोग्गलपरियट्टापुच्छा। २४ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजा पोग्गलपरियट्टा, णो असं. खजा, अणंता पोग्गलपरियट्टा । एवं अणागयद्धा वि, एवं सव्वद्धा वि। ___भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! अतीताद्धा (भतकाल) संख्यात पुद्गलपरिवर्तन का है. ? . २४ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात और असंख्यात पुद्गल-परिवर्तन नहीं, अनन्त पुद्गल-परिवर्तनमय है । इस प्रकार अनागताद्धा और सर्वाता भी। ... २५ प्रश्न-अणागयद्धा णं भंते ! किं संखेजाओ तीयद्धाओ, असंखजाओ, अणंताओ? २५ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ तीयद्धाओ, णो असंखे. जओ तीयद्धाओ, णो अणंताओ तीयद्धाओ । अणागयद्धाणं तीयद्धाओ समयाहिया, तीयद्धा णं अणागयद्धाओ समयूणा । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! अनागतासा (भविष्यत्काल) संख्यात अतीताता (भूतकाल,), असंख्यात अतीताखामय है या अनन्त अतीतादामय है ? For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय २५ उत्तर-हे गौतम ! अनागताद्धा (भविष्यत्काल) संख्यात अतीताद्धा, असंख्यात अतीताद्धा और अनन्त अतीताद्धामय नहीं, किन्तु अतीताद्धा काल से अनागताद्धाकाल एक समय अधिक है और अनागताद्धाकाल से अतीताद्धा एक समय न्यून है। २६ प्रश्न-सव्वद्धा. णं भंते ! किं संखेजाओ तीयद्धाओपुच्छा। २६ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ तीयद्धाओ, णो असंखेजाओ, णो अणंताओ तीयद्धाओ । सव्वद्धा णं तीयद्धाओ साइरेगदुगुणा, तीयद्धा णं सम्बद्धाओ थोचूणए अद्धे । .. भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वाता संख्यात अतीताद्धा रूप है ? २६ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात, असंख्यात और अनन्त अतीताद्वा रूप नहीं, किन्तु अतीताद्धा काल से सर्वाद्धा कुछ अधिक द्विगुण है और अतीताद्धा काल, सर्वाद्धा से कुछ न्यून अर्द्धभाग है। १: २७ प्रश्न-सव्वद्धा णं भंते ! किं संखेजाओ अणागयद्धाओपुच्छा । २७ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ अणागयद्धाओ, णोअसंखेजाओ, अणागयद्धाओ णो अर्णताओ अणागयद्धाओ । सव्वद्धा णं अणागयद्धाओथोवूणगदुगुणा,अणागयद्धा णं सव्वद्धाओ साइरेगे अद्धे । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वाता संख्यात अनागताद्धाकाल का है? २७ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात, असंख्यात और अनन्त अनागताद्धा For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ५ आवलिका यावत् पुद्गल-परिवर्तन के समय ३३४.७ नहीं, किन्तु अनागताद्धा काल से सर्वाद्धा कुछ न्यून दुगुना है और अनागताद्धा काल सर्वाद्धा से सातिरेक (कुछ अधिक) अर्द्ध है। विवेचन-समय से ले कर शीर्षप्रहेलिका तक ४६ भेद हैं। यहाँ तक का काल परिमाण, गणित के योग्य है। शीर्षप्रहेलिका में १९४ अंकों की संख्या आती है । इसके आगे भी काल परिमाण बताया गया है, परन्तु वह उपमा का विषय है, गणित का नहीं । समय से ले कर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। इसी प्रकार उपमा के विषयभूत पल्योपम, सागरोपम आदि का अर्थ भी पहले लिखा जा चुका है। भूतकाल से भविष्यत्काल एक समय अधिक है, क्योंकि भूतकाल और भविष्यत्काल अनादि और अनन्तपन की अपेक्षा दोनों समान हैं । इसके बीच में गौतमस्वामी के प्रश्न का समय है । वह अविनष्ट होने से भूतकाल में समाविष्ट नहीं किया जा सकता, किंतु अविनष्ट धर्म की साधर्म्यता से उसका समावेश भविष्यत्काल में होता हैं । इसलिये भविष्यत्काल, भूतकाल से एक समय अधिक है और भूतकाल, भविष्यत्काल से एक समय कम है। __सर्वाद्धा अर्थात् सर्वकाल, अतीतकाल से एक समय अधिक दुगुना है और अतीतकाल, सर्वाद्धा काल से एक समय कम अर्द्ध भाग रूप है । यहाँ कोई आचार्य कहते हैं कि भूतकाल से भविष्यत्काल अनन्त गुण हैं । जैसा कि कहा है-'ते णतातीअद्धा अणागयद्धा अणंतगुणा' अर्थात् अनन्त पुद्गल परावर्तन रूप अतीताद्धा (भूतकाल) है। उससे अनन्त गुण अनागताद्धा (मविष्यत्काल) है । यदि वर्तमान समय में भूतकाल और भविष्यत्काल बराबर हों, तो वर्तमान समय व्यतीत हो जाने पर भविष्यत्काल एक समय कम हो जायगा और इसके बाद दो, तीन, चार इत्यादि समय कम होने पर भूतकाल और भविष्यत्काल का समानपना नहीं रहेगा। इसलिये ये दोनों काल समान नहीं है, परन्तु भूतकाल से भविष्यत्काल अनन्त गुण है । इसलिये अनन्त काल बीत जाने पर भी उसका क्षय नहीं होता है । ___ इस शंका का समाधान यह है कि भूतकाल और भविष्यत्काल की जो समानता बताई जाती है, वह अनादिपन और अनन्तपन की अपेक्षा से है अर्थात् जिस प्रकार भूतकाल की आदि नहीं है, वह अनादि है, इसी प्रकार भविष्यत्काल का भी अन्त नहीं है, वह भी अनन्त है । इस प्रकार अनादि और अनन्तता की अपेक्षा भूतकाल और भविष्यत्काल की समानता बताई है। For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगोद के भेद २८ प्रश्न - कह विहाणं भंते! णिओया पण्णत्ता ? २८ उत्तर - गोयमा ! दुविहा णिओया पण्णत्ता । तं जहां णिओयगा यणिओयगजीवा य । कठिन शब्दार्थ -- णिओया-- निगोद | भावार्थ - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के कहे हैं ? २८ उत्तर - हे गौतम! निगोद दो प्रकार के कहे हैं। यथा- निगोद और निगोद जीव । २९ प्रश्न - णिओया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? २९ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सुहुमणिओया य बायरणिओया य, एवं णिओया भाणियव्वा जहा जीवाभिगमे तव णिरवसेसं । भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के कहे हैं ? २९ उत्तर - हे गौतम ! निगोद दो प्रकार के कहे हैं । यथा - सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद | जीवाभिगम सूत्र के अनुसार सम्पूर्ण कहना चाहिये । विवेचन - अनन्तकायिक जीवों के शरीर को 'निगोद' कहते हैं और अनन्तकायिक जीवों को 'निगोद के जीव' कहते हैं । चर्मचक्षुओं से जिनके असंख्य शरीर इकट्ठे होने पर दृष्टिगोचर हो सकें, वे 'बादर निगोद' कहे जाते हैं और जो कितने ही शरीर इकट्ठे होने पर भी चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर न हों, उन्हें 'सूक्ष्म निगोद' कहते हैं । औदकादि नाम ३० प्रश्न - कड़ विहे णं भंते ! णामे पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ५ औदयिकादि नाम ३० उत्तर - गोयमा ! छब्बिहे णामे पण्णत्ते, तं जहा - १ उदइए जाव ६ णिवाइए | प्रश्न - से किं तं उदइए णामे ? उत्तर - उदइए णामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - उदए य उदयणिफण्णे य एवं जहा सत्तरसमस पढमे उद्देसए भावो तहेव इह वि । णवरं इमं णामणाणत्तं, सेसं तहेव जाव सण्णिवाइए । | 'सेवं भंते! सेवं भंते !' ति ॥ || पणवीसइमेस पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ ? भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! नाम (भाव) कितने प्रकार के कहे हैं। ३० उत्तर - हे गौतम! नाम छह प्रकार के कहे हैं। यथा- औदयिक यावत् सान्निपातिक । प्रश्न- हे भगवन् ! औदयिक नाम कितने प्रकार का कहा है ? उत्तर - हे गौतम! औदयिक नाम दो प्रकार का कहा है । यथा-उदय और उदयनिष्पन्न । सत्रहवें शतक के प्रथम उद्देशकानुसार । किन्तु वहां भाव के विषय में कहा है और यहां नाम के विषय में यावत् सान्निपातिक पर्यंत । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतस्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - नाम परिणाम और भाव, ये के प्रथम उद्देशक में 'भाव' की अपेक्षा औदयिक 'नाम' शब्द की अपेक्षा यह कथन किया है । ३३४९ सभी शब्द एकार्थक हैं । सत्रहवें शतक आदि का कथन किया था और यहां पर ॥ पच्चीसवें शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक १ पण्णवण २ वेद ३ रागे, ४ कप्प ५ चरित्त ६ पडिसेवणा ७ णाणे । ८ तित्थे ९ लिंग १० सरीरे, ११ खेत्ते १२ काल १३ गइ १४ संजम १५ णिगासे ॥१॥ १६ जोगु १७ वओग १८ कसाए, १९ लेसा २० परिणाम २१ बंध २२ वेदे य । २३ कम्मोदीरण २४ उपसंपजहण्ण, २५ सण्णा २६ य आहारे ॥२॥ २७ भव २८ आगरिसे २९ कालं ३० तरे य, ३१ समुग्घाय ३२ खेत्त ३३ फुसणा य । ३४ भावे ३५ परिमाणे ३६ वि य, अप्पाबहुयं णियंठाणं ॥३॥ भावार्थ-छठे उद्देशक में निर्ग्रन्थों के विषय में ३६ द्वारों से कथन किया जायगा । १ प्रज्ञापन २ वेद ३ राग ४ कल्प ५ चारित्र ६ प्रतिसेवना ७ ज्ञान ८ तीर्थ ९ लिंग १० शरीर ११ क्षेत्र १२ काल १३ गति १४ संयम १५ निकाश (सन्निकर्ष) १६ योग : १७ उपयोग १८ कषाय १९ लेश्या २० परिणाम २१ बन्ध २२ वेद २३ कर्मों की उदीरणा २४ उपसंपत् हान २५ संज्ञा २६ आहार २७ भव २८ आकर्ष २९ काल ३० अन्तर ३१ समुद्घात ३२ क्षेत्र ३३ स्पर्शना ३४ भाव ३५ परिमाण और ३६ अल्प-बहुत्व । For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्रंथों का स्वरूप १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ णं भंते ! णियंठा पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा-१ पुलाए २ बउसे ३ कुसीले ४ णियंठे ५ सिणाए । कठिन शब्दार्थ-णियंठे---निग्रंथ । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! निग्रंथ कितने प्रकार के कहे हैं ?" । १ उत्तर-हे गौतम ! निग्रंथ पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ पुलाक २ बकुश ३ कुशील ४ निग्रंथ और ५ स्नातक । २ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-१ णाणपुलाए २ दंसणपुलाए ३ चरित्तपुलाए ४ लिंगपुलाए ५ अहासुहमपुलाए णामं पंचमे। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पुलाक पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ ज्ञानपुलाक २ दर्शनपुलाक ३ चारित्रपुलाक ४ लिंगपुलाक और ५ यथासूक्ष्मपुलाक। ३ प्रश्न-बउसे णं भंते ! कइविहे पण्णते ?. ३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ आभोगवउसे For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ निग्रंथों का स्वरूप २ अणाभोगबउसे ३ संवुडबउसे ४ असंवुडबउसे ५ अहासुहुमबउसे णाम पंचमे। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश कितने प्रकार के कहे हैं ? . ३ उत्तर-हे गौतम ! बकुश पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ आभोगबकुश २ अनाभोगबकुश ३ संवृतबकुश ४ असंवतबकुश और ५ यथासूक्ष्म बकुश । ४ प्रश्न-कुसीले णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ४ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पडिसेवणाकुसीले य कसायकुसीले य। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कुशील कितने प्रकार के कहे हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! कुशील दो प्रकार के कहे हैं । यथा-१ प्रतिसेवना कुशील और २ कषायकुशील । ... ५ प्रश्न-पडिसेवणाकुसीले णं भंते ! काइपिहे पण्णत्ते ?. .. . . ५ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णाणपडिसेवणाकुसीले २ दंसणपडिसेवणाकुसीले ३ चरित्तपडिसेवणाकुसीले ४ लिंगपडिसेवणाकुसीले ५ अहासुहुमपडिसेवणाकुसीले णामं पंचमे । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रतिसेवना कुशील कितने प्रकार के कहे हैं। ५ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवना कुशील पांच प्रकार के कहे हैं । यथा१ज्ञानप्रतिसेवना कुशील २ दर्शनप्रतिसेवना कुशील ३ चारित्रप्रतिसेवना कुशील ५ लिंगप्रतिसेवना कुशील और ५ यथासूक्ष्मप्रतिसेवना कुशील। For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूंव-श. २५ उ. ६ निर्ग्रथों का स्वरूप. .. ३३५३ ६ प्रश्न-कसायकुसीले णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ६ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णाणकसाय. कुसीले २ देसणकसायकुसीले ३ चरित्तकसायकुसीले ४ लिंगकसायकुसीले ५ अहासुहुमकमायकुसीले णामं पंचमे। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील कितने प्रकार के कहे हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम! कषाय-कुशील पाँच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ज्ञान कषाय-कुशौल २ दर्शन कषाय-कुशील ३ चारित्र कषाय-कुशील ४ लिंग कषायकुशील और ५ यथासूक्ष्म कपाप-कुशील। ७ प्रश्न-णियंठे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ७ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-१ पढमसमयणियंठे अपढमसमयणियंठे ३ चरमसमयणियंठे ४ अचरमसमयणियंठे ५ अहा. सुहमणियंठे णामं पंचमे। . भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ कितने प्रकार के कहे हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! निग्रंथ पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ प्रथम समयवर्ती निग्रंथ २ अप्रथम समयवर्ती निग्रंथ ३ चरम समयवर्ती निग्रंथ ४ अचरम समयवर्ती निग्रंथ और ५ यथासूक्ष्म निग्रंथ । ८ प्रश्न-सिणाए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ८ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ अच्छवी २ असबले ३ अकम्मंसे ४ संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली ५ अपरिस्सावी । For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ निग्रंथों का स्वरूप भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक कितने प्रकार के कहे हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! स्नातक पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-१ अच्छवि २ अशबल ३ अकांश ४ संशुद्ध ज्ञान-दर्शन धारक अरिहन्त जिन केवली और ५ अपरिस्रावी। विवेचन-ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-आभ्यन्तर और बाह्य । मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ हैं और धर्मोपकरण के अतिरिक्त शेष धन-धान्यादि बाह्य ग्रन्थ है । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो रहित है, उसे 'निर्ग्रन्थ' कहते हैं। इन सब के सर्वविरति चारित्र होते हुए भी चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि की विशेषता से पुलाक आदि पाँच भेद होते हैं। पुलाक-दाने सहित धान्य के पूले को 'पुलाक' कहते हैं । वह निस्सार होता है। उसी प्रकार संयम रूपी सार से रहित संयत को 'पुलाक' कहते हैं । वह संयमवान् होते हुए भी दोषों से संयम को कुछ अंश में असार करता है। की पुलाक के दो भेद हैं-लब्धिपुलाक और प्रतिसेवनापुलाक । पुलाक लब्धि से युक्त साध 'लब्धिपुलाक' कहलाता है, जो कि संघादि के प्रयोजन से बल-वाहन सहित चक्रवर्ती का भी विनाश कर सकता हैं । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का कथन, इस प्रकार है किप्रतिसेवना (विराधना-ज्ञानादि में अतिचार लगाना) से जो ज्ञानपुलाक है, उसी को इस प्रकार को लब्धि होती है और वही लब्धिपुलाक कहलाता है । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लब्धिपुलाक नहीं होता। . प्रतिसेवनापुलाक की अपेक्षा पुलाक के पांच भेद कहे हैं । यथा-ज्ञानपुलाक, दर्शनपलाक, चारित्रपुलाक, लिंगपुलाक और यथासूक्ष्मपुलाक । ज्ञानपुलाक-स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला साधु ज्ञानपुलाक कहलाता है । दर्शनपुलाक-शंका, कांक्षा, कृतीर्थ परिचय आदि समकित के अतिचारों का सेवन कर के सम्यक्त्व को दूषित करने वाला साधु. दर्शनपुलाक कहलाता है। चारित्रपुलाक-मूलगुण और उत्तरगुणों में दोष लगा कर चारित्र की विराधना करने वाला साध चारित्रपुलाक कहलाता है । लिंगपूलाकशास्त्र में उपदिष्ट साधु-लिंग से अधिक धारण करने वाला अथवा निष्कारण अन्यलिंग को, धारण करने वाला साधु लिंगपुलाक कहलाता है । यथासूक्ष्मपुलाक-कुछ प्रमाद होने से मन से अकल्पनीय ग्रहण करने के विचार वाला साधु यथासूक्ष्म पुलाक कहलाता है। - यश का अर्थ है-'शयले' = वित्र वर्ण । शरीर और उपकरण को शोभनीय For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगदती सूत्र-श. २५ उ. ६ निर्गयों का स्वरूप बनाने से जिसका चारित्र, शुद्धि और दोषों से विचित्र बना हो । बकुश- बकुश के दो भेद हैं-उपकरण बकुश और शरीर बकुश । विभूषा (शोभा) के लिये अकाल में चोलपट्टा आदि धोने वाला, धूपादि देने वाला, पात्रादि को रोगन आदि लगा कर चमकाने वाला साधु 'उपकरण बकुश' होता है। शरीर बकुश-विभूषा के लिए हाथ, पैर, मुंह आदि धोने वाला, आँख, कान, नाक आदि से मैल दूर करने वाला. नख, केश आदि को संवारने वाला, दाँत साफ करने वाला और इस प्रकार कायगुप्ति रहित साधु शरीर-बकुश होता है । ये दोनों प्रकार के साधु प्रभूत वस्त्रपात्रादि रूप ऋद्धि और यश के कामी होते हैं और साता-गारव वाले होते हैं, इसलिए रात-दिन के कर्तव्य अनुष्ठानों में पूरे सावधान नहीं होते हैं। इस प्रकार इनका चारित्र सर्व या देश से दीक्षा-पर्याय के छेद योग्य अतिचारों से मलीन रहता है। इन दोनों प्रकार के बकुश के पाँच भेद हैं । यथा-आभोग बकुश, अनाभोग बकुश, संवृत बकुश, असंवृत बकुश और यथासूक्ष्म बकुश । आभोग बकुश--शरीर और उपकरण की विभूषा करना साधु के लिये निषिद्ध है--यह जानते हुए भी शरीर और उपकरण की विभषा कर के चारित्र में दोष लगाने वाला साधु आभोग-बकुश है । अनाभोग बकुश-अनजान से शरीर और उपकरण की विभूषा करने वाला साध् अनाभोग बकुथ है । संवृत बकुश-छिप कर शरीर और उपकरण की विभूषा .. कर दोष सेवन करने वाला साधु संवृत बकुश है। असंवृत बकुश--प्रकट रीति से शरीर और उपकरण की विभूषा रूप दोष सेवन करने वाला साधु असंवृत बकुश है । यथासूक्ष्म बकुश-उत्तरगुणों के विषय में प्रकट या अप्रकट रूप से कुछ प्रमाद सेवन करने वाला साधु यथासूक्ष्म बकुश कहलाता है। . कुशील-मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला साधु 'कुशील' कहा जाता है । इसके दो भेद हैं-प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील । चारित्र के प्रति अभिमुख होते हुए भी अजितेन्द्रिय एवं किसी प्रकार पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, पड़िमा आदि उत्तरगुणों की तथा मूलगुणों की विराधना करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला 'प्रतिसेवना-कुशील' है । संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला कषाय-कुशील हैं । कषायकुशील और प्रतिसेवनाकुशील, इन दोनों के पांच-पांच भेद हैं । यथा-ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील, चारित्रकुशील, लिंगकुशील और यथासूक्ष्मकुशील । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग से आजीविका कर के दोष लगाने वाला प्रतिसेवना की अपेक्षा क्रमशः ज्ञान-कुशील, दर्शन-कुशील, चारित्र-कुशील और लिंग-कुशील होता है । यह तपस्वी है'-इस प्रकार की प्रशंसा से प्रसन्न होने वाला For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ निग्रंथों का स्वरूप 'ययासूक्ष्मकुशील' है । कषायकुशील के भी ये पांच भेद हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग के लिए संज्वलन की कषाय करे, वह क्रमशः ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील, चारित्रकुशील और लिंगकषायकुशील होता है । मन से संज्वलन कषाय करने वाला साधु यथासूक्ष्मकुशील है अथवा संज्वलन कषायवश ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग की विराधना करने वाले क्रमशः ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील, चारित्रकुशील, लिंगकुशील हैं और मन से संज्वलन कषाय करने वाला यथासूक्ष्मकपायकुशील है । लिंगकुशील के स्थान में कहीं-कहीं 'तपकुशील' भी है। निग्रंथ--जो मोह से रहित हो, उसे 'निग्रंथ' कहते हैं । इसके उपशान्तमोह निग्रंथ और क्षीणमोह निग्रंथ-ये दो भेद हैं । इन दोनों के भी पांच भेद हैं । यथा-प्रथम समय निग्रंथ, अप्रथम समय निग्रंथ, चरम समय निग्रंथ, अचरम समय निग्रंथ और यथासक्ष्म निग्रंथ । उपशाम्त मोह का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । क्षीण-मोह छद्मस्थ का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उसके प्रथम समय में वर्तमान 'प्रथम समय निग्रंथ' और शेष समयों में वर्तमान 'अप्रथम समय निग्रंथ' कहलाता है । ये दोनों भेद पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा से है । इसी प्रकार उपशान्तमोह और क्षीणमोह के चरम समय में वर्तमान 'चरम समय निर्गथ' और अन्तिम समय के सिवाय शेष समयों में वर्तमान निग्रंथ - 'अचरम समय निग्रंथ' कहलाता है । ये दोनों भेद पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा से है । प्रथम समय आदि की विवक्षा किये बिना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निग्रंथ 'यथासूक्ष्म निग्रंथ' कहलाता है। - स्नातक--घातिक कर्मों का विनाश कर देने से शुद्ध बना हुआ साधु 'स्नातक' कहलाता है । इसके पांच भेद हैं। यथा-अच्छवि, अशबल, अकामांश, संशुद्ध-ज्ञानदर्शनधर अरिहन्त जिन केवली और अपरिश्रावी । अच्छवि-स्नातक काय-योग का निरोध करने से छवि अर्थात् शरीर रहित अथवा व्यथा नहीं देने वाला होता है । इसके स्थान में कोई आचार्य 'अक्षपी' कहते हैं । अशबल-निरतिचार शुद्ध चारित्र को पालता है, इसलिये वह 'अशबल' होता है । अकर्माश--घातिक कर्मों का क्षय कर देने से स्नातक को 'अकर्माश' कहते हैं । संशुद्ध-ज्ञानदर्शनधर अरिहन्तजिन-केवली-दूसरे ज्ञान और दर्शन से असम्बद्ध अतएव शुद्ध निष्कलंक ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाला होने से स्नातक संशुद्धज्ञानदर्शनधारी होता है । पूजा के योग्य होने से एवं कर्म शत्रुओं का विनाश कर देने से 'अरिहन्त, कषायों का विजेता होने से 'जिन' और परिपूर्ण ज्ञान दर्शन चारित्र का स्वामी होने से 'फेवली' For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ वेद द्वार है । अपरिश्रावी-सम्पूर्ण काय-योग का सर्वथा निरोध कर लेने पर, स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्म-प्रवाह सर्वथा रुक जाता है । इसलिये वह 'अपरिश्रावी' होता है । टीकाकार ने स्नातक के इन अवस्थाकृत भेदों की व्याख्या नहीं की है । अतः शक्र, पुरन्दर आदि के समान इनका शब्दकृत भेद होता है-ऐसा संभवित है । वेद द्वार ९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सवेयए होजा, अवेयए होजा ? ९ उत्तर-गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयए होजा। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाफ सबेदी होता है या अवेदी ? ९ उत्तर-हे गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं । १० प्रश्न-जइ सवेयए होजा किं इत्थिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा ? ..... १.० उत्तर-गोयमा ! णो इथिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसगवेयए वा होजा। ___ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन ! पुलाक सवेदी होता है, तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता हैं या पुरुष नपुंसकवेदी होता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! स्त्रीवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुषवेदी या पुरुषनपुंसकवेदी होता हैं। ११ प्रश्न-बउसे णं भंते ! किं सवेयए होजा, अवेयए होजा ? . ११ उत्तर-गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेयए होजा। . For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ वेद द्वार भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश सवेदी होते हैं या अवेदी ? . ११ उत्तर-हे गौतम ! बकुश सवेदी होते हैं, अवेदी नहीं । १२ प्रश्न-जइ सवेयए होजा किं इस्थिवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा ? - १२ उत्तर-गोयमा ! इस्थिवेयए वा होजा, पुरिसवेयए वा होज्जा, पुरिसणपुंसगवेयए वा होजा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश सवेदी होते है, तो क्या स्त्रीवेदी होते हैं, पुरुषवेदी होते हैं या पुरुष नपुंसकवेदी होते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी या पुरुष नपुंसकवेदी होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना कुशील भी। ..१३ प्रश्न-कसायकुसीले णं भंते ! किं सवेयए-पुच्छा। १३ उत्तर-गोयमा ! सवेयए वा होजा, अवेयए वा होजा। . भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील सवेदी होते हैं. ? १३ उत्तर-हे गौतम ! कषाय-कुशील सवेदी भी होते हैं और अवेदी भी। १४ प्रश्न-जइ अवेयए कि उवसंतवेयए, खीणवेयए होजा? १४ उत्तर-गोयमा ! उवसंतवेयए वा खीणवेयए वा होजा । ___ कठिन शब्दार्थ-खीणवेयए-क्षीण-वेदक । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील यदि अवेदी होते हैं, तो उपशान्तवेदी होते हैं या क्षीणवेदी ? . . . १४ उत्तर-हे गौतम ! उपशान्तवेदी.भी होते हैं और क्षीणवेदी भी। For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ वेद द्वार ३३५९ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmom ---------- - १५ प्रश्न-जइ सवेयए होजा किं इथिवेयए-पुच्छा। १५ उत्तर-गोयमा ! तिसु वि जहा बउसो । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि कषाय-कुशील सवेदी होते हैं, तो स्त्रीवेदी होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! बकुश के समान तीनों ही वेदों में होते हैं । १६ प्रश्न-णियंठे णं भंते ! किं सवेयए-पुच्छा । १६ उत्तर-गोयमा ! णो सवेयए होजा अवेयए होज्जा। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ सवेदी होते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! निग्रंथ सवेदी नहीं होते, अवेदी होते हैं। १७ प्रश्न-जइ अवेयए होज्जा कि उवसंत-पुच्छा । १७ उत्तर-गोयमा ! उवसंतवेयए वा होजा, खीणवेयए वा होजा। . भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ अवेदी होते हैं, तो क्या उपशान्त बेदी होते हैं या क्षीणवेदी ? १७ उत्तर-हे गौतम ! उपशान्तवेदी भी होते हैं और क्षीणवेदी भी। १८ प्रश्न-सिणाए णं भंते ! किं सवेयए होजा? .१८ उत्तर--जहा णियंठे तहा सिणाए वि । णवरं णो उवसंतवेयए होजा, खीणवेयए होजा। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ राग द्वार भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक सवेदी होते हैं या अवेदी ? १८ उत्तर - हे गौतम ! निग्रंथ के समान स्नातक भी अवेदी होते हैं । परन्तु वह उपशान्तवेदी नहीं होते, क्षीणवेदी होते हैं । ३३६० • विवेचन - पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील में उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी नहीं होती, इसलिये वे अवेदी नहीं होते । पुलाक लब्धि स्त्री को नहीं होती, पुरुष या पुरुष नपुंसक को होती है । पुरुष होते हुए भी लिंग छेद आदि के द्वारा जो 'कृत्रिम नपुंसक' है, वह पुरुष नपुंसक यहाँ ग्रहण किया है स्वरूपतः अर्थात् जो जन्म से नपुंसक है, उसका भी यहाँ ग्रहण किया है । कषाय-कुशील, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होते हैं । वे प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में सवेदी होते हैं तथा अनिवृत्तिवादर और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में वेद का उपशम या क्षय होने से अवेदी होते हैं । निग्रंथ उपशम और क्षपक दोनों श्रेणी में होते हैं । इसलिये वे उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी होते हैं । स्नातक क्षपक श्रेणी में ही होते हैं । इसलिये वे क्षीणवेदी होते हैं । राग द्वार १९ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! किं सरागे होज्जा, वीयरागे होना ? १९ उत्तर - गोयमा ! सरागे होजा, णो वीयरागे होज्जा एवं जाव कसायकुसीले । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक सराग होते हैं या वीतराग ? १९ उत्तर - हे गौतम | पुलाक सराग होते हैं, वीतराग नहीं होते । इसी प्रकार यावत् कषाय- कुशील पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६. कल्प द्वार ३३६१ २० प्रश्न-णियंठे णं भंते ! किं सरागे होजा-पुच्छा। २० उत्तर-गोयमो ! णो सरागे होजा, वीयरागे होजा।। भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ सराग होते हैं या वीतराग ? २० उत्तर-हे गौतम ! सराग नहीं, वीतराग होते है । २१ प्रश्न-जइ वीयरागे होजा किं उवसंतकसायवीयरागे होजा, खीणकसायवीयरागे होज्जा ? __ २१ उत्तर-गोयमा ! उवसंतकमायवीयरागे वा होजा, खीणकसायवीयरागे वा होजा । सिणाए एवं चेव । णवरं णो उवसंतकसायवीयरागे होजा, खीणकसायवीयरागे होजा ३ । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि निग्रंथ वीतराग होते हैं, तो क्या उपशान्तकषाय वीतराग होते हैं या क्षीण-कषाय वीतराग होते हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! उपशान्त-कषाय वीतराग भी होते हैं और क्षीण-कषाय वीतराग भी होते हैं। इसी प्रकार स्नातक भी। किन्तु स्नातक उपशान्त-कषाय वीतराग नहीं होते, केवल क्षीण-कषाय वीतराग ही होते है । विवेचन-सराग का अर्थ 'सकषाय' है । यह सकषायत्व दसवें गुणस्थान तक होता है । कल्प द्वार ___- २२ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा, अट्ठियकप्पे होजा? २२ उत्तर-गोयमा ! ठियकप्पे वा होजा, अट्ठियकप्पे वा होजा। For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६२ एवं जाव सिणांए । भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ कल्प द्वार कठिन शब्दार्थ-ठिय कप्पे-स्थित कल्प | भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक स्थित कल्प में होते हैं या अस्थित कल्प में ? २२ उत्तर - हे गौतम! वे स्थित कल्प में भी होते हैं और अस्थित कल्प में भी । इसी प्रकार यावत स्नातक पर्यंत । २३ प्रश्न -पुलाए णं भंते! किं जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, कप्पाईए होजा ? २३ उत्तर -- गोयमा ! णो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, it कप्पाई होना । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक जिनकल्प में होते हैं, स्थविरकल्प में होते हैं या कल्पातीत ? २३ उत्तर - हे गौतम! पुलाक जिनकल्प में नहीं होते, कल्पातीत भी नहीं होते, किन्तु स्थविरकल्प में होते हैं । २४ प्रश्न - बउसे णं-- पुच्छा | .. २४ उत्तर --गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, णो कप्पाईए होज्जा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! बकुश जिनकल्प में होते हैं० ? २४ उत्तर - हे गौतम ! बकुश जिनकल्प में और स्थविरकल्प में होते हैं, किन्तु कल्पातीत नहीं होते । इसी प्रकार प्रतिसेवना - कुशील भी । For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ६ कल्प द्वार २५ प्रश्न - कसायकुमीले गं - पुच्छा । २५ उत्तर - गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, पाईए वा होना । भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय-कुशील जिनकल्प में होते हैं ? २५ उत्तर - हे गौतम ! जिनकल्प में भी होते हैं, स्थविरकल्प भी और कल्पातीत भी होते हैं । ३३६३ २६ प्रश्न - नियंठे णं- पुच्छा । २६ उत्तर : गोयमा ! णो जिणकप्पे होज्जा, णो थेरकप्पे होज्जा, कप्पाईए होजा । एवं सिणाए वि ४ । भावार्थ - २६ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथ जिनकल्प में होते हैं० ? २६. उत्तर - हे गौतम ! निग्रंथ जिनकल्प में या स्थविरकल्प में नहीं होते, किन्तु कल्पातीत होते हैं । इसी प्रकार स्नातक भी । विवेचन --- अचेलकल्प आदि दस कल्प हैं। उनका पालन करना जिनके लिये निश्चित् रूप से आवश्यक हो, उन मुनियों का कल्प 'स्थितकल्प' कहलाता हैं । जिन मुनियों के लिये इन दसकल्पों में से चार का पालन करना नियमित रूप से आवश्यक हो और छह का पालन ऐच्छिक हो, उनका कल्प 'अस्थितकल्प' कहलाता है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु के लिये अचेलकल्प आदि दस कल्पों का पालन करना आवश्यक । इसलिये उनका कल्प 'स्थितकल्प' कहलाता है । मध्य के बावीस तीर्थंकरों के साधुओं के लिये दस कल्पों में से चार कल्पों का पालन नियमित होता है और छह का पालन करना उनके लिये नियमित रूप से आवश्यक नहीं होता । अतः उनका कल्प 'अस्थितकल्प' कहलाता है । पुलाक आदि सभी निर्ग्रथ स्थितकल्प और अस्थितकल्प- दोनों कल्पों में होते हैं । दूसरी अपेक्षा से कल्प के दो भेद भी किये हैं। यथा- जिनकल्प और स्थविरकल्प | इन दोनों कल्पों में जो नहीं हो, उसे 'कल्पातीत' कहते हैं । पुलाक तो केवल For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६४ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ चारित्र द्वार स्थविर कल्प में ही होते हैं । बकुश और प्रतिसेवना-कुशील जिनकल्प और स्थविरकल्पदोनों में होते हैं । कषाय-कुशील जिनकल्प और स्थविरकल्प में भी होते हैं और कल्पातीत भी होते हैं। क्योंकि छद्मस्थ तीर्थंकर सकषायी होने से कल्पातीत होते हुए भी कषायकुशील होते हैं। निग्रंथ और स्नातक कल्पातीत ही होते हैं । उनमें जिनकल्प और स्थविरकल्प धर्म नहीं होते। चारित्र द्वार २७ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सामाइयसंजमे होजा, छेओ. वट्ठावणियसंजमे होजा, परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, सुहुमसंप. रायसंजमे होजा, अहवखायसंजमे होला ? २७ उत्तर-गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होजा, छेओवट्ठावणियसंजमे वा होज्जा, णो परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, णो सुहमसंप. रायसंजमे होजा, णो अहफ्खायसंजमे होजा । एवं बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि। भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, सामायिक संयम में, छेदोप. स्थापनीय संयम में, परिहारविशुद्धि संयम में, सूक्ष्मसम्पराय संयम में या यथाख्यात संयम में होते हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! पुलाक, सामायिक संयम में या छवोपस्थापनीय संयम में होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धि संयम में, सूक्ष्मसम्पराय संयम में और यथाख्यात संयम में महीं होते। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील भो । २८ प्रश्न-कसायकुसीले णं-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ प्रतिमेवना द्वार . २८ उत्तर-गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होजा जाव सुहमसंपरायसंजमे वा होजा, णो अहक्खायसंजमे होजा। भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील किस संयम में होते है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! सामायिक संयम में यावत सूक्ष्मसंपराय संयम में होते हैं, परन्तु यथाख्यात संयम में नहीं होते। - २९ प्रश्न-णियंठे णं-पुच्छा। - २९ उत्तर-गोयमा ! णो सामाइयसंजमे होजा जाव णो सुहमसंपरायसंजमे होजा, अहक्खायसंजमे होजा । एवं सिणाए वि ५। भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ किस संयम में होते हैं ? २९ उत्तर-हे गौतम ! सामायिक संयम यावत् सूक्ष्मसंपराय संयम में नहीं होते, किन्तु यथाख्यात संयम में होते हैं। इसी प्रकार स्नातक भी। . प्रतिसेवना द्वार ३० प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा ? - ३० उत्तर-गोयमा ! पडिसेवए होजा, णो अपडिसेवए होजा। भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, प्रतिसेवी (दोषों का सेवन करने वाले) होते हैं या अप्रतिसेवी ? .३० उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवी होते हैं, अप्रतिसेवी नहीं होते। ३१ प्रश्न-जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होना, For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६६ भगवती सूत्र-श २५ उ. ६ प्रतिसेवना द्वार - उत्तरगुणपडिसेवए होजा ? ३१ उत्तर-गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होजा, उत्तरगुण पडिसेवए वा होजा । मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अण्णयरं पडिसेवेजा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पञ्चपखाणस्स अण्णयरं पडिसेवेजा। कठिन शब्दार्थ-अण्णयरं-अन्यतर-किसी भी। . भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि पुलाक, प्रतिसेवी होते हैं, तो क्या मूलगुणों के प्रतिसेवी होते हैं या उत्तरगुणों के ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! मलगुणों के प्रतिसेवी भी होते हैं और उत्तरगणों के प्रतिसेवी भी। मूलगुणों के प्रतिसेवी होते हैं, तो पांच प्रकार के आश्रव में से किसी एक आश्रव के प्रतिसेवी होते है और उत्तरगुणों के प्रतिसेवी होते हैं, तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान के प्रतिसेवी होते हैं। ३२ प्रश्न-बउसे णं-पुच्छा। ३२ उत्तर-गोयमा ! पडिसेवए होजा, णो अपडिसेवए होजा। भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश प्रतिसेवी होते हैं. ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवी होते हैं, अप्रतिसेवी नहीं होते। ३३ प्रश्न-जइ पडिसेवए होजा कि मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा? ३३ उत्तर-गोयमा ! णो मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुण For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ ज्ञान द्वार ३३६७ - पडिसेवए होजा। उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहरस पञ्चपखाणस्स अण्णयरं पडिसेवेजा पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए । भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि बकुश प्रतिसेवी होते हैं, तो क्या मूलगुण प्रतिसेवी होते हैं या उत्तरगुण ? ___३३ उत्तर-हे गौतम ! मलगुणों के प्रतिसेवी नहीं होतें, उत्तरगुणों के प्रतिसेवी होते हैं। उत्तरगणों के प्रतिसेवी होते हैं, तो दस प्रकार के प्रत्याख्यान में से किसी एक प्रत्याख्यान के प्रतिसेवी होते हैं। प्रतिसेवना-कुशील का कयन पुलाक के समान है। .. ३४ प्रश्न-कसायकुसीले गं-पुच्छो। ३४ उत्तर-गोयमा ! णो पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा। एवं णिग्गंथे वि, एवं सिणाए वि ६ । ___भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील प्रतिसेवी होते हैं ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवी नहीं होते, किन्तु अप्रतिसेवी होते हैं। इसी प्रकार निग्रंथ और स्नातक भी। .. विवेचन--संज्वलन कषाय के उदय से जो संयम विरुद्ध आचरण करता है, वह 'प्रतिसेवक' (संयम विराधक) कहलाता है और जो किसी भी प्रकार के दोषों का सेवन नहीं करता, वह 'अप्रतिसेवी' कहलाता है । 'प्राणातिपातादिविरमण व्रत' 'मूलगुण' कहलाते हैं और अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित इत्यादि दस प्रकार के प्रत्याख्यान एवं उपलक्षण से पिण्डविशुद्धयादि 'उत्तर गुण' कहलाते हैं । इनमें दोष लगाने वाला मुनि क्रमशः मूलगुणप्रतिसेवी और उत्तरगुण प्रतिसेवी कहलाता है । ज्ञान द्वार . ३५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कइसु णाणेसु होजा ? For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ज्ञान द्वार ३५ उत्तर-गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होजा । दोसु होमाणे. दोसु आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे होजा, तिसु होमाणे तिसु आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे ओहिणाणे होजा । एवं बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुमीले वि। कठिन शब्दार्थ--होमाणे--होता हुआ । भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक में ज्ञान कितने होते हैं. ? . : " ३५ उत्तर-हे गौतम ! दो या तीन ज्ञान होते हैं। यदि दो ज्ञान हो, तो आमिनिबोधिक ज्ञान और श्रुत ज्ञान होते हैं और तीन ज्ञान हो, तो आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान और अवधि ज्ञान होते हैं। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील भी। ३६ प्रश्न-कसायकुसीले णं-पुच्छा। , ३६ उत्तर-गोयमा! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होजा । दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे होजा, तिसु होमाणे तिसु आभिणियोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-मणपजवणाणेसु होजा, चउसु होमाणे चउसु आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मणपजवणाणेसु होजा ? __ भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील में ज्ञान कितने होते हैं ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं। दो हों, तो आमिनिबोधिक ज्ञान और श्रुत ज्ञान, तीन हों, तो आमिनिबोधिक ज्ञान, For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ६ श्रुत द्वार श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान अथवा आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान होते हैं और चार ज्ञान हो, तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं । इसी प्रकार निग्रंथ मी । ३७ प्रश्न - सिणाए - पुछा । ३७ उत्तर - गोयमा ! पगंमि केवलणाणे होजा । भावार्थ - ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक में ज्ञान कितने होते है ? ३७ उत्तर - हे गौतम! स्नातक में एक केवलज्ञान ही होता है । श्रुत द्वार ३३६९ - ३८ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! केवइयं सुयं अहिजेज्जा ? ३८ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं णवमस्स पुव्वस्स तइयं आयारवत्युं उकोसेणं णव पुव्वाई अहिज्जेज्जा । वस्तु तक और उत्कृष्ट सम्पूर्ण नौ पूर्व पढ़ते है । भावार्थ - ३८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक श्रुत कितना पढ़ते है ? ३८ उत्तर - हे गौतम! पुलाक जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार ३९ प्रश्न - उसे - पुच्छा । ३९ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं दस पुव्वाई अहिज्जेजा । एवं पडि सेवणाकुसीले वि । For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ६ तीर्थ द्वार भावार्थ - ३९ प्रश्न - हे भगवन् ! वकुश श्रुत कितना पढ़ते हैं ? ३९ उत्तर - हे गौतम! जघन्य आठ प्रवचन-माता और उत्कृष्ट दस पूर्व तक पढ़ते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी । ३३७० ४० प्रश्न - कसायकुसीले - पुच्छा । ४० उत्तर -- गोयमा ! जहणेणं अट्ट पवयणभायाओ, उक्कोसेणं चोदस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा । एवं नियंठे वि । भावार्थ - ४० प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय-कुशील श्रुत कितना पढ़ते हैं ? ४० उत्तर - हे गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन-माता और उत्कृष्ट चौवह पूर्व पर्यन्त पढ़ते हैं । इसी प्रकार निग्रंथ भी । ४१ प्रश्न - सिणाए - पुच्छा । ४१ उत्तर -- गोयमा ! सुयवइरित्ते होना ७ । ? भावार्थ - ४१ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक श्रुत कितना पढ़ते ४१ उत्तर - हे गौतम! स्नातक श्रुतव्यतिरिक्त होते हैं । विवेचन - पाँच समिति और तीन गुप्ति-ये 'आठ प्रवचन - माता' कहलाते हैं । इनका पालन करना चारित्र रूप है । इसलिए चारित्र का पालन करने वाले को कम से कम आठ प्रवचन-माता का ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि ज्ञानपूर्वकं ही चारित्र होता है । बकुश को जघन्य ज्ञान इतना होता है और उत्कृष्ट दस पूर्व का ज्ञान होता है । तीर्थ द्वार ४२ प्रश्न -- पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होज्जा, अतित्थे होजा ? ४२ उत्तर -- गोयमा ! तित्थे होज़ा, णो अतित्थे होज्जा । एवं For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ तीर्थ द्वार । बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि ।। भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, तीर्थ में होते हैं या अतीर्थ में? ४२ उत्तर-हे गौतम ! तीर्थ में होते हैं, अतीर्थ में नहीं होते। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना कुशील भी । ४३ प्रश्न-कसायकुसीले-पुच्छा। ..४३ उत्तर-गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होजा। भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील, तीर्थ में होते हैं या अतीर्थ में ? ४३ उत्तर-हे गौतम ! तीर्थ में भी होते हैं और अतीर्थ में भी। ४४ प्रश्न-जइ अतित्थे होजा किं तित्थयरे होजा, पत्तेयबुद्धे होजा? ४४ उत्तर-गोयमा ! तित्थयरे वा होजा, पत्तेयबुद्धे वा होजा। एवं णियंठे वि, एवं सिणाए वि ८ । भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे अतीर्थ में होते हैं, तो क्या तीर्थकर होते हैं या प्रत्येक-बुद्ध ? . ४४ उत्तर-हे गौतम ! वे तीर्थकर या प्रत्येक-बुद्ध होते हैं। इसी प्रकार निग्रंथ और स्नातक भी। विवेचन--छद्मस्थ अवस्था में तीर्थंकर कषाय-कुशोल होते हैं, इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि कषाय-कुशील अतीर्थ में भी होते हैं, अथवा तीर्थ का विच्छेद हो जाने पर दूसरे साधु भी कषाय-कुशील होते हैं । इस अपेक्षा से यह समझना चाहिये कि कपायकुशील अतीर्थ में भी होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंग द्वार ४५ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! किं सलिंगे होज्जा, अण्णलिंगे होज्जा, गिहिलिंगे होजा ? ४५ उत्तर - गोयमा ! दव्वलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अण्णलिंगे वा होज्जा, गिहिलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च णियमा सलिंगे होना, एवं जाव सिणाए ९ । भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक, स्वलिंग में, अन्यलिंग में या गृहस्थलंग में होते हैं ? . ४५ उत्तर - हे गौतम! द्रव्यलिंग की अपेक्षा स्वलिंग, अन्यलिंग में या गृहस्थलंग में होते हैं, किंतु भाव लिंग की अपेक्षा नियम से स्वलिंग में हो होते हैं। इसी प्रकार यावत् स्नातक पर्यन्त । विवेचन-लिंग के दो भेद हैं- द्रव्यलिंग और भावलिंग । सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र भावलिंग है । यह भावलिंग केवलिप्ररूपित धर्म का पालन करने वालों में ही होता है । अतः यह स्वलिंग कहलाता है । द्रव्यलिंग के दो भेद हैं- स्वलिंग और अन्यलिंग ( पर लिंग ) । हाथ में रजोहरण रखना, मुख पर मुखवस्त्रिका बांधना, इत्यादि द्रव्य से स्वलिंग हैं । परलिंग के दो भेद हैं- कुतीर्थिक लिंग और गृहस्थलिंग । पुलाक में तीनों प्रकार के द्रव्यलिंग पाये जा सकते हैं, क्योंकि चारित्र का परिणाम किसी एक ही द्रव्यलिंग की अपेक्षा नहीं रखता । शरीर द्वार ४६ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! कइसु सरीरेसु होज्जा ? ४६ उत्तर - गोयमा ! तिसु ओरालिय- तेया- कम्मरसु होजा । भावार्थ - ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक कितने शरीर में होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ शरीर द्वार ४६ उतर-हे गौतम ! औदारिक, तेजस और कार्मण, इन तीन शरीरों में होते हैं। ४७ प्रश्न-बउसे णं भंते !-पुच्छा। ४७ उत्तर-गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होजा, तिसु होमाणे तिसु ओरालिय-तेया कम्मएसु होजा, चउसु होमाणे त्रउसु ओरालिय. वेउब्बियन्तेया-कम्मरसु होजा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश कितने शरीरों में होते हैं ? ___ ४७ उत्तर-हे गौतम ! बकुश तीन या चार शरीरों में होते हैं । जो तीन शरीर में होते हैं, तो औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर में होते हैं और चार शरीरों में होते हैं, तब औदारिक, वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीरों में होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी। ४८ प्रश्न-कसायकुसीले-पुच्छा। ४८ उत्तर-गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा होजा। तिसु होमाणे तिसु ओरालिय-तेया-कम्मएसु होजा, चउसु होमाणे चउसु ओरालिय चेउब्विय-तेया-कम्मएसु होजा, पंचसु होमाणे पंचसु ओरालिय-वेउध्विय-आहारग-तेया-कम्मएसु होजा। णियंठो सिणाओ .य जहा पुलाओ। ....: भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील कितने शरीरों में होते है ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! तीन, चार या पांच शरीरों में होते हैं । तीन शरीर में हों, तो औवारिक, तेजस् और कार्मण शारीरों में, चार शरीरों में हों, For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७४ भगवती सूत्र-ग. २५ उ: ६ क्षेत्र द्वार - तो औदारिक, वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीरों में और पांच शरीरों में हों, तो औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् और कार्मण शरीरों में होते हैं । निग्रंथ और स्नातक के शरीर पुलाक के समान होते है । क्षेत्र द्वार ४९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होजा, अकम्मभूमीए होजा ? - ४९ उत्तर-गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होजा, णो अकम्मभूमीए होना। - कठिन शब्दार्थ-संतिभावं-सद्भाव-मौजूदगी। भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, कर्मभूमि में होते हैं या अकर्मभूमि में ? ४९ उत्तर-हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा कर्मभूमि में होते है, अकर्मभूमि में नहीं होते। ५० प्रश्न-बउसे गं-पुच्छा । ५० उत्तर-गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होजा, णो अकम्मभूमीए होजा, साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होजा, अकम्मभूमीए वा होजा । एवं जाव सिणाए। कठिन शब्दार्थ-साहरणं-संहरण-देवादि द्वारा एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान पर ले जाया जाना। भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, कर्मभूमि में होते हैं या अकर्मभूमि में ? ... ५० उत्तर-हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा कर्मभूमि में For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T. २५ उ. ६ काल द्वार ३३७५ होते हैं, अकर्मभूमि में नहीं, किन्तु संहरण की अपेक्षा कर्मभूमि में भी होते हैं और अकर्म ममि में भी । इसी प्रकार यावत् स्नातक पर्यन्त । विवेचन--जहाँ असि, मषि और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन की जाती हो तथा तप, संयम आदि आध्यात्मिक अनुष्ठान हों, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं । पाँच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह---ये पन्द्रह क्षेत्र 'कर्मभूमि' हैं । जहाँ असि, मषि और कृषि आदि द्वारा आजीविका न की जाती हो तथा तप, संयम आदि आध्यात्मिक अनुष्ठान न हो, उसे 'अकर्मभूमि' कहते हैं । पाँच हैमवत, पाँच हैरण्यवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच रम्यक्वर्ष, पाँच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु--ये तीस क्षेत्र ‘अकर्मभूमि' हैं । इनमें असि, मषि और कृषि का व्यापार नहीं होता। इन क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । इन्हीं से वहाँ के मनुष्य अपना निर्वाह करते हैं। कर्म न करने से और कल्पवृक्षों द्वारा भोग प्राप्त होने से इन क्षेत्रों को 'भोगभूमि' भी कहते है। यहाँ के मनुष्य को 'भोगभूमिज' कहते हैं । यहाँ के स्त्रीपुरुष जोड़े से जन्म लेते हैं, इसलिये इन्हें 'युगलिक' कहते हैं। जन्म (उत्पत्ति) और सद्भाव (चारित्र भाव का अस्तित्व) की अपेक्षा पुलाक कर्मभूमि में होते हैं अर्थात् पुलाक का जन्म कर्मभूमि में ही होता है और संयम अंगीकार कर वह वहीं विचरता है । वह अकर्मभूमि में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वहाँ उत्पन्न हुए मनुष्य को चारित्र (संयम) की प्राप्ति नहीं होती। अतएव वहाँ उसका सद्भाव भी नहीं होता । संहरण की अपेक्षा भी वह अकर्मभूमि में नहीं होता, क्योंकि पुलाक लब्धि वाले का देव आदि कोई भी संहरण नहीं कर सकते । काल द्वार ५१ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं ओसप्पिणिकाले होजा, उस्सप्पिणिकाले होजा, णोओसप्पिणि-णोउस्सप्पिणिकाले वा होज्जा ? ५१ उत्तर-गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होजा, उस्सप्पिणि. काले वा होजा, णोओमप्पिणी-णोउस्सप्पिणिकाले वा होजा। भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, 'अवसर्पिणी काल' में होते हैं, For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७६ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ काल द्वार 'उत्सपिणी काल में होते हैं या 'नोअवसर्पिणी-नोउत्सपिणी काल' में होते हैं ? ५१ उत्तर-हे गौतम ! अवसर्पिणी काल में होते हैं, उत्सपिणी काल में भी होते हैं और नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणी काल में भी होते हैं। ५२ प्रश्न-जइ ओसप्पिणिकाले होजा किं १ सुसमसुसमाकाले होजा २ सुममाकाले होजा ३ सुममदूममाकाले होजा ४ दूमम सुसमाकाले होज्जा ५ दृसमाकाले होजा ६ दूसमदूसमाकाले होजा? ___५२ उत्तर-गोयमा ! जम्मणं पडुच्च १ णो सुसमसुसमाकाले होज्जा २ णो सुसमाकाले होज्जा ३ सुसमदूसमाकाले वा होज्जा ४ दूसमसुसमाकाले वा होज्जा ५ णो दूसमाकाले होजा ६ णो दूसमदूसमाकाले होज्जा । संतिभावं पडुच्च णो सुममसुसमाकाले होज्जा, णो सुसमाकाले होजा, सुसमदूसमाकाले वा होजा, दूममसुसमाकाले वा होज्जा, दूसमाकाले वा होज्जा, णो दूसमदूसमाकाले होज्जा । भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि पुलाक अवसर्पिणी काल में होते हैं, तो क्या 'सुषमसुषमा' काल में होते हैं, 'सुषमा' काल में होते हैं, 'सुषमदुषमा' काल में होते हैं, 'दुषमसुषमा' काल में होते हैं, 'दुषमाकाल' में होते हैं या 'दुषमदुषमा' काल में होते हैं ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा सुषमसुषमा और सुषमा काल में नहीं होते, किन्तु सुषमदुषमा और दुषमसुषमा काल में होते हैं। दुषमा और दुषमदुषमा काल में नहीं होते । सद्भाव की अपेक्षा सुषमसुषमा, सुषमा और दुषमदुषमा काल में नहीं होस, किन्तु सुषमदुषमा, दुषमसुषमा और दुषमा काल में होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ६ काल द्वार ५३ प्रश्न - जइ उस्सप्पिणिकाले होजा किं १ दुसमद्समा काले होजा २ दूममाकाले होजा ३ दूसमसुसमाकाले होजा ४ सुसम - दूममा काले होज्जा ५ सुसमाकाले होज्जा ६ सुसमसुसमाकाले होज्जा ? ५३ उत्तर - गोयमा ! जम्मणं पहुच १ णो दुसमदुसमाकाले होना २ दूममाकाले वा होज्जा ३ दूसमसुसमाकाले वा होज्जा ४ सुसम - दूसमाकाले वा होज्जा ५ णो सुसमाकाले होज्जा ६ णो सुसम सुसमा काले होज्जा । संतिभावं पडुन १ णो दूसमसमाकाले होज्जा २ णो दूसमाकाले होज्जा ३ दूसमसुममा काले वा होज्जा ४ सुसमदूसमा काले वा होज्जा ५ णो सुसमाकाले होज्जा ६ णो सुसमसुसमा काले होज्जा । ३३७७ भावार्थ- ५३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पुलाक, उत्सर्पिणी काल में होते है, तो क्या दुषमदुषमा काल में, दुषमा काल में, दुषमसुषमा काल में, सुषमदुषमा काल में, सुषमा काल में या सुषमसुषमा काल में होते हैं ? ५३ उत्तर - हे गौतम! जन्म की अपेक्षा दुषमदुषमा काल में नहीं होते । दुषमा काल, दुषमसुषमा काल और सुषमदुषमा काल में होते हैं परन्तु सुषमा और सुषमसुषमा काल में नहीं होते । सद्भाव की अपेक्षा दुषमदुषमा काल और दुषमा काल में नहीं होते । दुषमसुषमा काल में, सुषमबुषमा काल में होते हैं, किन्तु सुषमा और सुषमसुषमा काल में नहीं होते । ५४ प्रश्न - जइ णोओसप्पिणि-गोउस्सप्पिणिकाले होज्जा किं सुसमसुसमापलिभागे होज्जा, सुसमापलिभागे होज्जा, सुसमदूसमा पलिभागे होज्जा, दूसमसुसमापलिभागे होज्जा ? 1 For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७८ भवगती सूत्र - श. २५ उ. ६ काल द्वार ५४ उत्तर - गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमा पलिभागे होज्जा, णो सुसमा लिभागे०, णो मुसमदूसमापलिभागे होज्जा, दूसमसुसमापलिभागे होज्जा । भावार्थ - ५४ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पुलाक, नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी में होते हैं, तो क्या सुषमसुषमा समान काल में या सुषमा समान काल में या सुषमदुषमा समान काल में या दुषमसुषमा समान काल में होते हैं ? ५४ उत्तर - हे गौतम! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा सुषमसुषमा समान काल में, सुषमा समान काल में और सुषमंदुषमा समान काल में नहीं होते, परन्तु दुषमसुषमा समान काल में होते है । ५५ प्रश्न - बाउसे गं - पुच्छा । ५५ उत्तर - गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणिकाले वा होज्जा, गोओसप्पिणि-गोउस्सप्पिणिक्काले वा होज्जा । भावार्थ - ५५ प्रश्न - हे भगवन् ! बकुश, किस काल में होते हैं ? ५५ उत्तर - हे गौतम ! अवसर्पिणी काल में उत्सर्पिणी काल में, और नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल में होते है । ५६ प्रश्न - जइ ओसप्पिणिकाले होज्जा किं सुसमसुसमाकालेहोज्जा - पुच्छा । ५६ उत्तर - गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमा काले होज्जा, णो सुसमाकाले होज्जा, सुसमद्रसमाकाले वा होज्जा, दूसमसुसमाकाले वा होज्जा, दूसम काले वा होज्जा, णो दूसमदूसमा For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ काल द्वार काले होज्जा साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होज्जा । भावार्थ - ५६ प्रश्न - हे भगवन् ! बकुश, अवसर्पिणी काल में होते हैं, तो क्या सुषमसुषमा काल में होते हैं ० ? ५६ उत्तर - हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा सुषमसुषमा काल में और सुषमा काल में नहीं होते । सुषमदुषमा काल में, दुषमसुषमा काल में और दुषमा काल में होते हैं, परन्तु दुषमदुषमा काल में नहीं होते । संहरण की अपेक्षा किसी भी काल में होते हैं । ५७ प्रश्न - जइ उस्सप्पिणिकाले होज्जा किं दूसमदूसमा काले होजा ६ - पुच्छा ! ५७ उत्तर - गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो दूसमदूसमाकाले होजा जहेब पुलाए । संतिभावं पडुच्च णो दूसमदूसमाकाले होज्जा, णो दुसमाकाले होज्जा, एवं संतिभावेण वि जहा पुलाए जाव णो सुसम - सुसमाकाले होज्जा | साहरणं पडुच अण्णयरे समाकाले होज्जा । ३३७९ भावार्थ - ५७ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि बकुश, उत्सर्पिणी काल में होते हैं, तो क्या दुषमदुषमा काल में होते हैं ० ? ५७ उत्तर - हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा दुषमदुषमा काल में नहीं होते इत्यादि पुलाक के समान । सद्भाव की अपेक्षा दुषमदुषमा काल में और दुषमा काल में नहीं होते, इत्यादि पुलाक के समान यावत् सुषमसुषमा काल में नहीं होते । संहरण की अपेक्षा किसी भी काल में होते हैं । ५८ प्रश्न - जड़ णोओस्सप्पिणि-गोउस्सप्पिणिकाले होज्जापुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ६ काल द्वार ५८. उत्तर - गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुमसुममापलिभागे होज्जा जहेव पुलाए जाव दूममसुसमापलिभागे होज्जा । साहरणं पडुच्च अण्णयरे पलिभागे होज्जा, जहा बउसे । एवं पडि - सेवणाकुसीले वि एवं कसायकुसीले वि। णियंठो सिणाओ य जहा पुलाओ । णवरं एएसिं अमहियं साहरणं भाणियव्वं, सेसं तं चेव १२ । कठिन शब्दार्थ - अमहियं -- अत्यधिक - अधिक । भावार्थ-५८ प्रश्न हे भगवन् ! यदि बकुश, नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल में होते हैं, तो किस काल में होते हैं ? ५८ उत्तर - हे गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा सुबमसुषमा समान काल में नहीं होते, इत्यादि सभी पुलाक के समान यावत् दुषमसुषमा समान काल में होते हैं । संहरण की अपेक्षा किसी भी काल में होते हैं । बकुश के समान प्रतिसेवना-कुशील और कषाय- कुशील भी । निग्रंथ और स्नातक का कथन पुलाक के समान है, किन्तु इनका संहरण अधिक कहना चाहिये अर्थात् संहरण' की अपेक्षा सर्वकाल में होते हैं, शेष पूर्ववत् । विवेचन -- काल तीन प्रकार का कहा है। अवसर्पिणी काल, उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल । जिस काल में जीवों की आयु, बल, शरीर आदि भाव उत्तरोत्तर घटते जायें, वह 'अवसर्पिणी काल' है । यह दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । जिस काल में जीवों की आयु. बल, शरीर आदि भावों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती 'जाय, वह 'उत्सर्पिणी काल' है । यह भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । पाँच भरत और पाँच ऐरवत -- इन दस क्षेत्रों में यह दो प्रकार का काल होता है । जिस काल में भावों की हानि-वृद्धि न हो और सदा एक से परिणाम रहते हों, उस काल को 'नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल' कहते हैं । यह काल पाँच महाविदेह में और हैमवत आदि युगलिक क्षेत्रों में होता है । अवसर्पिणी काल के छह आरे हैं। यथा-१ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुषमा, ३३८० For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ गति द्वार । ३३८१ ४ दुषमसुषमा ५ दुषमा और ६ दुपमदुपमा । उत्सपिणी काल के भी उलटे क्रम से ये ही छह आरे होते हैं । यथा-१ दुषमदुषमा २ दुपमा ३ दुषमसुषमा ४ सुषमदुषमा ५ सुषमा और ६ सुषमसुषमा । . पुलाक, जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणी काल के तीसरे औ· चौथे आरे में होता है तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे. चौथे और पांचवें आरे में होता है । इनमें से जो चोथे आरे में जन्मा हुआ है, उसका सद्भाव पाँचवें आरे में भी होता हैं। तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव दोनों होते हैं । उत्सपिणी काल में जन्म की अपेक्षा दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में होता है अर्थात् दूसरे आरे के अन्त में जन्म होता है और तीसरे आरे में वह चारित्र को स्वीकार करता है । तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव (चारित्र परिणाम) दोनों होते हैं अर्थात् सद्भाव की अपेक्षा तीसरे और चौथे आरे में ही होता है, क्योंकि इन्ही आरों में चारित्र की प्रतिपत्ति (स्वीकार) होती है । देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषमसुषमा के समान काल होता है । हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष क्षेत्रों में सुषमा के समान काल होता है । हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्रों में सुषमदुषमा के समान काल होता है और महाविदेह क्षेत्र में दुषमसुषमा के समान काल होता है। मुलाक का संहरण नहीं होता, किन्तु निग्रंथ और स्नातक का संहरण होता है । इसलिये संहरण की अपेक्षा निग्रंथ और स्नातक का सद्भाव सर्वकाल में होता है । तात्पर्य यह है कि पहले संहरण किये हुए मनुष्य को निग्रंथ और स्नातकपने की प्राप्ति होती है, यह समझना चाहिये । क्योंकि निग्रंथ और स्नातक वेद रहित होते हैं और वेद रहित । मुनियों का संहरण नहीं होता । जैसा कि कहा है .समणीमवगयधेयं परिहार-पुलाय-मप्पमत्तं च । चोद्दसपुचि आहारयं च, ण य कोइ संहरइ॥' . अर्थात्-श्रमणी (साध्वी) अपगतवेद (वेद रहित), परिहारविशुद्धि चारित्रवान्, पुलाक, अप्रमत्त संयत (सातवें आदि गुणस्थानवर्ती) चौदह पूर्वधर और आहारक लब्धिमान्, इनका संहरण नहीं होता। गति द्वार ५९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे किं (क) गई गच्छद? For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८२ भगवतीं मूत्र-श. २५ उ. ६ गति द्वार ५९ उत्तर-गोयमा ! देवगइं गच्छइ । प्रश्न-देवगइं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजेज्जा, वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा, जोइसि०, वेमाणिएमु उववजेजा ? : उत्तर-गोयमा ! णो भवणवासीसु, णो वाण०, णो जोइ०, वेमाणिएमु उववजेजा । वेमाणिएसु उववजमाणे जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उकोसेणं सहस्सारे कप्पे उववजेजा । बउसे णं एवं चेव । णवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे । पडिसेवणाकुसीले जहा बउसे । कसायकुसीले जहा पुलाए । णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उव वजेजा। भावार्थ-५९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक मर कर किस गति में जाते हैं ? ५९ उत्तर-हे गौतम ! देवगति में जाते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! यदि देवगति में जाते हैं, तो क्या भवनपति में उत्पन्न होते हैं, वाणव्यन्तर में, ज्योतिषी में या वैमानिक में ? ' उत्तर-हे गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषियों में उत्पन्न नहीं होते, किन्तु वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं । वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हुए जघन्य सौधर्म देवलोक में और उत्कृष्ट सहस्रार देवलोक में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार बकुश भी, किन्तु वह उत्कृष्ट अच्युत देवलोक में उत्पन्न होते हैं। प्रतिसेवना-कुशील, बकुश के समान है । कषाय-कुशील, पुलाक के समान है, किन्तु उत्कृष्ट अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं। .६० प्रश्न-णियंठे णं भंते ! ०? ... ६० उत्तर-एवं चेव जाव वेमाणिएसु उववजमाणे अजहण्ण For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ गति द्वार ३३८३ मणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेजा। भावार्थ-६० प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ मर कर किस गति में जाते हैं ? ६० उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् वैमानिक में उत्पन्न होते हुए अजघन्यानुत्कृष्ट अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं। ६१ प्रश्न-सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे किं (क) गई गच्छइ ? ६१ उत्तर-गोयमा ! सिद्धिगई गच्छइ । भावार्थ-६१ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक मर कर किस गति में जाते हैं ? ६१ उत्तर-हे गौतम ! सिद्ध गति में हो जाते हैं। ६२ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! देवेसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेजा, सामाणियत्ताए उववज्जेजा, तायत्तीसगत्ताए उववज्जेजा, लोगपालत्ताए उववज्जेजा, अहमिंदत्ताए वा उववज्जेज्जा ? ६२ उत्तर-गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेजा, सामाणियत्ताए उववज्जेजा, तायत्तीसगत्ताए उववज्जेजा, लोगपालताए उववज्जेज्जा, णो अहमिंदत्ताए उववजेजा । विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेजा । एवं बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि । कठिन शब्दार्थ-तायत्तीसगत्ताए-त्रायस्त्रिशकपन से, अहमिदत्ताए-अहमिन्द्रपन से । भावार्थ-६२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, देवों में उत्पन्न होते हुए, क्या इन्द्रपने, सामानिकदेव, त्रास्त्रिशक, लोकपाल या अहमिन्द्रपने उत्पन्न होते हैं ? ... ६२ उत्तर-हे गौतम ! अविराधना की अपेक्षा इन्द्र, सामानिकदेव, त्रास्त्रिशकदेव और लोकपालपने उत्पन्न होते हैं, किन्तु अहमिन्द्र नहीं होते । For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८४ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ गति द्वार विराधना की अपेक्षा अन्यतर देवलोक में अर्थात् भवनपति आदि में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील भी । ६३ प्रश्न कसायकुसीले - पुच्छा | ६३ उत्तर - गोयमा ! अविराहणं पहुच इंदत्ताए वा उववज्जेज्जा जाव अहमिंदत्ताए वा उववज्जेज्जा, विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा । भावार्थ - ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय-कुशील इन्द्रपने उत्पन्न होते हैं ० ? ६३ उत्तर - हे गौतम! अविराधना की अपेक्षा इन्द्रपने यावत् अहमिन्द्रपने उत्पन्न होते हैं और विराधना की अपेक्षा वह अन्यतर ( भवनपति आदि ) देवों में उत्पन्न होते हैं । ६४ प्रश्न --नियंठे - पुच्छा | ६४ उत्तर -- गोयमा ! अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उववज्जेज्जा जाव णो लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा, अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा । विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा । भावार्थ - ६४ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथ इन्द्रपने उत्पन्न होते हैं० ? ६४ उत्तर - हे गौतम ! अविराधना की अपेक्षा इन्द्रपने यावत् लोकपालपने उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अहमिन्द्रपने उत्पन्न होते हैं। विराधना की अपेक्षा भवनपति आदि में उत्पन्न होते हैं । ६५ प्रश्र - पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेमु उववज्जमाणस्स For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. २५ उ. ६ गति द्वार केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ६५ उत्तर--गोयमा ! जहणेणं पलिओवमपुहुत्तं, उक्कोसेणं अारस सागरोवमा | भावार्थ - ६५ प्रश्न - हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए पुलाक, feat काल की स्थिति में उत्पन्न होते हैं ? ६५ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पल्योपम - पृथक्त्व और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होते हैं । ३३८५ ६६ प्रश्न- बउसस्स - पुच्छा । ६६ उत्तर--गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई | एवं पडिसेवणाकुसीले वि । D भावार्थ - ६६ प्रश्न - हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए बकुश, कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होते हैं ? ६६ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पल्योपम-पृथक्त्व और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील मी । ६७ प्रश्न- कसायकुसीलस्स- -पुच्छा । ६७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं पलिओवमपुहुत्तं उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई | भावार्थ-६७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए कषायकुशील, कितनी स्थिति में उत्पन्न होते हैं ? ६७ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पत्योपम-पृथक्त्व और उत्कृष्ट तेतीस For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८६ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ संयम स्थान 1. सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होते हैं । ६८ प्रश्न - नियंटस्स-- पुच्छा । ६८ उत्तर - गोयमा ! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोमाई १३ । भावार्थ - ६८ प्रश्न - हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए निग्रंथ, कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होते हैं ? ६८ उत्तर - हे गौतम! अजघन्यानुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न होते हैं । विवेचन - पुलाक के विषय में इन्द्र, लोकपाल आदि देव पदवी विषयक प्रश्न का जो उत्तर दिया है, वह ज्ञानादि की अविराधना और लब्धि का प्रयोग न करने वाले पुलाक की अपेक्षा समझना चाहिये। वहीं इन्द्रादि रूप से उत्पन्न होता है । विराधना कर के तो भवनपति आदि देवों में उत्पन्न होता है। पहले देवोत्पत्ति के प्रश्न उत्तर में जो पुलाक का मात्र वैमानिकों में ही उपपात कहा है, वह अविराधक पुलाक की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि संभ्रम आदि की विराधना करने वालों का उपपात तो भवनपति आदि ही होता है । यहां पुलाक आदि पांच का जो देवों में उपपात बताया है, वह देवलोक विषयक प्रश्न होने से देवों में उत्पन्न होने का बताया है, अन्यथा विराधक तो पुलाक आदि चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं । स्नातक की तो केवल सिद्ध गति है । इसीलिये उसके विषय में इन्द्रादिरूप पदवी का और स्थिति का प्रश्न नहीं किया है, क्योंकि सिद्धगति में इन्द्रादि पदवियां नहीं होती और वहां की स्थिति एक जीव की 'सादि अनन्त' होती है । संयम - स्थान ९९ प्रश्न - पुलागस्स णं भंते ! केवइया संजमट्टाणा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ संयम्-स्थान -- ६९ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा संजमट्ठाणा पण्णत्ता। एवं जाव कसायकुसीलस्स। भावार्थ-६९ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक के संयम-स्थान कितने कहे हैं ? ६९ उत्तर-हे गौतम ! पुलाक के संयम-स्थान असंख्य कहे है । इसी प्रकार यावत् कषाय-कुशील पर्यन्त । ७० प्रश्न-णियंठस्स णं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पण्णत्ता ? ७. उत्तर-गोयमा ! एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे, एवं सिणायस्स वि। भावार्थ-७० प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ के संयम-स्थान कितने कहे हैं ? -७० उत्तरे-हे गौतम ! एक ही अजघन्यानुत्कृष्ट संयम-स्थान कहा है। इसी प्रकार स्नातक के भी। . ७१ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणा कसाया । कुसील-णियंठ-सिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? ७१ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे णियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे, पुलागस्स णं संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, बउसस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, पडिसेवणाकुसीलस्स संजमहाणा असंखेजगुणा, कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेनगुणा १४॥ भावार्थ-७१ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना-कुशील, For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र--स. २', उ ६ सन्निकर्ष हार कषाय-कुशील, निग्रंथ और स्नातक के संयम-स्थानों में, किस के संयम-स्थान, किस के संयमस्थानों से अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? ७१ उत्तर-हे गौतम ! निग्रंथ और स्नातक का संयम-स्थान, अजघन्यानुत्कृष्ट एक ही है और सब से अल्प है, उससे पुलाक के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे बकुश के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे प्रतिसेवना-कुशील के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे कषाय-कुशील के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं। ___ विवेचन-संयम अर्थात् चारित्र, उसके स्थान अर्थात् शुद्धि की प्रकर्पता और अप्रकर्षताकृत भेद-'संयम-स्थान' कहलाता है। वे असंख्य होते हैं। उनमें प्रत्येक संयमस्थान के सर्व आकाश-प्रदेशों को सर्व आकाश-प्रदेशों से गुणा करने पर जितने अनन्तानन्त पर्याय (अंश) होते हैं, उतने एक संयम-स्थान के पर्याय होते हैं, ऐसे संयम-स्थान पुलाक के असंख्य होते हैं, क्योंकि चारित्र-मोहनीय का क्षयोपशम विचित्र होता है । इसी प्रकार यावत् कषाय-कुशील तक जानना चाहिये। निग्रंथ का संयम-स्थान तो एक ही होता है, क्योंकि कषाय का क्षय या उपशम एक ही प्रकार का होता है । अतः उसकी शुद्धि भी एक ही प्रकार की होती है । एक होने के कारण ही उसका संयम-स्थान अजघन्यानुत्कृष्ट होता हैं, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्टता का सद्भाव बहुत में ही होता है । इसी प्रकार स्नातक का संयम-स्थान भी एक ही होता है । अतएव संयम-स्थानों के अल्प-बहुत्व में कहा है कि निग्रंथ और स्नातक का संयम-स्थान एक ही होने के कारण सब से अल्प है । पुलाक आदि के संयम-स्थान उक्त क्रम के अनुसार क्षयोपशम को विचित्रता के कारण असंख्य-असंख्य गुण होते हैं। सन्निकर्ष द्वार ७२ प्रश्न-पुलागस्स णं भंते ! केवइया चरित्तपन्जवा पण्णता ? ७२ उत्तर-गोयमा ! अणंता चरित्तपजवा पण्णत्ता, एवं जाव सिणायस्स। For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार भावार्थ - ७२ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक के चारित्र- पर्याय कितने होते हैं ? ७२ उत्तर - हें गौतम ! पुलाक के चारित्र- पर्याय अनन्त होते हैं । इसी प्रकार यावत् स्नातक पर्यन्त । ७३ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सट्टाणसणिगासेणं चरितप्रज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अव्भहिए ? ७३ उत्तर - गोयमा ! १ मिय हीणे २ मिय तुल्ले ३ सिय अन्भहिए ३ | जड़ ही अनंतभागहीणे वा असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा. असंखेज्जगुणहीणे वा, अनंतगुणही वा । अह अन्भहिए अनंतभागम-भहिए वा, असं - खेज्जइभागमन्भहिए वा, संखेजड़भागमन्भहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वो, असंखेज्जगुणम भहिए वा, अनंतगुणमन्भहिए वा । ३३८६ कठिन शब्दार्थ -- सट्टानसण्णिगासेणं - - स्वस्थानसन्निकर्ष - सजातीय चारित्र - पर्यायों का सन्निकर्ष - - परस्पर संयोजन । भावार्थ - ७३ प्रश्न - हे भगवन् ! एक पुलाक, दूसरे पुलाक के स्वस्थान सन्निकर्ष से चारित्र - पर्यायों से हीन है, तुल्य है, या अधिक है ? ७३ उत्तर - हे गौतम! कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य और कदाचित अधिक होता है। यदि हीन होता है, तो अनन्त भाग हीन, असंख्य भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यात गुण हीन, असंख्यात गुण हीन, या अनन्त गुण हीन होता है । यदि अधिक होता है, तो अनन्त भाग अधिक, असंख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक, संख्यात गुण अधिक, असंख्यात गुण अधिक, या अनन्त गुण अधिक होता है । For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ६ सन्निकर्ष द्वार ७४ प्रश्न - पुलाए णं भंते! बउसस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित - पज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? ७४ उत्तर --गोयमा ! हीणे, णो तुल्ले, णो अन्भहिए, अनंतगुणही । एवं डिसेवणाकुसीलस्स वि । कसायकुसीलेणं समं छट्टा - वडिए जव सट्टा । णियंठस्स जहा बउसस्स, एवं सिणायस्स वि । ३३९० 'भावार्थ - ७४ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक अपने चारित्र - पर्यायों से, बकुश के परस्थान-निकर्ष (विजातीय चारित्र - पर्याय) की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है ? ७४ उत्तर - हे गौतम! हीन होते हैं, तुल्य या अधिक नहीं होते । अनन्त गुण हीन होते हैं। इसी प्रकार प्रतिसेवना- कुशील से भी जानना चाहिये । कषाय- कुशील से पुलाक के स्वस्थान के समान छह स्थान पतित कहना चाहिये । कुश के समान निग्रंथ और स्नातक से भी कथन करना चाहिये । ६. ७५ प्रश्न - उसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्पज्जवेहिं किं होणे, तुल्ले, अन्भहिए ? ७५ उत्तर - गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अव्भहिए, अनंतगुणमभहिए । भावार्थ - ७५ प्रश्न हे भगवन् ! बकुश, पुलाक के परस्थान सन्निकर्ष से चारित्रपर्याय की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है ? ७५ उत्तर - हे गौतम! हीन नहीं और तुल्य भी नहीं, किन्तु अधिक है, अनन्त गुण अधिक है । For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार ____७६ प्रश्न-बउसे णं भंते ! बउसस्स सट्टाणसण्णिगासेणं चरित्तपजवेहि-पुच्छा। ७६ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे, मिय तुल्ले, सिय अभहिए। जह हीणे छट्ठाणवडिए। भावार्थ-७६ प्रश्न-हे भगवन् ! एक बकुश, दूसरे बकुश के रवस्थान सन्निकर्ष (सजातीय-पर्यायों) से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? . - ७६ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् होन, कदाचित् तुल्य और कदाचित अधिक होता है । यवि हीन होता है, तो (यावत्) छह स्थान पतित होता है । ..७७ प्रश्न-बउसे गं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परट्टाणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे० ? ७७ उत्तर-छटाणवडिए, एवं कसायकुसीलरस वि। भावार्थ-७७ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, प्रतिसेवना कुशील के परस्थान सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ? . ७७ उत्तर-हे गौतम ! छह स्थान पतित होते हैं। इसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा भी जानना चाहिये। ७८ प्रश्न-बउसे णं भंते ! णियंठस्स परढाणसण्णिगासेणं चरित्तपनवेहिं-पुच्छा। . ........ __७८ उत्तर-गोयमा ! होणे, णो तुल्ले, णो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे, एवं सिणायस्स वि । पडिसेवणाकुसीलस्स एवं चेव बउसवत्तव्वया For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार भाणियव्वा । कसायकुसीलस्स एस चेव बउसवत्तव्वया । णवरं पुला एवि समं छट्टाण्वडिए । ३३९२ भावार्थ - ७८ प्रश्न - हे भगवन् ! बकुश, निग्रंथ के परस्थान सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों से हीन तुल्य या अधिक होते हैं ? ७८ उत्तर - हे गौतम! हीन होते हैं, तुल्य और अधिक नहीं होते । अनन्त गुण हीन होते हैं। इसी प्रकार स्नातक की अपेक्षा भी जानना चाहिये । प्रतिसेवना-कुशील के लिये भी इसी प्रकार, बकुश की वक्तव्यता कहनी चाहिये । कषाय- कुशील के लिये भी यही बकुश की वक्तव्यता जाननी चाहिये, किन्तु पुलाक की अपेक्षा छह स्थान पतित कहना चाहिये । ७९ प्रश्न - नियंठे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसणिगासेणं चरित्तपजवेहिं - पुच्छा | ७९ उत्तर - गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अंग्भहिए, अनंतगुणमन्भहिए, एवं जाव कसायकुसीलस्स । भावार्थ - ७९ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथ, पुलाक के परस्थान सन्निकर्ष से चारित्रपर्यायों से होन, तुल्य या अधिक होते हैं ? ७९ उत्तर - हे गौतम! हीन और तुल्य नहीं, किन्तु अधिक होते है । अनन्त गुण अधिक होते हैं । इस प्रकार यावत् कषाय-कुशील की अपेक्षा भी । ८० प्रश्न - णियंठे णं भंते ! नियंठस्सं सट्टाणसण्णिगासेणं पुच्छा । ८० उत्तर - गोयमा ! णो हीणे, तुल्ले, णो अन्भहिए | एवं For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ सन्निकर्प द्वार ३३९३ सिणायस्म वि। भावार्थ-८० प्रश्न-हे भगवन ! निग्रंथ, दूसरे निग्रंथ के स्वस्थान सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से होन, तुल्य या अधिक है ? ८० उत्तर-हे गौतम ! हीन नहीं और अधिक भी नहीं हैं, तुल्य होते हैं। इसी प्रकार स्नातक के माथ भी जानना चाहिये। ८१ प्रश्न-सिणाए णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं० ? ८१ उत्तर-एवं जहा णियंठस्स वत्तव्वया तहा सिणायस्स वि भाणियव्वा । जाव प्रश्न-सिणाए णं भंते ! सिणायस्स सट्टाणसण्णिगासेणं-पुच्छा। उत्तर-गोयमा ! णो हीणे, तुल्ले, णो अब्भहिए । भावार्थ-८१ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक, पुलाक के परस्थान सन्निकर्ष से चास्त्रि-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ? . 1. ८१ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार निग्रंथ को वक्तव्यता कही, उसी प्रकार स्नातक की वक्तव्यता भी जाननी चाहिये । यावत् प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक, दूसरे स्नातक के स्वस्थान सन्निकर्ष से-- चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ? . उत्तर-हे गौतम ! हीन और अधिक नहीं, तुल्य है। ८२ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकुसीलकसायकुसील-णियंठ-सिणायाणं जहण्णुकोसगाणं चरित्तपन्जवाणं For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९४ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार करे करे जाव विसेमाहिया वा ? ८२ उत्तर - गोयमा ! १ पुलागस्स कसायकुसीलरस य एएसि जहणगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा । २ पुलागस्स उकोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । ३ बउसस्स पडिसेवणाकुसीलस्स य एएसि णं जहणगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अनंतगुणा । ४ बसस्स उक्कोसगा चरितपज्जवा अनंतगुणा । ५ पडिसेवणाकुसीलस्स उकोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । ६ कसायकुसीलरस उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा । ७ णियंठस्स सिणायस्स य एएसि णं अजहण्णमणुकोसगा चरित्तपज्जवा दोन्ह वि तुल्ला अनंतगुणा १५ । भावार्थ - ८२ प्रश्न- हे भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना-कुशील, कषायकुशील, निग्रंथ और स्नातक के जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र - पर्यायों से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ८२ उत्तर - हे गौतम! १-पुलाक और कषाय-कुशील के जघन्य चारित्रपर्याय परस्पर तुल्य हैं और सब से थोड़े हैं २-उनसे पुलाक के उत्कृष्ट चारित्रपर्याय अनन्त गुण हैं ३ - उनसे बकुश और प्रतिसेवना- कुशील के जघन्य चारित्रपर्याय अनन्त गुण हैं और परस्पर तुल्य हैं ४- उनसे बकुश के उत्कृष्ट चारित्रपर्याय अनन्त गुण हैं ५ - उनसे प्रतिसेवना कुशील के उत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्त गुण हैं ६ - उनसे कषाय- कुशील के उत्कृष्ट चारित्र पर्याय अनन्त गुण हैं ७- उनसे निग्रंथ और स्नातक, इन दोनों के अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र - पर्याय अनन्त गुण हैं और परस्पर तुल्य हैं । विवेचन चारित्र अर्थात् सर्वविरति रूप परिणाम के पर्यव अर्थात् भेद ( अंश ) 'चारित्र-पर्यव' कहलाते हैं । वे बुद्धिकृत या विषयकृत अविभाग परिच्छेद (जिनके फिर For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार विभाग न हो सके ) होते हैं । पुलाक आदि का पुलाक आदि के साथ सन्निकर्ष अर्थात् संयोजन को 'स्वस्थान सन्निकर्ष कहते हैं । पुलाक आदि का बकुश आदि के साथ संयोजन 'परस्थान सन्निकर्ष' कहलाता है । ३३९५ विशुद्ध संयम के स्थानभूत विशुद्धतर पर्यायों की अपेक्षा अविशुद्ध संयम स्थानभूत अविशुद्धतर पर्याय ' हीन' कहलाते हैं । गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध से उन पर्यायों वाला साधु भी हीन कहलाता है। शुद्ध पर्यायों की समानता के कारण 'तुल्य' कहलाता है । विशुद्धतर पर्यायों के सम्बन्ध से 'अधिक' कहलाता है । १ एक पुलाक, दूसरे पुलाक के साथ सजातीय चारित्र - पर्यायों से षट्स्थान पतित होता है । षट्स्थान हीन - १ अनन्त भाग हीन २ असंख्य भाग हीन ३ संख्य भाग हीन ४ संख्येय गुण हीन ५ असंख्येय गुण हीन और ६ अनन्त गुण हीन । इसी प्रकार अधिक ( वृद्धि ) के भी षट्स्थान पतित होते हैं । यथा - अनन्त भाग वृद्धि २ असंख्य भाग वृद्धि ३ संख्येय भाग वृद्धिं ४ संख्येय गुण वृद्धि ५ असंख्येय गुण वृद्धि और ६ अनन्त गुण वृद्धि । इनका खुलासा इस प्रकार है- प्रत्येक चारित्र के अनन्त पर्याय होते हैं । एक चारित्र के पालने वाले अनेक जीव होते हैं । ययाख्यात चारित्र के अतिरिक्त दूसरे चारित्र के पालन करने वालों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों हो सकती है। असमानता को समझाने के लिये षड्गुण हानि-वृद्धि का स्वरूप बताया है । यथा - १ अनन्तवां भाग हीन - चारित्र पालने वाले दो साधुओं में से एक के जो चारित्र-पर्याय हैं, उनके अनन्त विभाग किये जायँ, उनसे दूसरे साधु के चारित्र - पर्याय एक विभाग कम है, तो वह कमी अनन्त भाग हीन कहा जाता है । २ असंख्यातवां भाग हीन- इसी प्रकार चारित्र का पालन करने वाले द्रो साधुओं में से एक साधु के चारित्र के असंख्य विभाग किये जायें, उनसे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो, तो वह असंख्येय भाग हीन माना जाता है । ३. संख्यातवां भाग हीन - उपर्युक्त रीति से एक साधु के चारित्र के संख्यात भाग किये जायें, उनसे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो, तो वह संख्यातवां भाग हीन कहा जाता है । ४ संख्य गुण हीन - उपर्युक्त रीति से एक साधु के जितने चारित्र - पर्याय हैं, उनको संख्यात गुण किया जाय, तब वह पहले साधु के बराबर हो सके, तो उस दूसरे साधु का चारित्र संख्यात गुण हीन होता है। For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार ५ असंख्यात गुण हीन- दोनों साधुओं में से दूसरे के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको असंख्यात गुण किया जाय, तब वह पहले साधु के बराबर हो, तो उसका चारित्र असंख्यात गुण हीन कहलाता है । ६ अनन्त गुण हीन - दो साधुओं में से दूसरे के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको अनन्त गुण किया जाय, तब वह पहले साधु के बराबर हो, तो वह अनन्त गुण हीन कहलाता है । इसी प्रकार वृद्धि के भी षट्स्थान पतित का क्रम समझना चाहिये । सामायिक चारित्र के अनन्त पर्याय है । किसी के सामायिक चारित्र के अनन्त पर्याय अधिक है और किसी के कम हैं, परन्तु सभी सामायिक चारित्र के पालने वालों के अनन्त पर्याय हैं ही । इनको समझाने के लिये जिसके सामायिक चारित्र के सब से अधिक पर्याय हैं, वे भी हैं तो अनन्त ही और सभी आकाश - प्रदेशों से अनन्त गुण अधिक हैं । असत्कल्पना से उदाहरण के रूप में समझाने के लिये सब से अधिक संयम पर्याय वाले संयमी के अनन्त पर्यायों को दस हजार के रूप में मान लिया जाय । लोक में जीव भी अनन्त हैं, किन्तु असत् कल्पना से सभी जीवों को एक सौ मान लिया जाय । लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं, उन्हें असत्कल्पना से पचास मान लिया जाय और उत्कृष्ट संख्यात राशि को असत्कल्पना से दस मान लिया जाय । जैसे कि सामायिक चारित्र के सब से अधिक पर्याय अनन्त हैं । असत्कल्पना से उन्हें १०००० मान लिया जाय । जीव अनन्त है, उन्हें असत्कल्पना से १०० मान लिया जाय । १ अनन्त भाग हीन- अब दस हजार में १०० का भाग दिया जाय, क्योंकि एक तो पूर्ण पर्याय वाला है और दूसरा अनन्तवां भाग हीन हैं । अतः १०००० में १०० का भाग देने पर लब्धांक १०० आते हैं अर्थात् १००००-१०० = ९९०० उसके चारित्र - पर्याय हैं । यह १०० पर्याय ( अनन्तवां भाग हीन) ही अनन्तवां भाग होता है । २ असंख्य भाग हीन - एक के तो पूर्ण अनन्त पर्याय हैं, जिन्हें असत्कल्पना से १०००० माना है । दूसरे के चारित्र पर्याय उससे असंख्यातवाँ भाग हीन हैं । असंख्यात को असत्कल्पना से '५० माना है । १०००० में ५० का भाग देने पर २०० आते हैं । इस प्रकार १००००-२००=९८०० पर्याय हैं । यह २०० पर्याय असंख्यातवां भाग हीन हैं । ३ संख्यात भाग हीन - एक के तो पूर्ण पर्याय अनन्त हैं, जिन्हें असत् कल्पना से १०००० माना हैं, दूसरे के चारित्र पर्याय उससे संख्यातवां भाग हीन हैं । असत् कल्पना से संख्यात को १० माना है । १०००० में १० का भाग देने पर लब्धांक १००० आते हैं । अतः उसके १०००० में से १००० शेष निकालने पर ९००० पर्यव शेष रहते हैं । पहले से इसके एक हजार पर्यव ( संख्यात भाग) हीन हैं । ३३६६ For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ सन्निकर्प द्वार ४ संख्यात गुण हीन--जो संख्यात गुण हीन हैं, उसके एक हजार पर्याय हैं ।.. संख्यात को असत्कल्पना से १० माना है। पहले के चारित्र-पर्याय अनन्त हैं, दूसरे के १००० पर्याय को संख्यात गुण अर्थात् १० से गुणा करने पर वह पहले वाले के (जिसके अनन्त पर्याय हैं और जिन्हें असत् कल्पना से १०००० माना है) बराबर होता है । ५ असंख्यात गुण हीन --जो असंख्यात गुण हीन हैं, उसके २०० पर्याय हैं । पहले के तो अनन्त पर्याय हैं (जिन्हें असत्कल्पना से १०००० माना है) अत: २०० पर्याय को असत्कल्पना से ५० वाँ भाग माना है। अतः २०० को ५० से गुणा करें, तब वह पहले वाले के बराबर होता है। . ६ अनन्त गुण हीन-जिसके अनन्त गण हीन पर्याय हैं, उसके १०० पर्याय माने हैं । पहले के तो अनन्त पर्याय अर्थात् १०००० पर्याय हैं । अतः इसके १०० पर्यायों को १०० से गुणा किया जाय, तब वह पहले वाले के बराबर होता है । अतः इसके पर्याय अनन्त गुण हीन हैं । संक्षेप में. पूर्ण पर्याय पालने वाले अपूर्ण पर्याय पालने वाले ....१०००० प्रतियोगी ९९०. अनन्तवाँ भाग हीन । - १०००० प्रतियोगी ९८०० असंख्यातवाँ भाग हीन । १०००० प्रतियोगी ९००० संख्यातवाँ भाग हीन । १०००० प्रतियोगी १००० संख्यात गुण हीन । १०००० प्रतियोगी २०० असंख्यात गुण हीन । १०००० प्रतियोगी १०० अनन्त गुण हीन । • 'जिस प्रकार षट्स्थान-पतित होन का स्वरूप बताया है, उसी प्रकार षट्स्थानपतित अधिक (वृद्धि) का भी समझना चाहिये। ..... यह सामायिक चारित्र का उदाहरण दिया है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय आदि चारित्रों पर और पुलाक आदि निर्ग्रयों पर भी घटित कर लेना चाहिये । परस्थान का अर्थ है विजातीय । जैसे कि पुलाक, पुलाक के साथ तो सजातीय है, किंतु बकुशादि के साथ विजातीय है । पुलाक तथाविध विशुद्धि के अभाव से बकुश से हीन है। जिस प्रकार पुलाक का पुलाक के साथ षट्स्थान-पतित कहा है, उसी प्रकार कषाय-कुशील की अपेक्षा भी षट्स्थान-पतित समझना चाहिये । पुलाक, कपाय-कुशील से अविशुद्ध संयम-स्थान में रहने के कारण कदाचित् हीन भी होता है। समान संयम-स्थान में रहने पर कदाचित् समान भी होता है अथवा शुद्धतर संयम-स्थान में रहने पर कदाचित् अधिक भी होता है। For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ योग द्वार । - पुलाक और कषाय-कुशील के सर्व जघन्य संयम-स्थान सब से नीचे हैं । वहाँ से वे दोनों साथ-साथ असंख्य सयम-स्थानों तक जाते हैं । क्योंकि वहाँ तक उन दोनों के समान अध्यवसाय होते हैं । तत्पश्चात् पुलाक हीन परिणाम वाला होने से आगे के संयम-स्थानों में नहीं जाता, किन्तु वहाँ रुक जाता है। इसके पश्चात् कषाय-कुशील अकेला ही असंख्य संयम स्थानों तक जाता है। वहाँ से कषाय-कुशील, प्रतिसेवना-कुशील और बकुश-ये तीनों साथ-साथ असंख्य संयम-स्थानों तक जाते हैं। फिर वहाँ बकुश रुक जाता है । इसके पश्चात् प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील ये दोनों असंख्य संयम-स्थानों तक . जाते हैं । वहाँ जा कर प्रतिसेवना-कुशील रुक जाता है । फिर कषाय-कुशील उससे आगे असंख्य संयम-स्थानों तक जाता है । वहाँ जा कर वह भी रुक जाता है । उसके पश्चात् निग्रंथ और स्नातक ये दोनों उससे आगे एक संयम-स्थान जाते हैं । इस प्रकार पुलाक, कषाय-कुशील के अतिरिक्त शेष सभी निग्रंथों के चारित्र-पर्यायों से अनन्त गुण हौन होता है। . बकुश, पुलाक से विशुद्धतर परिणाम वाला होने से अनन्त गुण अधिक होता है। बकुश, बकुश के साथ विचित्र परिणाम वाला होने से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील से भी इसी प्रकार हीनादि होता है । निग्रंथ और स्नातक से तो वह हीन ही होता है । प्रतिसेवना-कुशील का कथन, बकुश के समान है। कषाय-कुशील भी बकुश के समान है और पुलाक से बकुश 'अधिक कहा है, किन्तु यहां पर कषाय कुशील, पुलाक के साथ हीनादि षट्स्थान पतित कहना चाहिये, क्योंकि उसके परिणाम पुलाक की अपेक्षा हीन, तुल्य और अधिक होते हैं । - योग द्वार , . ८३ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सयोगी होजा, अयोगी होजा? ८३ उत्तर-गोयमा ! सयोगी होजा, णो अयोगी होज्जा ? प्रश्न-जइ सयोगी होजा किं मणजोगी होज्जा, वयजोगी होजा, कायजोगी होज्जा ? उत्तर-गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वयजोगी वा होज्जा, For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ उपयोग द्वार ३३९९ - कायजोगी वा होजा । एवं जाव णियंठे । भावार्थ-८३ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक सयोगी होते हैं या अयोगी ? ८३ उत्तर-हे गौतम ! सयोगी होते हैं, अयोगी नहीं होते। प्रश्न-सयोगी होते हैं, तो मनयोगी होते हैं, वचनयोगी होते हैं या काययोगी होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! वे मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। इसी प्रकार यावत् निर्ग्रन्थ पर्यन्त । ८४ प्रश्न-सिणाए णं-पुच्छा। ८४ उत्तर-गोयमा ! सयोगी वा होजा, अयोगी वा होजा। जह सयोगी होज्जा किं मणजोगी होजा-सेसं जहा पुलागस्स १६। भावार्थ-८४ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक सयोगी होते हैं या अयोगी ? ८४ उत्तर-हे गौतम ! सयोगी भी होते हैं और अयोगी भी । यदि सयोगी होते हैं, तो क्या मनयोगी होते हैं इत्यादि सभी पुलाक के समान है। विवेचन-स्नातक सयोगी और अयोगी दोनों प्रकार के होते हैं। शैलेशी अवस्था से पहले तक वे सयोगी होते हैं और शैलेशी अवस्था में अयोगी बन जाते हैं। उपयोग द्वार ८५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते होज्जा ? . । ८५ उत्तर-गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होजा, अणागारोवउत्ते वा होजा । एवं जाव सिणाए १७ । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०० भावार्थ - ८५ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक साकारोपयोगयुक्त होते हैं या अनाकारीपयोगयुक्त ? ८५ उत्तर - हे गौतम! साकारोपयोगयुक्त भी होते हैं और अनाकार उपयोगयुक्त भी । इसी प्रकार यावत् स्नातक पर्यन्त । कषाय द्वार ८६ प्रश्न - पुलाए णं भंते ! सकसायी होज्जा, अकसायी होज्जा ? ८६ उत्तर - गोयमा ! कसायी होज्जा, णो अकसायी होज्जा । प्रश्न- जड़ सकसायी होज्जा से णं भंते! कइसु कसाप्सु होजा ? उत्तर - गोयमा ! उसु कोह- माण - माया-लोभेसु होज्जा । एवं उसे वि, एवं पडि सेवणाकुसीले वि । भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ कषाय द्वार होते हैं ? भावार्थ-८६ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक, सकषायी होते हैं या अकषायी ? ८६ उत्तर - हे गौतम! सकषायी होते हैं, अकषायी नहीं होते । प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे सकषायी होते हैं, तो कितने कषायों में उत्तर - हे गौतम! क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों कषायों में होते हैं । इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील पर्यन्त । ८७ प्रश्न - कसायकुसीले णं- पुच्छा । ८७ उत्तर - गोयमा ! कसायी होज्जा, णो अकसायी होना । प्रश्न - जड़ सकसायी होज्जा से णं भंते ! कइस कसाएस होजा ? For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ कपाय द्वार ३४०१ उत्तर-गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एगंमि वा होजा। च उसु होमाणे चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु डोजा, तिसु होमाणे तिसु संजलणमाण माया-लोभेसु होजा, दोसु होमाणे संजलणमाया-लोभेसु होजा, एगंमि होमाणे संजलणलोभे होजा । भावार्थ-८७ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील सकषायी होते हैं या अकषायी? ८७ उत्तर-हे गौतम ! सकषायी होते हैं, अकषायो नहीं होते । प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सकषायी होते हैं, तो कितने कषाय में होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! वे चार, तीन दो या एक कषाय में होते हैं। चार कषाय में होते हुए संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोम में होते हैं। तीन में होते हुए संज्वलन मान, माया और लोभ में। दो कषाय में होते हुए संज्वलन माया और लोभ में । एक कषाय में होते हैं, तो संज्वलन लोभ में होते हैं। ८८ प्रश्न-णियंठे णं-पुच्छा। ८८ उत्तर-गोयमा ! णो सकसायी होजा, अकसायी होजा । प्रश्न-जड़ अकसायी होजा किं उवसंतकसायी होजा, खीणकयायी होजा? उत्तर-गोयमा ! उवसंतकसायी वा होजा, खीणकसायी वा होजा। सिणाए एवं चेव. णवरं णो उवसंतकसायी होज्जा, खीणकसायी होजा १८ ।। भावार्थ-८८ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ सकषायी होते हैं या अकषायो ? For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ लेश्या द्वार ८८ उत्तर-हे गौतम ! सकषायी नहीं होते, अकषायी होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! यदि अकषायी होते हैं, तो क्या उपशान्त-कषायो होते हैं या क्षीण-कषायी। उत्तर-हे गौतम ! उपशान्त-कषायी भी होते हैं और क्षीण-कषायी भी। इसी प्रकार स्नातक भी। किन्तु वे उपशांत-कषायी नहीं होते, क्षीण-कषायी होते हैं। विवेचन-कषाय द्वार में पुलाक के लिये कहा है कि वे सकषायी होते हैं, अकषायी नहीं होते, क्योंकि उनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं होता। कषाय-कुशील के लिये जो कषायों का वर्णन किया है, उसका तात्पर्य यह है कि जब वे चार कषाय में होते हैं, तब उनके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय होते हैं । उपशम-श्रेणी मे या क्षपक-श्रेणी में जब संज्वलन क्रोध का उपशम या क्षय हो जाता है, तब उसके तीन कषाय होते हैं । संज्वलन मान का क्षय या उपशम हो जाने पर दो और जब माया का उपशम या क्षय हो जाता है, तब 'सूक्ष्मसंपराय' नामक दसवें गुणस्थान में केवल एक संज्वलन लोभ ही शेष रहता है। , लेश्या द्वार ८९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सलेस्से होजा, अलेस्से होजा? ८९ उत्तर-गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होज्जा । प्रश्न-जह सलेस्से होजा, से णं भंते ! कहसु लेस्सासु होजा ? उत्तर-गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होजा, तं जहा-तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुकलेस्साए। एवं बउसस्स वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ लेश्मा द्वार भावार्थ - ८९ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक सलेशी होते हैं या अलेशी ? ८९ उत्तर - हे गौतम! सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते । प्रश्न - हे भगवन् ! यदि सलेशी होते हैं, तो कितनी लेश्या में होते हैं ? उत्तर- हे गौतम! तीन विशुद्ध लेश्याओं में होते हैं । यथा - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील भी । ९० प्रश्न - कसायकुसीले - पुच्छा । ९० उत्तर - गोयमा ! सलेस्से होज्जा, णो अलेस्से होज्जा । प्रश्न - जइसलेस्से होज्जा, से णं भंते ! कइसु लेसासु होज्जा ? उत्तर - गोयमा ! छसु लेसासु होज्जा, तं जहा - कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए । अलेशी ? भावार्थ - ९० प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय- कुशील सलेशी होते हैं या होते हैं ? ३४०३ ९० उत्तर - हे गौतम! सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते । प्रश्न - हे भगवन् ! यदि सलेशी होते हैं तो कितनी लेश्याओं में उत्तर - हे गौतम ! छह लेश्याओं में होते हैं । यथा - कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । ९१ प्रश्न - नियंठे णं भंते ! - पुच्छा । ९१ उत्तर - गोयमा ! सलेस्से होजा । प्रश्न - जइ सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कहसु लेस्सासु होज्जा ? उत्तर - गोयमा ! एक्काए सुकलेस्साए होज्जा । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०४ भगवती गुन-श. २५ उ. ६ लेश्या द्वार भावार्थ-९१ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ सलेशी होते हैं या अलेशी ? ९१ उत्तर-हे गौतम ! सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते । प्रश्न-हे भगवन् ! यदि सलेशी होते हैं, तो कितनी लेश्याओं में होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! एक शुक्ल लेश्या में ही होते हैं। ९२ प्रश्न-सिणाए-पुच्छा। ९२ उत्तर-गोयमा ! सलेस्से वा होजा, अलेस्से वा होजा। प्रश्न-जइ सलेस्से होजा, से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा ? उत्तर-गोयमा ! एगाए परमसुकलेस्साए होजा १९ । भावार्थ-९२ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक सलेशी होते हैं या अलेशी ? ९२ उत्तर-हे गौतम ! सलेशी भी होते हैं और अलेशी भी होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! यदि सलेशी होते हैं, तो कितनी लेश्याओं में होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! एक परम शुक्ल लेश्या में होते हैं। विवेचन-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील-ये तीनों, तीन विशुद्ध लेश्याओं में होते हैं अर्थात् भाव लेश्या की अपेक्षा तेजो, पद्म और शुक्ल-इन प्रशस्त लेश्याओं में होते हैं। 'कषाय-कुशील छह लेश्याओं में होते हैं ।' यद्यपि टीकाकार ने कषाय-कुशील में छह लेश्या बताते हुए कृष्णादि तीन लेश्याओं को मात्र द्रव्य-लेश्या ही बताई हैं, किन्तु द्रव्य-लेश्या भी छह और भाव-लेश्या भी छहों समझनी चाहिये । वे किस प्रकार घटित होती हैं ? इसका विवेचन प्रथम शतक के प्रथम और द्वितीय उद्देशक के विवेचन में, पाद-टिप्पण में दिया जा चुका है । जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिये (प्रथम भाग पृष्ठ ९१)। स्नातक में जो एक परम शुक्ल लेश्या का कथन किया है, इसका आशय यह है कि शुक्लध्यान के तीसरे भेद के समय ही एक परम शुक्ल लेश्या होती है, दूसरे समय में तो उसमें शुक्ल लेश्या ही होती है, किन्तु वह शुक्ल लेश्या भी दूसरे जीवों की शुक्ल लेश्या की अपेक्षा परम शुक्ल लेश्या होती है। For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम द्वार ९३ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं वइढमाणपरिणामे होज्जा, हीय. माणपरिणामे होज्जा, अवट्ठियपरिणाम होज्जा ? ___ ९३ उत्तर-गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा, अवट्टियपरिणामे वा होज्जा । एवं जाव कसायकुसीले । ___ कठिन शब्दार्थ-वडमाण--वर्द्धमान--बढ़ता हुआ, हीयमाण-घटता हुआ, अवट्ठिय--अवस्थित । भावार्थ-९३ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, वर्द्धमान परिणामी होते हैं, हीयमान (घटते हुए) परिणामी होते हैं या अवस्थित परिणामी ? __९३ उत्तर-हे गौतम ! वर्द्धमान् परिणामी, हीयमान परिणामी और अवस्थित परिणामी भी होते हैं। इसी प्रकार यावत् कषाय कुशील पर्यन्त । ९४ प्रश्न-णियंठे णं-पुच्छा। - ९४ उत्तर-गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे होजा, णो हीयमाणपरिणामे होजा, अवट्ठियपरिणामे वा होजा । एवं सिणाए वि। भावार्थ-९४ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ वर्द्धमान परिणामी होते है? ९४ उत्तर-हे गौतम ! वर्द्धमान और अवस्थित परिणामी होते हैं, किंतु हीयमान परिणामी नहीं होते । इसी प्रकार स्नातक भी। ९५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! केवइयं कालं वड्ढमाणपरिणामे होजा? For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ परिणाम द्वार ९५ उत्तर गोयमा ! जहणेणं एवकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३४०६ भावार्थ - ९५ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक वर्द्धमान परिणामी कितने काल तक होते हैं ? ९५ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक । ९६ प्रश्न - केवइयं कालं हीयमाणपरिणामे होज्जा ? ९६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं अतोमुहुत्तं । भावार्थ - ९६ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक होयमान परिणामी कितने काल तक होते हैं ? ९६ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक । ९७ प्रश्न - केवइयं कालं अवट्टियपरिणामे होजा ? " ९७ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं सत्त समया । एवं जाव कसायकुसीले । भावार्थ - ९७ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक, अवस्थित परिणामी कितने काल तक रहते हैं ? • ९७ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सात समय तक । इसी प्रकार यावत् कषाय- कुशील पर्यन्त । ९८ प्रश्न - नियंठे णं भंते ! केवइयं कालं बड्ढमाणपरिणामे होजा ? ९८ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ परिणाम द्वार . ३४०७ भावार्थ-९८ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ, वर्द्धमान परिणामी कितने काल तक रहते हैं ? ___ ९८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त । ९९ प्रश्र-केवइयं कालं अवट्टियपरिणाम होजा ? ९९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं अंतोमुहत्तं । भावार्थ-९९ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ अवस्थित परिणामी कितने काल तक रहते हैं ? ____ ९९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक। १०० प्रश्न-सिणाए णं भंते ! केवइयं कालं वड्ढमाणपरिणामे होजा ? १०० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं । भावार्थ-१०० प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक वर्द्धमान परिणामी कितने काल तक होते हैं ? १०० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त । १०१ प्रश्न-केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? .. १०१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेणं देसूणा पुवकोडी २० । भावार्थ-१०१ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक अवस्थित परिणामी कितने काल तक होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ परिणाम द्वार १०१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त । विवेचन- -चारित्र के भावों को 'परिणाम' कहते हैं । संयमशुद्धि की उत्कर्षता (वद्धि) होती रहे, उसे 'वर्द्धमान परिणाम' कहते हैं और संयमशुद्धि की अपकर्षता (हीनता) होती रहे, उसे, 'हीयमान परिणाम' कहते हैं, तथा संयमशुद्धि स्थिर रहे, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता (घट-बढ़) न हो, उसे 'अवस्थित परिणाम' कहते हैं। निर्ग्रन्थ हीयमान परिणाम वाला नहीं होता। यदि उसके परिणामों में हीनता आती है, तो वह 'कषाय-कुशील' कहलाता है। स्नातक के परिणामों में हीनता होने का कारण ही नहीं है, इसलिए वह हीयमान परिणाम वाला नहीं होता। पुलाक के परिणाम जब वृद्धिंगत हो रहे हों, तब यदि वे कषाय से बाधित हो जाय, तो वह एकादि समय वर्द्धमान परिणाम का अनुभव करता है । इसलिए उसका काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील के विषय में भी जानना चाहिए । बकुशादि के जघन्य एक समय वर्द्धमान परिणाम, मरण की अपेक्षा भी घटित हो सकता है, परन्तु पुलाक में मरण की अपेक्षा एक समय घटित नहीं हो सकता, क्योंकि पुलाकपने में मरण नहीं होता। मरण के समय पुलाक, कषाय-कुशीलादि रूप में परिणत हो जाता है। पहले पुलाक का जो मरण कहा है, वह भूतभाव की अपेक्षा समझना चाहिये। निर्ग्रन्थ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला होता है, जब फेवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब उसके परिणामान्तर हो जाते हैं । निग्रंथ के अवस्थित परिणाम जघन्य एक समय, मरण की अपेक्षा घटित हो सकता है। ...... स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला होता है, क्योंकि शैलेशी अवस्था में वर्द्धमान परिणाम अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं । स्नातक के अवस्थित परिणाम का काल भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूत तक अवस्थित परिणाम वाला हो कर फिर शैलेशी अवस्था को स्वीकार करता है, इस अपेक्षा से यह काल पटित होता है । अवस्थित परिणाम का उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्ष होता है, क्योंकि पूर्वकोटि वष की आयु वाले पुरुष को जन्म से जघन्य नौ वर्ष बीत जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो, तो नौ वर्ष न्यून पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त अवस्थित परिणाम वाला हो कर शैलेशी अवस्था की प्राप्ति तक विचरता है और शैलेशी अवस्था में वर्द्धमान परिणाम वाला हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बन्ध द्वार १.२ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ? १०२ उत्तर-गोयमा ! आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ . बंधह। भावार्थ-१०२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, कर्म-प्रकृतियां कितनी बांधता है ? १०२ उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य कर्म को छोड़ कर सात कर्म-प्रकृतियाँ बांधता है। १०३ प्रश्न-बउसे पुच्छा। १०३ उत्तर गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्टविहबंधए वा । सत्त बंधमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधइ, अट्ट बंधमाणे, पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ बंधइ । एवं पडिसेवणाकुसीले वि। ___भावार्थ-१०३ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, कर्म-प्रकृतियां कितनी बांधता है ? १०३ उत्तर-हे गौतम ! सात या आठ कर्म:प्रकृतियां बांधता है । जब सात कर्म-प्रकृतियां बांधता है, तो आयुष्य को छोड़ कर शेष सात कर्म-प्रकृतियां बांधता है । जब आयुष्य कर्म बांधता है, तो सम्पूर्ण आठ कर्म-प्रकृतियों को बांधता है । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी। ... १०४ प्रश्न--कसायकुसीले--पुच्छा। . .. १०४ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, छविहबंधए वा । सत्त बंधमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधइ, अट्ठ बंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ बंधइ, छ बंध. For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१० भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ कर्म-बन्ध द्वार माणे आउय-मोहणिजवजाओ छक्कम्मप्पगडीओ बंधइ । भावार्थ-१०४ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील, कर्म की कितनी प्रकृतियां बांधता है ? . १०४ उत्तर-हे गौतम ! सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियां बांधता है। सात बांधता हुआ आयुष्य के अतिरिक्त शेष सात कर्म-प्रकृतियों का बंध करता है । आठ बांधता हुआ प्रतिपूर्ण आठ कर्म-प्रकृतियां बांधता है । छह बांधता हुभा आयुष्य और मोहनीय कर्म छोड़ कर छह कर्म-प्रकृतियां बांधता है । १०५ प्रश्न-णियंठे णं-पुच्छा। १०५ उत्तर-गोयमा ! एगं वेयणिजं कम्मं बंधइ ।। भावार्थ-१०५ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ, कर्म की कितनी प्रतियां बांधता है ? : १०५ उत्तर-हे गौतम ! वह एकमात्र वेदनीय कर्म बांधता है। . १०६ प्रश्न-सिणाए-पुच्छा। १०६ उत्तर-गोयमा ! एगविहबंधए वा, अबंधए वा । एगं बंधमाणे एगं वेयणिज कम्मं बंधइ २१ । भावार्थ-१०६ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक, कर्म की कितनी प्रकृतियां बांधता है ?.. १०६ उत्तर-हे गौतम ! एक कर्म-प्रकृति बांधता है, अथवा नहीं की बांधता है । एक को बांधता हुआ वेदनीय कर्म बांधता है। - विवेचन-पुलाक अवस्था में आयुष्य का बन्ध नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में उसके आयुष्य बन्ध योग्य अध्यवसाय नहीं होते। - ' आयुष्य के दो भाग बीत जाने पर तीसरे भाग में आयु-बन्ध होता है । किन्तु आयुष्य के पहले के दो भागों में आयु-बन्ध नहीं होता, इसलिये बकुश आदि सात या आठ कर्म-प्रकृतियों को बांधते हैं । कषाय-कुशील, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयुष्य नहीं, For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-२५ श. उ. ६ कर्म-वेदना द्वार ३४११ बांधता है, क्योंकि आयुष्य का बन्ध सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक ही होता है। कषायकुशील के बादर कषायोदय का अभाव होने से मोहनीय कर्म नहीं बांधता। अत: कषायकुशील आयुष्य और मोहनीय के अतिरिक्त शेष छह कर्म-प्रकृतियाँ बाँधता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक योग निमित्तक एक वेदनीय कर्म को ही बाँधता है, क्योंकि कर्मबन्ध के हेतुओं में उसके केवल योग का ही सद्भाव होता है । स्नातक के अयोगी गुणस्थान में, बन्ध हेतु का अभाव होने से अबन्धक होता है । कर्म-वेदना द्वार १०७ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ वेदेइ ? - १०७ उत्तर-गोयमा ! णियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेइ । एवं जाव कसायकुसीले। ___भावार्थ-१०७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, कर्म की कितनी प्रकृतियों - का वेदन करते हैं ? १०७ उत्तर-हे गौतम ! नियम से आठों कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं । इसी प्रकार यावत् कषाय-कुशील पर्यंत । - १०८ प्रश्न-णियंठे णं-पुच्छा। ...१०८ उत्तर-गोयमा ! मोहणिजवजाओ. सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेह । ____ भावार्थ-१०८ प्रश्न-हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ, कर्म की कितनी प्रकृतियों का बेदन करते हैं ? १०८ उत्तर-हे गौतम ! मोहनीय कर्म छोड़कर सात कर्म-प्रकृतियों का सेवन करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१२ भगवती सूत्र--श. २५ उ. ६ कर्म-उदीरणा द्वार १०९ प्रश्न-सिणाए णं-पुच्छा। १०९ उत्तर-गोयमा ! वेयणिज-आउय-णाम-गोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेइ २२ । भावार्थ-१०९ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक, कितनी कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र--इन चार कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं। विवेचन--पुलाक से ले कर कषाय-कुशील तक आठों कर्म-प्रकृतियाँ वेदते हैं । निग्रंथ, मोहनीय को छोड़ कर सात कर्म-प्रकृतियों को वेदते हैं, क्योंकि उसके मोहनीय कर्म उपशान्त या क्षीण हो जाता है । स्नातक के घाती-कर्मों का क्षय हो जाता है। इसलिये वेदनीयादि चार अपाती कर्मों को ही वेदते हैं। ' कर्म-उदीरणा द्वार . ११० प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ ? ११० उत्तर-गोयमा! आउय-वेयणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ। ____भावार्थ-११० प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, उदीरणा कितनी कर्म-प्रकृ. तियों की करते हैं ? " ११० उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर छह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करते हैं। १११ प्रश्न-बउसे-पुच्छा । ..१११ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा, अट्टविहउदीरए वा, छविहउदीरए वा । सत्त उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपग For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ कर्म-उदीरणा द्वार ३४१३ डीओ उदीरेइ, अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ. छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ । पडिसेवणाकुसीले एवं चेव । कठिन शब्दार्थ- उदीरेमाणे-उदीरणा करता हुआ । . भावार्थ-१११ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, कर्म को कितनी प्रकृतियों को उदीरता है ? १११ उत्तर-हे गौतम ! सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । सात को उदीरता हुआ आयुष्य को छोड़ कर सात कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । आठ को उदीरता हुआ प्रतिपूर्ण आठ कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । छह को उदीरता हुआ आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर छह कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी। ' ११२ प्रश्न-कसायकुसीले-पुच्छा । ___११२ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा, अट्ठविहउदीरए वा, छविहउदीरए वा, पंचविहउदीरए वा । सत्त उदीरेमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ उदीरेइ, अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुग्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ, छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिज्जवजाओ छ कम्मप्पगडीऔ उदीरेइ, पंच उदीरेमाणे आउय-वेयणिज्ज मोहणिजवजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेइ । ., . . भावार्थ-११२ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील कर्म को कितनी प्रकतियों को उदीरता है ? ११२ उत्तर-हे गौतम ! सात, आठ, छह या पांच कर्म-प्रकृतियों को For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ कर्म उदीरणा द्वार उदीरता है । आयुष्य को छोड़ कर शेष सात कर्म प्रकृतियों को उदीरता है । सम्पूर्ण आठ कर्म - प्रकृतियों को उदीरता है । आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर छह कर्म प्रकृतियों को उदीरता है और आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर पाँच कर्म प्रकृतियों को उदीरता है । ३४१४ ११३ प्रश्न - नियंठे - पुच्छा | 1 ११३ उत्तर - गोयमा ! पंचविहउदीरए वा, दुविहउदीरए वा । पंच उदीरेमाणे आउय- वेय णिज्ज - मोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेह, दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेह । भावार्थ - ११३ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथ, कर्म की कितनी प्रकृतियों को उदीरता है ? १९१३ उत्तर - हे गौतम! पाँच या दो कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । जब पांच की उदीरणा करता है, तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय कर्म को छोड़ कर उदीरणा करता है और दो को उदीरता हुआ नाम और गोत्र- इन वो कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । ११४ प्रश्न - सिणाए- पुच्छा | ११४ उत्तर - गोयमा ! दुविहउदीरए वा अणुदीरए वा । दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेह २३ । भावार्थ - ११४ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक, कर्म की कितनी प्रकृतियों को उदीरता है ? NTPS: ११४ उत्तर - हे गौतम! दो कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करता है। अथवा उदीरणा नहीं भी करता है । दो को उदीरता हुआ नाम और गोत्र "कर्म-प्रकृतियों को उदीरता है । For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ उपसंपद् हान द्वार ३४१५ विवेचन--पुलाक, आयुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं करता, क्योंकि उसके उदीरणा करने योग्य अध्यवसाय नहीं होते । किन्तु वह पहले इन दोनों कर्मों की उदीरणा कर के पोछे पुलाकपन को प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे जिन-जिन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा का निषेध किया है, उन-उन कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा पहले कर के पीछे बकुशादिपन को प्राप्त करता है । स्नातक सयोगी अवस्था में नामकर्म और गोत्रकर्म का उदोरक होता है तथा आयुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा तो सातवें गुणस्थान में ही बन्द हो जाती है। अयोगी अवस्था में तो वह अनुदीरक ही होता है । उपसंपद् हान द्वार ११५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! पुलायत्तं जहमाणे किं जहइ, किं उपसंपज्जइ ? . ११५ उत्तर-गोयमा ! पुलायत्तं जहइ, कसायकुसीलं वा असं. जमं वा उवसंपन्जइ। ____ कठिन शब्दार्थ-जहमाणे-छोड़ता हुआ, महइ--छोड़ता है, उसंपज्जइ-प्राप्त करता है। भावार्थ-११५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, पुलाकपन का त्याग करते हुए क्या छोड़ते हैं और क्या प्राप्त करते है ? . ..... ११५ उत्तर-हे गौतम ! पुलाकपन छोड़ते हैं और कषाय कुशीलपन या असंयम प्राप्त करते हैं। ११६ प्रश्न-बउसे णं भंते ! बउसत्तं जहमाणे किं जहह, किं उवसंपन्जइ ? . ११६ उत्तर-गोयमा ! बउसत्तं जहइ, पडिसेवणाकुसीलं वा For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ उपसंपद् हान द्वार कसायकुसीलं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपन्जइ । . भावार्थ-११६ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, बकुशपन छोड़ते हुए किसे छोड़ते हैं और किसे प्राप्त करते हैं ? ११६ उत्तर-हे गौतम ! बकुशपन छोड़ते हैं और प्रतिसेवना-कुशीलपन, कषाय-कुशीलपन, असंयम या संयमासंयम प्राप्त करते हैं। ' ११७ प्रश्न-पडिसेवणाकुसीले णं भंते ! पडि०-पुच्छा। ११७ उत्तर-गोयमा ! पडिसेवणाकुसीलत्तं जहइ, बउसं वा कसायकुसौलं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपन्जइ । ... भावार्थ-११७ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रतिसेवना-कुशील, प्रतिसेवना-कुशील. पन त्यागते हुए क्या छोड़ते हैं और क्या प्राप्त करते हैं ? । ११७ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवना-कुशीलपन की छोड़ते हैं और बकुशपन, कषाय-कुशीलपन, असंयम या संयमासंयम प्राप्त करते हैं। ११८ प्रश्न-कसायकुसीले-पुच्छा। ११८ उत्तर-गोयमा ! कसायकुसीलत्तं जहइ, पुलायं वा, बउसं वा पडिसेवणाकुसीलं वा, णियंठ वा, असंजमं वा, संजमासंजमं वा उपसंपजइ। भावार्थ-११८ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील, कषाय-कुशोलपन को त्यागते हुए किसे छोड़ते हैं और किसे प्राप्त करते हैं ? . ११८ उत्तर-हे गौतम ! कषाय-कुशीलपन छोड़ते हैं और पुलाकपन, बकुशपन, प्रतिसेवना-कुशीलपन, निग्रंथपन, असंयम या संयमासंयम प्राप्त करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ६ उवपसंद हान द्वार ११९ प्रश्न - नियंटे - पुच्छा | ११९ उत्तर - गोयमा सिणायं वा, अजमं वा उवसंपज्जइ । ! णियंटत्तं जहइ, कसायकुसीलं वा, भावार्थ- ११९ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथ, निग्रंथपन त्यागते हुए क्या छोड़ते हैं और किसे प्राप्त करते हैं ? ११९ उत्तर - हे गौतम! निग्रंथपन छोड़ते हैं और कषाय-कुशीलपन, स्नातकपन या असंयम प्राप्त करते हैं । १२० प्रश्न - सिणाए - पुच्छा | १२० उत्तर - गोयमा ! सिणायत्तं ३४१७ जहह, सिद्धिगई उवसंपज्जइ २४ । भावार्थ - १२० प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक, स्नातकपन त्यागते हुए छोड़ते हैं और किसे प्राप्त करते हैं ? . १२० उत्तर - हे गौतम! स्नातकपन छोड़ते हैं और सिद्धगति प्राप्त करते हैं । विवेचन - पुलाक, पुलाकपन छोड़ कर उसके समान संयम स्थानों के सद्भाव से कषाय- कुशलपन को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जिस संयत के जैसे संयम स्थान होते हैं, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, किन्तु कषाय - कुशील अपने समान संयम- स्थानभूत पुलाकादि भावों को प्राप्त करते हैं और अविद्यमान समान संयम स्थान रूप निग्रंथ भाव को प्राप्त करते हैं । निर्ग्रन्थ, कषाय- कुशील या स्नातक भाव को प्राप्त करते हैं और स्नातक तो सिद्धगति ही प्राप्त करते हैं । • निर्ग्रन्थ, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी करते है । उपशमश्रेणी करने वाले निर्ग्रन्थ, श्रेणी से गिरते हुए कषाय- कुशीलपन प्राप्त करते हैं और श्रेणी के शिखर पर मर करं देव रूप से उत्पन्न होते हुए असंयत होते है, किन्तु संपतासंयत ( देशविरत ) नहीं होते । क्योंकि देवों में संयतासंयतपन नहीं होता । यद्यपि निग्रंथ श्रेणी से गिर कर संयतासंयत भी होते हैं, परन्तु उसका यहां कथन नहीं किया है । क्योंकि श्रेणी से गिर कर वे सीधे For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ संज्ञा द्वार संयतासंयत नहीं होते, किन्तु कषाय-कुशील हो कर संयतासंयत होते हैं । स्नातक, स्नातकपन को छोड़ कर मोक्ष में ही जाते हैं। .. संज्ञा द्वार १२१ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सण्णोवउत्ते होजा, णो. सण्णोवउत्ते होज्जा ? १२१ उत्तर-गोयमा ! णोसण्णोवउत्ते होजा। . भावार्थ-१२१ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, संशोपयुक्त (आहारादि संज्ञायुक्त) होते हैं या नोसंज्ञोपयुक्त (आहारादि संज्ञा रहित) ? १२१ उत्तर-हे गौतम ! संज्ञोपयुक्त नहीं होते, नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं। १२२ प्रश्न-बउसे णं भंते !-पुच्छा। " . १२२ उत्तर-गोयमा ! सण्णोवउत्ते वा होजा, णोसण्णो. वउत्ते वा होजा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि, एवं कसायकुसीले वि । णियंठे सिणाए य जहा पुलाए २५। .. भावार्थ-१२२ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश, संज्ञोपयुक्त होते हैं या नोसं... ज्ञोपयुक्त? - १२२ उत्तर-हे गौतम ! संज्ञोपयुक्त भी होते हैं और नोसंज्ञोपयुक्त .भी। इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील भी । निग्रंथ और . स्नातक पुलाक के समान नोसंज्ञोपयुक्त होते है। विवेचन-आहारादि संज्ञा में उपयुक्त अर्थात् आहारादि की अभिलाषा वाला 'संशोपयक्त' कहलाता है। आहारादि का उपभोग करने पर भी आहारादि के विषय में आसक्ति For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ आहारक द्वार. रहित जीव 'नोसंज्ञोपयुक्त' कहलाता है। अतः आहारादि के विषय में आसक्ति रहित होने से पुलाक, निर्ग्रथ और स्नातक 'नोसंज्ञोपयुक्त' होते हैं । यद्यपि निग्रंथ और स्नातक तो वीतराग होने से नोसंज्ञोपयुक्त ही होते हैं, किन्तु 'पुलाक सरागी होने से नोसंज्ञोपयुक्त कैसे हो सकते हैं ?' इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि सराग अवस्था में आसक्ति रहितपना सर्वथा नहीं हो सकता- ऐसी बात नहीं है । बकुशादि सराग होने पर संज्ञा रहित कहे हैं । इस विषय में चूर्णिकार ने कहा है कि- 'नोसंज्ञा अर्थात् ज्ञानसंज्ञा ।' इनमें पुलाक, निग्रंथ और स्नातक नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं अर्थात् ज्ञानप्रधान उपयोग वाले होते हैं, परन्तु आहारादि संज्ञा के उपयोग वाले नहीं होते । बकुश आदि तो संज्ञोपयुक्त और नोसंज्ञोपयुक्त दोनों प्रकार के होते हैं, क्योंकि उनके इसी प्रकार के संयम स्थानों का सद्भाव है । ३४१९ आहारक द्वार १२३ प्रश्न - पुलाए णं भंते! किं आहारए होज्जा, अणाहारए होज्जा ? २३ उत्तर - गोयमा ! आहारए होज्जा, णो अणाहारए होना । एवं जाव. णियंठे । ? भावार्थ - १२३ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक, आहारक होते हैं या अनाहारक १२३ उत्तर - हे गौतम ! आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते । इसी प्रकार यावत् निर्ग्रन्थ पर्यन्त । १२४ प्रश्न - सिणाए - पुच्छा । १२४ उत्तर - गोयमा ! आहारए वा होजा, अणाहारए वा होज २६ । For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ भव द्वार भावार्थ-१२४ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक, आहारक होते हैं या अनाहारक ? १२४ उत्तर-हे गौतम ! आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। विवेचन-पुलाक से ले कर निग्रंथ तक मुनियों के विग्रहगत्यादि रूप अनाहारकपने के कारण का अभाव होने से आहारकपना ही होता है। स्नातक केवली-समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में तथा अयोगी अवस्था में अनाहारक होते हैं । इसके अतिरिक्त शेष समय में आहारक होते हैं । भव द्वार १२५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कह भवग्गहणाई होज्जा ? १२५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एपकं, उक्कोसेणं तिण्णि । भावार्थ-१२५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, कितने भव ग्रहण करते हैं अर्थात् कितने भवों में पुलाकपन आता है ? १२५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करते हैं अर्थात् तीन भवों में पुलाकपना प्राप्त हो सकता है। . १२६ प्रश्न-बउसे-पुच्छा। १२६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एकं, उक्कोसेणं अट्ठ । एवं पडिसेवणाकुसीले वि, एवं कसायकुसीले वि । णियंठे जहा पुलाए । भावार्थ-१२६ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश कितने भव प्रहण करते हैं ? १२६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करते हैं अर्थात् आठ भवों में बकुशत्व आ सकता है। इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील और कषाय-कुशील भी। निग्रंथ का कथन पुलाक के समान है। For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ आकर्ष द्वार ३४२१ १२७ प्रश्न - सिणाए - पुच्छा । १२७ उत्तर - गोयमा ! एक्कं २७ । भावार्थ - १२७ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक कितने भत्र ग्रहण करते हैं ? १२७ उत्तर - हे गौतम! एक भव ग्रहण करते हैं । विवेचन- पुलाक जघन्यतः एक भवं में पुलाक हो कर कषाय-कुशील आदि किसी भी संतपन को एक बार या अनेक बार, उसी भव में या अन्य भव में प्राप्त कर के सिद्ध होता है और उत्कृष्ट देवादि भव से अन्तरित ( बीच में देवादि भव) करते हुए तीन भव में पुलाकपन को प्राप्त कर सकता है । कुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय- कुशील के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति एक भव में बकुशपन अथवा प्रति'सेवना एवं कषाय-कुशीलपन प्राप्त कर के सिद्ध होता है और कोई व्यक्ति एक भव में 1. कुशादिपन प्राप्त कर के भवान्तर में बकुशादिपन को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध होता है । इसलिये कुशादि के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, क्योंकि उत्कृष्ट आठ भव तक चारित्र की प्राप्ति होती है। इनमें से कोई तो आठ भव बकुशपन के और उनमें अन्तिम भवं सकषायत्वादि युक्त बकुशपन से पूरा करता है और कोई एक भव • प्रतिसेवना कुशीलत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और फिर उसी भाव में मोक्ष : चला जाता है । आकर्ष द्वार १२८ प्रश्न - पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणीया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? १२८ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्को, उनकोसेणं तिण्णि । कठिन शब्दार्थ- आगरिसा - आकर्ष- चारित्र प्राप्ति । भावार्थ - १२८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक के एक भव में आकर्ष ( पुलाकपन For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६. आकर्ष द्वार प्राप्ति) कितने कहे हैं अर्थात् एक भव में पुलाकपना कितनी बार आता है ? .. १२८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं (एक भव में तीन बार आ सकता है)। १२९ प्रश्न-बउसस्स णं-पुच्छा। १२९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं सयग्गसो। एवं पडिसेवणाकुसीले वि, एवं कसायकुसीले वि। . कठिन शब्दार्थ-सयग्गसो-शतपरिमाण-शतपृथक्त्व ।। भावार्थ-१२९ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश के एक भव में आकर्ष कितने होते हैं ? .. १२९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील भी। १३० प्रश्न-णियंठस्स णं-पुच्छा। .. .... १३० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि । ".भावार्थ-१३० प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? १३० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं। १३१ प्रश्न-सिणायस्स णं-पुच्छा । ...... १३१ उत्तर-गोयमा ! एक्को । भावार्थ-१३१ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? .. ___१३१ उत्तर-हे गौतम ! एक आकर्ष होता है। १३२ प्रश्न-पुलागस्स णं भंते ! णाणाभवग्गहणीया केवहया For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ आकर्ष द्वार ३४२३ आगरिसा पण्णत्ता ? - १३२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त । भावार्थ-१३२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? १३२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं। ... १३३ प्रश्न-बउसस्स-पुन्छा। . १३३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो, एवं जाव कसायकुसीलस्स। भावार्थ-१३३ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? . - १३३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व आकर्ष होते हैं । इसी प्रकार यावत् कषाय-कुशील तक। १३४ प्रश्न-णियंठस्स णं-पुच्छा। १३४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं पंच । भावार्थ-१३४ प्रश्न-हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? १३४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट पाँच.आकर्ष होते हैं। १३५ प्रश्न-सिणायस्स-पुच्छा। १३५ उत्तर-गोयमा ! णत्थि एको वि २८ । भावार्थ-१३५ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? १३५ उत्तर-हे गौतम ! एक भी आकर्ष नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ काल द्वार विवेचन-चारित्र की प्राप्ति को 'आकर्ष' कहा है। इस प्रकार का आकर्ष पुलाक के जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन होते हैं । बकुश के जघन्य और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं। निग्रंथ के एक भव में जघन्य एक होता है और दो बार उपशम-श्रेणी करने से उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं । पुलाक के एक भव में एक और दूसरे भव में पुनः एक, इस प्रकार अनेक-भत्र में जघन्य दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं । पुलाकपन उत्कृष्ट तीन भव में होता है । इनमें से एक भव में उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। प्रथम भव में एक आकर्प और दूसरे दो भवों में तीन-तीन आकर्ष होते हैं इत्यादि विकल्प से सात आकर्ष होते हैं । बकुशपन के उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। इनमें से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं । जबकि आठ भवों में उत्कृष्ट प्रत्येक भव- में नौ सौ-नौ सौ आकर्ष हों,तो उनको आठ से गुणा करने पर सात हजार दो सौ होते हैं । इस प्रकार बकुश के अनेक भव की अपेक्षा, सहस्रपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। सकते हैं। निग्रंथपन के उत्कृष्ट तीन भव होते हैं । उनमें से प्रथम भव में दो आकर्ष और दूसरे भव में दो आकर्ष तथा तीसरे भव में एक आकर्ष होता है । क्षपक निग्रंथपन का आकर्ष कर के सिद्ध होता है । इस प्रकार अनेक भवों में निग्रंथपन के पांच आकर्ष होते हैं । स्नातक तो उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं । इसलिये उनके अनेक भव और आकर्ष नहीं होते। काल द्वार १३६ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कालओ केवचिरं होई ? १३६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहत्तं । भावार्थ-१३६ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक कितने काल तक रहते हैं? १३६ उत्सर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ - ६ काल द्वार १३७ प्रश्न - बउसे पुच्छा । १३७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं पक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी | एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि । भावार्थर्थ - १३७ प्रश्न- हे भगवन् ! बकुशपन कितने काल तक रहता है ? १३७ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील और कषाय- कुशील भी । १३८ प्रश्न - नियंठे - पुच्छा । १३८ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एवकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३४२५ و भावार्थ - १३८ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथपन कितने काल तक रहता है ? १३८ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । १३९ प्रश्न - सिणाए - पुच्छा । १३९ उत्तर- गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्कोडी | भावार्थ६- १३९ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातकपन कितने काल तक रहता है ? १३९ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक | विवेचन - पुलाकपन को प्राप्त हुए मुनि एक अन्तर्मुहूतं पूरा न हो, तब तक नहीं मरते एवं पुलाकपन से गिरते भी नहीं अर्थात् कषाय -कुशीलपन में अन्तर्मुहूर्त पहले जाते नहीं और पुलाकपन में तो मरते ही नहीं है । इसलिये उनका काल जमभ्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है । For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ काल द्वार बकुशपन की प्राप्ति होने पर तुरन्त ही मरण संभव होने से जघन्य एक समय तक बकुशपन रहता है । यदि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला, सातिरेक आठ वर्ष की उम्र में संयम स्वीकार करें, तो उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि वर्ष होता है । निर्ग्रन्थ का जघन्य काल एक समय है, क्योंकि उपशान्तमोह-गुणस्थानवर्ती निग्रन्थ प्रथम समय में भी मरण को प्राप्त हो सकते हैं । निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट काल अन्तमहूर्त है, क्योंकि निर्ग्रन्थपन इतने काल तक ही रहता है । स्नातक का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान उत्पन्न होने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त के बाद वे मोक्ष जा सकते हैं। उत्कृष्ट काल तो देशोनपूर्वकोटि है, जिसका उल्लेख पहले कर दिया हैं। १४० प्रश्न-पुलाया णं भंते ! कालओ केवचिरं होति ? १४० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उपकोसेणं अंतोमुहत्तं । भावार्थ-१४० प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक (बहुत) कितने काल तक रहते हैं ? १४० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । १४१ प्रश्न-बउसा णं-पुच्छा। १४१ उत्तर-गोयमा ! सव्वद्धं एवं जाव कसायकुसीला । णियंठा जहा पुलाया, सिणाया जहा बउसा २९ । .. . भावार्थ-१४१ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश (बहुत) कितने काल तक रहते हैं ? १४१ उत्तर-हे गौतम ! सर्वाद्धा (सर्व काल) रहते हैं। इसी प्रकार यावत कषाय-कुशील पर्यन्त । निग्रंथ पुलाक के समान और स्नातक वकुश के समान सदाकाल रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ६ अन्तर द्वार विवेचन - एक वचन सम्बन्धी पुलाक आदि का काल परिमाण बता कर, बहुवचन सम्बन्धी काल परिमाण बताया है। एक पुलाक अपने अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में वर्तमान है, उसी समय में दूसरा मुनि पुलाकपन को प्राप्त करे, तब दोनों पुलाकों का एक समय में सद्भाव होता है। इस प्रकार अनेक पुलाकों का ( दो पुलाक हो, तो भी 'अनेक' कहलाते हैं) जन्य काल एक समय होता है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि पुलाक एक समय में उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व ( दो हजार से नौ हजार तक ) हो सकते हैं । वे बहुत होने पर भी उनका काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है, किन्तु एक पुलाक की स्थिति के अन्तर्मुहूर्त से अनेक पुलाकों की स्थिति का अन्तर्मुहूर्त बड़ा होता है । कुशादि का स्थिति काल तो सर्वाद्धा ( सर्व काल ) होता है, क्योंकि वे सदैव मिलते हैं । अन्तर द्वार १४२ प्रश्न - पुलागस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? १४२ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उकोसेणं अनंतं कालं, अनंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ढपोग्गलपरिय देणं । एवं जाव नियंठस्स । भावार्थ - १४२ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक का अन्तर कितने काल का होता है ? ३४२७ १४२ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल | काल की अपेक्षा अनन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी और क्षेत्र की अपेक्षा देशोन अपार्द्ध पुद्गल - परावर्तन का अन्तर होता है । इसी प्रकार यावत् निग्रंथ तक । १४३ प्रश्न - सिणायस्स - पुच्छा । १४३ उत्तर - गोयमा ! णत्थि अंतरं । For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२८ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ अन्तर द्वार भावार्थ १४३ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक का अन्तर कितने काल का है ? १४३ उत्तर - हे गौतम ! अन्तर नहीं होता । १४४ प्रश्न - पुलायाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? १४४ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं पक्कं समयं उकोसेणं संखेजाई वासाई | भावार्थ - १४४ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाकों का अन्तर कितने काल का होता है ? १४४ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों का । १४५ प्रश्न - बउसाणं भंते ! --पुच्छा । १४५ उत्तर -- गोयमा ! णत्थि अंतरं, एवं जाव कसा यकुसीलाणं । भावार्थ - १४५ प्रश्न - हे भगवन् ! बकुशों का अन्तर कितने काल का होता है ? १४५ उत्तर - हे गौतम! अन्तर नहीं होता। इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक । १४६ प्रश्न- नियंठाणं पुच्छा । " १४६ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा सिणायाणं जहा उसाणं ३० । भावार्थ - १४६ प्रश्न - हे भगवन् ! निग्रंथों का अन्तर कितने काल का होता है ? १४६ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का । स्नातकों का कथन नकुशों के समान । विबेधन - अन्तरद्वार में यह बताया है कि पुलाक आदि For Personal & Private Use Only पुनः कितने काल बाद Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ समद्घातं द्वार ३४२९ पुनः पुलाफपन आदि को प्राप्त होते हैं । पुलाक, पुल।कपन छोड़ कर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में पुनः पुलाक हो सकता है और उत्कृष्ट अनन्तकाल में पुलाकपन को प्राप्त होता है । वह अनन्तकाल अनन्त अवरापिणी-उत्सर्पिणी रूप सगझना चाहिये और क्षेत्र से देशोन अपाद्धं पुद्गल-परावर्तन समझना चाहिये । पुद्गल-परावर्तन का स्वरूप इस प्रकार है। कोई जीव आकाग के प्रत्येक प्रदेश पर मृत्यु को प्राप्त हो । इस प्रकार मरण से जितने काल में समस्त लोक को व्याप्त करे, उतना काल क्षेत्र पुद्गल-परावर्तन' कहलाता है। यहाँ देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल पुलाकादि का अन्तर बताया है । स्नातक का अन्तर नहीं होता, क्योंकि स्नातक का पतन नहीं होता, इसलिये उनका अन्तर नहीं पड़ता है । समुद्घात द्वार १४७ प्रश्र-पुलागस्स णं भंते ! कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? १४७ उत्तर-गोयमा ! तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहावेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाए । भावार्थ-१४७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक के समुद्घात कितने फहे हैं ? १४७ उत्तर-हे गौतम ! तीन समुद्घात कहे हैं । यथा-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात और मारणान्तिक-समुद्घात । १४८ प्रश्न-बउसस्स णं भंते !-पुच्छा । १४८ उत्तर-गोयमा ! पंच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणा + इस प्रकार का स्वरूप टीकाकारों ने ओर ग्रन्थकारों ने बताया है, किन्तु भगवती शतक १२ उद्देशक ४ में जो पुद्गल-परावर्तन का स्वरूप बताया है, उसका कथन पहले किया जा चुका है। यहाँ आगमोपत वक्रिय पुदगल-परावर्तन का आधा समझना चाहिये-ऐसी प्राचीन धारणा है। For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३० भगवती सूत्र श २५ उ. ६ समुद्घात समुग्घाए जाव तेयाममुग्घाए । एवं पडिसेवणाकुमीले वि । भावार्थ--१४८ प्रश्न-हे भगवन् ! बकुश के समुद्घात कितने कहे हैं ? १४८ उत्तर-हे गौतम ! पांच समुदघात कहे हैं। यथा-वेदना-समुद्घात यावत् तेजस्-समुद्घात । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी। १४९ प्रश्न-कसायकुसीलस्स-पुच्छा। १४९ उत्तर-गोयमा ! छ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए जाव आहारगसमुग्घाए । भावार्थ-१४९ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय कुशील के समुद्घात कितने कहे हैं ? १४९ उत्तर-हे गौतम ! समुद्घात छह कहे हैं । यथा-वेदना-समुद्घात यावत् आहारक-समुद्घात । १५० प्रश्न-णियंठस्स णं-पुच्छा। १५० उत्तर-गोयमा ! पत्थि एको वि। . भावार्थ-१५० प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ के समुद्घात कितने कहे हैं ? १५० उत्तर-हे गौतम ! एक भी समुद्घात नहीं होता। १५१ प्रश्न-सिणायस्स-पुच्छा। १५१ उत्तर-गोयमा ! एगे केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते ३१ । भावार्थ-१५१ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक के समुद्घात कितने कहे हैं ? १५१ उत्तर-हे गौतम ! एक केवली-समुद्घात कहा है। विवेचन-पुलाम में तीन समुद्घात कहे हैं। मुनियों में संज्वलन कषाय के उदय से For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २५ उ. ६ क्षेत्रावगाहन द्वार ३४३१ कषाय-समुद्घात पाया जाता है । इस कारण पुलाक में भी कषाय-समुद्घात सम्भव है । पुलाक में मारणान्तिक-समुद्घात कहा है । यद्यपि पुलाक अवस्था में मरण नहीं होता, तथापि मारणान्तिक-समद्घात होता है । क्योंकि मारणान्तिक-समुद्घात से निवृत्त होने पर कषाय-कुशीलत्वादि परिणाम के सद्भाव में उसका मरण होता है । अतः पुलाक में मारणान्तिक समुद्घात का सद्भाव है । निर्ग्रन्थ में एक भी समुद्घात नहीं होता, क्योंकि उसका उसी प्रकार का स्वभाव है। क्षेत्रावगाहन द्वार १५२ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं १ संखेन्जइभागे होज्जा २ असंखेजइभागे होजो ३ संखेजेसु भागेसु होज्जा ४ असंखेजेसु भागेसु होजा ५ सव्वलोए होज्जा ? , ... १५२ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजहभागे होजा, असंखेजहभागे होजा, णो संखेजेसु भागेसु होजा, णो असंखेजेसु भागेसु होजा, णो सव्वलोए होजा । एवं जाव णियंठे । भावार्थ-१५२ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, लोक के संख्यातवें भाग में होते हैं, असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्यात भागों में होते हैं, असंख्यात भागों में होते हैं या सम्पूर्ण लोक में होते हैं ? १५२ उत्तर- हे गौतम ! संख्यातवें भाग में नहीं होते, असंख्यातवें भाग में होते है । संख्यात भागों में, असंख्यात भागों में और सम्पूर्ण लोक में भी नहीं होते। इसी प्रकार यावत् निग्रंथ पर्यन्त । १५३.प्रश्न-सिणाए णं-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ क्षेत्र - स्पर्शना द्वार १५३ उत्तर - गोयमा ! णो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होना, णो संखेज्जेसु भागेसु होजा, असंखेज्जेसु भागेसु ३४३२ होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा ३२ । भावार्थ - १५३ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक लोक के संख्यातवें भाग में होते हैं ? ० 1 १५३ उत्तर - हे गौतम! लोक के संख्यातवें भाग में और संख्यात भागों में नहीं होते, किन्तु असंख्यातवें भाग में और असंख्यात भागों में तथा सम्पूर्ण लोक में होते हैं । विवेचन-क्षेत्र द्वार का अर्थ है - अवगाहना क्षेत्र द्वार अर्थात् पुलाक आदि का शरीर लोक के कितने भाग को अवगाहित करता है ? पुलाक का शरीर लाक के असंख्यातवें भाग को अवगाहित करता है । इसी प्रकार यावत् निर्ग्रन्थ तक जानना चाहिये। स्नातक के विषय में यह समझना चाहिये कि केवलि समुद्घात अवस्था में, जब स्नातक शरीरस्थ होते हैं या दण्ड, कपाट अवस्था में होते हैं, तब वह लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि केवली भगवान् का शरीर इतने क्षेत्र परिमाण ही होता है । मन्थानक अवस्था में केवली. भगवान् के प्रदेशों से लोक का बहुत भाग व्याप्त हो जाता है और थोड़ा भाग अव्याप्त रहता है | अतः लोक के असंख्य भागों में रहते हैं और जब समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं, तब सम्पूर्ण लोक में होते हैं । क्षेत्र - स्पर्शना द्वार १५४ प्रश्न -पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागं फु.सइ, असंखेज्जइभागं फुसइ ? १५४ उत्तर - एवं जहा ओगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियव्वा जाव सिणाए ३३ । कठिन शब्दार्थ - फुसणा-स्पर्शना । For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ भाव द्वार ३४३३ भावार्थ-१५४ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, लोक के संख्यातवें भाग को स्पर्श करता है या असंख्यातवें भाग को ? १५४ उत्तर-हे गौतम ! अवगाहना के अनुसार स्पर्शना भी जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् स्नातक पर्यन्त । विवेचन-स्पर्श द्वार में कहा है कि यह क्षेत्र अवगाहना द्वार के समान है । इस विषय में प्रश्न होता है कि जब दोनों समान है, तो पृथक् द्वार क्यों कहे हैं ? समाधान है कि--जितने प्रदेशों को अवगाहित कर शरीर रहता है, उतने क्षेत्र को क्षेत्रावगाहना' कहते हैं । अवगाढ़ क्षेत्र अर्थात् जितने क्षेत्र को अवगाहित कर शरीर रहा हुआ है, वह क्षेत्र और उसका पाश्र्ववर्ती क्षेत्र जिसके साथ शरीर-प्रदेशों का स्पर्श हो रहा है, वह सारा क्षेत्र 'स्पर्शना क्षेत्र' कहलाता है । भाव द्वार १५५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कयरम्मि भावे होजा ? १५५ उत्तर-गोयमा ! खओवसमिए भावे होजा । एवं जाव कसायकुसीले । कठिन शब्दार्थ-कयरम्मि-किस में । भावार्थ-१५५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक किस भाव में होते हैं ? १५५ उत्तर-हे गौतम ! क्षायोपशमिक भाव में होते हैं । इसी प्रकार यावत् कषाय-कुशील पर्यन्त । १५६ प्रश्न-णियंठे-पुच्छा। १५६ उत्तर-गोयमा ! उवसमिए वा भावे होजा, खइए वा भावे होजा। For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ परिमाण द्वार ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भावार्थ-१५६ प्रश्न-हे भगवन् ! निग्रंथ किस भाव में होते हैं ? १५६ उत्तर-हे गौतम ! औपशमिक या क्षायिक भाव में होते हैं। १५७ प्रश्न-सिणाए-पुच्छा। १५७ उत्तर-गोयमा ! खइए भावे होज्जा ३४ । भावार्थ-१५७ प्रश्न-हे भगवन् ! स्नातक किस भाव में होते हैं ? .. १५७ उत्तर-हे गौतम ! क्षायिक भाव में होते हैं। विवेचन--पुलाक से ले कर कषाय-कुशील तक क्षायोपशमिक भाव में, निग्रंथ - औपशमिक या क्षायिक भाव में और स्नातक क्षायिक भाव में होते हैं। परिमाण द्वार १५८ प्रश्न-पुलाया णं भंते ! एगसमएणं केवइया होजा ? १५८ उत्तर-गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि, सिय णत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपहुत्तं । पुव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि, सिय णत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उको. सेणं सहस्सपुहत्तं । कठिन शब्दार्थ--पतिवज्जमाणए-प्रतिपद्यमान-तत्काल उस अवस्था को प्राप्त होता हुआ, पुव्वपडियण्णए-पूर्वप्रतिपन्न-पहले ही उस अवस्था को प्राप्त किया हुआ। भावार्थ-१५८ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाफ एक समय में कितने होते हैं ? १५८ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिपद्यमान (तत्काल पुलाकपन को प्राप्त For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ परिमाण द्वार ३४३५ होते हुए) पुलाक कदाचित् होते हैं और कदाचित नहीं होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न पुलाक भी कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। १५९ प्रश्न-बउसा णं भंते ! एगसमएणं-पुच्छा। १५९ उत्तर-गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि. सिय णत्थि । जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उपकोसेणं सयपुहुत्तं । पुवपडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिसयपुहत्तं, उकोमेण वि कोडिसयपुहुत्तं । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । भावार्थ-१५९ प्रश्न-हे भगवन ! बकुश एक समय में कितने होते हैं ? १५९ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिपद्यमान बकुश कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न बकुश जघन्य और उत्कृष्ट कोटिशत-पृथक्त्व होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवना-कुशील भी।। - १६० प्रश्न-कसायकुसीलाणं-पुच्छा। - १६० उत्तर-गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय णत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उको. सेणं सहस्सपुहुत्तं । पुवपडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिसहस्सपुहुत्तं, उकोसेण वि कोडिसहस्सपहुत्तं । ___ भावार्थ-१६० प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-कुशील एक समय में कितने होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३६ भगवती सूत्र श. २५ उ ६ परिमाण द्वार १६० उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान कषाय-कुशील कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न कषाय -कुशील जघन्य और उत्कृष्ट कोटिसहस्रपृथक्त्व ( दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ ) होते हैं । १६१ प्रश्न - नियंठाणं - पुच्छा । १६१ उत्तर - गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय णत्थि, जह अत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं बावट्टं सतं - अट्टमयं खवगाणं, चउप्पण्णं उवसामगाणं । पुव्यपडवण्णए पडुच्च सिय अत्थि, सिय णत्थि । जइ अस्थि जहणेणं एको वा दो वा तिष्ण वा, उक्कोसेणं सयपुहुत्तं । भावार्थ - १६१ प्रश्न - हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ एक समय में कितने होते है ? १६१ उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान निग्रंथ कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ बासठ होते हैं, इनमें क्षपक श्रेणी वाले १०८ और उपशम श्रेणी वाले ५४- ये दोनों मिला कर १६२ होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न निग्रंथ कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं । १६२ प्रश्न - सिणाया - पुच्छा । १६२ उत्तर - गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ६ अल्प- बहुत्व द्वार त्थि, जइ अस्थि जहणेणं एको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं अट्टमयं । पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिपुहुत्तं, उक्कोसेणं वि कोडितं ३५ । भावार्थ - १६२ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक एक समय मे कितने होते हैं ? १६२ उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान स्नातक कदाचित् होते हैं या नहीं होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट १०८ होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं । ३४३७ विवेचन - सभी संतों (साधुओं) का परिमाण कोटिसहस्रपृथक्त्व है और यहां तो केवल कषाय-कुशील मुनियों का ही इतना परिमाण (कोटिसहस्रपृथक्त्व) बताया है । उनमें पुलाकादि की संख्या को मिलाने से तो कोटिसहस्रपृथक्त्व से अधिक संख्या हो जायगी । फिर यथोक्त परिमाण में विरोध कैसे नहीं आएगा ? इस शका का समाधान यह है कि कषाय-कुशील संगतों का जो कोटिसहस्रपथवत्व परिमाण कहा है, वह दो, तीन कोटिसहस्ररूप जानना चाहिये । उसमें गुलाक, बकुशादि की संख्या को मिला देने पर भी सर्व संयतों का परिमाण जो कहा है, उससे अधिक संख्या नहीं होगी अर्थात् सर्व सयतों का परिमाण कोटिसहस्रपृथक्त्व हो होता है । अल्प- बहुत्व द्वार १६३ प्रश्न - एएसि णं भंते! पुलाग बउस - पडि सेवणाकुसीलकसायकुसील - नियंठ-सिणायाणं कमरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १६३ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा णियंठा, पुलाया संखेज्जगुणा, सिणाया संखेजगुणा, बसा संखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेन For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३८ भगया। सूत्र-श. २५ उ. ६ अल्प-बहुत्व द्वार गुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा । ॥ 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ ॥ ॥ पणवीमइमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो ॥ । भावार्थ-१६३ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, कषायकुशील, निग्रंथ और स्नातक, इनमें कौन किससे अल्प, बहुत्व, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? १६३ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़े निग्रंथ हैं, उनसे पुलाक संख्यात गुण हैं, उनसे स्नातक संख्यात गुण हैं, उनसे बकुश संख्यात गुण है, उनसे प्रतिसेवना-कुशील संख्यात गुण हैं और उनसे कषाय-कुशील संख्यात गुण हैं। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-बकुश और प्रतिसेवना-कुशील का परिमाण कोटिशतपृथक्त्व कहा है, तो अल्प-बहुत्व में बकुश से प्रतिसेवना-कुशील संख्यात गुण कहे हैं, यह कैसे घटित होगा? इस शंका का समाधान यह है कि बकुश का परिमाण जो कोटिशतपृथक्त्व कहा है, वह दो, तीन कोटिशतरूप जानना चाहिये और प्रतिसेवना-कुशील का कोटिशतपृथक्त्व परिमाण चार, छह कोटिशत रूप जानना चाहिये। इस प्रकार उक्त अल्प-बहुत्व में किसी प्रकार का विरोध नही है। प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील का अल्प-बहुत्व जो संख्यात गुण कहा है, वह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि उनका परिमाण कोटिसहस्रपृथक्त्व बताया है । ॥ पञ्चीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक ७ संयत के भेद (70022000) १ प्रश्न --कइ णं भंते ! संजया पण्णत्ता ? १ उत्तर -- गोयमा ! पंच संजया पण्णत्ता, तं जहा - सामाइयसंजर २ छेओवट्टावणियसंजए ३ परिहारविसुद्धियसंजर ४ सुहुमसंपरायसंजए ५. अहक्खायसंजए । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! संयत कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! संयत पाँच प्रकार के कहे हैं । यथा - १ सामायिक संयत, २ छेदोपस्थापनीय संयत, ३ परिहारविशुद्धिक संयत, ४ सूक्ष्म- सम्पराय संयत और ५ यथाख्यात संयत । २ प्रश्न- सामाइयसंजए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- इत्तरिए य आवक - हिए य । कठिन शब्दार्थ -- इत्तरिए -- इत्वरिक - अल्पकालीन, आवकहिए -- यावत्कथिक - जीवनपर्यन्त । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! सामायिक संयत दो प्रकार के कहे हैं। यथाsrafts और यावत्कथिक । For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४० यारे य । ३ प्रश्न - छेओवट्टावणियसंजए - पुच्छा | ३ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइयारे य णिरह कहे हैं ? भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत कितने प्रकार के निरतिचार | भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ संयत के भेद ३ उत्तर - हे गौतम! दो प्रकार के कहे हैं । यथा - सातिचार और ४ प्रश्न - परिहारविशुद्धिय संजए - पुच्छा । ४ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - णिव्विसमाणए य व्किाइए य । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत कितने प्रकार ! के कहे हैं ? कायिक | ४ उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार के । यथा-निर्विशमानक और निर्विष्ट ५ प्रश्न -सुहुमसंपराय - पुच्छा । ५ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संकिलिस्समाणए विद्धमाणए य । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म-संवराय संयत कितने प्रकार के हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम! दो प्रकार के । यथा-संक्लिश्यमानक और विशु द्वयमानक । ६ प्रश्न - अहक्खायसंजए - पुच्छा । ६ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- छउमत्थे य केवली य।. For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ संयतों का स्वरूप ३४४१ भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कितने प्रकार के है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार के । यथा छद्मस्थ और केवली । संयतों का स्वरूप सामाइयंमि उ कप चाउज्जामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहेणं फासयंतो सामाइयसंजओ स खलु ॥ १ ॥ छत्तू उ परियागं पोराणं जो ठवेड़ अप्पाणं । धम्मंमि पंचनामे छेओट्टावणो स खलु ॥ २ ॥ परिहरइ जो विशुद्धं तु पंचजामं अणुत्तरं धम्मं । तिविणं फासयंतो परिहारियसंजओ स खलु || ३ ॥ लोभाणू वेययंतो जो खलु उवसामओ व खवओ वा । सो सुहुमसंपराओ अहखाया ऊणओ किंचि ॥ ४ ॥ उवसंते खीर्णमि व जो खलु कम्मंमि मोहणिजंमि । उमरथो व जिणो वा अहवाओ संजओ स खलु ॥५॥ (१) भावार्थ-गाथाओं का अर्थ- सामायिक चारित्र को स्वीकार करने के पश्चात् चार महाव्रत रूप अनुत्तर (प्रधान) धर्म को जो मन, वचन और काया से त्रिविध (तीन करण से ) पालन करता है, वह 'सामायिक संयत' कहलाता है ॥ १ ॥ पूर्व पर्याय का छेदन कर के जो अपनी आत्मा को पाँच महाव्रत रूप धर्म में स्थापित करता है, वह 'छेदोपस्थापनीय संयत' कहलाता है ||२|| जो पाँच महाव्रत रूप अनुतर धर्म को मन, वचन और काया से, For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ७ संयतों का स्वरूप · त्रिविध पालन करता हुआ अमुक प्रकार का तप करता है, वह परिहारविशुद्धिक संयत' कहलाता 113 11 जो सूक्ष्म लोभ को वेदता हुआ चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता है या क्षय करता है, वह 'सूक्ष्म-संवराय संयत' कहलाता है । यह यथाख्यात संयत से कुछ हीन होता है ॥४॥ ३४४२ मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ या जिन ( केवली ) होता है, वह 'यथाख्यात संयत' कहलाता है ॥५॥ विवेचन - सामायिकादि पाँच चारित्र हैं । अतः जो सामायिक आदि चारित्र के पालक हैं, वे सामायिक आदि 'संयत' कहलाते हैं । इनके दो भेद हैं-इत्वरिक और यावत्कथिक । इत्वर का अर्थ है- अल्पकाल | चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् भविष्य में दूसरी बार छेदोपस्थापनीय संयतपन का व्यपदेश (व्यवहार) हो, उसे 'इत्वरिक सामायिक संयत' कहते हैं | प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में, जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता, तब तक उस शिष्य के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिये । यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक' कहलाती है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के मध्य के बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों के तीर्थं में सामायिक चारित्र लेने के पश्चात् पुनः दूसरा व्यपदेश नहीं होता । इसलिये उन्हें 'यावत्कथिक सामायिक संयत' कहते हैं । जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद और महाव्रतों में उपस्थापन ( आरोपण ) होता है, उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं अथवा पूर्व पर्याय का छेद कर के जो महाव्रत . दिये जाते हैं, उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं । यह चारित्र भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है । मध्यवर्ती तीर्थंकरों के तार्थ में नहीं होता । इसके दो भेद हैं- सातिवार और निरतिचार । इत्वर सामायिक वाले साधु के और एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह 'निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह 'सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है । छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले साधु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही होते हैं । जिस चारित्र में परिहार ( तप विशेष ) से कर्म - निर्जरा रूप शुद्धि होती है, उसे For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २५ उ. ७ सवेदी-अवेदी ३४४३ 'परिहारविशुद्धि चारित्र' कहते हैं । नौ साधुओं का गण, परिहार तप अंगीकार करता है। इसका विस्तृत वर्णन पहले लिखा जा चुका है । इसके दो भेद हैं-निर्विशमानक और निविष्टकायिक । तप करने वाले पारिहारिक साधु-निर्विशमानक' कहलाते हैं और तप कर के वैयावृत्य करने वाले-आनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरु-पद पर रहा वाले--आनु हुआ साधु, 'निविष्टकायिक' कहलाता है। जिस चारित्र में सूक्ष्म-सम्पराय (संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश) रहता है, उसे 'सूक्ष्म-संपराय नारित्र' कहते हैं। इसके संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक, ये दो भेद हैं । उपशम-श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेशयुक्त होते हैं, इसलिये उसका चारित्र 'संविलश्यमान सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र' कहलाता है । क्षपक-श्रेणी या उपशम-श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध रहने से उसका चारित्र 'विशुद्धयमान सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र' कहलाता है । कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र, 'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र 'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है । यथाख्यात चारित्र के छद्मस्थ और केवली, ये दो भेद हैं अथवा उपशान्तमोह और क्षीणमोह अथवा प्रतिपाती और अप्रतिपाती-इस प्रकार इसके दो भेद हैं । केवली-यथाख्यात चारित्र के 'सयोगी केवली' और 'अयोगी केवली'ये दो भेद हैं। इन पांचों चारित्रों का पालन करने वाले संयतों का संक्षिप्त स्वरूप मूल की गाथाओं में ही बता दिया है। सवेदी-अवेदी ७ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं स्वेयए होजा अवेयए होजा? ७ उत्तर-गोयमा ! सवेयए वा होजा, अवेयए वा होजा। जह सवेयए-एवं जहा कसायकुसीले तहेव गिरवसेसं । एवं छेओवट्ठा For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ सराग- वीतराग वणियसंजए वि । परिहारविसुद्धियसंजओ जहा पुलाओ । सुहुमसंपरायसंजओ अहम्खायसंजओ य जहा नियंठो (२) । ३४४४ भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, सवेदी होते हैं या अवेदो ? ७ उत्तर - हे गौतम! सवेदी भी होते हैं और अवेदी भी । यदि सवेदी होते हैं आदि सभी कथन 'कषाय-कुशील' के समान है । इसी प्रकार छेदोपस्थापसयत भी । परिहारविशुद्धिक संयत पुलाक के समान है । सूक्ष्म- संपराय संयत और यथाख्यात संयत, निर्ग्रन्थवत् है । (२) विवेचन - सामायिक संयत, सवेदी और अवेदी दोनों होते हैं, क्योंकि नौवें गुणस्थान तक सामायिक चारित्र होता है और नौवें गुणस्थान में वेद का उपशम अथवा क्षय होता है । इसलिये वहां सामायिक संयत 'अवेदक' होता है और उससे पूर्व 'रावेदक' होता है । यदि वह सवेदक होता है, तो तीन वेद वाला होता है । यदि अवेदी होता है, तो उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी होता है । परिहारविशुद्धिक संयत, पुलाक के समान पुरुषवेदी या पुरुषनपुंसकवेदी होता है । सूक्ष्म- संपराय संयत और यथाख्यात संयत, उपशान्तवेदी या क्षोणवेदी होने से अवेदी होते हैं । राग - वीतराग ८ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं सरागे होज्जा वीयरागे होजा ? ८ उत्तर - गोयमा ! सरागे होज्जा, णो वीयरागे होज्जा । एवं जाव सुहुमसंपरायसंजए । अहक्खायसंजए जहा णियंटे (३) । भावार्थ- ८ प्रश्न- हे भगवन् ! सामायिक संयत, सराग होते हैं या वीतराग ? For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र--ग. २५ उ. ७ स्थित-कल्प अस्थित-कल्प ३४४५ ८ उत्तर-हे गौतम ! सराग होते हैं, वीतराग नहीं । इसी प्रकार यावत सूक्ष्म-संपराय संयत पर्यन्त । यथाख्यात संयत निर्ग्रन्थ के समान है (३)। स्थित-कल्प अस्थित-कल्प ९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते । किं ठियकप्पे होजा, अट्टिय. कप्पे होजा ? ९ उत्तर-गोयमा ! ठियकप्पे वा होजा, अट्रियकप्पे वा होज्जा। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन ! सामायिक संयत स्थित-कल्प में होते हैं या अस्थित-कल्प में ? ९ उत्तर-हे गौतम ! स्थित कल्प में भी होते हैं और अस्थित कल्प में भो। १०. प्रश्न-छेओवट्ठावणियसंजए--पुच्छा। ...१० उत्तर-गोयमा ! ठियकप्पे होजा, णो अट्ठियकप्पे होजा। एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि। सेसा जहा सामाइयसंजए । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत स्थित-कल्प में होते हैं या अस्थित-कल्प में ? १० उत्तर-हे गौतम ! स्थित-कल्प में होते हैं, अस्थित-कल्प में नहीं होते । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संयत भी । सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात संयत का कथन सामायिक संयत के समान है। ११ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होजा, थेर For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४६ भगवती सूत्र -ग. २५ उ. ७ संयत पुलाकादि निग्रंथ होते हैं ? कप्पे होजा, कप्पाईए होजा ? ११ उत्तर-गोयमा ! जिणकप्पे वा होजा, जहा कसायकुसीले तहेव गिरवसेसं । छेओवट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो, सेसा जहा णियंठे (४)। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, जिनकल्प में होते हैं, स्थविरकल्प में होते हैं या कल्पातीत ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जिनकल्प में होते हैं इत्यादि सारा कथन कषाय-कुशील के समान है। छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि संयत का कथन बकुश के समान हैं। सूक्ष्म-संपराय और यथाख्यात संयत निर्ग्रन्थ के समान है (४)। विवेचम-अस्थित कल्प, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में और महाविदेह क्षेत्र के तीथंकरों के तीर्थ में होता है। वहां छेदोपस्थापनीय चारित्र, और परिहारविशुद्धि चारित्र नहीं होता। इसलिये छेदोपस्थापनीय संयत और परिहारविशुद्धि संयत, अस्थित कल्प में नहीं होते। संयत पुलाकादि निग्रंथ होते हैं ? १२ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं पुलाए होजा, बउसे जाव सिणाए होजा ? १२ उत्तर-गोयमा ! पुलाए वा होजा, बउसे जाव कसायकुसीले वा होजा, णो णियंठे होजा, णो सिणाए होजा । एवं छेओवट्ठावणिए वि। For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ संयत पुलाकादि निर्ग्रन्थ होते हैं ? भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत पुलाक, बकुश यावत् स्नातक होते हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! पुलाक, बकुरा यावत् कषाय- कुशील होते हैं, किन्तु निग्रंथ और स्नातक नहीं होते । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी । १३ प्रश्न - परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! - पुच्छा ! १३ उत्तर - गोयमा ! णो पुलाए, णो बउसे, णो पडिसेवणाकुमीले होज्जा, कसायकुमीले होजा, णो नियंठे होज्जा, णो सिणाए होज्जा । एवं सुहृमसंपराए वि । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत, पुलाक यावत् स्नातक होते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना-कुशील और निग्रंथ तथा स्नातक नहीं होते, किन्तु कषाय-कुशील होते हैं । इसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय संयत भी । ३४४७ १४ प्रश्न - अहक्खायसंजए- पुच्छा १४ उत्तर - गोयमा ! णो पुलाए होजा जाव णो कसायकुसीले होज्जा, नियंठे वा होज्जा, सिणाए वा होज्जा (५) । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत, पुलाक यावत् स्नातक होते हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! पुलाक यावत् कषाय- कुशील नहीं होते, किन्तु निग्रंथ या स्नातक होते हैं (५) । विवेचन - चारित्र द्वार में पुलाकादि का कथन किया है। इसका कारण यह है कि For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४८ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ प्रतिसेवना पुलाक आदि परिणाम भी चारित्र रूप ही है । प्रतिसेवना १५ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा ? १५ उत्तर-गोयमा ! पडिमेवए वा होजा, अपडिसेवए वा होजा । जइ पडिसेवए होजा, किं मूलगुणपडिसेवए होजा, सेसं जहा पुलागस्स । जहा सामाइयसंजए एवं छेओवट्टावणिए वि । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, प्रतिसेवी होते हैं या . अप्रतिसेवी ? ... १५ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवी भी होते हैं और अप्रतिसेवी भी। . प्रश्न-हे भगवन् ! यदि प्रतिसेवी होते हैं, तो 'मूलगुण प्रतिसेवी' होते उत्तर-शेष कथन पुलाक के समान । सामायिक संयत के समान छेदोपस्थापनीय संयत भी जानना चाहिए। १६ प्रश्न-परिहारविसुद्धियसंजए-पुच्छा । १६ उत्तर-गोयमा ! णो पडिसेवए होजा, अपडिसेवए होजा। एवं जाव अहक्खायसंजए (६)। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत 'प्रतिसेवी' होते हैं या 'अप्रतिसेवी' ? For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ ज्ञान द्वार, श्रुत द्वार १६ उत्तर - हे गौतम! प्रतिसेवी नहीं होते, अप्रतिसेवी होते हैं । इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत तक ( ६ ) । ३४४९ ज्ञान द्वार १७ प्रश्न - सामाइयसंजर णं भंते! कइसु णाणेसु होना ? १७ उत्तर - गोयमा ! दोसुवा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होजा, एवं जहा कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि णाणाई भयणाए, एवं जाव सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजयस्स पंच णाणाई भयणाए जहा णाणुदेसए । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत में ज्ञान कितने होते हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! दो, तीन अथवा चार ज्ञान होते है । इनमें कषाय- कुशील के समान चार ज्ञान की भजना होती है। इसी प्रकार यावत् सूक्ष्म-संपराय संयत पर्यन्त तथा ज्ञानोद्देशक ( शतक ८ उद्देशक २ ) के अनुसार यथाख्यात संयत के पाँच ज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं । विवेचन - यथाख्यात संयत के लिए पाँच ज्ञान की भजना कही है। इसका कारण यह है कि यथाख्यातं संयत के दो भेद हैं-केवली और छद्मस्थ । केवली यथाख्यात संयत के एक केवलज्ञान ही होता है । छद्मस्थ- वीतराग यथाख्यात संयत के दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं । इसके लिए 'ज्ञानोद्देशक' का अतिदेश किया है। यह आठवें शतक के दूसरे उद्देशक में, ज्ञान वक्तव्यता प्रतिपादन करने वाला अवान्तर प्रकरण है । श्रुत द्वार १८ प्रश्न - सामाइयसंजर णं भंते! केवइयं सुयं अहिज्जेना ? For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ श्रुत द्वार १८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, जहा कसायकुसीले । एवं छेओवट्ठावणिए वि । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत कितना श्रुत पढ़ते हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन-माता इत्यादि सारा वर्णन कषाय-कुशील के समान । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी। १९ प्रश्न-परिहारविसुद्धियसंजए-पुन्छा। .. १९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं णवमस्स पुवस्स तइयं आयार.. वत्थु, उकोसेणं असंपुण्णाई दस पुव्वाइं अहिज्जेजा। सुहुमसंपरायः संजए जहा सामाइयसंजए। । ___भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत कितना श्रुत पढ़ते हैं ? .... १९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु और उत्कृष्ट दस पूर्व असम्पूर्ण पढ़ते हैं। सूक्ष्म-संपराय संयत, सामायिक संयत के समान है। २० प्रश्न-अहक्खायसंजए-पुच्छा। २० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उकोसेणं चोदस पुष्वाइं अहिज्जेजा, सुयवहरित्ते वा होजा (७)। भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कितना श्रुत पढ़ते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन-माता और उत्कृष्ट चौदह पूर्व पढ़ते हैं अथवा श्रुतव्यतिरिक्त (केवली) होते हैं (७)। विवेचन--श्रुत के प्रकरण में--यथाख्यात संयत यदि निग्रंथ होते हैं, तो जघन्य For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मून - ग. २५ उ. ७ तीर्थ द्वार, लिंग द्वार आठ प्रवचन-माता और उत्कृष्ट चौदह पूर्व का श्रुत पढ़ा हुआ होता है। यदि वह स्नातक होता है, तो श्रुतातीत -- केवली होता है । ३४५१ तीर्थ द्वार २१ प्रश्न - सामाइयसंजर णं भंते ! किं तित्थे होज्जा, अतित्थे होजा ? २१ उत्तर - गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होजा, जहा कसायकुसीले । छे ओवट्टावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइयसंजए ( ८ ) । भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, तीर्थ में होते हैं या अतीर्थ में ? २१ उत्तर - हे गौतम ! तीर्थ में भी होते हैं और अतीर्थ में भी इत्यादि सभी वर्णन कषाय-कुशील के समान । छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिक संयत पुलाक के समान तथा सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात संयत, सामायिक संयत के समान जानना चाहिये ( ८ ) | लिंग द्वार २२ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं सलिंगे होजा, अण्णलिंगे होज्जा, गिहिलिंगे होना ? २२ उत्तर - जहा पुलाए । एवं ओवावणिए वि । भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयंत, स्वलिंग में, अन्यलिंग For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५२ भगवती मूत्र--श. २५ उ. ७ शरीर द्वार में या गृहलिंग में होते हैं ? २२ उत्तर-हे गौतम ! सभी वर्णन पुलाक के समान जानो। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत गी। २३ प्रश्र-परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! किं-पुन्छा । ___२३ उत्तर-गोयमा ! दव्वलिंगं पि भावलिंगं पि पडुच्च सलिंगे होजा, णो अण्णलिंगे होजा, णो गिहिलिंगे होजा। सेसा. जहा सामाइयसंजए (९)। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत, स्वलिंग में, अन्यलिंग में या गृहलिंग में होते हैं ? . २३ उत्तर-हे गौतम ! द्रलिंग और भावलिंग की अपेक्षा स्वलिंग में ही होते हैं, अन्यलिंग या गृहलिंग में नहीं होते। सूक्ष्म-सम्पराय और यथाख्यात संयत, सामायिक संयत के समान हैं। शरीर द्वार २४ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कइसु सरीरेसु होजा ? २४ उत्तर-गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा जहा कसाय. कुसीले । एवं छेओवट्ठावणिए वि, सेसा जहा पुलाए (१०)। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के शरीर कितने होते हैं? २४ उत्तर-हे गौतम ! तीन, चार अथवा पाँच शरीरों में होते हैं इत्यादि कषाय कुशीलवत् । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी। शेष संयतों का कथन पुलाक के समान (१०)। For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र द्वार २५ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं कम्मभूमीए होजा, अम्मभूमीए होजा ? २५ उत्तर - गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच कम्मभूमीए, णों अकम्मभूमीए - जहा उसे । एवं छेओवट्टावणिए वि । परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइयसंजए ( ११ ) । भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, कर्मभूमि में होते हैं या अकर्मभूमि में ? २५ उत्तर - हे गौतम ! जन्म और सद्भाव से वे कर्मभूमि में होते हैं, अकर्मभूमि में नहीं होते इत्यादि बकुश के समान । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी । परिहारविशुद्धिक संयत, पुलाकवत् और सूक्ष्म- सम्पराय संयत तथा यथाख्यात संयत, सामायिक संयत के समान हैं ( ११ ) । काल द्वार . २६ प्रश्न - सामाइयसंजर णं भंते! किं ओसप्पिणीकाले होजा, उस्सप्पिणीकाले होज्जा, गोओसप्पिणी - गोउस्सप्पिणीकाले होज्जा ? : २६ उत्तर - गोयमा ! ओसप्पिणीकाले - जहा बउसे । एवं छेओवाणि वि । वरं जम्मणं संतिभावं पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु णत्थि साहरणं पडुच अण्णयरे पलिभागे होज्जा, सेसं तं चैव । भावार्थ - २६ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, अवसर्पिणी काल में, उत्सर्पिणी काल में या नोअवसर्पिणी- नोउत्सर्पिणी काल में होते हैं ? २६ उत्तर - हे गौतम ! अवसर्पिणी काल में होते हैं इत्यादि सभी कथन For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५४ : भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ गति द्वार बकुश के समान है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी, किन्तु यह जन्म और सद्भाव की अपेक्षा चारों पलिभाग ( सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा और दुषमसुषमा के समान काल ) में नहीं होते । संहरण की अपेक्षा किसी भी पलिभाग में होते हैं। शेष पूर्ववत् । २७ प्रश्न - परिहारविसुद्धिए - पुच्छा । २७ उत्तर - गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणी: काले वा होज्जा, णोओसप्पिणी- गोउस्सप्पिणीकाले णो होज्जा । जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा - जहा पुलाओ । उस्सप्पिणीकाले वि जहा पुलाओ। सुहुमसंपराइओ जहा णियंठो एवं अहम्खाओ वि (१२) । भावार्थ - २७ प्रश्न - हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत, अवसर्पिणी काल में होते हैं ० ? २७ उत्तर - हे गौतम ! अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल में होते हैं, किन्तु नोअवसर्पिणी- नो उत्सर्पिणी काल में नहीं होते । यदि अवसर्पिणी काल अथवा उत्सर्पिणी काल में होते हैं, तो पुलाकवत् । सूक्ष्म संपराय संयत और यथाख्यात संयत का काल निर्ग्रन्थ के समान है ( १२ ) । विवेचन -- नोअवसर्पिणी - नोउत्सर्पिणी के सुषमादि समान तीन प्रकार के काल में (देवकुरु आदि में ) कुश का जन्म और सद्भाव का निषेध किया है और दुषमसुषमा समान काल में ( महाविदेह क्षेत्र में ) सद्भाव कहा है । छेदोपस्थापनीय संयत का चारों पलिभाग में अर्थात् देवकुरु आदि में तथा महाविदेह में निषेध किया है । गति द्वार २८ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते ! कालगए समाणे किं (कं) For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई गच्छइ ? भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ गति द्वार २८ उत्तर - गोयमा ! देवगईं गच्छइ । प्रश्न- देवगई गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेज्जा. वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा, जोड़सिएस उववज्जेजा, वेमाणिपसु उववज्जेज्जा ? उत्तर - गोयमा ! णो भवणवासीसु उववज्जेज्जा-जहा कसायकुसीले । एवं छे ओवट्टावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । सुहुमसंपराए जहा नियंठे । भावार्थ - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत कालधर्म (मृत्यु) प्राप्त कर किस गति में जाते हैं ? ३,४५५ २८ उत्तर - हे गौतम! देवगति में जाते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! देवगति में जाते हुए क्या भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी या वैमानिक में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर- हे गौतम! भवनपति में उत्पन्न नहीं होते इत्यादि कषाय-कुशीलवत्। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी । परिहारविशुद्धिक संपत की गति पुलाक के समान और सूक्ष्म संपराय संयत की गति निर्ग्रन्थ के समान जानो । २९ प्रश्न - अहक्खाए -- पुच्छा । २९ उत्तर -- गोयमा ! एवं अहक्खायसंजए वि जाव अजहण्णमणुक्को सेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा, अत्थेगइए सिज्झड़ जाव अंत करेs | भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत, कालधर्म प्राप्त कर किस गति में जाते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ७ देवायु स्थिति २९ उत्तर - हे गौतम! यथाख्यात संयत भी पूर्व कथनानुसार यावत् अजघन्यानुत्कृष्ट अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं और कई सिद्ध हो जाते हैं यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं । १८५६ ३० प्रश्न – सामाइयसंजए णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए उववज्जइ - पुच्छा । ३० उत्तर - गोयमा ! अविराहणं पडुच, एवं जहा कसायकुसीले । एवं छेवट्टावणिए । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । सेसा जहा नियंठे | भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, देवलोक में उत्पन्न होते हुए इन्द्रपने उत्पन्न होते हैं ० ? ३० उत्तर - हे गौतम! अविराधक हो, तो कषाय-कुशीलवत् । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी । परिहारविशुद्धिक संयत, पुलाक के समान । सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात संयत, निर्ग्रन्थ के समान हैं । देवायु स्थिति ३१ प्रश्न–सामाइयसंजयस्स गं भंते! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स aari कालं ठिई पण्णत्ता ? ३१ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दो पलिओवमाई, उनकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । एवं छेओवट्टावणिए वि । भावार्थ - ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए सामायिक For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ संयम स्थान संयत की स्थिति कितने काल की कही है ? ३१ उत्तर - हे गौतम! जघन्य दो पत्योपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत की स्थिति भी जानो । ३४५७ ३२ प्रश्न - परिहारविशुद्धियम्स - पुच्छा । ३२ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दो पलिओवमाई उकासेणं. अारस सागरोवमाई, सेसाणं जहा णियंटस्स (१३) । भावार्थ - ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए परिहारविशुद्धिक संयत की स्थिति कितनी होती है ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट अठारह् सागरोपम । सूक्ष्म- संपराय और यथाख्यात संयत की स्थिति निर्ग्रन्थ के समान होती है ( १३ ) | संयम स्थान ३३ प्रश्न – सामाइयसंजयस्स णं भंते! केवइया संजमट्टाणा पण्णत्ता ? १३३ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा संजमट्टाणा पण्णत्ता, एवं जाव परिहारविसुद्वियस्स । भावार्थ६- ३३ प्रश्न - हे भगवत् ! सामायिक संयत के कितने संगम स्थान कहे हैं ? ३३ उत्तर - हे गौतम! असंख्य संग्रम-स्थान कहे हैं । इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिक संयत तक । For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५८ ३४ प्रश्न - सुहुमसंपरायसंजयस्स - पुच्छा । ३४ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा अतोमुहुत्तिया संजमट्टाणा पण्णत्ता । भावार्थ - ३४ प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म संपराय संयत के संयम-स्थान कितने कहे हैं ? ३४ उत्तर - हे गौतम! अन्तर्मुहूर्त के समय जितने असंख्य संयम स्थान कहे हैं । भगवती सूत्र - २५ उ ७ संयम स्थान पण्णत्ते | ३५ प्रश्न - अहक्खायसंजयस्स - पुच्छा । ३५ उत्तर - गोयमा ! एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे भावार्थ - ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत के संयम स्थान कितने कहे हैं ? ३५ उत्तर - हे गौतम ! अजघन्यानुत्कृष्ट संयम-स्थान एक ही कहा है । ३६ प्रश्न - एएसि णं भंते ! सामाइय-छे ओवट्ठावणिय परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंप राय- अहक्खायसंजयाणं संजमट्टाणाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? ३६ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवे अहक्खायसंजमस्स एगे अजहृष्णमणुकोसए संजमट्टाणे, सुहुमसंपरा यसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा, परिहारविसुद्धिय संजयम्स संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा, सामाइयसंजयस्स छेओवट्टावणियसंजयस्स य एएसि संजमाणा दोह वितुल्ला असंखेजगुणा (१४) । For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव ३४५९ - भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्म-संपराय संयत और यथाख्यात संयत, इनके संयम. स्थानों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? उत्तर-हे गौतम ! यथाख्यात संयत के अजघन्यानत्कृष्ट एक संयम. स्थान है और सबसे अल्प है। उनसे सूक्ष्म-संपराय संयत से अन्तर्मुहूर्त सम्बन्धी संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत (इन दोनों) के संयम-स्थान परस्पर तुल्य हैं और असंख्य गुण हैं १४ ।। विवेचन- सूक्ष्म-सम्पराय संयत की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति है । उनके चारित्रविशुद्धि के परिणाम प्रतिसमय विशेष-विशेष होने से असंख्य होते हैं । यथास्यात संयत का संयम-स्थान तो एक ही होता है। संयम-स्थान का जो अल्प-बहुत्व बताया है, वह इस प्रकार समझना चाहिये ; असद्भाव स्थापना से सभी संयम के स्थान २१ मान लिये जायें । उनमें से सर्वोपरि जो एक है, वह यथाख्यात संयत का संयम-स्थान है । उसके बाद सूक्ष्म-संपराय संयत के चार संयम-स्थान हैं। वे उस एक को अपेक्षा असंख्य गुण समझना चाहिये। उसके बाद चार संयम स्थान छोड़ कर उस के नीचे के आठ संयम स्थान परिहार विशुद्धिक संयत के हैं। वे पूर्व से असंख्य गुण समझने चाहिए । इसके बाद ऊपर छोड़े हुए जो चार हैं वे और पूर्वोक्त परिहार विशुद्धिक-संयत वाले आठ और उनसे नीचे के अन्य चार इस प्रकार सालह संयम स्थान सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र के हैं । ये पूर्व से असंख्यात . गुण हैं और परस्पर तुल्य हैं । चारित्र-पर्यव ३७ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया चरित्तपजवा पण्णता? ३७ उत्तर-गोयमा ! अणंता चरित्तपजवा पण्णत्ता, एवं जाव अहक्खायसंजयस्स । For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६० - भगवनी सूत्र--ण. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के चारित्र-पर्यव कितने कहे हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! चारित्र-पर्यव अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत तक । ३८ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्टाण. सण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? . .. ३८ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे-छट्ठाणवडिए । __ भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक सामायिक संयत, दूसरे सामायिक संयत के स्वस्थान सन्निकर्ष (सजातीय चारित्र-पर्यवों) की अपेक्षा हीन होते हैं, तुल्य होते हैं या अधिक होते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित तुल्य और कदाचित अधिक होते हैं । यह छह स्थान पतित जानो। ३९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! छेओवट्ठावणियसंजयस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं-पुन्छा। ३९ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे, छट्टाणवडिए । एवं परिहारविसुद्धियस्स वि। भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय चारित्र-पर्यवों) को अपेक्षा होन, तुल्य या अधिक होते हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होते हैं। यह भी छह स्थान पतित होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिक संयत भी। For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र--श. २५ 3 3 चारित्र-पर्यत्र ३४६१ ४० प्रश्न-सामाइयमंजप णं भंते ! मुहुमसंपरायसंजयस्स परट्टाणसण्णिगामेणं चरित्तपन्जवेहि-पुच्छा। __४० उत्तर-गोयमा ! हीणे. णो तुल्ले, णो अभहिए, अणंतगुणहीणे। एवं अहक्खायसंजयस्म वि । एवं छेओवट्ठावणिए वि हेटिल्लेसु तिसु वि समं छटाणवडिए, उवरिल्लेसु दोसु तहेव हीणे । जहा छे ओवट्ठावणिए तहा परिहारविसुद्धिए वि। भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, सूक्ष्म-संपराय संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय) चारित्र-पर्यवों की अपेक्षा हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ? . ४० उत्तर-हे गौतम ! हीन होते हैं, तुल्य और अधिक नहीं होते। अनन्त गुण हीन हैं। इसी प्रकार यथाख्यात संयत भी। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी नीचे के तीन संयतों के साथ छह स्थान पतित होते हैं और ऊपर के दो संयतों के साथ उसी प्रकार अनन्त गण हीन होते हैं। परिहारविशुद्धिक संयत का कथन छेदोपस्थापनीय संयत के समान है। . ४१ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स परट्ठाण-पुच्छा। ___ ४१ उत्तर-गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अभहिए, अणंत. गुणमहिए। एवं छे ओवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिएसु वि समं । सट्टाणे सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिंघ अब्भहिए । जइ हीणे अणंतगुणहीणे, अह (जइ) अब्भहिए अणंतगुणमब्भहिए । For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६२ भगवती सूत्र -श. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-सम्पराय संयत, सामायिक संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय) चारित्र-पर्यवों से हीन, तुल्य या अधिक हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! हीन और तुल्य नहीं, अधिक है और अनन्त गुण अधिक है। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत और परिहारविशुद्धिक संयत के साथ भी जानना चाहिए । स्वस्थान सन्निकर्ष (सजातीय ) चारित्र-पर्यवों की अपेक्षा कदाचित् हीन, कदाचित तुल्य और कदाचित अधिक होते है। यदि हीन होते हैं, तो अनन्त गुण हीन होते हैं और अधिक होते हैं तो अनन्त गुण अधिक होते हैं। • ४२ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजयस्स अहक्खायसंजयस्स परट्टाणपुच्छा । ४२ उत्तर-गोयमा ! होणे, णो तुल्ले, णो अभहिए, अणंतगुणहीणे । अहफ्खाए हेछिल्लाणं चउण्ह वि णो हीणे. णो तुल्ले, अब्भहिए, अणंतगुणमहिए। सट्टागे णो हीणे, तुल्ले णोअब्भहिए। भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-सम्पराय संयत, यथाख्यात संयत के परस्थान सन्निकर्ष चारित्र-पर्यवों की अपेक्षा हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! होन होते हैं, किन्तु तुल्य और अधिक नहीं होते । अनन्त गुण हीन होते हैं। यथाख्यात संपत नीचे के चार संयतों की अपेक्षा हीन नहीं, तुल्य भी नहीं, किन्तु अधिक है और अनन्त गुण अधिक हैं। स्वस्थान सन्निकर्ष चारित्र-पर्यवों की अपेक्षा हीन नहीं, अधिक भी नहीं, किन्तु तुल्य हैं। ४३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! सामाइय-छेओवट्ठावणिय-परिहार For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव ३४६३ विसुद्धिय-सुहुमसंपराय अहक्खायसंजयाणं जहण्णुकोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरे जाव विसेमाहिया वा ? ४३ उत्तर-गोयमा ! सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियमंजयम्स य एमि णं जहण्णगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा, परिहारविसुद्धियसंजयस्स जहण्णगा चरित्तपजवा अणंतगुणा. तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठा. वणियसंजयस्स य एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपजवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा, सुहुमसंपरायसंजयस्स जहण्णगा चरित्तपजवा, अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा अहक्खायसंजयस्स अजहण्णमणुकोसगा चरित्तपन्नवा अणंतगुणा (१५)। भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्म-सम्पराय संयत और यथाख्यात संयत, · इनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र-पर्यवों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? ४३ उत्तर-हे गौतम ! सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत, इन दोनों के जघन्य चारित्र-पर्यव परस्पर तुल्य हैं और सब से थोड़े हैं। उनसे परिहारविशद्धिक संयत के जघन्य चारित्र-पर्यव अनन्त गुण हैं, उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के उत्कृष्ट चारित्र पर्यव अनन्त गुण हैं । उनसे सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत के उत्कृष्ट चारित्र-पर्यव अनन्त गुण हैं और परस्पर तुल्य हैं। उनसे सूक्ष्म सम्पराय संयत के जघन्य चारित्र-पर्यव अनन्त गुण हैं, उनसे सूक्ष्म-सम्पराय संयत के उत्कृष्ट चारित्र-पर्यव अनन्त गुण हैं, उनसे यथा. ख्यात संयत के अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र-पर्यव अनन्त गुण हैं (१५)। विवेचन--सामायिक संयत के संयम-स्थान असंख्य होते हैं । उनमें से जब एक For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ योग: द्वार, उपयोग द्वार हीन शुद्धि वाला होता है और दूसरा संयत कुछ अधिक शुद्धि वाला होता है, तब उन दोनों सामायिक संयतों में से एक हीन और दूसरा अधिक कहलाता है । इस हीनाधिकता में छह स्थान पतितता होती है । जब दोनों के संयम स्थान समान होते हैं, तब तुल्यता होती है । ३४६४ योग द्वार ४४ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा ? ४४ उत्तर - गोयमा ! सजोगी जहा पुलाए । एवं जाव सुहुमसंपरा संजए । अहक्खाए जहा सिणाए (१६) । भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, सयोगी होते हैं या अयोगी ? ४४ उत्तर - हे गौतम! सयोगी होते हैं इत्यादि पुलाकवत् । इसी प्रकार यावत् सूक्ष्म-सम्पराय संयत तक । यथाख्यात संयत, स्नातक के समान है ( १६) । " उपयोग द्वार ४५ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते होजा ? ४५ उत्तर - गोयमा ! सागारोवउत्ते जहा पुलाए | एवं जाव अहम्खाए । णवरं सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होजा, णो अणागारो For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ कपाय द्वार उत्ते होजा (१७) । भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, साकारोपयोग युक्त होते हैं या अनाकारोपयोग युक्त ? ३४६५ ४५ उत्तर - हे गौतम! साकारोपयोग युक्त इत्यादि पुलाकवत् । इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत पर्यन्त । किन्तु सूक्ष्म- सम्पराय संयत एक साकारोपयोग वाले ही होते हैं, अनाकारोपयोगी नहीं होते (१७) । विवेचन - सामायिक संयत आदि में साकारोपयोग और अनाकारोपयोग दोनों उपयोग होते हैं, परन्तु सूक्ष्म - सम्पराय संयत में एक साकारोपयोग ही होता है, अनाकारोपयोग नहीं होता । क्योंकि सूक्ष्म- सम्पराय संयत साकारोपयोग में ही दसवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और साकारोपयोग का समय पूरा होने से पहले ही वे दसवें गुणस्थान को छोड़ देते हैं । इस गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा हैं । कषाय द्वार ४६ प्रश्न – सामाइयसंजए णं भंते! किं सकसायी होजा, अकसायी होजा ? ४६ उत्तर - गोयमा ! कसायी होज्जा, णो अकसायी होनाजहा कसायकुसीले । एवं छेओक्टुावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए । भावार्थ - ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, सकषायी होते हैं या अकषायी ? ४६ उत्तर - हे गौतम! सकषायी होते हैं, अकषायी नहीं होते इत्यादि कषाय- कुशीलवत् ( चार, तीन और दो कषायों में होते हैं । किन्तु एक कषाय में नहीं होते ) । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय भी । परिहारविशुद्धिक संयत Set कथन पुलाक के समान है । For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ लेश्य द्वार ४७ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजए--पुच्छा। ४७ उत्तर-गोयमा ! सकसायी होजा, णो अकसायी होजा । भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-सम्पराय संयत, सकषायी होते हैं या अकषायो ? ___४७ उत्तर-हे गौतम ! सकषायी होते हैं, अकषायो नहीं होते। ४८ प्रश्न-जह सकसायी होजा, से णं भंते ! कइसु कसायेसु होजा? ४८ उत्तर-गोयमा ! एगंमि संजलणलोभे होजा । अहमखायसंजए जहा णियंठे (१८)। ___ भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि सूक्ष्म-सम्पराय संयत सकषायी होते हैं, तो कितने कषायों में होते हैं ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! एकमात्र संज्वलन लोम होता है । यथाल्यात संयत निग्रंथ के समान हैं (१८)। लेश्या द्वार - ४९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलेस्से होजा, अलेस्से होजा? - ४९ उत्तर-गोयमा ! सलेस्से होजा-जहा कसायकुसीले । एवं छे भोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। सुहुमसंपराए जहा For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. २५ उ. ७ परिणाम द्वार - - - णियंठे । अहक्खाए जहा सिणाए । णवरं जइ सलेस्से होजा, एगाए सुक्कलेस्साए होजा (१९)। भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन ! सामायिक संयत सलेशी होते हैं या अलेशी ? ४९ उत्तर-हे गौतम ! सलेशी होते हैं इत्यादि कषाय-कुशीलवत । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय सयत भी। परिहारविशुद्धिक संयत पुलाकवत् । सूक्ष्मसम्पराय संयत, निर्ग्रन्थ के समान है और यथाख्यात संयत, स्नातक के समान है, यदि सलेशी होते हैं, तो एकमात्र शुक्ललेशी होते हैं (१९) । विवेचन-लेश्या के विषय में यथाख्यात संयत का कथन स्नातक के समान है । वे सलेशी भी होते हैं और अलेशी भी । यदि स्नातक, सलेशी होते हैं, तो परम शुक्ल-लेश्या वाले होते हैं, किन्तु यथाख्यात संयत शुक्ल-लेश्या वाला ही होता है । परिणाम द्वार - ५० प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं वड्ढमाणपरिणाम होजा, हीयमाणपरिणामे होजा, अवट्ठियपरिणामे होला ? ... ५० उत्तर-गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे जहा पुलाए। एव जाव परिहारविसुद्धिए। ...... भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं, हीयमान परिणाम वाले होते हैं या अवस्थित परिणाम वाले होते हैं ? ५० उत्तर-हे गौतम ! वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं इत्यादि पुलाक• यत् । इसी प्रकार यावत् परिहार-विशुद्धिक संयत पर्यन्त । ५१ प्रश्न-सुहुमसंपराए-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवी - २५ उ. ७ परिणाम द्वार ५१ उत्तर - गोयमा ! वड्ढमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणपरिणामे वा होज्जा, णो अवट्टियपरिणामे होज्जा । अहक्खाए जहा नियंठे | ३४६८ भावार्थ - ५१ प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म- सम्पराय संयत, वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं ० ? ५१ उत्तर - हे गौतम ! वर्द्धमान परिणाम वाले या हीयमान परिणाम वाले होते हैं, अवस्थित परिणाम वाले नहीं होते । यथाख्यात संयत निर्मन्थ के समान हैं । ५२ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! केवइयं कालं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? ५२ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं - जहा पुलाए । एवं जाव परिहारविसुद्धिए । भावार्थ - ५२ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, वर्द्धमान परिणामयुक्त कितने काल तक होते हैं ? ५२ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं इत्यादि पुलाकवत् । इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिक संयत तक । ५३ प्रश्न - सुहमसंपरायसंजए णं भंते! केवइयं कालं वड्ढमाणपरिणामे होज्जा ? , ५३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं । For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र -श. २. उ. ७ परिणाम द्वार ३४६९ प्रश्न-केवइयं कालं हीयमाणपरिणाम ? उत्तर-एवं चेव । भावार्थ-५३ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-सम्पराय वर्द्धमान परिणाम वाले कितने काल तक होते हैं ? ५३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक। प्रश्न-हे भगवन् ! होयमान परिणाम वाले कितने काल तक होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! इसी प्रकार । ५४ प्रश्न-अहक्वायसंजए णं भंते ! केवइयं कालं वड्डमाणपरिणामे होजा ? ५४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतो. मुहुत्तं । प्रश्न-केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा ? उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्क समयं, उक्कोसेणं देमूणा पुवकोडी (२०)। ... भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कितने काल तक वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं ? - ५४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! उनके अवस्थित परिणाम कितने काल तक रहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक (२०)। For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७० २५ उ.५ कर्म बन्ध विवेचन सूक्ष्म-संपराय मंयत जब श्रेणी चढ़ते हैं, तब वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं और जब श्रेणी से गिरते हैं, तब हीयमान परिणाम वाले होते हैं. किन्तु उस गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जिसमें अवस्थित परिणाम नहीं होते । - सूक्ष्म-संपराय संयत का वर्द्धमान परिणाम जघन्य एक समय मृत्यु की अपेक्षा से होता है, वर्द्धमान परिणाम को करने के एक समय बाद ही उनका मरण हो जाय, तव जघन्य परिणाम होता है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त वर्द्धमान परिणाम तो उस गुणस्थान की स्थिति हा है । इसी प्रकार हीयमान परिणाम के विषय में भी समझना चाहिये। जो यथाख्यात संयत, केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, उनका वर्द्धमान परिणाम जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहता है । उसके बाद उसका व्यवच्छेद हो जाता है । अवस्थित परिणाम जघन्य एक समय उस अपेक्षा मे घटित होता है कि उपशम अवस्था प्राप्ति के प्रथम समय के बाद ही उसका मरण हो जाय । उत्कृष्ट अवस्थित परिणाम देशोन पूर्वकोटि उस अपेक्षा से घटित होता हैं, जबकि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला मातिरेक आठ वर्ष की उम्र में संयम अंगीकार कर के शीघ्र ही केवलज्ञान प्राप्त कर ले। कर्म-बन्ध ५५ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बन्धइ ? ५५ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबधए वा एवं जहा बउसे । एवं जाव परिहारविसुद्धिए । भावार्थ-५५ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, कर्म-प्रकृतियां कितनी बांधते हैं ? ५५ उत्तर-हे मौतम ! सात या आठ कर्म-प्रकृतियां बांधते हैं इत्यादि बकुशवत् । इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिक संयत पर्यन्त । ५६ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजमे-पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श. २५ उ. ७ कर्म-घेदन ३४७१ ५६ उत्तर-गोयमा ! आउय-मोहणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधइ । अहक्खाएसंजए जहा सिणाए (२१)। भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-सम्पराय संयत कर्म-प्रकृतियां कितनी बांधते हैं ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! आयुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष छह कर्म-प्रकृतियां बांधते हैं। यथाख्यात संयत के बन्ध स्नातक के समान है (२१)। विवेचन--आयुष्य कर्म का बन्ध सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक होता है । सूक्ष्मसंपराय संयत दसवें गुणस्थानवर्ती होते हैं, इसलिये वे आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते तथा वादर कषाय का उदय न होने से मोहनीय कर्म का बन्ध भी नहीं करते । अत: इन दो के अतिरिक्त शेप छह कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । कर्म-वेदन ५७ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ वेदेह ? ५७ उत्तर-गोयमा ! णियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेइ । एवं जाव सुहुमसंपराए । भावार्थ-५७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, कर्म को कितनी प्रकृतियों का वेदन करते हैं ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! नियम से (अवश्य) आठ कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं । इसी प्रकार यावत् सूक्ष्म-सम्पराय संयत तक। ५८ प्रश्र-अहक्खाए-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७२ भगवती मूत्र-दा. २५ उ. ५ कर्म-उदीरणा ५८ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहवेयए वा, चउविहवेयए वा । सत्त वेदेमाणे मोहणिजवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेइ, चत्तारि वेदेमाणे वेयणिजा उय-णाम-गोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेइ (२२)। भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कर्म को कितनी प्रकृतियों का वेदन करते हैं ? ५८ उत्तर-हे गौतम ! सात या चार कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं । जस सात का वेदन करते हैं, तो मोहनीय छोड़ कर सात का वेदन करते हैं और जब चार का वेदन करते हैं। तब वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं (२२) । विवेचन--यथाख्यात संयत के निर्ग्रन्थ अवस्था में मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय हो जाने से मोहनीय को छोड़ कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं और स्नातक अवस्था में घाती-कर्मों का क्षय हो जाने से चार अघाती-कर्मों का ही वेदन करते हैं। कर्म-उदीरणा ५९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ ? ५९ उत्तर-गोयमा ! सत्तविह-जहा बउसो। एवं जाव परिहारविमुद्धिए । भावार्थ-५९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत कर्म की कितनी प्रकृतियों की उदीरणा करते हैं ? ___५९ उत्तर-हे गौतम ! सात कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करते हैं इत्यादि बकुश के समान यावत् परिहारविशुद्धिक संयत पर्यन्त । ६० प्रश्न-मुहुमसंपराए-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २५ उ. ७ उपसंपद्-हान ३४७३ ६० उत्तर-गोयमा ! छविहउदीरए वा पंचविहउदीरए वा । छ उदीरेमाणे आउय-वेयणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ, पंच उदीरेमाणे आउय-वेयणिज-मोहणिजवजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेइ । भावार्थ-६० प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-संपराय संयत, कर्म को कितनी प्रकृतियों को उदीरते हैं ? ६० उत्तर-हे गौतम ! छह या पांच कर्म-प्रकृतियों को उदीरते हैं।' छह को उदीरते हुए, आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर शेष छह कर्म-प्रकतियों को उदीरते हैं। पांच को उदीरते हुए आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर शेष पांच कर्म-प्रकृतियों को उदीरते हैं। ६१ प्रश्न-अहक्खायसंजए-पुच्छा। ६१ उत्तर-गोयमा ! पंचविहउदीरए वा दुविहउदीरए वा अणुदीरए वा । पंच उदीरेमाणे आउय०-सेसं जहा णियंठस्स (२३) । भावार्थ-६१ प्रश्न-हे भगवन् ! यथाख्यात संयत कर्म को कितनी प्रकृतियों को उदीरते हैं ? ६१ उत्तर-हे गौतम ! पांच अथवा दो को उदीरते हैं या अनुदीरक होते हैं। पांच को उदौरते हुए आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय के अतिरिक्त शेष पांच को उदोरणा करते हैं इत्यादि शेष निर्ग्रन्थ के समान (२३)। उपसंपद-हान ६२ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७४ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ उपसंपद्-हान किं जहह, किं उवसंपजह ? ६२ उत्तर - गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहइ, छेओवट्टावणियसंजयं वा, सुहुमसंपरायसंजयं वा, असंजमं वा, संजम संजमं वा उवसंपजह | भावार्थ - ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, सामायिक संयतपन त्यागते हुए किसे छोड़ते हैं और क्या प्राप्त करते हैं ? ६२ उत्तर - हे गौतम ! वे सामायिक संघम छोड़ते हैं और छेदोपस्थापनी संयम, सूक्ष्म संपराय संगम, असंयम अथवा संयमासंयम प्राप्त करते हैं । ६३ प्रश्न - छेओट्टावणिए - पुच्छा । ६३ उत्तर - गोयमा ! छेओवट्टावणियसंजयत्तं जहह, सामाइयसंजमं वा, परिहारविसुद्धिय संजमं वा, सुहुमसंपरा यसंजमं वा, असंजमं वा, संजमा संजमं वा उवसंपजड़ । भावार्थ - ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत यावत् किसे छोड़ते हैं और क्या प्राप्त करते हैं ? ६३ उत्तर - हे गौतम ! वे छेदोपस्थापनीय संयत छोड़ते हैं और सामायिक संयम, परिहारविशुद्धिक संयम, सूक्ष्म-संपराय संयम, असंयम अथवा संयमासंयम प्राप्त करते हैं । ६४ प्रश्न - परिहारविसुद्धिए - पुच्छा । ६४ उत्तर - गोयमा ! परिहारविसुद्वियसंजयत्तं जहर, छेभोवडावणियसंजयत्तं वा असंजमं वा उवसंपजड़ । For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ.७ उपसंपद् हान ३४७५ भावार्थ-६४ प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत किसे छोड़ते ६४ उत्तर-हे गौतम ! परिहारविशुनिक संयम छोड़ कर छेदोपस्थापनीय संयम अथवा असंयम प्राप्त करते हैं। ६५ प्रश्न-सुहुममंपराए-पुच्छा। ६५ उत्तर-गोयमा ! सुहमसंपरायसंजयत्तं जहइ, सामाइयसंजमं वा, छे ओवट्ठावणियसंजमं वा, अहक्खायसंजमं वा, असंजमं वा उव. संपन्जइ । . भावार्थ-६५ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-संपराय संयत किसे छोड़ते हैं? ६५ उत्तर-हे गौतम ! वे सूक्ष्म-संपराय संयम छोड़ते हैं और सामायिक संयम, छेदोपस्थापनीय संयम, यथाख्यात संयम अथवा असंयम प्राप्त करते हैं। ६६ प्रश्न-अहक्खायसंजए-पुच्छा। ६६ उत्तर-गोयमा ! अहक्खायसंजयत्तं जहइ, सुहुमसंपरायसंजमं वा, असंजमं वा, सिद्धिगई वा उवसंपजइ (२४) । भावार्थ-६६ प्रश्न-हे भगवन् ! यथाख्यात संयत किसे छोड़ते हैं ? ... ६६ उत्तर-हे गौतम ! वे यथाख्यात संयम छोड़ते हैं और सूक्ष्म-संपराय संयम, असंयम अथवा सिद्ध गति प्राप्त करते हैं (२४) । ___विवेचन-सामायिक संयत का सामायिक संयम छोड़ कर छेदोपस्थापनीय संयम स्वीकार करने का कारण यह है कि जब तेईसवें तीर्थकर के तीर्थ से चौबीसवें तीर्थकर के शासन में आते हैं, तब चतुर्याम धर्म से पंचयाम धर्म को स्वीकार करते हैं तथा प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनवर्ती शिष्य को जब महाव्रत मारोपण किये जाते हैं, तब भी सामायिक संयम से छेदोपस्थापनीय संयम प्राप्त करते है अथवा श्रेणी चढ़ते हुए मुनि, For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ रांजा द्वार सामायिक संयम से आगे बढ़ कर सूक्ष्म- संपराय संयम प्राप्त करते हैं अथवा संयम परिणामों के गिर जाने से संयमासंयम या असंयम प्राप्त करते हैं और काल कर के देव बनते हैं, तो भी असंयम प्राप्त करते हैं । ३४७६ छेदोपस्थापनीय संयत अपना संयम छोड़ते हुए सामायिक संयम स्वीकार करते हैं। जैसे कि प्रथम तीर्थंकर के शासनवर्ती साधु, दूसरे तीर्थंकर के शासन को स्वीकार करते समय छेदोपस्थापनीय संयम छोड़ कर सामायिक संयम प्राप्त करते हैं अथवा छेदोपस्थापनीय संयम छोड़ते हुए साधु, परिहारविशुद्धिक संयम स्वीकार करते हैं, क्योंकि छेदोपस्थापनीय संयत ही परिहारविशुद्धिक संयम स्वीकार करने के योग्य होते हैं इत्यादि । परिहारविशुद्धिक संयत, परिहारविशुद्धिक संयम छोड़ कर पुनः गच्छ में आने के कारण छेदोपस्थापनीय संयम स्वीकार करते हैं अथवा उस अवस्था में कालधर्मं कों प्राप्त हो जायें, तो देवों में उत्पन्न होते हैं । अतएव असंयम को प्राप्त करते हैं । सूक्ष्म- संपराय संयत, श्रेणी से गिरते हुए सूक्ष्म संपराय संयम छोड़ कर, यदि वे पहले सामायिक संयत हो, तो सामायिक संयम प्राप्त करते हैं और यदि वे पहले छेदोपस्थापनीय संयत हो, तो छेदोपस्थापनीय संयम प्राप्त करते हैं । यदि श्रेणी ऊपर चढ़े, तो यथाख्यात संयम प्राप्त करते हैं और यदि काल करे, तो असंयम को प्राप्त होते हैं । उपशम-श्रेणी करने वाले यथाख्यात संयत, श्रेणी से गिरने पर यथाख्यात संयम त्यागते हुए सूक्ष्म- संपराय संयम प्राप्त करते हैं और उस समय मरण हो जाय, तो देवों में उत्पन्न होने के कारण असंयम प्राप्त करते हैं, यदि स्नातक हों, तो सिद्धिगति प्राप्त करते हैं । संज्ञा द्वार ६७ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते! किं सण्णोवउत्ते होज्जा. सणवत्ते होना ? ६७ उत्तर - गोयमा शुण्णोवउत्ते - जहा बउसो । एवं जाव परि हारविसुद्धिए । सुहुमसंपराए अहम्खाए य जहा पुलाए (२५) । For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ भव द्वार ३४७७ ___ कठिन शब्दार्थ--सण्णोव उत्त-- गंज्ञा के उपयोग से युक्त होना। आहारादि में आसक्त-अनुरक्त होना । ___ भावार्थ-६७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, संज्ञोपयुक्त (आहारादि संज्ञा में आसक्त) होते हैं या नोसंज्ञोपयुक्त ? ६७ उत्तर-हे गौतम ! वे संज्ञोपयुक्त होते हैं इत्यादि बकुश के समान । इसी प्रकार यावत् परिहार विशुद्धिक संयत पर्यन्त । सूक्ष्म-संपराय संयत और यथाख्यात संयत को, पुलाक के समान जानना चाहिये (२५) । ६८ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं आहारए होजा, अणा. हारए होज्जा ? ____६८ उत्तर-जहा पुलाए । एवं जाव सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए (२६)। भावार्थ-६८ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, आहारक होते हैं या अनाहारक ? ६८ उत्तर-हे गौतम ! पुलाक के समान यावत् सूक्ष्म-संपराय पर्यन्त । यथाख्यात संयत, स्नातक के समान हैं (२६) । भव द्वार ६९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कइ भवग्गहणाई होजा ? ६९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं, उक्कोसेणं अट्ठ । एवं छेओवट्ठावणिए वि। . भावार्थ-६९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत कितने भव ग्रहण करते हैं अर्थात कितने भवों में सामायिक संयम आता है ? ... For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आकर्ष द्वार ६९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयम भी।। ७० प्रश्न-परिहारविसुद्धिए-पुच्छा । ७० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं, उक्कोसेणं तिण्णि । एवं जाव अहक्खाए (२७)। ... भावार्थ-७० प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत कितने भव प्रहण करते हैं ? ____७० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत पर्यन्त (२७) । आकर्ष द्वार ७१ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णता ? ७१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं-जहा बउसस्स । भावार्थ-७१ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के एक भव में आकर्ष (चारित्र प्राप्ति) कितने होते हैं ? ७१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं इत्यादि बकुश के समान । ७२ प्रश्न-छेओवट्ठावणियस्स-पुच्छा। ७२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एको, उक्कोसेणं वीसपहत्तं । For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ आकर्ष द्वार भावार्थ - ७२ प्रश्न - हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत के एक भव में कितने आकर्ष कहे हैं ? ७२ उत्तर - हे गौत्तम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट बीस पृथक्त्व ( दो बीसी से छह बीसी तक) होते हैं । ७३ प्रश्न - परिहारविमुद्धियम्स - पुच्छा । ७३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्को, उक्कोसेणं तिण्णि । भावार्थ - ७३ प्रश्न - हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयत के एक भव में कितने ० ? ७३ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष कहे हैं । ३४७९ आकर्ष ० ? ७४ प्रश्न - मुहममपरायस्स - पुच्छा । ७४ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि । भावार्थ- ७४ प्रश्न हे भगवन् ! सूक्ष्म-संपराय के एक भव में कितने ७४ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक और उत्कृष्ट चार आकर्ष कहे हैं । ७५ प्रश्न - अहक्खायस्स - पुच्छा । ७५ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एको, उक्कोसेणं दोणि । भावार्थ - ७५ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत के एक भव में कितने ० ? ७५ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट वो आकर्ष कहे है । ७६ प्रश्न - सामाइयसंजयस्स णं भंते ! णाणाभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आकर्ग द्वार ७६ उत्तर-गोयमा ! जहा बउसे। . भावार्थ-७६ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के अनेक भवों । कितने आकर्ष कहे हैं ? ७६ उत्तर-हे गौतम ! बकुश के अनुसार । ७७ प्रश्न-छे ओवट्टावणियस्स-पुन्छा। ७७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं उवरि णवण्हं सयाणं अंतो सहस्सम्म । परिहारविसुवियस्स जहण्णेणं दोण्णि, उकोसेणं सत्त । सुहमसंपरायस्स जहणेणं दोगिण, उक्कोसेणं णव । अहक्खायस्स जहण्णेणं दोषिण, उक्कोसेणं पंच । कठिन शब्दार्थ--उरि-ऊपर । भावार्थ-७७ प्रश्न-हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत के अनेक भवों में.? ७७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दो तथा उत्कष्ट नौ सौ से ऊपर और एक हजार से नीचे आकर्ष कहे हैं । परिहारविशुद्धिक संयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट सात, सूक्ष्म-संपराय संयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट नौ तथा यथाख्यात संयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच आकर्ष कहे हैं (२८) । . विवेचन-छेदोपस्थापनीय संयत उत्कृष्ट आकर्ष छह बीसी (एक सौ बीस) होते हैं । अतः बीस पथक्त्व कहे हैं। परिहारविशुद्धिक संयम एक भव में उत्कृष्ट तीन बार प्राप्त हो सकता है । सूक्ष्म-संपराय संयत के एक भव में दो बार उपशम-श्रेणी का सम्भव हाने से और प्रत्येक श्रेणी में संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान-ये दो प्रकार के मूक्ष्म-संपराय होने से उत्कष्ट चार बार सूक्ष्म-संपरायपन की प्राप्ति होती है । यथाख्यात संयत के दो बार उपशम-श्रेणी का सम्भव होने से दो आकर्ष (चारित्र प्राप्त होते हैं। छेदोपस्थापनीय संयत के अनेक भव में नौ सो से ऊपर और एक हजार से कम आकर्ष कहे हैं। इसकी संगति इस प्रकार है ;-मान लिया जाय कि एक भव में छह बीसी आकर्ष होते हैं। उनको आठ भवों के साथ गुणित करने पर ५६० होते हैं । सम्भावना मात्र को For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ ७ स्थिति द्वार अपेक्षा से यह संख्या विशेष बताई गई है। इसके अतिरिक्त दूसरी रीति से भी जिस मे नौ सौ से अधिक संख्या आ जाय, घटित करना चाहिये । परिहारविशुद्धिक संयत के एक भव में उत्कृष्ट तीन बार परिहारविशुद्धि चारित्र की प्राप्ति होती है और यह चारित्र तीन भव तक प्राप्त हो सकता है। इसलिये एक भव में तीन बार दूसरे भव में दो बार और तीसरे भव में दो बार इत्यादि विकल्प से उसके अनेक भवों में सात आकर्ष होते हैं । सूक्ष्म संगराय संगत के एक भव में चार आकर्ष होते हैं और इसकी प्राप्ति तीन भत्र तक हो सकती है। इसलिये उसके एक भत्र में चार बार, दूसरे भव में चार बार और तीसरे भव में एक बार, इस प्रकार अनेक भवों में नो आकर्ष होते हैं । यथाख्यात संयत के एक भव में दो आकर्ष, दूसरे भव में दो आकर्ष और तीसरे भव में एक आकर्ष, इस प्रकार तीन भत्रों में पाँच आकर्ष होते हैं । स्थिति द्वार ७८ प्रश्न - सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवचिरं होड ? ७८ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं एवकं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहिं वहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी । एवं छेओवावणिए वि । परिहारविमुद्धिए जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं गुणतीसार वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी | सुहुमसंपराए जहा णियंठे । अहम्खाए जहा सामाइयसंजए । ३४८१ भावार्थ- ७८ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत कितने काल तक होते अर्थात् उनकी स्थिति कितनी है ? ७८ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी । परिहारविशुद्धिक संपत जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन उनतीस वर्ष कम For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ स्थिति द्वार पूर्वकोटि वर्ष तक होते हैं । सूक्ष्म-संपराय का काल निग्रंथ के समान और यथाख्यात संयत का सामायिक संयत के समान है। ७९ प्रश्न-सामाइयसंजया णं भंते ! कालओ केवचिरं होति ? ७९ उत्तर-गोयमा ! सध्वद्धं । भावार्थ-७९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत (बहुत) कितने काल तक होते हैं ? ७९ उत्तर-हे गौतम ! वे सर्वाद्धा (सभी काल) होते हैं। ८० प्रश्न-छेओवट्ठावणिएसु-पुच्छा। ८० उत्तर-गोयमा ! जहणणेणं अड्ढाइन्जाई वासप्तयाई, उको. सेणं पण्णासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई । कठिन शब्दार्थ-पण्णासं-पचास । भावार्थ-८० प्रश्न-हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत (बहुत) कितने काल तक होते हैं ? ८० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य ढाई सौ वर्ष और उत्कृष्ट पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होते हैं। ---- ८१ प्रश्न-परिहारविसुद्धिएसु-पुच्छा। ८१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं देसूणाई दो वाससयाई उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुव्वकोडीओ। ... भावार्थ-८१ प्रश्न-हे भगवन ! परिहारविशुद्धिक संयत (बहुत) कितने काल तक होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-२२५ उ. ७ स्थिति द्वार ३४८३ ८१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य देशोन दो सौ वर्ष, उत्कृष्ट देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष तक होते हैं। ८२ प्रश्न-सुहुमसंपरायसंजया णं भंते !-पुच्छा। ८२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं अंतो. मुहुत्तं । अहक्खायमंजया जहा सामाइयमंजया (२९)। भावार्थ-८२ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म-संपराय संयत (बहुत) कितने काल.' तक होते हैं ? ८२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कष्ट अन्तर्मुहूर्त तक । यथाख्यात संयतों का कथन सामायिक संयतों के समान है (२९)। विवेचन -सामायिक चारित्र प्राप्ति के बाद तुरन्त ही उसकी मृत्यु हो जाय, उस अपेक्षा से सामायिक संयत का काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष होता है । यह काल गर्भ के समय से गिनना चाहिये। ___परिहारविशुद्धिक संयत का जघन्य काल एक समय मरण की अपेक्षा है और उत्कृष्ट देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है, क्योंकि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले किसी मनुष्य ने देशोन नौ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की और बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय होने पर वह परिहारविशुद्धिक चारित्र को स्वीकार कर सकता है । यद्यपि परिहारविशुद्धिक चारित्र का काल परिमाण अठारह मास का है, तथापि उन्हीं अविच्छिन्न परिणामों से वह उसे जीवनपर्यन्त पाले, तो देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त रहता है। ... यथाख्यात संयत का काल परिमाण उपशम अवस्था में मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और स्नातक अवस्था वाले यथाख्यात संयंत की अपेक्षा देशोन पूर्वकोटि वर्ष है। .... उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है और उनका तीर्थ (शासन) ढाई सौ वर्ष चलता है । इसलिये छेदोपस्थापनीय संयतों का काल जघन्य ढ़ाई सौ वर्ष होता है । अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है और उनका तीर्थ पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होता है। इसलिये उत्कृष्ट इतने काल तक छेदोपस्थापनीय संयत होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ अन्तर काल द्वार परिहारविशुद्धिक गंयतों का काल जघन्य देशोन (५८ वर्ष कम ) दो सौ वर्ष होता है । जैसे कि उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के समीप सौ वर्ष की आयु वाले कोई मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे और उनके जीवन के अन्त में उसके पास मो वर्ष की आयु वाले दूसरे कोई मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे । किंतु उनके पास फिर कोई तासरे मुनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार नहीं करते। इस प्रकार दो सौ वर्ष होते हैं । परन्तु परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वाला उनतीस वर्ष की आयु हो जाने पर ही यह चारित्र अंगीकार कर सकता है । इस प्रकार दो व्यक्तियों के अठावन वर्ष कम हो जाने पर अठावन वर्ष कम दो सौ वर्ष अर्थात् एक सौ बयालीस वर्ष जघन्य काल होता है। इस प्रकार टीकाकार ने व्याख्या की है और चूर्णिकार ने भी इसी प्रकार व्याख्या की है, किन्तु वह अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थकर की अपेक्षा से की है । दोनों व्याख्याओं की संगति एक ही प्रकार से बताई है किन्तु परिहारविशुद्धिक चारित्र वाला चौथे आरे का जन्मा हुआ होने से दूसरे पाठ (प्रथम परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वालों के पास में उनके जीवन के अन्त में परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करने वाला) की आयु एक सौ आठ वर्ष या इससे अधिक हो जाती है। उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष होता है। जैसे कि-अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के समीप पूर्वकोटि वर्ष की आय वाले मनि परिहारविशुद्धिक चारित्र अंगीकार करे और उनके जीवन के अन्त में उनके पास उतनी ही आयु वाले दूसरे मुनि यही चारित्र अंगीकार करे । इस प्रकार दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं। उनमें से उन दोनों मुनियों की उनतीस-उनतीस वर्ष की आयु कम करने पर देशोन (५८ वर्ष कम) दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं । ... अन्तर काल द्वार ८३ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? -- ८३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं जहा पुलागस्स । एवं जाव अहक्खायसंजयस्स । भावार्थ-८३ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत का अन्तर कितने काल का होता है ? For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श २५ उ ७ अन्तर काल द्वार ८३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त इत्यादि पुलाक के समान । इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत पर्यन्त । ८४ प्रश्न-सामाइयसंजयाणं भंते !-पुन्छा । ८४ उत्तर-गोयमा ! णत्थि अंतरं । भावार्थ-८४ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयतों का अंतर कितने काल का ? __८४ उत्तर-हे गौतम ! अन्तर नहीं होता। . . ८५ प्रश्न-छेओवट्ठावणिय-पुच्छा । ८५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं तेवहिँ वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। ___ भावार्थ-८५ प्रश्न-हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयतों का अन्तर०? ८५ उत्सर-हे गौतम ! जघन्य तिरसठ हजार वर्ष और उत्कृष्ट (कुछ को अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम । ... ८६ प्रश्न-परिहारविसुद्धियस्स-पुच्छा। ८६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं चउरासीई वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। सुहुमसंपरायाणं जहा णियंठाणं । अहा वायाणं जहा सामाइयसंजयाणं (३०)। भावार्थ-८६ प्रश्न-हे भगवन् ! परिहारविशुद्धिक संयतों का अन्तर०? ८६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य चौरासी हजार वर्ष उत्कृष्ट (कुछ कम) अठारह कोडाकोड़ी सागरोपम का है । सूक्ष्म सम्पराय संयतों का अन्तर निग्रंथों के समान और यथाख्यात संयतों का सामायिक संयतों के समान हैं (३०)। For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८६ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ समुद्रात द्वार विवेचन-अन्तर द्वार में छेदोपस्थापनीय का जो अन्तर बताया है, वह इस प्रकार समझना चाहिये-अवसर्पिणी काल के दुषमा नामक पाँचवें आरे तक छेदोपस्थापनीय चारित्र रहता है । उसके बाद दुपमदुषमा नामक छठे आरे में-जो इक्कीस हजार वर्ष का होता है और उत्सपिणी काल के इक्कीस हजार वर्ष परिमाण पहले आरे में तथा इक्कीस हजार वर्ष परिमाण दूसरे आरे में, छेदोपस्थापनीय चारित्र का अभाव होता है । इस प्रकार तिरसठ हजार वर्ष परिमाण छेदोपस्थापनीय संयतों का जघन्य अन्तर होता है और उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम का होता है । वह इस प्रकार है-उत्सर्पिणी काल के चौबीसवें तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। उसके बाद दो कोटाकोटि प्रमाण चौथे आरे में, तीन काटाकोटि प्रमाण पाँचवें आरे में और चार कोटाकोटि प्रमाण छठे आरे में तथा इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के चार कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण पहले आरे में, तीन कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण दूसरे आरे में और दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण तीसरे आरे में छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता । परन्तु उसके बाद में अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के पिछले भाग में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। इस प्रकार छेदोपस्थापनीय संयतों का उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम होता है । इसमें थोड़ा काल कम रहता है और जघन्य अंतर में थोड़ा काल बढ़ता है, परंतु वह अल्प होने से उसकी विवक्षा यहां नहीं की है। अवसर्पिणी काल का पांचवां और छठा आरा तथा उत्सर्पिणी काल का पहला और दूसरा आरा ये प्रत्येक आरे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के होते हैं। इन चारों आरों में परिहारविशुद्धि चारित्र नहीं होता। इसलिये चौरासी हजार वर्ष परिहारविशुद्धिक संयतों का जघन्य अन्तर है । यहाँ अन्तिम तीर्थंकर के पश्चात् पाँचवें आरे में परिहारविशुद्धि चारित्र का काल कुछ अधिक और उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार करने से पहले का काल अल्प होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है। परिहारविशुद्धि चारित्र का उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम का होता है। उसकी संगति छेदोपस्थापनीय चारित्र के समान जाननी चाहिये । समुद्घात द्वार .८७ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! कह समुग्घाया पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ लोक स्पर्ग द्वार ३४८७ ८७ उत्तर-गोयमा ! छ समुग्घाया पण्णत्ता-जहा कसायकुसी. लस्म । एवं छे ओवट्ठावणियस वि। परिहारविमुद्धियस्स जहा पुलागस्स। 'सुहमसंपरायस्स जहा णियंठस्स । अहक्खायस्स जहा सिणायस्स (३१)। भावार्थ-८७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के समुद्घात कितने कहे हैं ? ८७ उत्तर-हे गौतम ! कषाय-कुशील के समान छह समुद्घात कहे हैं। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत भी। परिहारविशुद्धिक संयत पुलाक के समान है । सूक्ष्म-संपराय संयत निग्रंथ के समान है और यथाख्यात संयत के समुद्घात स्नातक जैसे हैं (३१) । - लोक स्पर्श द्वार ८८ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं संखेजहभागे होजा, असंखेजहभागे-पुच्छा। ... ८८ उत्तर-गोयमा ! णो सखेजइ-जहा पुलाए । एवं जाव सुहुमसंपराए । अहक्खायसंजए जहा सिणाए (३२) । भावार्थ-८८ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, लोक के संख्यातवें भाग में होते हैं या असंख्यातवें भाग में ? " ८८ उत्तर-हे गौतम ! लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होते इत्यादि पुलाक के समान । इसी प्रकार यावत् सूक्ष्म-संपराय संयत तक । यथाख्यात संयत का कथन स्नातक के समान है (३२)। .. .८९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं संखेजहभागं फुसइ० ? For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८८ भगवती सूत्र-ग. २५ उ. ४ भाद द्वार ८९ उत्तर-जहेच होजा तहेव फुसह (३३) । कठिन शब्दार्थ--फुसइ--स्पर्श करता है । .. भावार्थ-८९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत लोक के संख्यातवें भाग को स्पर्श करते हैं. ? ८९ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार क्षेत्र अवगाहना कही है, उसी प्रकार क्षेत्र-स्पर्शना भी जाननी चाहिये (३३) । भाव द्वार ९० प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! कयरंमि भावे होजा ? ९० उत्तर-गोयमा ! खओवसमिए भावे होजा । एवं जाव सुहुमसंपराए। भावार्थ-९० प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत कौन-से भाव में होते हैं ? ९. उत्तर-हे गौतम ! क्षायोपशमिक भाव में होते हैं । इसी प्रकार यावत् सूक्ष्म-संयत पर्यन्त । ९१ प्रश्न-अहक्खायसंजए-पुच्छा। ९१ उत्तर-गोयमा ! उपसमिए वा खहए वा भावे होजा (३४)। भावार्थ-९१ प्रश्न-हे भगवन ! यथाख्यात संयत किस भाव में होते हैं ? ९१ उत्तर-हे गौतम ! औपशमिक या क्षायिक भाव में होते हैं (३४)। ‘विवेचन--क्षेत्र द्वार, स्पर्शना द्वार और भाव द्वार के लिये पुलाक आदि का अतिदेश किया है । जिनका वर्णन उ. ६ में किया जा चुका है। For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाण द्वार ९२ प्रश्न - सामाइयसंजया णं भंते ! एगसमपणं केवइया होना ? ९२ उत्तर - गोयमा ! पडिवजमाणए य पडुच्च जहा कमायकुसीला तहेव णिरवसेसं । भावार्थ - ९२ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयंत एक समय में कितने होते हैं ? ९२ उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान सामायिक संयत आदि का परिमाण कषाय- कुशील के समान है । ९३ प्रश्न - ओवावणिया - पुच्छा । ९३ उत्तर - गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि मिय णत्थि । जड़ अत्थि जहणेणं एको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं यहुतं । पुव्वपविण पडुच्च सिय अस्थि सिय णत्थि, जइ अस्थि जहणेणं कोडिसयपुहुत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहुत्तं । परिहारविसुद्धिया जहा पुलाया । सुहुमसंपराया जहा नियंठा । भावार्थ - ९३ प्रश्न - हे भगवन् ! छेदोपस्थापनीय संयत एक समय में कितने ० ? ९३ उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य कोटिशतपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी कोटिशतपृथक्त्व । परिहारविशुद्धिक संयतों का परिमाण पुलाक के समान और सूक्ष्म संपराय संयतों की संख्या निर्ग्रन्थों के समान है । ९४ प्रश्न - अहक्खायसंजया णं- पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ अल्प बहुत्व द्वार ९४ उत्तर - गोयमा ! पडिवज़माणए पडुच्च सिय अस्थि सिय णत्थि । जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसे बावस अत्तरस्यं खवगाणं, चउप्पर्ण उवसामगाणं । पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिपुहुत्त, उक्कोसेण वि को डिपुहुत्तं । भावार्थ - ९४ प्रश्न - हे भगवन् ! यथाख्यात संयत एक समय में कितने होते हैं ? ९४ उत्तर - हे गौतम! प्रतिपद्यमान कदाचित् होते हैं और नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट १६२ होते हैं । जिनमें १०८ क्षपक और ५४ उपशमक होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं ( ३४ ) । विवेचन - परिमाण द्वार में छेदोपस्थापनीय संयतों का जो उत्कृष्ट परिमाण बताया है, वह प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ की अपेक्षा सम्भवित होता है, किन्तु जघन्य परिमाण बराबर समझ में नहीं आता, क्योंकि पाँचवें आरे के अन्त में भरतादि दस क्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र में दो-दो संयत होने से जघन्य बीस छेदोपस्थापनीय संयत होते हैं। कोई आचार्य तो इस प्रकार कहते हैं कि जघन्य परिमाण भी प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ की अपेक्षा समझना चाहिये- ऐसा टीकाकारों का अभिप्राय है । इसमें जो जघन्य परिमाण में कोटिशतपृथक्त्व बताया है, उसका परिमाण अल्प है और उत्कृष्ट में जो कोटिशतपृथक्त्व बताया है, उसका परिमाण अधिक समझना चाहिये । ३४९० प्रतिपद्यमान यथाख्यात संयत एक समय में उत्कृष्ट १६२ होते हैं । इनमें १०८ क्षपक होते हैं । क्षपक श्रेणी वाले सभी मोक्ष जाते हैं एक समय में १०८ से अधिक मोक्ष नहीं जा सकते । अतः एक समय में क्षपक यथाख्यात संयतों की उत्कृष्ट संख्या १०८ ही होती है । उसी समय उपशमक यथाख्यात संयतों की संख्या ५४ ही होती है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है । इस प्रकार एक समय में यथाख्यात संयतों की उत्कृष्ट संख्या १६२ घटित होती है । अल्प- बहुत्व द्वार ९५ प्रश्न - एएसि णं भंते ! सामाइय छेओवट्टावणिय परिहार For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. २५ उ. ७ अल्प बहुत्व द्वार विमुद्धिय सुहमसंपराय अहक्खायसंजयाणं कयरे कपरे जाव विसेसाहिया वा ? ९५ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहृमसंपरायसंजया, परिहारविशुद्धियसंजया संखेज्जगुणा, अहक्खायसं जया संखेज्जगुणा, छेओवट्टावणियसंजया संखेजगुणा, मामाइयसंजया संखेज्जगुणा ( ३६ ) | भावार्थ - ९५ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्म संपराय संयत और यथाख्यास संयतों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ९५ उत्तर - हे गौतम ! सूक्ष्म संपराय संपत सब से थोड़े हैं, उनसे परिहारविशुद्धिक संयत संख्यात गुण हैं, उनसे यथाख्यात संयत संख्यात गुण हैं, उनसे छेदोपस्थापनीय संयत संख्यात गुण हैं और उनसे सामायिक संयत संख्यात गुण है (३६) । विवेचन - अल्प- बहुत्व द्वार सब से अल्प सूक्ष्म - सम्पराय संयत कहे हैं, क्योंकि उनका काल अल्प है और वे निर्ग्रथ के तुल्य होने से एक समय में शतपृथक्त्व होते हैं, उनसे परिहारविशुद्धिक संयत संख्यात गुण होते हैं, क्योंकि उनका काल सूक्ष्म- सम्पराय संयतों से अधिक है और वे पुलाक के समान सहस्रपृथक्त्व होते हैं, उनसे यथाख्यात संयत संख्यात गुण होते हैं, उनका परिमाण कोटिपृथक्त्व होता है, उनसे छेदोपस्थापनीय संयत संख्यात गुण होते हैं, उनका परिमाण कोटिशतपृथक्त्व होता है, उनसे सामायिक संयत संख्यात गुण होते हैं, उनका परिमाण कषाय - कुशील के समान कोटिसहस्रपृथक्त्व होता है । ९६ - डिसेवण दोसाssलोयणा य आलोयणारिहे चेव । तत्तो सामायारी पायच्छित्ते तवे चैव । ९६ भावार्थ - १ प्रतिसेवना २ आलोचना के दोष ३ दोषों की आलोचना ४ आलोचना देने योग्य गुरु ५ समाचारी ६ प्रायश्चित्त और ७ तप, इन सात विषयों का वर्णन अब आगे किया जायगा । ३४९१ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना ९७ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! पडिसेवणा पण्णत्ता ? ९७ उत्तर-गोयमा ! दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता, तं जहा दप्पपमादऽणाभोगे आउरे आवतीति य । संकिण्णे सहसकारे भयप्पओसा य वीमंसा । कठिन शब्दार्थ-वीमंसा-विमर्श-विचार-परीक्षा । भावार्थ-९७ प्रश्न-हे भगवन ! प्रतिसेवना कितने प्रकार की कही है ? ९७ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसेवना दस प्रकार की कही है। यथा१ दर्प प्रतिसेवना, २ प्रमाद प्रतिसेवना, ३ अनाभोग प्रतिसेवना, ४ आतुर प्रतिसेवना, ५ आपत् प्रतिसेवना, ६ संकीर्ण प्रतिसेवना, ७ सहसाकार प्रतिसेवना. ८ भय प्रतिसेवना, ९ प्रद्वेष प्रतिसेवना.और १० विमर्श प्रतिसेवना। विवेचन-पाप या दोगों के सेवन से होने वाली मंयम की विराधना को 'प्रतिसेवना' कहते हैं । इसके दस भेद हैं--- १ दर्प प्रतिसेवना--अहकार (अभिमान) में होने वाली मंयम की विराधना । २ प्रमाद प्रतिसेवना--मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा, इन प्रमादों के सेवन से होने वाली संयम की विराधना । ३ अनाभोग प्रतिसेवना--अनजान से होने वाली संयम की विराधना । ४ आतुर प्रतिसेवना--भूख, प्यास, आदि किमी पीड़ा से व्याकुल होने पर की गई संयम की विराधना। ५ आपत् प्रतिसेवना--किसी आपत्ति के आने पर संयम की विराधना करना । आपत्ति चार प्रकार की होती है । यथा--द्रव्य आपत्ति--प्रासुक आदि निर्दोष आहारादि नहीं मिलना। क्षेत्र आपत्ति-~मार्ग भूल जाने आदि से अटवी आदि भयानक बन में भटक जाना। काल आपत्ति--भिक्ष आदि में। भाव आपत्ति--रोगातंक से शरीर का अस्वस्थ हो जाना। ६ संकीर्ण प्रतिसेवना--स्वपक्ष और परपक्ष से होने वाली स्थान की तंगी के कारण संयम का उल्लंघन करना अर्थात् छोटे क्षेत्रों में साधु-साध्वी और भिक्षाचरों का अधिक इकट्ठा हो जाने से संयम में दोष लगाना अथवा शंकित प्रतिसेवना--ग्रहण योग्य आहार में भी किसी दोष की शंका हो जाने पर उसको लेना । अथवा आहारादि के न मिलने पर For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के दोष ३४९३ खेद पूर्वक वचन बोलना। ७ सहसाकार प्रतिगेवना-अकस्मात् अर्थात् पहले से बिना समझे-बूझे और बिना प्रतिलेखना किये किसी काम को करना । अर्थात् पहले बिना देखे पैर आदि रग्वना और पीछे देखना। ८ भय प्रतिगेवना-सिंह आदि के भय मे संयम की विराधना करना। ९ प्रद्वेष प्रतिसेवना-किसी के ऊपर द्वेष या ईर्पा से संयम की विराधना करना । यहां प्रद्वेष से चारों कषाय लिये जाते है । १० विमर्श प्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिये की गई मंयम की विराधना। इन दस कारणों मे मंयम की विराधना की जाती है या हो जाती है। · आलोचना के दोष ९८ दस आलोयणादोसा, पण्णत्ता, तं जहाआकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा । छणं सदाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी । . भावार्थ-९८-आलोचना के दस दोष कहे हैं । यथा-१ आकम्प्य २ अनुमान्य ३ दृष्ट ४ बादर ५ सूक्ष्म ६ छन्न-प्रछन्न ७ शब्दाकुल ८ बहुजन ९ अव्यक्त और १० तत्सेवो । .. विवेचन-जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन कर के उसके लिये उचित प्रायश्चित्त लेना-'आलोचना' है । आलोचना का शब्दार्थ है-अपने दोषों को भली प्रकार देखना । आलोचना के दस दोष हैं। इन्हें छोड़ते हुए शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिये । वे दोष इस प्रकार हैं . १ आकंपयित्ता (आकम्प्य)-'प्रसन्न होने पर गुरु महाराज मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे'-ऐसा सोच कर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न कर के फिर उनके समक्ष दोषों की आलोचना करना। For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के योग्य २ अणुमाणइत्ता (अनुभान्य)-'बिलकुल छोटा अपराध बताने में गुरु महाराज मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे'-ऐसा अनुमान कर के अपने अपराध को बहुत छोटा कर के बताना। ३ दिट्ट (दृष्ट )-जिस अपराध को गुरु महाराज आदि ने देख लिया हो, उसी को आलोचना करना । ४ बायरं (बादर)-केवल बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करना और छोटे अपराधों की उपेक्षा कर उनकी आलोचना नहीं करना। ५ सुहुम (सूक्ष्म)-'जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की भी आलोचना कर लेता है, वह बड़े अपराधों को कैसे छोड़ सकता है'-ऐसा विश्वास उत्पन्न कराने के लिये केवल छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना । ६ छण्णं (छन्न-प्रछन्न)-अधिक लज्जा के कारण अव्यक्त शब्द बोलते हुए इस प्रकार आलोचना करना कि जिनके समीप आलोचना की जाय वह न सुन सके । ७ सद्दाउलयं (शब्दाकुल)-दूसरे अंगीतार्थों को सुनाने के लिये ऊँचे स्वर से बोलकर आलोचना करना । ८ बहुजणं (बहुजन)-एक ही अतिचार की बहुत-से साधुओं के समीप आलोचना करना। __९ अन्वत्त (अव्यक्त)-अगीतार्थ अर्थात् जिस साधु को पूरा ज्ञान नहीं है कि किस भतिचार का कैसा प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसके समक्ष आलोचना करना। ' १० तस्सेवी (तत्सेवी)-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना । ये आलोचना के दस दोष हैं । इन्हें टाल कर शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिये। आलोचना के योग्य ९९-दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहइ अत्तदोसं आलो. इत्तए, तंजहा-जाइसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के योग्य ३४९५ दंसणसंपण्णे चरित्तसंपण्णे, खते, दंते, अमायी, अपच्छाणुतावी । ... . भावार्थ-९९-दस गुणों से युक्त अनगार आलोचना करने के योग्य होते हैं । यथा-१ जाति सम्पन्न २ कुल सम्पन्न ३ विनय सम्पन्न ४ ज्ञान सम्पन्न ५ दर्शन सम्पन्न ६ चारित्र सम्पन्न ७ क्षान्त (क्षमावाला) ८ दान्त ९ अमायो और १० अपश्चात्तापी। विवेचन-दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होते हैं । वे गुण इस प्रकार हैं १ जाति सम्पन्न--मातृ पक्ष को 'जाति' कहते हैं । उत्तम जाति वाला बरा काम नहीं करता । यदि कभी उससे भूल हो जाती है, तो शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है। २ कुल सम्पन्न-पितृवंश को 'कुल' कहते हैं । उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति स्वीकार किये हुए प्रायश्चित्त को भली प्रकार से पूरा करता है। ३ विनय सम्पन्न--विनयवान् साधु, बड़ों की बात मान कर शुद्ध हृदय से आलोचना करता है। ४ ज्ञान सम्पन्न--ज्ञानवान् माध 'मोक्ष मार्ग की आराधना के लिये क्या करना चाहिये और क्या नहीं'--इमे भली प्रकार समझ कर आलोचना करता है। ५ दर्शन सम्पन्न--श्रद्धालु । भगवान् के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण वह शास्त्रों में बताई हुई, प्रायश्चित्त से होने वाली शद्धि को मानता है और आलोचना करता है। ... ६ चारित्र सम्पन्न--उत्तम चारित्र वाला । अपने चारित्र को शुद्ध रखने के लिये, दोषों की आलोचना करता है। - ७क्षान्त--क्षमावाला । किसी दोष के कारण गुरु से उपालम्भ आदि मिलने पर, वह क्रोध नहीं करता और अपना दोष स्वीकार कर के आलोचना करता है। ८ दान्त--इन्द्रियों को वश में रखने वाला। इन्द्रियों के विषय में अनासक्त व्यक्ति कठोर से कठोर प्रायश्चित्त भी शीघ्र स्वीकार करता है। वह पापों की आलोचना भी शुद्ध हृदय से करता हैं। ९ अमायी--कपट रहित । अपने पाप को छिपाये बिना स्वच्छ हृदय से आलोचना करने वाला सरल व्यक्ति। १० अपश्चात्तापो--मालोचना करने के बाद पछतावा नहीं करने वाला। For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना देने योग्य १००-अहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहह आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आहारखं, ववहारवं, उव्वीलए, पकुब्बए, अपरिस्सावी, णिजवए, अवायदंसी। - भावार्थ-१००-आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना देने के योग्य होते हैं। यथा-१ आचारवान २ आधारवान ३ व्यवहारवान् ४ अपव्रीड़क ५ प्रकुर्वक ६ अपरिस्रावी ७ निर्यापक और ८ अपायदर्शी।। विवेचन-आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होते हैं । यथा१ आचारवान्-ज्ञानादि पाँच प्रकार के आचार वाला। २ आधारवान्-बताये हुए अतिचारों को मन में धारण करने वाला। ३ व्यवहारवान्-आगम-व्यवहार, श्रुत-व्यवहार आदि पांच प्रकार के व्यवहार वाला। ४ अपव्रीड़क-लज्जा से अपने दोषों को छिपाने वाले शिष्य को लज्जा, मीठे वचनों से दूर कर के भली प्रकार से आलोचना कराने वाला। ५ प्रकुर्वक-आलोचना किये हुए दोष का प्रायश्चित्त दे कर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ । ६ अपरिस्रावी-आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकट नहीं करने वाला। ७ निर्यापक-अशक्ति या किसी अन्य कारण से एक साथ पूरा प्रायश्चित्त लेने में असमर्थ साधु को थोड़ा-थोड़ा प्रायश्चित्त दे कर निर्वाह कराने वाला । ८ अपायदर्शी-आलोचना नहीं लेने में परलोक का भय तथा दूसरे दोष दिग्वा कर भला प्रकार आलोचना कराने वाला। आलोचना सुनने वाले के यहाँ उपर्युक्त आठ गुण बताये हैं, किन्तु स्थानांग सूत्र में दस गुण भी बताये हैं, जिनमें ५ प्रियधर्मी और १० दृढ़धर्मी-ये दो गुण अधिक है। समाचारी के भेद १०१-दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं जहा For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २९ उ. ७ समाचारी के भेद इच्छा मिच्छा तहक्कारे आवस्मिया य णिमीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणा य णिमंतणा। उवमंपया य काले सामायारी भवे दसहा । १०१ भावार्थ-समाचारी यस प्रकार की कही है । यथा-१ इच्छाकार २ मिथ्याकार ३ तथाकार ४ आवश्यको ५ नषेधिको ६ आपच्छना ७ प्रतिपृच्छना ८ छन्दना ९ निमन्त्रणा और १० उपसम्पदा । विवेचन-साधु का विधिवत् आचरण अथवा मर्यादित भला आचरण 'समाचारी' कहलाता है । इसके दस भेद हैं। यथा १ इच्छाकार-'यदि आपकी इच्छा हो, तो मैं अपना अमुक कार्य करूं' अथवा .'आपकी आज्ञा हो, तो मैं आपका यह कार्य करूँ'- इस प्रकार पूछना 'इच्छाकार' कहलाता है। एक साधु, दूसरे साधु से किसी कार्य के लिये प्रार्थना करे अथवा दूसरा साधु स्वयं वह कायं करे, तो उसमें 'इन्छाकार' कहना आवश्यक है । इससे किसी भी कार्य में किमी की विवशता नहीं रहती। .. २ मिथ्याकार-संयम का पालन करते हुए कोई विपरीत आचरण हो गया हो, तो उस पाप के लिये पश्चात्ताप करता हुआ माधु स्वयं कहता है कि 'मिच्छामिदुक्कडं' अर्थात् 'मेरा पाप निष्फल हो ।' इसे 'मिथ्याकार' समाचारी कहते हैं। . .. ३ तथाकार--सूत्रादि आगम के विषय में गुरु मे कुछ पूछने पर जब गुरु महाराज उत्तर दें, तब तथा जब वे व्याख्यान दें तब-तहत्ति' (आप कहते हैं, वह ठीक है) कहना 'तथाकार' समाचारी है । ४ आवश्यकी-आवश्यक कार्य के लिये उपाश्रय से बाहर निकलते समय साधु को-'आवस्सिया, आवम्मिया' कहना चाहिये अर्थात् 'मैं आवश्यक कार्य के लिये जाता हूँ'-ऐसा कहना 'आवश्यकी' समाचारी है। ५ नषेधिकी-बाहर से लौट कर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया, निसीहिया' कहना अर्थात् जिस कार्य के लिये में बाहर गया था, उस कार्य से निवन हो कर आ गया हूँ।' इस प्रकार उस गत कार्य का निषेध करना 'नषेधिकी' समाचारी है। ६ आपृच्छना-किसी कार्य में प्रवृत्ति करने के पूर्व गुरु महाराज से पूछना कि "हे भगवन् ! मैं वह कार्य करूं ?" यह 'आपृच्छना' समाचारी है । For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९० भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ प्रायश्चित के भेद ७ प्रतिपृच्छना-गुरु महाराज ने पहले जिस कार्य का निषेध किया, उमी कार्य में आवश्यकतानुसार प्रवृत्त होना हो, तो गुरु महाराज से पूछना कि-'हे भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के लिये निषेध किया था, परन्तु यह कार्य करना आवश्यक है । आप अनुज्ञा प्रदान करें, तो करूं?' इस प्रकार पुनः पूछना 'प्रतिपृच्छना' समाचारी है । ८ छन्दना-लाये हुए आहार के लिये दूसरे साधुओं को आमन्त्रण देना । जैसे'यदि आपके उपयोग में आ सके, तो यह आहार ग्रहण कीजिये ।' ९ निमन्त्रणा-आहार लाने के लिये दूसरे साधुओं को निमन्त्रण देना अर्थात् पूछना । जैसे-'क्या आपके लिये आहारादि लाऊँ ?' यह 'निमन्त्रणा' समाचारी है। , . १० उपसम्पद्-ज्ञानादि प्राप्त करने के लिये अपना गच्छ छोड़ कर किसी विशेष ज्ञानी गुरु के समीप रहना-'उपसम्पद्' समाचारी है। इस प्रकार साधु के आचरण करने की यह दस प्रकार की समाचारी है । प्रायश्चित्त के भेद १०२-दसविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवटुप्पारिहे, पारंचियारिहे । १०२ भावार्थ-दस प्रकार का प्रायश्चित्त कहा हैं। यथा-१ आलोचनाह २ प्रतिक्रमणार्ह ३ तदुमयाह ४ विवेकाह ५ व्यत्सर्हि ६ तपाई ७ छेदाई ८ मूलाई ९ अनवस्थाप्याह और १० पारांचिकाह । विवेचन-अतिचारों की विशुद्धि के लिये आलोचना करना और गुरु के कथनानसार तपस्यादि करना 'प्रायश्चित्त' है । इसके दस भेद हैं । यथा १ आलोचनाह-संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट करना 'आलोचना' है । जो दोष आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय, उमे 'आलोचनाह' या 'आलोचना प्रायश्चित्त' कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. २५ उ ७ प्रायश्चित्त के भेद , २ प्रतिक्रमणा - प्रतिक्रमण के योग्य । पाप से पीछे हटने एवं किये हुए पाप की निष्फलता के लिये 'मिच्छामिदुक्कडं कहना एवं भविष्य में वंसा पाप नहीं करने का संकल्प करना । जो प्रायश्चित केवल प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाय और गुरु के समक्ष आलोना करने की भी आवश्यकता न पड़े, उसे 'प्रतिक्रमणार्ह' कहते हैं । ३ तदुभयार्ह आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य। जो प्रायश्चित दोनों से शुद्ध हो, उसे 'तदुभया' या 'मिश्र' प्रायश्वित्त कहते हैं । ३४९९ ४ विवेकाई - अशुद्ध भक्तादि को छोड़ना। जो प्रायश्चित्त आधाकर्मादि आहार विवेक अर्थात् त्याग करने मे शुद्ध हो जाय, उसे 'विवेकाह' प्रायश्चित्त कहते हैं । ५ व्युत्सर्गार्ह - कायोत्सर्ग के योग्य । शरीर की चेष्टा को रोक कर ध्येय वस्तु में उपयोग लगाने से जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि होती है, उसे 'व्युत्सर्गार्ह' प्रायश्चित्त कहते है । ६ तपाईं - जिस दोष की शुद्धि तप से हो, उसे 'तपाई' प्रायश्चित्त कहते हैं । ७ छेदाहं - दीक्षा- पर्याय छेद के योग्य । जो अपराध दीक्षा-पर्याय का छेद करने पर शुद्ध हो, उसे 'छेदाहं' कहते हैं । ८ मूलाई - मूल अर्थात् पुनः दीक्षा लेने से शुद्ध होने योग्य । ऐसा दोष जिसके सेवन करने पर साधु को एक बार लिया हुआ संयम छोड़ कर दूसरी बार दीक्षा लेनी पड़े। छेदाहं प्रायश्चित्त में चार महीने, छह महीने या कुछ समय की दीक्षा कम कर दी जाती है । ऐसा होने पर वह दोषी साधु, उन सभी साधुओं को वन्दना करता है. जिनसे पहले 1 दीक्षित होने पर भी, दीक्षा-पर्याय कम कर देने से वह छोटा हो गया है। जितनी दीक्षा पर्याय का छेद हुआ है, उससे शेष दीक्षा पर्याय उसकी गिनती में आती है किन्तु मूलाई प्रायश्चित्त में उसका पहले का संयम बिलकुल नहीं गिना जाता। दोपा को पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है और उस समय से पहले दीक्षित सभी साधुओ को वन्दना करनी पड़ती है । ९ अनवस्थाप्य - तप के बाद दूसरी बार दीक्षा देने के योग्य। जब तक अमुक प्रकार का तप न करे, तब तक उसे संयम या दीक्षा नहीं दी जा सकती । इस प्रकार की अनवस्था ( अनिश्चित काल मर्यादा) होने से यह 'अनवस्थाप्य' प्रायश्चित्त कहलाता है । निश्चित तप करने के बाद उसे गृहस्थ का वेश पहनाने के बाद दूसरी बार दीक्षा देने पर ही उसकी शुद्धि होती है, इसे 'अनवस्थाप्यार्ह' प्रायश्चित्त कहते हैं । १० पारांचिकाई-‍ -गच्छ से बाहर करने योग्य । जिस दोष के सेवन करने पर साधु को गच्छ से बाहर निकाल दिया जाय। साध्वी या रानी आदि का शील भंग रूप For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९०० ... भगवती-सूत्र-श. २५ उ. ७ तप के भेद महादोप मेवन करने पर यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । साधु-धेश और स्वक्षेत्र का त्याग कर के जिनकल्ली के समान महातप का आचरण करना पड़ता है । यह प्रायश्चित्त महापराक्रम वाले आचार्य को ही दिया जाता है । इसकी शुद्धि के लिये छह महाने मे लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी के समान कठोर तपस्या करनी पड़ती है। उपाध्याय के लिये नौवें प्रायश्चित्त तक का विधान है और सामान्य साधु के लिये आठवें मलाई प्रायश्चित्त तक का विधान है । जहाँ तक चौदह पूर्वधारी और वज्र-ऋषभ-नाराच नामक प्रथम संहनन वाले होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त रहते हैं। उनका विच्छेद होने के बाद मूलाह तक आठ ही प्रायश्चित्त होते हैं। अन्यत्र आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त दूसरे साधओं के लिये भी दस प्रायश्चित्त का विधान आया है। तप के भेद. १०३-दुविहे तवे पण्णत्ते, तं जहा-बाहिरए य अभितरए य। भावार्थ-१०३-तपदो प्रकार का कहा है । यथा-बाह्य और आभ्यंतर। १०४ प्रश्न-से किं तं बाहिरए तवे ? ..१०४ उत्तर-बाहिरए तवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणसणं, ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिचाओ, कायकिलेसो, पडिसंलीणता । कठिन-शब्दार्थ--ओमोयरिया--अवमोदरिका-- ऊनोदरी। भावार्थ-१०४ प्रश्न-हे भगवन् ! बाह्य तप कितने प्रकार के कहे हैं ? १०४ उत्तर-हे गौतम ! बाह्य तप छह प्रकार के कहे हैं। यथाअनशन, अवमोदरिका (ऊनोदरी), भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता। For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श, २५ उ ७ अनशन तप ३५०१ विवेचन-शरीर, आत्मा और कर्मों का तप ना 'तप' है । जैसे - अग्नि में तपा हुआ सोना, निर्मल हो कर शुद्ध होता है, उसी प्रकार तप रूपी अग्नि से तपो हुई आत्मा कर्ममल से रहित हो कर शुद्ध स्वरूप हो जाता है । तप दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर । शरीर से विशेष सम्बन्ध रखने वाला तप 'बाह्य तप' कहलाता है । इसके छह भेद हैं । अनशन तप १०५ प्रश्न-से किं तं अणसणे ? | १०५ उत्तर-अणसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य आवकहिए य। भावार्थ-१०५ प्रश्न-हे भगवन् ! अनशन कितने प्रकार का कहा है ? १०५ उत्तर-हे गौतम ! अनशन दो प्रकार का कहा है । यथा-इत्वरिक और यावत्कथिक। १०६ प्रश्न-से किं तं इत्तरिए ? - १०६ उत्तर-इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-चउत्थे भत्ते, छट्टे भत्ते, अट्टमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोइसमे भत्ते, अद्धमासिए भते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते, तेमासिए भत्ते जाव छम्मासिए भत्ते । सेतं इत्तरिए । . भावार्थ-१०६ प्रश्न-हे भगवन् ! इत्वरिक अनशन कितने प्रकार का कहा है ? १०६ उत्तर-हे गौतम ! इत्वरिक अनशन अनेक प्रकार का कहा है। यथा-चतुर्थभक्त, (उपवास), षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला), वशमभक्त (चोला), द्वादशभक्त (पचोला), चतुर्दशभक्त (छह उपवास), अर्द्धमासिक For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०२ भगवती सूत्र-स: २५ उ. ७ अनशन तप भक्त (पन्द्रह दिन के उपवास), मासिकभक्त (एक महीने के उपवास), द्विमासिकभक्त, त्रिमासिकभक्त यावत् षाणमासिक मक्त । यह इत्वरिक अनशन है। १०७ प्रश्न-से किं तं आवकहिए ? १०७ उत्तर-आवकहिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पाओवगमणे य भत्तपञ्चक्खाणे य। भावार्थ-१०७ प्रश्न-हे भगवन् ! यावत्कथिक अनशन कितने प्रकार का है ? - १०७ उत्तर-हे गौतम ! यावत्कथिक अनशन दो प्रकार का है । यथापादपोपगमन और भक्त-प्रत्याख्यान । १०८ प्रश्न-से किं तं पाओवगमणे ? .. १०८ उत्तर-पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णीहारिमे य अणीहारिमे य, णियमं अपडिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे। ___ भावार्थ-१०८ प्रश्न-हे भगवन् ! पादपोपगमन कितने प्रकार का है ? १०८ उत्तर-हे गौतम ! पादपोपगमन दो प्रकार का है । यथा-निर्हारिम और अनिर्हारिम । ये दोनों नियम से (अवश्य हो) अप्रतिकर्म होते हैं । यह पादपोपगमन तप हुआ। १०९ प्रश्न-से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे ? १०९ उत्तर-भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णीहारिमे य अणीहारिमे य, णियमं सपडिकम्मे । सेत्तं भत्तपञ्चक्खाणे । सेत्तं For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श २५ उ ७ अनशन तप ३५०३ आवकहिए । सत्तं अणसणे। भावार्थ-१०९ प्रश्न-हे भगवन् ! भक्त प्रत्याख्यान के कितने भेद है ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! भक्त प्रत्याख्यान दो प्रकार का है । यथानिर्हारिम और अनिर्झरिम । ये दोनों नियम से सप्रतिकर्म होते है । यह भक्त प्रत्याख्यान हुआ। यह यावत्कथिक अनशन और अनशन का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-१ अनशन-आहार का त्याग करना। इसके दो भेद हैं-इत्वरिक अनशन और यावत्कथिक अनशन । इत्वर का अर्थ है-अल्प काल । अल्प काल के लिए किये जाने वाले अनशन को 'इत्वरिक अनशन' कहते हैं। प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक वर्ष, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में छह मास तक का उत्कृष्ट इत्वरिक अनशन होता है । इसके चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त आदि अनेक भेद हैं। 'चतुर्थ-भक्त' को 'उपवास' भी कहते हैं । जैसा कि कहा है 'चतुर्थ भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र सच्चतुर्थ इयं च - उपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति । चतुर्थमेकेनोपवासेन, षष्ठं द्वाभ्यां. अष्टमं त्रिमिः। - अर्थात्-'चतुर्थ-भक्त' यह उपवास की संज्ञा है अर्थात् चतुर्थ-भक्त का तात्पर्य एक उपवास है । षष्ठ-मक्त का अर्थ 'दो उपवास' और अष्टम-भक्त का अर्थ 'तीन उपवास' है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । यावत्कथिक अनशन के दो भेद हैं । यथा-पादपोपगमन और भवतप्रत्याख्यान । अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का त्याग कर के अपने शरीर के किसी भी अंग को किंचितमात्र भी नहीं हिलाते हुए, निश्चल रूप से संथारा करना 'पादपोपगमन' कहलाता है । 'पादप' का अर्थ है-'वृक्ष' । जिस प्रकार कटा हुआ वृक्ष अथवा वृक्ष की कटी हुई डाली स्वयं हिलती नहीं, उसी प्रकार संथारा कर के जिस स्थान पर, जिस रूप में एक बार लेट जाय, फिर उसी स्थान, उसी रूप में लेटे रहना और इसी प्रकार मृत्यु हो जाना 'पादपोपगमन मरण' है । इसमें हाथ-पांव हिलाने का भी आगार नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०४ भगवती सूत्र - श. २५ उ ७ ऊनोदरी तप तीन या चारों आहार का यावज्जीवन त्याग कर के जो संधारा किया जाता है, उसे 'भक्त - प्रत्याख्यान' अनशन कहते हैं। इसे 'भक्तपरिजा' भी कहते हैं । पादपोपगमन और भक्त - प्रत्याख्यान के 'निर्धारिम' और 'अनिहरिम' - ऐसे दो-दो भेद होते हैं। जिस मुनि का संथारा ग्रामादि में रहते हुआ हो और उसके मृतक शरीर को ग्रामादि से बाहर ले जाना पड़े, उसे 'निहरिम' कहते हैं और ग्रामादि से बाहर किसी पर्वत की गुफादि में जो संथारा किया जाय, उसे 'अनिहरिम' कहते हैं । पादपोपगमन 'अप्रतिकर्म' होता अर्थात् संथारे की अवस्था में दूसरे मुनियों से किसी भी प्रकार की सेवा नहीं कराई जाती है । भक्त - प्रत्याख्यान अनशन 'सप्रतिकर्म' होता है । इस संथारे में दूसरे मुनियों से मेवा कराई जा सकती है । ऊनोदरी तप ११० प्रश्न - से किं तं ओमोयरिया ? ११० उत्तर - ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा- दव्बोमोयरिया य भावोमोयरिया य । भावार्थ - ११० प्रश्न - हे भगवन् ! अवमोदरिका ( ऊनोदरी ) कितने -प्रकार की है ? ११० उत्तर - हे गौतम! अवमोदरिका दो प्रकार की कही है । यथाद्रव्य अवमोदरिका और भाव अवमोदरिका । १११ प्रश्न - से किं तं दव्वोमोयरिया ? १११ उत्तर - दव्वोमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - उवगरणदव्योमोयरिया य भत्तपाणदव्वोमोयरिया य । भावार्थ - १११ प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्य अवमोदरिका कितने प्रकार की कही है ? १११ उत्तर - हे गौतम! द्रव्य अवमोदरिका दो प्रकार की कही है। For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २५ उ. ७ ऊन दरी तप यथा - उपकरण द्रव्य अवमोदरिका और भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका । ११२ प्रश्र - से किं तं उवगरणदव्वोभोयरिया ? ११२ उत्तर- उनगरणदव्वोमोयरिया तिविद्या पण्णत्ता, (तं जहा--) एगे वत्थे, एगे पादे, चित्तोवगरणसाइज्जणया । सेत्तं ज्वगरणदव्वोमोयरिया | ३५०५ भावार्थ - ११२ प्रश्न - हे भगवन् ! उपकरण द्रव्य अवमोदरिका कितने प्रकार की है ? ११२ उत्तर - गौतम ! उपकरण द्रव्य अवमोदरिका तीन प्रकार की कही है । यथा - एक वस्त्र, एक पात्र और व्यक्तोपकरणस्वदनता । यह उपकरण द्रव्य अवमोदरिका हुई । ११३ प्रश्न - से किं तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया ? ११३ उत्तर - भत्त० अटुकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस० जहा सत्तमसए पढमोद्देसए जाव णो 'पकामरसभोजी' त्ति वत्तव्वं सिया । सेत्तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया सेत्तं दब्योमोयरिया | - भावार्थ- ११३ प्रश्न - हे भगवन् ! भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका कितने प्रकार की है ? ११३ उत्तर - हे गौतम! कुर्कुटी अण्डक प्रमाण केवल आठ कवल आहार करना - ' अल्पाहार अवमोदरिका' है। बारह कवल प्रमाण आहार करना 'अवड अवमोदरिका' है इत्यादि सातवें शतक के प्रथम उद्देशकानुसार यावत् वह 'प्रकामरसभोजी नहीं ' कहलाता है, पर्यन्त । यह भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका हुई। यह द्रव्य अवमोदरिका पूर्ण हुई । For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ ऊनोदरी तप ११४ प्रश्न-से किं तं भावोमोयरिया ? ११४ उत्तर-भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णता, तं जहा-अप्पकोहे जाव अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पतुमंतुमे । सेतं भावो. मोयरिया । सेतं ओमोयरिया । ___ भावार्थ-११४ प्रश्न-हे भगवन् ! भाव अवमोदरिका कितने प्रकार की कही है ? ११४ उत्तर-हे गौतम ! भाव अवमोदरिका अनेक प्रकार की कही है। यथा-अल्प क्रोध, यावत् अल्प लोम, अल्प शब्द, अल्प झंझ, अल्प तुमन्तुम । यह भाव अवमोदरिका हुई । यह अवमोदरिका पूर्ण हुई। विवेचन-अवमोदरिका (ऊनोदरी)--भोजन आदि का परिमाण और क्रोधादि का आवेश कम करना-'ऊनोदरी' तप कहलाता है। इसके दो भेद हैं। यथा-द्रव्य ऊनोदरी और भाव ऊनोदरी । भण्ड-उपकरण और आहारादि का शास्त्रों में जो परिमाण बताया है, उसमें कमी करना तथा अति सरस और पौष्टिक आहार का त्याग करना--द्रव्य ऊनोदरी है। द्रव्य ऊनोदरी के दो भेद हैं । यथा--उपकरण द्रव्य ऊनोदरी और भक्तपान द्रव्य ऊनोदरी । उपकरण द्रव्य ऊनोदरी के तीन भेद हैं। यथा---एक पात्र, एक वस्त्र और जीर्ण उपधि । शास्त्र में चार पात्र रखने का विधान है । उसमे कम रखना पात्र ऊनोदरी है । इसी प्रकार साधु के लिये वस्त्र बहत्तर हाथ (चोरस) और साध्वी के लिये छियानवें हाथ रखने का विधान है, इससे कम रखना 'वस्त्र ऊनोदरी' है । तीसरे भेद के लिये 'चियत्तो.. वगरणसाइज्जणया' यह मूलपाठ है । जिसका अर्थ टीकाकार ने किया है कि संयतों के त्यागे हए उपकरणों को लेना तथा 'जीर्ण' वस्त्रपात्रादि लेना किया है । चर्णिकार ने इस विषय में लिखा है जंवत्थाई धारेइ तम्मि वि ममत्तं नस्थि । जब कोई मग्गइ तस्स देह ।।। अर्थात्--मुनि के पास जो वस्त्र हों, उनमें ममत्व भाव न रखे और दूसरा कोई संभोगी साधु माँगे, तो उसे दे दे। ये सभी अर्थ ऊनोदरी में घटित होते हैं। भक्तपान द्रव्य ऊनोदरी के सामान्यतः पांच भेद हैं । यथा- आठ कवल (ग्रास) For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ठा. २५ उ. ७ भिक्षाचरी तप ३५०७ प्रमाण आहार करना ‘अल्पाहार उनोदरी' है। बारह कवल प्रमाण आहार करना 'अवठ्ठ (अपार्द्ध) ऊनोदरी' है अर्थात् हाई भाग की ऊनोदरी है । सोलह कवल प्रपाण आहार करना 'अर्द्ध ऊनोदरी' है । चौबीस कवल प्रमाण आहार करना प्राप्त (पाव) ऊनोदरी' है अर्थात् चार विभाग में से तीन विभाग आहार है और एक विभाग ऊनोदरी है । इकत्तीस कवल प्रमाण आहार करना 'किंचित् ऊनोदरी' है और पूरे बत्तीस कवल प्रमाण आहार करना 'प्रमाणोपेत आहार' कहलाता है । पूर्ण आहार तप नहीं माना जाता । एक कवल प्रमाण भी आहार कम करे, वहाँ तक थोड़ा भी तप अवश्य है और इस प्रकार ऊनोदरी तप करने वाला मुनि 'प्रकाम-रस-भोजी' नहीं कहलाता । इस ऊनोदरी तप का विशेष विवेचन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में किया जा चुका है। भाव ऊनोदरी के अनेक भेद कहे हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ में कमी करना, इनके आवेश को कम करना । अल्प शब्द बोलना, कषाय के वश हो कर भाषण न करना तथा हृदय में रहे हुए कषाय को शान्त करना 'भाव ऊनोदरी' है। . ..... . भिक्षाचरी तप ११५ प्रश्न-से किं तं भिक्खायरिया ? .... ११५ उत्तर-भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहादव्वाभिग्गहचरए-जहा उववाइए, जाव सुद्धेसणिए, संखादत्तिए । सेत्तं भिक्खायरिया । ... भावार्थ-११५ प्रश्न-हे भगवन् ! भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? ११५ उत्तर-हे गौतम ! भिक्षाचर्या अनेक प्रकार को कही है । यथाद्रव्याभिग्रहचरक भिक्षाचर्या इत्यादि औपपातिक सूत्र के अनुसार, यावत् शुद्वैषणिक, संख्यादत्तिक । यह भिक्षाचर्या है । विवेचन-विविध प्रकार के अभिग्रह ले कर भिक्षा का संकोच करते हुए विचरना, 'भिक्षाचर्या' तप कहलाता है । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा करने से वृत्ति का संकोच होता है, For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५.८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ रस परित्याग नप, काय-करेग ता . इसलिये इसे 'वृत्ति संक्षेप' तप भी कहते हैं । औपपातिक मूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक आदि अनेक भेद किये हैं। रस परित्याग तप ११६ प्रश्न-से किं तं रसपरिच्चाए ? ११६ उत्तर-रसपरिचाए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिवि. गिइए, पणीयरसविवजए-जहा उववाइए जाव लूहाहारे । सेतं रसपरिच्चाए। भावार्थ-११६ प्रश्न-हे भगवन् ! रसपरित्याग के कितने भेद है ? . ११६ उत्तर-हे गौतम ! रसपरित्याग अनेक प्रकार का है। यथानिविकृतिक, प्रणीतररस विवर्जक इत्यादि औपपातिक सूत्रानुसार यावत् रूक्षाहारक । यह रस परित्याग है। विवेचन-दूध, दही, घी, तेल और मिष्टान्न, इन पांच को विकृति (विगय) कहते हैं । इन विकारजनक विकृतियों का तथा प्रणीत (स्निग्ध और गरिष्ठ) खान-पान वस्तुओं का त्याग करना 'रस परित्याग' कहलाता है। इसके भी निविकृतिकः प्रणीतरस विवर्जक यावत् रूक्षाहारक आदि अनेक भेद औपपातिक सूत्र में कहे हैं । काय-क्लेश तप ११७ प्रश्न-मे किं तं कायकिलेसे ? ११७ उत्तर-कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठाणाईए, उक्कुडुयासणिए, जहा-उववाइए जाव सव्वगायपरिकम्म-विभूसविप्प For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र श. २५ उ. ७ प्रतिसंलीनता तप ३५०१ मुक्के । मेतं कायकिलेसे । कठिन शब्दार्थ-उक्कु डुयसाहिए- उत्कुटकासनिक । भावार्थ-११७ प्रश्न-हे भगवन् ! काय-यलेश तप कितने प्रकार का है ? ११७ उत्तर-हे गौतम ! काय-वलेश तप अनेक प्रकार का है । यथास्थानातिग, उत्कुटुकाप्सनिक आदि औपपातिकसूत्रानुसार यावत् शरीर के सभी प्रकार के संस्कार और शोमा का त्याग करना । यह काय-क्लेश तप हुआ। विवेचन--शास्त्र-सम्मत रीति से काया अर्थात् शरीर को कलेश (कष्ट ) पहुंचाना 'काय-क्लेश' तप है। उग्र वीरासनादि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा-शुश्रूषा का त्याग करना आदि काय-क्लेश के अनेक भेद हैं। औपपातिक सूत्र में स्थानस्थितिक, स्थानातिग, उत्कुटुकासनिक आदि भेद दिये हैं । प्रतिसंलीनता तप ११८ प्रश्न-से किं तं पडिसंलीणया ? ११८ उत्तर-पडिसलीणया चउब्विहा पण्णता, तं जहा-इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया। भावार्थ-११८ प्रश्न-हे भगवन ! प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही है ? ११८ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसंलोनता चार प्रकार की है। यथाइंद्रिय-प्रतिसंलीनता, कषाय-प्रतिसं लीनता, योग-प्रतिसंलीनता और विविक्त शयनासनसेवनता। ११९ प्रश्न-से किं तं इंदियपडिसलीणया ? For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५.७ प्रतिसंलीनता तप ११९ उत्तर - इंदिय० पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदिय विसयप्पयारणिरोहो वा सोइंदियविमयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रामदोसविणिग्गहो, चक्खिदियविसय० एवं जाव फासिंदिय विसयप्पयारणिरोहो वा फासिंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो । सेत्तं इंदियपडिलीणया | भावार्थ - ११९ प्रश्न - हे भगवन् ! इंद्रिय प्रतिसंलीनता कितने प्रकार ३५१० की है ? ११९ उत्तर - हे गौतम! इंद्रिय प्रतिसंलीनता पाँच प्रकार की है । यथाश्रोत्रेन्द्रिय विषय प्रचार निरोध अथवा श्रोत्रेन्द्रिय विषय प्राप्त अर्थों में रागद्वेष विनिग्रह, चक्षुरिन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा चक्षुरिन्द्रिय विषय प्राप्त अर्थों में राग-द्वेष विनिग्रह, इस प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय विषय-प्रचार निरोध अथवा स्पर्शनेन्द्रिय विषय प्राप्त अर्थों में राग-द्वेष विनिग्रह। यह इंद्रिय प्रतिसंलीनता तप हुआ । १२० प्रश्न - से किं तं कसायपडिसंलीणया ? १२० उत्तर - कसायपडिलीणया चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहाकोहोदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, एवं जाव लोभोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा लोभस्स विफलीकरणं । सेत्तं कसायपडिलीणया | भावार्थ - १२० प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय- प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की है ? १२० उत्तर - हे गौतम! कषाय- प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है । यथा - क्रोधोदय निरोध अथवा उदय प्राप्त क्रोध का विफलीकरण, इस प्रकार यावत् लोभोदय निरोध या उदय प्राप्त लोभ का विफलीकरण । For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २५ उ. ७ प्रतिमलीनता ता ३५११ १२१ प्रश्न-से किं तं जोगपडिसंलीणया ? १२१ उत्तर-जोगडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगप० वइ जोगप० कायजोगपडिसंलीणया। से किंतं मणजोगप० ? मणजोगपडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-१ अकुसलमणणिरोहो वा २ कुसलमणउदीरणं वा ३ मणस्स वा एगत्तीभावकरणं । से किं तं वइजोगप० ? वइ जोगप० तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - १ अकुसलवइणिरोहो वा २ कुसलवइउदीरणं वा ३ वइए वा एगत्तीभावकरणं। ___ भावार्थ-१२१ प्रश्न-हे भगवन् ! योग-प्रतिसंलीनता कितने प्रकार को है ? : १२१ उत्तर-हे गौतम ! योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की है। यथामनयोग प्रतिसंलीनता, व वनयोग प्रतिसंलोनता और काययोग प्रतिसलीनता। हे भगवन् ! मनयोग प्रतिसंलोनता कितने प्रकार की है ? हे गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है, यथा-१ अकुशल मन का निरोध २ कुशल मन की उदीरणा और ३ मन को एकाग्र करना । हे भगवन् ! वचनयोग प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही गई है ? हे गौतम! तीन प्रकार की कही गई है । यथा१ अकुशल वचन का निरोध २ कुशल वचन की उदीरणा और ३ वचन की एकाग्रता करना। १२२ प्रश्न-से किं तं कायपडिसंलीणया ? १२२ उत्तर-कायपडिसंलीणया जणं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्टइ, सेत्तं कायपडिसंलीणया । सेत्तं जोगपडिसंलीणया । भावार्थ-१२२ प्रश्न-हे भगवन् ! काय-प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ प्रतिसंटीनता तप १२२ उत्तर-हे गौतम ! सम्यक् प्रकार से समाधिपूर्वक शान्त हो कर हाथ-पांव संकुचित करना, कछुए के समान गुप्तेन्द्रिय हो कर, आलीन-प्रलीन (स्थिर) होना 'काय-प्रतिसंलीनता' है । यह 'योग-प्रतिसंलीनता' हुई। १२३ प्रश्र-से किं तं विवित्तसयणासणसेवणया ? १२३ उत्तर-विवित्तसयणासणसेवणया जण्णं आरामेसु वा उज्जाणेसु वा जहा सोमिलुद्देसए जाव सेज्जासंथारगं उवसंपजित्ता णं विहरइ। सेत्तं विवित्तसयणासणसेवणया । सेत्तं पडिसंलीणया । सेत्तं बाहिरए तवे १। भावार्थ-१२३ प्रश्न-हे भगवन् ! विविक्तशयनासनसेवनता किसे कहते हैं? १२३ उत्तर-हे गौतम ! विविक्त (स्त्री, पशु और पण्डक-नपुंसक से रहित) स्थान में अर्थात् आराम (बगीचा) उद्यान आदि अठारहवें शतक के दसवें सोमिल उद्देशकानुसार निर्दोष शय्या-संथारा आदि उपकरण ले कर रहना, विविक्तशयनासन सेवनता' कहलाती है । यह विविक्तशयनासनसेवनता और प्रतिसंलीनता के साथ-साथ ही बाह्य तप पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रतिसंलीनता का अर्थ है गोपन करना । योग, इन्द्रिय और कषायों की अशभ प्रवत्ति को रोकना 'प्रतिसं लीनता' है । मुख्य रूप से इसके चार भेद हैं । इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसलीनता और विविक्तशयनासन सेवनता इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच, कषाय प्रतिमलीनता के चार और योग प्रतिसंलीनता के तीन ..भेद हैं । ये बारह और विविक्तशयनासनसेवनता, ये सभी मिला कर तेरह भेद होते हैं उनका अर्थ इस प्रकार है १ श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-श्रोत्रेन्द्रिय को अपने विषयों की ओर जाने से रोकन तथा श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा गृहीत विषयों में राग-द्वेष नहीं करना । २ चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसंलीनता-चक्षु अर्थात् नेत्रों को अपने विषय की ओर जाने रो रोकना और चक्षुरिन्द्रिय द्वारा गृहीत विषयों में राग-द्वेष नहीं करना । ३ घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीनता। For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगनती सूत्र-श. २५ उ. ७ प्राणिणत तण ३५१३ ४ रसनेन्द्रिय प्रनिगंटीनता । ५ स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिमलीनता । इनका स्वरूप भी ऊपर लिग्वे अनसार जानना चाहिये । क्रोध प्रतिसंलीनता-क्रोध का उदय नहीं होने देना और उदय में आये हुए क्रोध को निष्फल बना देना । मान प्रतिसंलोनता, माया प्रतिसलीनता और लोभ प्रतिगंलीनता, इन तीनों का स्वरूप, कोध प्रतिसंलीनता के समान है। मन प्रतिसंलीनता-मन की अकुशल (अशुभ) प्रवृत्ति को रोकना और कुशल (शुभ) प्रवृत्ति करना तथा 'चित्त को एकाग्र (स्थिर ) करना । वचन प्रतिसंलीनता-अकुशल (अशभ) वचन को रोकना और कुशल (शुभ एवं निरवद्य) वचन बोलना तथा वचन की प्रवृत्ति को रोकना । ये सभी वचन प्रतिमलीनता हैं। काय प्रतिसंलीनता-भली प्रकार समाधिपूर्वक शान्त हो कर, हाथ-पाँव संकुचित कर के तथा कछुए के रामान गुप्तेन्द्रिय हो कर, आलीन-प्रलीन अर्थात् स्थिर होना 'काय प्रतिसंलीनता' है। . विविक्तशयनारानगेवनता-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में निर्दोग शय्या-संस्तारक आदि स्वीकार कर रहना-विववतशयनासनसेवनता कहलाती है । आराम (बगीचा) उद्यान (बाग) आदि में मंस्तारक अंगीकार करना भी विविक्तशयनासनसेवनता है। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, काय-क्लेश और प्रतिमंलीनता, ये छह 'बाह्य तप' कहलाते हैं। ये मुक्ति प्राप्ति के बाह्य अंग हैं। ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं और प्रायः बाह्य शरीर को तपाते हैं अर्थात् शरीर पर इनका अधिक प्रभाव पड़ता है। इन तपों का करने वाला भी लोक में 'तपस्वी' रूप से प्रसिद्ध हो जाता है । अन्यतीथिक भी स्वाभिप्रायानुसार इनका सेवन करते हैं । इत्यादि कारणों से ये तप 'बाह्य तप' कहलाते हैं। प्रायश्चित्त तप १२४ प्रश्न-से किं तं अभितरए तवे ? १२४ उत्तर-अम्भितरए तवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ पायच्छित्तं २ विणओ ३ वेयावच्चं ४ सज्झाओ ५ झाणं ६ विउसग्गो। For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११४ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ विनय तप भावार्थ-१२४ प्रश्न-हे भगवन् ! आभ्यन्तर तप कितने प्रकार का है ? १२४ उत्तर-हे गौतप ! आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है । यथाप्रायश्चित्त, विनय, यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। विवेचन--जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों के साथ हो, उसे 'आभ्यन्तर तप' कहते हैं। १२५ प्रश्न-से किं तं पायच्छित्ते ? १२५ उत्तर-पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणा. रिहे जाव पारंचियारिहे । सेत्तं पायच्छित्ते। भावार्थ-१२५ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ? १२५ उत्तर-हे गौतम ! प्रायश्चित्त दस प्रकार का है । यथा-आलो. चनाह, यावत् पारांचिकाह । यह प्रायश्चित्त तप हुआ। विवेचन-प्रायश्चित्त-मूलगुण और उत्तरगुण विषयक अतिचारों से मलीन हुई आत्मा जिस अनुष्ठान से शुद्ध हो, उसे 'प्रायश्चित्त' कहते हैं, अथवा 'प्रायः' का अर्थ है-'पाप' और 'चित्त' का अर्थ है 'शुद्धि' । जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो, उसे 'प्रायश्चित्त' कहते हैं। प्रायश्चित्त के ५० भेद इस प्रकार हैं-आलोचनाह, प्रतिक्रमणाई आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त देने वाले के आचारवान् आधारवान् आदि दस गण, प्रायश्चित्त लेने वाले के जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न आदि दस गुण, आकम्पयित्ता (आकम्प्य) अणमाणइत्ता (अनुमान्य ) आदि आलोचना के दस दोष, दर्प, प्रमाद आदि प्रायश्चित्त सेवन करने के दस कारण । ये सभी मिला कर प्रायश्चित्त के ५० भेद होते हैं। विनय तप १२६ प्रश्न-से किं तं विणए ? । १२६ उत्तर-विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णाणविणए २. दसणविणए ३ चरित्तविणए ४ मणविणए ५ वइविणए, For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगानी गुव-श. २५ 3. १ विनय तप ३५१५ wom wwwwwwwww ६ कायविणए ७ लोगोवयारविणए । १२६ प्रश्न-हे भगवन् ! विनय कितने प्रकार का है ? १२६ उत्तर-हे गौतम ! विनय सात प्रकार का कहा है । यथा-ज्ञानविनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय, मन-विनय, वचन विनय, काय-विनय और लोकोपचार-विनय । १२७ प्रश्न-से किं तं णाणविणए ? १२७ उत्तर-णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ आभिणि. बोहियणाणविणए जाव ५ केवलणाणविणए । सेत्तं णाणविणए । भावार्थ- १२७ प्रश्न--हे भगवन् ! ज्ञान विनय के कितने प्रकार हैं ? १२७ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञान-विनय पांच प्रकार का है। यथा-आभिनिबोधिक ज्ञान-विनय यावत् केवलज्ञान-विनय । यह ज्ञान-विनय हुआ। . १२८ प्रश्न-से किं तं दंसणविणए । १२८ उत्तर-दसणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-मुस्सूसणाविणए य अणचासायणाविणए य । भावार्थ-१२८ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन-विनय के कितने भेद हैं ? १२८ उत्तर-हे गौतम ! दर्शन-विनय के दो भेद हैं। यथा-शुश्रूषा. विनय और अनाशातना-विनय । १२९ प्रश्न-से किं तं सुस्सूमणाविणए ? १२९ उत्तर-सुस्सूसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहासकारे इ वा, सम्माणे इ वा-जहा चोद्दसमसए तइए उद्देसए जाव पडिसंसाहणया । सेत्तं सुस्सूसणाविणए । For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ.७ विनय तप भावार्थ - १२९ प्रश्न - हे भगवन् ! शुश्रूषा-विनय के कितने भेद हैं ? १२९ उत्तर - हे गौतम! शुश्रूषा-विनय के अनेक भेद हैं। यथा-मत्कार, सम्मान आदि, चौदहवें शतक के तीसरे उद्देशकानुसार, यावत् प्रतिसंसाधनता पर्यन्त | यह शुश्रूषा विनय हुआ । १३० प्रश्न-से किं तं अणचासायणाविणए ? ३५१६ १३० उत्तर - अणवासायणाविणए पणयालीसह विहे पण्णत्ते. तं जहा - १ अरहंताणं अणचासायणया २ अरहंतपण्णत्तरस धम्मस्स अणच्चासायणया ३ आयरियाणं अणञ्चासायणया ४ उवज्झायाणं अणच्चासायणया ५ थेराणं अणच्चासायणया ६ कुलस्स अणच्चासायणया ७ गणस्स अणच्चासायणया ८ संघस्स अणच्चासायणया ९ किरियाए अणच्चासायणया १० संभोगस्स अणच्चासायणया ११ आभिणिबोहियणाणस्स अणचासायणया जाव १५ केवलणाणस्स अणच्चासायणया ३० एएसिं चेव भत्ति- बहुमाणेणं ४५ एएसिं चेव वण्णसंजलणया । सेत्तं अणच्चासायणाविणए । सेत्तं दंसणविणए । भावार्थ - १३० प्रश्न - हे भगवन् ! अनाशातना- विनय कितने प्रकार का हैं ? १३० उत्तर - हे गौतम! अनाशातना-विनय के ४५ भेद कहे हैं । यथा - अरिहन्त भगवन्तों की अनाशातना, अरिहन्त प्रज्ञप्तधर्म की अनाशातना, आचार्य महाराज की अनाशातना, उपाध्याय महाराज की अनाशातना, स्थविर भगवन्तों की अनाशातना, कुल की अनाशातना, गण की अनाशातना, संघ की For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी मूत्र-श. २५ उ. विनय ता ३५१७ अनाशातना, क्रिया की अनाशातना, साम्भोगिक (समान धर्म वाले) की अनाशातना, आभिनिबोधिक ज्ञान की अनाशातना यावत् केवलज्ञान की अनाशातना। इन पन्द्रह की १ भक्ति २ बहुमान करना तथा इन पन्द्रह के ३ गुण कीर्तन करना, इस प्रकार अनाशातना विनय के ४५ भेद होते हैं। यह अनाशातना विनय हुआ भौर इसके साथ ही दर्शन-विनय पूर्ण हुआ। १३१ प्रश्न-से किं तं चरित्तविणए ? १३१ उत्तर-चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ सामाइयचरित्तविणए जाव ५ अहक्खायचरित्तविणए । से तं चरित्तविणए । भावार्थ-१३१ प्रश्न-हे भगवन् ! चारित्र-विनय कितने प्रकार का है ? १३१ उत्तर-हे गौतम ! चारित्र-विनय पांच प्रकार का कहा है। यथासामायिक चारित्र-विनय यावत् यथाख्यात-चारित्र-विनय । यह चारित्र-विनय हुआ। ... १३२ प्रश्न-से किं तं मणविणए ? १३२ उत्तर-मणविणए दुविहे पण्णत्ते, त जहा-पसत्थमणविणए, अप्पसत्थमणविणए य। भावार्थ-१३२ प्रश्न-हे भगवन् ! मन-विनय कितने प्रकार का है ? १३२ उत्तर-हे गौतम ! मन-विनय दो प्रकार का है। यथा-प्रशस्त मन-विनय और अप्रशस्त मन-विनय । १३३ प्रश्न-से किं तं पसत्थमणविणए ? For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१८ भगवती सूत्र-श. २५ उ ७ विनय ता १३३ उत्तर-पसस्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१ अपावए २ असावज्जे ३ अकिरिए ४ णिरुवक्केसे ५ अणण्हयकरे ६ अच्छविकरे ७ अभूयाभिसंकणे । सेतं पसत्थमणविणए । भावार्थ-१३३ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रशस्त मन-विनय कितने प्रकार का है ? १३३ उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त मन-विनय सात प्रकार का है । यथा१ अपापक (पाप रहित) २ असावद्य (निरवद्य--क्रोधादि पाप रहित) ३ अक्रिय (कायिकी आदि क्रिया रहित) ४ निरुपक्लेश (शोकादि उपक्लेश रहित) ५ अनाश्रवकर (आश्रव रहित) ६ अच्छविकर (स्व और पर को पीड़ा रहित) ७ अमता. मिशङ्कित (जीवों को भय उत्पन्न न करने वाला)। यह प्रशस्त मन-विनय हुआ। १३४ प्रश्न-से किं तं अप्पसत्थमणविणए ? १३४ उत्तर-अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे पणत्ते, तं जहा१ पावए २ सावज्जे ३ सकिरिए ४ सउवक्केसे ५ अण्णहयकरे ६ छविकरे ७ भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थमणविणए । सेतं मणविणए। भावार्थ-१३४ प्रश्न-हे भगवन्! अप्रशस्त मन-विनय कितने प्रकार का है? १३४ उत्तर-हे गौतम ! अप्रशस्त मन-विनय सात प्रकार का कहा है। यथा-पापकारी, सावध, सक्रिय (कायिकी आदि क्रिया सहित), सोपक्लेश, आश्रवकारी, छविकारी (स्व-पर को पीड़ा उत्पन्न करने वाला) भूताभिशंकित (प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाला)। (इन सात में मन को प्रवृत्त न करना विनय है अर्थात् अप्रशस्त मन को धारण नहीं करना 'मन-विनय' है ।) यह अप्रशस्त मन-विनय हुआ। यह मन-विनय हुआ। For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २५ उ ७ विना नप. १३५ प्रश्न-से किं तं वइविणए ? १३५ उत्तर-वइविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पसत्थवइविणए य अप्पसत्थवइविणए य । भावार्थ-१३५ प्रश्न-हे भगवन ! वचन-विनय कितने प्रकार का है ? १३५ उत्तर-हे गौतम ! वचन-विनय दो प्रकार का है । यथा-प्रशस्त .. वचन-विनय और अप्रशस्त वचन-विनय । १३६ प्रश्न-से किं तं पसत्थवइविणए ? १३६ उत्तर-पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ अपा. वए २ असावज्जे जाव ७ अभूयाभिसंकणे । सेत्तं पसत्थवइविणए । भावार्थ-१३६ हे भगवन ! प्रशस्त वचन-विनय कितने प्रकार का है ? १३६ उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त वचन-तिनय सात प्रकार का है। यथाअपापकारी, असावधकारी यावत् अभूताभिशंकित। यह प्रशस्त वचन-विनय हुआ। १३७ प्रश्न-से किं तं अप्पसत्थवइविणए ? ... १३७ उत्तर-अप्पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१ पावर २ सावज्जे जाव ७ भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थवइविणए । सेत्तं क्इविणए। भावार्थ-१३७ प्रश्न-हे भगवन् ! अप्रशस्त वचन-विनय कितने प्रकार का है ? १३७ उत्तर-हे गौतम ! अप्रशस्त वचन-विनय सात प्रकार का कहा है। For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ विनय त यथा- पापकारी, सावद्यकारी यावत् भूताभिशंकित । यह अप्रशस्त वचन - विनय हुआ । यह वचन-विनय पूर्ण हुआ । ३५२० १३८ प्रश्न - से किं तं कायविणए ? १३८ उत्तर - कार्याविण दुविहे पण्णत्ते, तं जहा --पसत्थकायविणए य अप्पमत्थकार्याविणए य । भावार्थ - १३८ प्रश्न - हे भगवन् ! काय-विनय कितने प्रकार का है ? १३८ उत्तर - हे गौतम! काय-विनय दो प्रकार का कहा है । यथाप्रशस्त काय-विनय और अप्रशस्त काय-विनय । १३९ प्रश्न--से किं तं पसत्थकायविणए ? १३९ उत्तर--पसत्यका यविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ आउतं गमनं २ आउतं ठाणं ३ आउतं णिसीयणं ४ आउत्तं तुट्टणं ५ आउतं उल्लंघणं ६ आउत्तं पल्लंघणं ७ आउत्तं सव्वि दियजोगजुंजणया । सेत्तं पसत्थकायविणए । भावार्थ - १३९ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रशस्त काय-विनय कितने प्रकार का कहा है ? १३९ उत्तर - हे गौतम! प्रशस्त काय-विनय सात प्रकार का कहा है । यथा - आयुक्त गमन ( सावधानीपूर्वक जाना) आयुक्त स्थान ( सावधानीपूर्वक ठहरना --खड़े रहना) आयुक्त निषीदन ( सावधानीपूर्वक बैठना ) आयुक्त त्वग्वर्तन ( सावधानीपूर्वक सोना) आयुक्त उल्लंघन ( सावधानीपूर्वक उल्लंघन करना) आयुक्त प्रलंघन ( सावधानी से बार-बार लांघना) और आयुक्त सर्वेन्द्रिय योग जनता (सभी इन्द्रिय और योगों की सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना ) | यह प्रशस्त काय-विनय हुआ । For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श २५ उ. ७ विनय तप २५२१ १४० प्रश्न-से किं तं अप्पसत्थकायविणए ? १४० उत्तर-अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१ अणाउत्तं गमणं जाव ७ अणाउत्तं मविदियजोगजुजणया । सेत्तं अप्पसत्थकायविणए । सेत्तं कायविणए । भावार्थ-१४० प्रश्न-हे भगवन् ! अप्रशस्त काय-विनय कितने प्रकार का है ? १४० उत्तर-हे गौतम! अप्रशस्त काय-विनय सात प्रकार का कहा है। यथा-अनायुक्त गमन यावत् अनायुक्त सर्वेन्द्रिय-योग-युजनता (असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृति करना) । यह अप्रशस्त काय-विनय हुआ। यह काय-विनय हुआ। १४१ प्रश्न-से किं तं लोगोवयारविणए ? । - १४१ उत्तर-लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१ अब्भासवत्तियं २ परच्छंदाणुवत्तियं ३ कजहेडं ४ कयपडिकइया ५ अतगवेसणया ६ देसकालण्णया ७ सव्वत्थेसु अप्पडिलोमया । सेत्तं लोगोवयारविणए । सेत्तं विणए । .. भावार्थ-१४१ प्रश्न-हे भगवन ! लोकोपचार-विनय के कितने भेद हैं ? १४१ उत्तर-हे पौतम! लोकोपचार-विनय के सात भेद कहे हैं । यथाअभ्यासवृत्तिता (गुरु आदि के पास रहना और अभ्यास में प्रेम रखना), परच्छन्दानुवत्तिता (गुरु आदि बड़ों की इच्छानुसार कार्य करना), कार्य हेतु (गुरु आदि द्वारा किये हुए ज्ञान-दानादि कार्य के लिये उन्हें विशेष मानना, उन्हें आहारादि ला कर देना), कृतप्रतिक्रिया (अपने पर किये हुए उपकार का बदला चुकाना अथवा 'आहारादि से गुरु की शुश्रूषा करने से वे प्रसन्न For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ विनय तप होंगे और उससे वे मुझे ज्ञान सिखावेंगे'-ऐसा समझ कर उनकी विनय-भवित करना) आर्तगवेषणता (रोगी साधुओं की सार-संभाल करना) देशकालानुज्ञता (अवसर देख कर कार्य करना) सर्वार्थअप्रतिलोमता (सभी कार्यों में गुरु महाराज के अनुकूल प्रवृत्ति करना)। विवेचन-जिसके द्वारा सम्पूर्ण दुःखों के कारणभूत आठ कर्मों का विनयनविनाश होता है, उसे 'विनय' कहते हैं अथवा अपने से बड़े और गुरुजनों को देश-काल के अनुसार सत्कार-सन्मान करना 'विनय' कहलाता है । अथवा कर्मणां दाग विनयनाद, विनयो विदुषां मतः । अपवर्गफलाट्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् ।। . ' अर्थात् ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह 'विनय' कहा जाता है । मोक्ष रूपी फल को देने वाले धर्मरूपी वृक्ष का यह मूल है । इसके सामान्यतः सात भेद हैं । यथा-ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय, मन-विनय, वचन-विनय, कायक्मिय और लोकोपचार-विनय । इन सातों के अवान्तर भेद १३४ होते हैं । वे इस प्रकार हैंज्ञान-विनय के ५ भेद, दर्शन-विनय के ५५ भेद, चारित्र-विनय के ५ भेद, भन-विनय के २४ भेद, वचन-विनय के २४ भेद, काय-विनय के १४ भेद, लोकोपचार-विनय के ७ भेद । ये कुल मिला कर १३४ भेद होते हैं। ज्ञान और ज्ञानी पर श्रद्धा रखना, उनके प्रति भक्ति और बहमान दिग्वाना, उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर भली प्रकार से चिन्तन-मनन करना और विधिपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना एवं ज्ञान का अभ्यास करना 'ज्ञान-विनय' है । इसके पांच भेद हैं । यथा-मतिज्ञान विनय, श्रतज्ञान विनय, अवधिज्ञान विनय, मनः पर्यव ज्ञान विनय और केवलज्ञान विनय । दर्शन-विनय-देव अरिहन्त (वीतराग), गुरु निर्ग्रन्थ (कनक कामिनी के त्यागी) और धर्म केवलि भाषित, इन तीन तत्वों में श्रद्धा रखना दर्शन (सम्यक्त्व) कहलाता है। दर्शन की विनय-भक्ति और श्रद्धा को 'दर्शन-विनय' कहते हैं । इसके सामान्यतः दो भेद है। यथा--शभूषा-विनय और अनाशातना-विनय । शुश्रूषा-विनय के दस भेद हैं१ अभ्यत्थान-गुरु महाराज या अपने से बड़े रत्नाधिक सन्त पधारते हों, तो उन्हें देख कर बडे हो जाना २ आसनाभिग्रह-'पधारिये आसन पर बैठिये'-इस प्रकार कहना ३ भासनप्रदान-बैठने के लिये उन्हें आसन देना ४ सत्कार-उन्हें सत्कार देना ५ सन्मान-उन्हें सन्मान देना ६ कीतिकर्म-उनके गुणग्राम स्तुति करना ७ अञ्जलि For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २५ उ. ७ विनय तप ३५२३ प्रग्रह — उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करना ८ अनुगमनता- लौटते समय कुछ दूर तक पहुँचाने जाना ९ पर्युपासनता --बैठे हों, तो उनकी पर्युपासना (सेवा) करना १० प्रतिसंसाधनता -- उनके वचन को स्वीकार करना । शुश्रूषा-विनय के अन्य प्रकार से भी दस भेद किये हैं । यथा -- अरिहन्त भगवान् का विनय २ अरिहन्त प्ररूपित धर्म का विनय : आचार्य का विनय ४ उपाध्याय का विनय ५ स्थविर का विनय ६ कुल का विनय ७ गण का विनय ८ संघ का विनय ९ क्रिया विनय अर्थात् 'आत्मा, परलोक, मोक्ष आदि हैं' -- ऐसी प्ररूपणा करना और १० माधर्मिक का विनय । अनाशातना दर्शन विनय दर्शन और दर्शनवान् की आशातनान करना 'अनाशातनाविनय' है । इसके ४५ भेद है। अरिहंत भगवान्, अरिहंत प्ररूपित धम, आचार्य, उपाध्याय आदि पन्द्रह की आशातना न करना, अर्थात् विनय करना, भक्ति करना और गुणग्राम करना । इन तीन कार्यों के करने से ४५ भेद हो जाते हैं। हाथ जोड़ना आदि बाह्य आचारों को 'भक्ति' कहते हैं | हृदय में श्रद्धा और प्रीति रखना 'बहुमान' है । गुणकीर्तन करना तथा गुणों को ग्रहण करना 'गुणग्राम' ( वर्णवाद ) कहलाता है । चारित्र और चारित्रवानों का विनय करना 'चारित्र-विनय' हैं । चारित्र के सामायिकादि पाँच भेद मूल पाठ में बता दिये हैं । आचार्य आदि का मन से विनय करना, मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा उसे शुभ प्रवृत्ति में लगाना 'मन-विनय' हैं। प्रशस्त और अप्रशस्त ये इसके दो भेद हैं । प्रत्येक के बारह-बारह भेद होने से चौबीस भेद हैं। मन में प्रशस्त भाव लाना 'प्रशस्त मन- विनय' है और अप्रशस्त भावों को मन में नहीं आने देना 'अप्रशस्त मन- विनय' है । मन- विनय के समान वचन-विनय के भी चोबीस भेद होते हैं । आचार्य आदि का वचन से विनय करना, वचन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा शुभ प्रवृत्ति में लगाना 'वचनविनय है । काया से आचार्य आदि का विनय करना, काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना और शुभ प्रवृत्ति करना 'काय-विनय' है । इसके भी प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो भेद हैं। सावधानीपूर्वक जाना, खड़े रहना, बैठना, सोना, उल्लंघन करना, प्रलंघन करना और सभी इन्द्रियों तथा योगों की प्रवृत्ति करना 'प्रशस्त काय-विनय' है और इन उपर्युक्त क्रियाओं को असावधानी से करना 'अप्रशस्त काय प्रवृत्ति' है । इसे रोकना 'अप्रशस्त काय-विनय' है । इस प्रकार काय-विनय के चौदह भेद हैं । For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ वैयावृत्य तप दूसरे साधर्मिकों को सुख पहुँचे-- इस प्रकार की बाह्य क्रियाएँ करना लोकोपचारविनय' है । इसके सात भेद हैं। जिनके नाम और अर्थ भावार्थ में लिखे जा चुके हैं । इस प्रकार विनय के कुल मिला कर १३४ भेद होते हैं। अन्यत्र विनय के ५२ भेद भी कहे हैं । वे इस प्रकार हैं--तीर्थकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर और गणी, इन तेरह की (१) आशातना न करना (२) भक्ति करना (३) बहुमान करना अर्थात् इनके प्रति पूज्य भाव रखना (४) इनके गुणों की प्रशंसा करना। इस तरह चार प्रकार से इन तेरह का विनय किया जाता है । तेरह को चार से गुणा करने से विनय के बावन भेद होते हैं । वैयावृत्य तप १४२ प्रश्न-से किं तं वेयावच्चे ? -- १४२ उत्तर-वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ आयरियवेयावच्चे २ उवज्झायवेयावच्चे ३ थेरवेयावच्चे ४ तवस्सिवेयावच्चे ५ गिलाणवेयावच्चे ६ सेहवेयावच्चे ७ कुलवेयावच्चे ८ गणवेयावच्चे ९ संघवेयावेच्चे १० साहम्मियवेयावच्चे । सेत्तं वेयावच्चे । भावार्थ-१४२ प्रश्न-हे भगवन् ! वैयावस्य के कितने भेव हैं ? १४२ उत्तर-हे गौतम ! वेयावृत्य के दस भेद हैं। यथा-१ आचार्य की वैयावत्य २.उपाध्याय की वैयावृत्य ३ स्थविर की वैयावत्य ४ तपस्वी की वयावत्य ५ रोगी की वैयावृत्य ६ ऑक्ष (नव दीक्षित) की वैयावृत्य ७ कुल (एक आचार्य का शिष्य परिवार) को वैयावत्य ८ गण (समूह) की वैयावत्य ९ संघ की यावृत्य और १० सामिक (समान धर्म वाले) की वैयावत्य । यह ययावत्य हुआ। विवेचन-गुरु, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि ला कर For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-प्रा. २५ उ. ७ स्वाध्याय तप, ध्यान के भेद ३५२५. देना 'वैयावृत्य' कहलाता है । स्वाध्याय तप. १४३ प्रश्न-से किं तं सज्झाए ? १४३ उत्तर-सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ वायणा २ पडिपुच्छणा ३ परियट्टणा ४ अणुप्पेहा ५ धम्मकहा। सेत्तं सज्झाए। भावार्थ-१४३ प्रश्न-हे भगवन् ! स्वाध्याय कितने प्रकार का है ? १४३ उत्तर-हे गौतम ! स्वाध्याय पांच प्रकार का है। यथा-१ वाचना . २ पृच्छना ३ परिवर्तना ४ अनुप्रेक्षा और ५ धर्मकथा । यह स्वाध्याय हुआ। विवेचन-अस्वाध्याय काल टाल कर, मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन आदि करना 'स्वाध्याय' है । स्वाध्याय के पांच भेद हैं । यथा-१ वाचना-शिष्य को मूत्र और अर्थ पढ़ाना २ पृच्छना-वाचना ग्रहण कर के उसमें सन्देह होने पर पुनः पूछना 'पृच्छना' है अथवा पहले सीखे हुए सूत्रादि ज्ञान में शंका होने पर प्रश्न करना 'पृच्छना' है। ३. परिवर्तना-पढ़ा हुआ ज्ञान विस्मृतः न हो जाय, इसलिये बार-बार आवृत्ति करना'परिवर्तना' है । ४ अनुप्रेक्षा-सीखे हुए सूत्र के अर्थ का विस्मरण न हो जाय, इसलिये उसका बार-बार मनन करना, विचारना 'अनुप्रेक्षा' है । ५ धर्मकथा-उपर्युक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर श्रोताओं को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना, धर्मोपदेश देना, 'धर्मकथा' कहलाती है । ध्यान के भेद १४४ प्रश्न-से किं तं झाणे? १४४ उत्तर-झाणे चउन्विहे पण्णते, तं जहा-१ अट्टे झाणे For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२६ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ आर्त ध्यान २ रोहे झाणे ३ धम्मे झाणे ४ सुक्के झाणे । भावार्थ - १४४ प्रश्न - हे भगवन् ! ध्यान कितने प्रकार का है ? १४४ उत्तर - हे गौतम! ध्यान चार प्रकार का है । यथा-आतंध्यान २ रौद्र ध्यान ३ धर्म ध्यान और ४ शुक्ल ध्यान । विवेचन - एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना - 'ध्यान' है, अथवा छद्मस्थों का अन्तर्मुहुर्त परिमाण, एक वस्तु पर चित्त स्थिर रखना 'ध्यान' कहलाता है। एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर ध्यान का प्रवाह चिर काल तक भी रह सकता है । जिनेन्द्र भगवान् के लिये तो योगों का निरोध करना ही ध्यान कहलाता 1 आर्त ध्यान १४५ - अट्टे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १ अमणुष्णसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णा गए यावि भवइ २ मणुष्णसंपओगसंपत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ३ आयंकसंपओगसंपत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवड़ ४ परिज्जुसियकामभोगसंपओगसंपत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागर यावि भवइ । अस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, १ कंदणया २ सोयणया ३ तिप्पणया ४ परिदेवणया । पर उसके वियोग की चिन्ता करना । भावार्थ - १४५ आर्त ध्यान चार प्रकार का है । यथा १ अमनोज्ञ वियोग चिन्ता - अमनोज ( अनिष्ट) वस्तु की प्राप्ति होने तं जहा· २ मनोज्ञ अवियोग चिन्ता - मनोज्ञ (इष्ट) वस्तु की प्राप्ति होने पर For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. २५ उ. ७ आन ध्यान ३५२७ उसके अवियोग की चिन्ता करना। ३ आतंक (रोग) होने पर उसके वियोग की चिन्ता करना । ४ प्रीति उत्पन्न करने वाले काम-भोग आदि की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना । आर्त ध्यान के चार लक्षण कहे हैं। यथा-१ क्रन्दनता २ शोचनता ३ तेपनता और ४ परिदेवनता। विवेचन-आर्त ध्यान आर्त अर्थात् दुःस के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान 'आत्तं ध्यान' कहलाता है । अथवा दुःखो प्राणी का ध्यान 'आर्त ध्यान' कहलाता है। अथवा मनोज्ञ वस्तु के वियोग ओर अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि कारणों से चित्त की घबराहट 'आर्त ध्यान' कहलाता है । अथवा जीव, मोहवश राज्य का उपभोग, गयन, आसन, वाहन, स्त्री; गन्ध, माला, रत्न, आभूषण आदि में जो अतिशय इच्छा करता है, वह 'आर्तध्यान' कहलाता है। इसके चार भेद हैं । यथा....... (1) अमनोज्ञ वियोग चिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और उनकी साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर, उनके वियोग की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उनका संयोग न हो, ऐसी इच्छा रखना, आतं ध्यान का पहला भेद है । इस आर्त ध्यान का कारण द्वेष है। (२) मनोश अवियोग चिन्ता-पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय और उनके कारण रूप माता-पिता, भाई, स्वजन, स्त्री, पुत्र, धन और सातावेदना के संयोग में उनका वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनके संयोग की इच्छा करना आर्त्तध्यान का दूसरा भेद है। इपका मल कारण-राग है। (३) रोग वियोग चिन्ता-शल, प्रवास कास आदि रोग-आतंक मे व्याकुल प्राणी का रोग के वियोग का चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिये रोगादि का संयोग न होने की चिन्ता करना, आर्त ध्यान का तीसरा भेद है। (४) निदान-देवेन्द्र, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि के रूप और ऋद्धि आदि देख कर या सुन कर उनमें आसक्ति लाना और यह सोचना कि 'मैने जो तप-संयम आदि धर्म कार्य किये हैं, उनके फलस्वरूप मुझे भी ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो,' इस प्रकार अधम निदान की चिन्ता करना, आर्त ध्यान का चौथा भेद है । आर्त ध्यान का मूल कारण 'अज्ञान' है। क्योंकि अशानियों के अतिरिक्त दूसरों को सांसारिक सुखों में आसक्ति नहीं होती । ज्ञानी For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२८ - भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ रौद्र ध्यान पुरुषों के चित्त में तो सदा मोक्ष की ही लगन लगी रहती है । यह चार प्रकार का आर्त्तध्यान संसार को बढ़ाने वाला और सामान्यतः तिर्यंच गति में ले जाने वाला होता है। आत्तं ध्यान के चार लक्षण (लिंग) कहे हैं । यथा-१ क्रन्दनता-ऊँचे स्वर मे रोना और चिल्लाना २ शोननता-दीनता के भाव युक्त हो, आँखों में आँसू भर आना ३ तेपनता-टपटप आंसू गिराना और ४ परिदेवनता-बार-बार क्लिष्ट भाषण करना, विलाप करना। इष्ट वियोग, अनिष्ट मंयोग और वेदना के निमित्त से ये उपर्युक्त चार लक्षण आर्तध्यानी के होते हैं। रौद्र ध्यान १४६-द्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ हिंसाणुबंधी २ मोसाणुबंधी ३ तेयाणुबंधी ४ सारक्खणाणुबंधी। रोहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-१ ओस्सण्णदोसे, २ बहुलदोसे ३ अण्णाणदोसे ४ आमरणांतदोसे । भावार्थ-१४६ रौद्र ध्यान तार प्रकार का है। यथा-१ हिंसानुबन्धी २ मषानुबन्धी ३ स्तेयानुबन्धी और ४ संरक्षणानुबन्धी। रौद्र ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा-१ ओसन्न दोष २ बहुल दोष ३ अज्ञान दोष और ४ आमरणान्त दोष । विवेचन-रौद्र ध्यान-हिंसा, झूठ और चोरी में तथा धन आदि की रक्षा में मन को जोड़ना 'रौद्र ध्यान' है । अथवा हिंसा आदि का अतिक्रूर परिणाम 'रौद्र ध्यान' है। · अथवा हिंसा में प्रवृत्त आत्मा द्वारा प्राणियों को रुलाने वाले व्यापार का चिन्तन करना 'रौद्र ध्यान' है। अथवा छेदना, भेदना, काटना, मारना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना इत्यादि कार्यों में जो राग करता है और जिसमें अनुकम्पा भाव नहीं है, उस पुरुष का ध्यान 'रौद्र ध्यान' कहलाता है । इसके चार भेद हैं । यथा-- For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगती सूत्र-दा. २५ उ. ५ सौद्र ध्यान ३५२९ (१) हिमानबन्धी--प्राणियों को चाबक आदि से मारना, कील आदि से नाक, कान आदि बींधना, रस्सी, जंजीर आदि से बांधनी, अग्नि में डालना, डाम लगाना, तलवार आदि से प्राण-वध करना अथवा उपर्युक्त कार्य न करते हुए भी क्रोध के वश हो कर निर्दयतापूर्वक इन हिसाकारी कार्यों का निरन्तर चिन्तन करते रहना 'हिंमानुबन्धी रौद्र ध्यान' है। (२) मृषानुबन्धी--दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति करने वाले तथा छिप कर पापा चरण करने वाले को अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, असत अर्थ का प्रकाशन, मत अर्थ का अपलाप एवं एक के स्थान पर दूसरे पदार्थ आदि का कथन रूप असत्य वचन एवं प्राणियों का उपघात करने वाले वचन कहना या कहने का निरन्तर चिन्तन करना-'मृपानुबन्धी रोद्र ध्यान' है। ___ (३)स्तेयानुबन्धी--(चौर्यानुबन्धो) तीव्र क्रोधं ओर लोभ से व्याकुल चित्त वाले पुरुष की प्राणियों के उपघातक, पर-द्रव्य हरण आदि कार्यों में निरन्तर चित्तवृत्ति का होना 'स्तेयानुबन्धी रौद्र ध्यान' है। (४) संरक्षणानुबन्धी-शब्दादि पाँच विषयों के माधनभूत, धन की रक्षा करने की चिन्ता करना और 'न मालूम दूसरा क्या करेगा'-इस आशंका से दूसरों का उपघात करने की कषाय युक्त चित्तवृत्ति रखना 'मरक्षणानुबन्धी रोद्र ध्यान' हैं । .. हिंसा, झूठ, चोरी और धन-संरक्षण स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करते हुए की अनुमोदना करना तथा इन तीनों के निमित्तादि का चिन्तन करना 'रौद्र ध्यान' है। राग-द्वेष से व्याकुल जीव के यह चारों प्रकार का रौद्र ध्यान होता है । यह ध्यान संसार को बढ़ाने वाला और प्रायः नरक गति में ले जाने वाला होता है । .. . रौद्र ध्यान के चार लक्षण हैं । यथा-- १ ओसन्न दोष-रौद्रध्यानी हिंसा से निवृत्त न होने से बहुलतापूर्वक हिंसा आदि में से किसी एक में प्रवृत्ति करता है। . २ बहुल दोष-रौद्रध्यानी हिंसादि सभी दोषों में प्रवृत्ति करता है। ३ अज्ञान दोष-अज्ञान से, कुशास्त्र के संस्कार से नरकादि के कारणभूत अधर्म स्वरूप हिंसादि में धर्म-द्धि से उन्नति के लिये प्रवृत्ति करना 'अज्ञान दोष' है। अथवा नाना दोष-हिसादि के विविध उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति करना 'नाना दोष' है। ४ आमरणान्त दोष-मरणपर्यन्त क्रूर हिंसादि कार्यों में अनुताप (पश्चात्ताप) न For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३० . भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ धर्म ध्यान होना एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना 'आमरणान्त दोष' है। जैसे कालमौकरिक कमाई । .. कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला रौद्रध्यानी दूसरे के दुःख में प्रसन्न होता है । ऐहिक और पारलौकिक भय से रहित होता है । उसके मन में अनुकम्पा भाव लेशमात्र भी नहीं होता । अकार्य कर के भी उसे पश्चात्ताप नहीं होता। पाप कार्य कर के वह प्रसन्न होता है। धर्म ध्यान १४७-धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा१ आणाविजए २ अपायविजए ३ विवागविजए ४ संठाणविजए । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-१ आणा. रुयी- २ णिस्सगरुयी ३ सुत्तरुयी ४ ओगाढरुयी। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, त जहा-१ वायणा २ पडिपुच्छणा ३ परियट्टणा ४ धम्मकहा। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ एगत्ताणुप्पेहा २ अणिचाणुप्पेहा ३ असरणाणुप्पेहा ४ संसाराणुप्पेहा । कठिन शब्दार्थ--चउप्पडोयारे--चतुष्प्रत्यवतार अर्थात् भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा, इन चार बातों से जिसका विचार किया जाय। भावार्थ-१४७-धर्म ध्यान के चार प्रकार एवं चतुष्प्रत्यवतार कहा है। यथा-१ आज्ञाविचय २ अपायविचय ३ विपाक-विचय और ४ संस्थानविचय । धर्म ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा-१ आज्ञारुचि २ निसर्गरुचि ३ सूत्ररुचि और ४ अवगाढ़रुचि । धर्म ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा-१ वाचना २ प्रतिपृच्छना For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता मूत्र-ग. २५. उ. ७ धर्म ध्यान ३५३? ३ परिवर्तना और ४ धर्मकथा । धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही है । यथा-१ एकत्वानप्रेक्षा, २ अनित्यानुप्रेक्षा ३ अशरणानुप्रेक्षा और ४ संसारानुप्रेक्षा। . विवेचन-धर्म ध्यान-धर्म अर्थात् जिन-आज्ञा युक्त पदार्थ स्वरूप के पर्यालोचन में मन को एकाग्र करना 'धर्म ध्यान' है । अथवा श्रुतचारित्र धर्म सहित ध्यान 'धर्म ध्यान' है । अथवा सूत्रार्थ की साधना करना, महाव्रतों को धारण करना, बन्ध, मोक्ष, गति, आगति के हेतुओं का विचार करना । पाँच इन्द्रियों के विषयों से निवृत्ति और प्राणियों में दया भाव, इनमें मन की एकाग्रता होना 'धर्म ध्यान' है। ...... १ आज्ञाविचय-(आणाविजय) जिन आज्ञा को सत्य मान कर उस पर पूर्ण श्रद्धा रखना, उसमें प्रतिपादित तत्त्वों का चिन्तन और मनन करना, वीतराग प्रतिपादित तत्त्वों में से कोई तत्त्व समझ में नहीं आवे, तो यह विचार करे कि-'यह वचन वीतराग, सर्वज्ञ भगवान् जिनेश्वर द्वारा कथित है, इसलिये सर्व प्रकारेण सत्य ही है । वीतरागी पुरुषों के वचन सत्य ही होते हैं. क्योंकि उनके असत्य कथन का कोई कारण नहीं है।' इस प्रकार वीतराग वचनों का चिन्तन-मनन करना । उनमें सन्देह न करना और उनमें मन को एकाग्र करना आज्ञाविचय' नामक धर्म ध्यान है। २ अपायविचय-राग-द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव और क्रियाओं से होने वाले ऐहिक और पारलौकिक कुफल और हानियों का विचार करना, चिन्तन करना-'अपायविचय' धर्म ध्यान हैं । इन दोषों से होने वाले कुफल का चिन्तन करने वाला जीव, इन दोषों से अपनी आत्मा की रक्षा करने में सावधान रहता है एव इनसे दूर रहते हुए आत्म-कल्याण साधता है। ३ विपाकविचय-'यद्यपि शुद्ध आत्मा का स्वरूप ज्ञान-दर्शन और मुग्वादि रूप है, तथापि कर्मवश निजी गुण दबे हुए हैं । कर्मों के वश हो कर यह चारों गतियों में परिभ्रमण कर रही है । सम्पत्ति-विपत्ति, संयोग-वियोग आदि से होने वाले सुख-दुःख जीव के पूर्वोपाजित शुभाशुभ कर्मों का ही फल है । स्वोपार्जित कर्मों के अतिरिक्त कोई अन्य इस आत्मा को सुख-दुःख देने वाला नहीं है।' इस प्रकार कर्म विषयक चिन्तन में मन को लगाना 'विपाकविचय' धर्म ध्यान है। ४ संस्थानविचय-धर्मास्तिकायादि छह द्रव्य और उनको पर्याय, जीव, अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, लोक का स्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, स्वर्ग आदि का For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३२ भगवती सूत्र-ग. २५ उ. ७ धर्म ध्यान आकार, लोकस्थिति, जीव की गति-आगति, जीवन, मरण आदि शास्त्रोक्त पदार्थों का चिन्तन करना तथा इस अनादि अनन्त संसार-सागर से पार करने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप संवर रूपी नौका का विचार करना इत्यादि रूप से शास्त्रोक्त पदार्थों के चिन्तन-मनन में मन को एकाग्र करना संस्थानविचय धर्म ध्यान' है। धर्म ध्यान के चार लक्षण हैं । यथा-- १ आज्ञारुचि-शास्त्रोक्त अर्थों पर रुचि रखना । २ निसर्गरुचि-किसी के उपदेश के बिना, स्वभाव से ही जिनभाषित तत्त्वों पर श्रद्धा होना। ३ सूत्ररुचि-सूत्र अर्थात् आगमोक्त वीतराग प्रतिपादित तत्त्वों पर श्रद्धा करना । ४ अवगाढ़रुचि-(उपदेशरुचि) द्वादशांग का विस्तारपूर्वक ज्ञान करने से जिनप्रणीत भावों पर जो श्रद्धा होती है, वह 'अवगाढ़रुचि' है । अथवा साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से जो श्रद्धा होती है. वह 'अवगाढ़रुचि' है। तात्पर्य यह है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व ही धर्म ध्यान का लिंग है। जिनेश्वर देव एवं साधु मुनिराजों के गुणों का कथन करना, भक्तिपूर्वक प्रशंसा एवं स्तुति करना, गुरु आदि का विनय करना, दान देना, श्रुत, शील एवं संयम में अनुराग रखना, ये धर्म ध्यान के चिन्ह हैं । इनसे धर्मध्यानी पहिचाना जाता है। . धर्म ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा-१ वाचना २ पृच्छना ३ परिवर्तना और ४ धर्मकथा। स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में वाचम, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा, ये चार धर्म ध्यान के अवलम्बन कहे हैं। धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही हैं । यथा १ एकत्वानुप्रेक्षा-"इस संसार में मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है और में भी किसी का नहीं हूँ। ऐसा कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता, जो भविष्य में मेरा होने वाला हो अथवा मैं जिसका बन सकूँ" इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व अर्थात् असहायपन की भावना करना 'एकत्वानुप्रेक्षा' है । ___ २ अनित्यानुप्रेक्षा-"शरीर अनेक विघ्न, बाधाओं और रोगों का स्थान है । संपनि, विपत्ति का स्थान है । संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है । उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ नश्वर है।" इस प्रकार शरीर, जीवन तथा संसार के सभी पदार्थों के अनित्य स्वरूप पर For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती स्त्र-स.२५ 7 ७ गुका ध्यान . विचार करना, 'अनित्यानप्रेक्षा' है। अशरणानुप्रेक्षा-'जन्म, जरा, मृत्यु के भय से भयभीत और व्याधि एव वेदना से पीड़ित जीव का इस मंसार में कोई त्राण रूप नहीं है। यदि आत्मा का कोई त्राण करने वाला है, तो जिनेन्द्र भगवान का प्रवचन ही एक त्राण-शरण है।' इस प्रकार आत्मा के त्राण-शरण के अभाव का निन्तन करना 'अशरण भावना' है । ४ संसारानुप्रेक्षा-'इस संसार में माता बन कर वही जीव, पुत्री, बहिन और स्त्री बन जाता है । पुत्र का जीव पिता, भाई और शत्रु तक बन जाता है । इस प्रकार चार गति में सभी अवस्थाओं में मंसार के विचित्रतापूर्ण स्वरूप का विचार करना 'संसारानप्रेक्षा' है। धर्म ध्यान के उपरोक्त चार भेद के अतिरिक्त अन्य प्रकार भी हैं। वे इस प्रकार हैं (१) पिण्डस्थ-पाथिवी, आग्नेयी आदि पाँच धारणाओं का एकाग्रता से चिन्तन करना। (२) पदस्थ--नाभि में मोलह पंखुड़ी के, हृदय में चौबीस पंखुड़ी के और मुग्व पर आठ पंखुड़ी के कमल को कल्पना करना और प्रत्येक पंखुड़ी पर वर्णमाला के अ, आ, इ, ई आदि अक्षरों की अथवा पंचपरमेष्ठी मन्त्र के अक्षरों की स्थापना कर के एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन करना अर्थात किमी पद के आश्रित हो कर मन को एकाग्र करना 'पदस्थ धर्म ध्यान' है। (३) रूपस्थ--शास्त्रोक्त अरिहन्त भगवान् की शान्त दशा को हृदय में स्थापित कर के स्थिर चित्त से ध्यान करना 'रूपस्थ धर्म ध्यान' है। (४) रूपातीत-रूप रहित निरंजन, निराकार, निर्मम, सिद्ध भगवान् का अवलम्बन ले कर, उसके साथ आत्मा की एकता का चिन्तन करना 'रूपातीत धर्म ध्यान' है। शुक्ल ध्यान १४८-सुक्के झाणे चउब्बिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा१ पुहुत्तवियस्के सवियारी २ एगंतवियक्के अवियारी ३ सुहुमकिरिए For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ ७ शुवल ध्यान अणियो ४ समुच्छिणकिरिए अप्पडिवायी । सुकस्स णं झाणस्म चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - १ खंती २ मुत्ती ३ अज्जवे ४ मद्दवे । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा - १ अव्व २ असंमोहे ३ विवेगे ४ विउसग्गे । सुकस्स णं झाणस्म चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ अनंतवत्तियाणुप्पेहा २ विष्परिणामहा ३ सुभाणुहा ४ अवायाणुप्पेहा । सेत्तं झाणे । ३५३४ भावार्थ - १४८ - शुक्ल ध्यान के चार प्रकार और चतुष्प्रत्यवतार कहे हैं । यथा - १ पृथक्त्व-वितर्क सविचारी २ एकत्व-वितर्क - अविचारी ३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती और ४ समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती । - शुक्ल ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा -१ क्षान्ति (क्षमा) २ मुक्ति ३ आर्जव और ४ मार्दव । - शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा - १ अन्यथा २ असम्मोह ३ विवेक और ४ उत्सर्ग । शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं । यथा - १ अनन्त-वर्तितानुप्रेक्षा २ विपरिणामानुप्रेक्षा ३ अशुभानुप्रेक्षा और ४ अपायानुप्रेक्षा । यह ध्यान का वर्णन हुआ। विवेचन -- शुक्ल ध्यान -- पूर्व विषयक श्रुत के आधार से मन की अत्यन्त स्थिरता और योग का निरोध, 'शुक्ल ध्यान' कहलाता है । अथवा जो ध्यान आठ प्रकार कर्म- मल को दूर करता है । अथवा जो शोक को नष्ट करता है, वह 'शुक्ल ध्यान' हैं । तात्पर्य यह है कि परावलम्बन रहित शुक्ल अर्थात् निर्मल आत्म-स्वरूप का तन्मयतापूर्वक चिन्तन करना 'शुक्ल ध्यान' है । अथवा जिस ध्यान में विषयों का सम्बन्ध होने पर भी वैराग्य-बल से चित्त, बाहरी विषयों की ओर नहीं जाता तथा शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी स्थिर हुआ चित्त ध्यान से लेश मात्र भी नहीं डिगता, उसे 'शुक्ल ध्यान' कहते है। शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं। यथा- For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मत्र-श. २५ उ. ७ शुक्ल ध्यान १ पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी-एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पथक-पृथक विस्तारपूर्वक, पूर्वगत श्रुन के अनुसार, द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक आदि नयों मे चिन्तन करना"पृथक्त्व-वितर्क सविचारी' शुक्ल ध्यान है । यह ध्यान विनार महित होता है । विचार का स्परूप है अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगों में संक्रमण । अर्थात् इस ध्यान में अर्थ में शब्द में, शब्द से अर्थ में, शब्द में शब्द में और अर्थ से अर्थ में एवं एक योग में दूसरे योग में संक्रमण होता है। पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान, पूर्वधारी को होता है और मरुदेवी माता के समान जो पूर्वधर नहीं हैं, उन्हें अर्थ, व्यंजन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप यह शुक्ल ध्यान होता है। २ एकत्व-वितर्क-अविचारी-पूर्वगत श्रत का आधार ले कर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व (अभेद) से किसी एक पदार्थ का अथवा पर्याय का स्थिर चित्त मे चिन्तन करना 'एकत्व-वितर्क अविचारी' है । इसमें, अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण नहीं होता। जिस प्रकार वायु रहित एकान्त स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त स्थिर रहता है। ३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती-मोक्ष जाने के पहले केवली भगवान् मन और वचन, इन दो योगों का तथा अर्द्ध काय-योग का भी निरोध करते हैं । उस समय केवली भगवान् के कायिकी, उच्छ्वास आदि मूक्ष्म क्रिया ही रहती है । परिणामों में विशेष बढ़े-चढ़े रहने से केवलो भगवान् यहां से पीछे नहीं हटते । यह तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती' शुक्ल ध्यान है। ४ समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती-शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर लेते हैं । योगों के निरोध से सभी क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं । यह ध्यान सदा जीवन पर्यन्त बना रहता है । इसलिये इसे 'समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' शक्ल ध्यान कहते हैं। पृथक्त्व-वितर्क सविचारी शुक्ल ध्यान, सभी योगों में होता है। एकत्व-वितर्क अविचारी शुक्ल ध्यान किसी एक ही योग में होता है । सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती शुक्ल ध्यान केवल काय-योग में होता है । चौथा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान अयोगी अवस्था में ही होता है । छद्मस्थ के मन को निश्चल करना 'ध्यान' कहलाता है । और केवली के काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है । शुक्ल ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा-१ क्षान्ति (क्षमा) क्रोध न करना For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३६ और उदय में आये हुए क्रोध को विफल कर देना । इस प्रकार क्रोध का त्याग क्षमा है । २ मुक्ति - उदय में आये हुए लोभ को विफल करना । लोभ का त्याग मुक्ति ( शौच - निर्लोभता ) है । ३ आर्जव - माया को उदय में नहीं आने देना एवं उदय में आई हुई माया को निष्फल कर देना आर्जव ( सरलता ) है । . ४ मार्दव - मान नहीं करना और उदय में आये हुए मान को निष्फल कर देना । मान का त्याग करना मार्दव (मृदुता - कोमलता ) है । भगवती सूत्र - २५ उ. ७ शुक्ल ध्यान बह- उपसर्गों से डर कर ध्यान से नलित नहीं होते । 2 अन्यत्र इनका क्रम इस प्रकार भी हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति । शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा - १ २ असम्मोह - शुक्लध्यानी को अत्यन्त गहन सूक्ष्म विषयों में अथवा देवादि कृत माया में सम्मोह नहीं होता । ३ विवेक शुक्लध्यानी, आत्मा को देह से भिन्न और सभी संयोगों को आत्मा से न समझता है । अव्यथ- शुक्लध्यानी परी ४ व्युत्सर्ग- शुक्लध्यानी निस्मंग रूप से देह और उपधि का त्याग करता है । अन्यत्र अव्यथ आदि को शुक्ल ध्यान के लक्षण बताये हैं और क्षमा आदि को अवलम्बन बताये हैं | शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं । यथा १ अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा - अनन्त भव परम्परा की भावना करना । जैसे- 'यह जीव अनादि काल से संसार में चक्कर लगा रहा है। इस संसार रूपी महासमुद्र के पार पहुँचना अत्यंत दुष्कर हो रहा है। यह जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव भवों में निरन्तर एक के बाद दूसरे में, बिना विश्राम के परिभ्रमण कर रहा है।' इस प्रकार की भावना करना 'अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा' है । २ विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार करना । जैसे- 'सभी स्थान अशाश्वत है । यहां के और देवलोक के स्थान तथा मनुष्य और देवादि कीऋद्धियाँ और सुख अस्थायी है ।' इस प्रकार की भावना विपरिणामानुप्रेक्षा' है । ३ अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना । जैसे- 'इस मंसार को धिक्कार है, जिसमें एक सुन्दर रूप वाला अभिमानी मनुष्य मर कर अपने ही मृत शरीर For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगनती सूत्र-श. २५ उ. ७ व्युत्सर्ग ३५३७ में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है' इत्यादि से भावना करना 'अशुभानुप्रेक्षा' है । ४ अपायानुप्रेक्षा--जीव, जिन कारणों से दुःखी होता है, उन विविध उपायों का चिन्तन करना । जैसे-'वश में नहीं किये हुए क्रोध और मान तथा बढ़ती हुई माया और लोभ, ये चारों संसार के मूल को सींचने और बढ़ाने वाले हैं। इन्हीं से जीव विविध प्रकार के दुःख भोगता है' इत्यादि आश्रव से होने वाले अपायों का चिन्तन करना ‘अपायानुप्रेक्षा' है। . इस प्रकार ध्यान के ४८ भेद होते हैं। आर्त ध्यान के ८, रोद्र ध्यान के ८, धर्म-: ध्यान के १६ और शुक्ल ध्यान के १६, ये कुल मिला कर ४८ भेद होते हैं। . चार ध्यानों में से धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं, निर्जरा के कारण हैं,. अतः ग्राह्य हैं । आतं ध्यान और रोद्र ध्यान अप्रशस्त हैं, कर्मबन्ध और संसार वृद्धि के कारण हैं, अतः त्याज्य हैं। तप के प्रकरण में प्रशस्त और अप्रशस्त--दोनों प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया है। प्रशस्त ध्यानों का आसेवन करने से ओर अप्रशस्त ध्यानों को छोड़ने से तप होता है । इस अभिप्राय से तप के प्रकरण में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों का वर्णन किया है। व्युत्सर्ग ७ाण . . . १४९ प्रश्न-से किं तं विउसग्गे ? १४९ उत्तर-विउसग्गे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ दध्वविउसग्गे य भावविउसग्गे य। __भावार्थ-१४९ प्रश्न-हे भगवन् ! व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? . . १४९ उत्तर-हे गौतम ! व्युत्सर्ग दो प्रकार का है । यथा-द्रव्य व्युत्सर्गऔर भाव व्युत्सर्ग। . ...१५० प्रश्न-से किं तं दव्वविउसग्गे ? .. For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३८ भगवती सूत्र-श २५ उ. ७ व्युत्सर्ग १५० उत्तर-दबविउसग्गे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-गणविउसग्गे, सरीरविउसग्गे, उवहिविउसग्गे, भत्तपाणविउसग्गे । सेत्तं दव्वविउसग्गे। भावार्थ-१५० प्रश्न-हे भगवन् ! द्रव्य व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? १५० उत्तर-हे गौतम ! द्रव्य व्युत्सर्ग चार प्रकार का है । यथा-गण व्युत्सर्ग, शरीर व्युत्सर्ग, उपधि व्युत्सर्ग और भक्तपान व्युत्सर्ग । इस प्रकार द्रव्य व्युत्सर्ग है। १५१ प्रश्न-से किं तं भावविउसग्गे ? १५१ उत्तर-भावविउसग्गे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कमायविउसग्गे, संसारविउसग्गे, कम्मविउसग्गे । भावार्थ-१५१ प्रश्न-हे भगवन् ! भाव व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? १५१ उत्तर-हे गौतम ! भाव व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है । यथा-कषाय व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म व्युत्सर्ग । १५२ प्रश्न-से किं तं कसायविउसग्गे ? १५२ उत्तर-कसायविउसग्गे चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा-कोह.. विउसग्गे, माणविउसग्गे, मायाविउसग्गे, लोभविउसग्गे । सेत्तं कसाय. विउसग्गे। भावार्थ-१५२ प्रश्न-हे भगवन ! कषाय व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? १५२ उत्तर-हे गौतम ! कषाय व्युत्सर्ग चार प्रकार का है । यथा-क्रोध व्यत्सर्ग,मान व्युत्सर्ग, माया व्युत्सर्ग और लोभ व्युत्सर्ग। यह कषाय व्युत्सर्ग हुआ । For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ व्युत्सर्ग १५३ प्रश्न-से किं तं संसारविउसग्गे ? १५३ उत्तर-संसारविउसग्गे चउठिवहे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइयसंसारविउसग्गे जाव देवसंसारविउसग्गे । सेत्तं संसारविउसग्गे । भावार्थ--१५३ प्रश्न-हे भगवन् ! संसार व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? १५३ उत्तर-हे गौतम ! संसार व्युत्सर्ग चार प्रकार का है। यथानैरयिक-संसार व्युत्सर्ग यावत् देव-संसार व्युत्सर्ग । यह संसार-व्युत्सर्ग हुआ। . १५४ प्रश्न-से किं तं कम्मक्सिग्गे ? १५४ उत्तर-कम्मविउसग्गे अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणावरणिजकम्मविउसग्गे जाव अंतराइयकम्मविउसग्गे । सेत्तं कम्मविउसग्गे । सेत्तं भावविउसग्गे । सेत्तं अभिंतरए तवे । • 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति* ॥ पणवीसइमे सए सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ भावार्थ-१५४ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म व्युत्सर्ग के कितने भेद हैं ? ... १५४ उत्तर-हे गौतम ! कर्म व्युत्सर्ग के आठ भेद हैं। यथा-ज्ञानावरणीय कर्म व्युत्सर्ग यावत् अन्तराय कर्म व्युत्सर्ग । यह कर्म व्युत्सर्ग हुआ और यह भाव व्युत्सर्ग हुआ और साथ ही यह आभ्यंतर तप हुआ। . 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-ममत्व का त्याग करना 'व्युत्सर्ग' तप है । इसके सामान्यतः दो भेद हैं ।। यथा---द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग । द्रव्य व्युत्सर्ग के चार भेद हैं । यथा-- (१) शरीर व्युत्सर्ग--ममत्व रहित हो कर शरीर का त्याग करना । For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४० भगवती मूत्र-ग. २५ उ. ८ जीवों के उत्पन्न होने का उदाहरण २ गणव्युत्सर्ग-अपने गण (गन्छ ) का त्याग कर के 'जिनकल्प' स्वीकार करना । ३ उपधि व्युत्सर्ग--किमी कल्प विशेप में उपधि का त्याग करना। ४ भक्त-पान व्युत्सर्ग--संदोष आहार-पानी का त्याग करना। भाव व्यत्सर्ग के तीन भेद हैं । यथा-- १ कषाय व्युत्सर्ग--कषाय का त्याग करना । इसके क्रोधादि नार भेद हैं। २ संसार व्युत्सर्ग-नरक आदि आयु बंध के कारण मिथ्यात्व आदि का त्याग करना। ३ कर्म व्युत्सर्ग-कर्मबन्ध के कारणों का त्याग करना । कहीं-कहीं भाव व्युत्सर्ग के चार भेद बताये हैं । वहाँ चौथा भेद योग व्युत्मर्ग' बताया है । योगों का त्याग करना-योग व्युत्सर्ग है। इसके तीन भेद हैं । मनयोग व्युत्सर्ग,' वचनयोग व्युत्सर्ग और काययोग व्युत्सर्ग । ये व्युत्सर्ग तप के भेद हुए। . __ आभ्यन्तर तप मोक्ष प्राप्ति में अन्तरंग कारण है । अन्तर्दृष्टि आत्मा ही इनका सेवन करता हैं और वही इन्हें तप रूप से मानता है । इसका प्रभाव बाह्य शरीर पर नहीं पड़ता, किन्तु आभ्यन्तर राग-द्वेष कषाय आदि पर पड़ता है । ॥ पच्चीसवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक ८ जीवों के उत्पन्न होने का उदाहरण १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-णेरइया णं भंते ! कह उववज्जति ? For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र २५ उ. ८ जीवों के उत्पन्न होने का उदाहरण १ उत्तर - से जहाणामर पवर पवमाणे अज्झवसाणणिव्वत्तिपणं करणवाणं सेकाले त ठाणं विष्पजहित्ता पुरिम ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विरइ, एवामेव एए वि जीवा पवओ विव पत्रमाणा अज्झ वसाणणिव्वत्तिणं करणोवाएणं सेयकाले तं भवं विष्पजहित्ता पुरिमं भवं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । कठिन शब्दार्थ - - पव लवक - कूदने वाला, पवमाणे- प्लवमान - कूदता हुआ । भावार्थ - ? प्रश्न - राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा- हे भगवन् ! नरयिक जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार कोई पुरुष कूदता हुआ अध्यवसाय निर्वार्तित क्रिया साधन द्वारा उस स्थान को छोड़ कर भविष्यत्‌काल में अगले स्थान को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जीव भी अध्यवसाय निर्वर्तित क्रिया साधन द्वारा अर्थात् कर्मों द्वारा पूर्वभव को छोड़ कर भविष्यत्काल में उत्पन्न होने योग्य भव को प्राप्त हो कर उत्पन्न होते हैं । ३५.४१ २ प्रश्न - तेसि णं भंते! जीवाणं कहं सीहा गई, कहं सीह गडविसप पण्णत्ते ? २ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए केड़ पुरिसे तरुणे वलवं एवं जहा चोदसमसए पढमुद्देसर जाव तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जंति, तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गई, तहा सीहा गइविसए पण्णत्ते । भावार्थ-२ प्रश्न - हे मगवन् ! उन नैरयिक जीवों को शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय कैसा होता है ? For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ८ आत्म-ऋद्धि से उत्पत्ति २ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण और बलवान हो इत्यादि चौदहवें शतक के पहले उद्देशकानुसार यावत् वे तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न होते हैं। उन जीवों की वैसी शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय होता है। ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कहं परभवियाउयं पकरेंति ? .. ३ उत्तर-गोयमा ! अज्झवसाणजोगणिव्वत्तिएणं करणोवाएणं एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरेंति । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव परभव की आय किस प्रकार बांधते हैं ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! वे जीव अपने अध्यवसाय रूप और मन आदि के व्यापार से करणोपाय (कर्मबन्ध के हेतु) द्वारा परभव को आयु बांधते हैं। ४ प्रश्र-तेसि णं भंते ! जीवाणं कहं गई षवत्तइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! आउपखएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं, एवं खलु तेसिं जीवाणं गई पवत्तड़ । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों की गति क्यों होती है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! उन जीवों को आयु, भव और स्थिति का क्षय हो जाने से गति होती है। आत्म-ऋद्धि से उत्पत्ति __५ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं आयड्ढीए उववज्जति, परिड्ढीए उववज्जति ? For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-ग २५ उ ८ आत्म-ऋद्धि से उत्पत्ति ५ उत्तर-गोयमा ! आयड्ढीए उववज्जति, णो पग्इिडीए उववति । भावार्थ-५ प्रश्न- हे भगवन ! वे जीव आत्म-ऋद्धि (अपनी शक्ति) . से उत्पन्न होते है या पर-ऋद्धि (दूसरों की शक्ति) से ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जीव आत्म-ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं, पर ऋद्धि - से नहीं। ६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवां कि आयकम्मुणा उववज्जति, परकम्मुणा उववति ? ६ उत्तर-गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति, णो परकम्मुणा उववति । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! वे जीव अपने कर्मों से उत्पन्न होते हैं या दूसरों के कर्मों से ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वे अपने कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं, दूसरों के कर्मों में नहीं। ___ ७ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं आयप्पओगेणं उववजंति, परप्पओगेणं उववनंति ? ___ ७ उत्तर-गोयमा ! आयप्पओगेणं उववजंति, णो परप्पओगेणं उववति । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव, आत्म-प्रयोग (अपने व्यापार) से उत्पन्न होते हैं या पर-प्रयोग से ? For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ८ आत्म-ऋद्धिमे उत्पत्ति ... ७ उत्तर-हे गौतम ! आत्म-प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर-प्रयोग से नहीं। ८ प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! कहं उववजंति ? ८ उत्तर-जहा गेरइया तहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेणं उववति । एवं एगिदियवजा जाव वेमाणिया । एगिंदिया एवं चेव । णवरं चउसमइओ विग्गहो, सेसं त चेव । ® सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरह ... ॥ पणवीसइमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिकों के समान असुरकुमार भी उत्पन्न होते हैं, यावत् आत्म-प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर-प्रयोग से नहीं । इसी प्रकार एकेन्द्रिय के अतिरिक्त यावत् वैमानिक तक सभी जीवों के विषय में जानना चाहिये। एकेन्द्रियों का कथन भी उसी प्रकार है, किन्तु उनकी विग्रह गति उत्कृष्ट चार समय तक को होती है । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . विवेचन-जीवों की उत्पत्ति, शीघ्र गति एवं शीघ्र गति के विषय में चौदहवें शतक के प्रथम उद्देशक में विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिये। ॥ पच्चीसवें शतक का आठवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक ह भवसिद्धिक जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - भवसिद्धियणेरइया णं भंते ! कहं उववज्जंति ? १ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे - अवसेसं तं चेव जाव माणिए । * 'सेवं भंते! सेवं भंते!' त्ति || पणवीसइमे स णवमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! भवसिद्धिक नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! पूर्वोक्त कूदते हुए पुरुष के समान इत्यादि सभी पूर्वोक्त यावत् वैमानिक पर्यन्त । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ पच्चीसवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक १० अभव्य जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न-अभवसिद्धियणेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? १ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे-अवसेसं तं चेव एवं जाव वेमाणिए । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ पणवीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अभवसिद्धिक नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त कोई कूदने वाले पुरुष के समान यावत् वैमानिक पर्यन्त । ॥ पच्चीसवें शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक ११ सम्यगदष्टि जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न-सम्मदिट्ठिणेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. १२ मियादृष्टि जीवों की उत्पत्ति १ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे - अवसेसं तं चैव, एवं एगिंदियवज्जं जाव वेमाणिया । * 'मेवं मंते ! सेवं भंते !' त्ति || पणवीस से सर एक्कारसमो उद्देमो समत्तो || भावार्थ- १ प्रश्न- हे भगवन् ! समदृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं? १ उत्तर - हे गौतम! कूदने वाले पुरुष के समान पूर्ववत् । एकेन्द्रिय छोड़ कर यावत् वैमानिक पर्यन्त । - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन ! यह इसी प्रकार हैंकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - यहाँ सगदृष्टि के उत्पन्न होने का वर्णन है । एकेन्द्रिय जीव मिध्यादृष्टि ही होते हैं। इसलिये यहाँ एकेन्द्रियों को वर्जित किया है। ॥ पच्चीसवें शतक का ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण | ३५४७ शतक २५ उद्देशक १२ मिथ्याद्दष्टि जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - मिच्छदिट्टिणेरड्या णं भंते ! कहं उववज्जंति ? For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४८ भगवती सूर ग. २५ उ. १२ नियादृष्टि जीवों की उत्पनि १ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे-अवमेमं तं चेव, एवं जाव वेमाणिए । की 'मेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति है ॥ पणवीसइमे सए बारसमो उद्देसो समत्तो । ॥ एणवीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-१प्रश्न-हे भगवन् ! मिथ्यादृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । यावत् वैमानिक पर्यन्त । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . ॥ पच्चीसवें शतक का बारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ पच्चीसवाँ शतक सम्पूर्ण For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ (बन्धी शतक) णमो सुयदेवयाए भगवईए। जीवा य लेस्स पक्खिय दिहि अण्णाण णाण सण्णाओ। वेय कसाए जोग उवओग एकारस वि ठाणा ॥ भगवती श्रुत-देवता को नमस्कार हो । भावार्थ-इस शतक में ग्यारह उद्देशक हैं। उनका विषय क्रमशः इस प्रकार है--१ जीव २ लेश्या ३ पाक्षिक (शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक) ४ दृष्टि ५ अज्ञान ६ ज्ञान ७ संज्ञा ८ वेद ९ कषाय १० योग और ११ उपयोग। ग्यारह उद्देशकों में उपर्युक्त द्वारों से बन्ध विषयक निरूपण किया जायगा। For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ उद्देशक १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा ? -M OAAAAAAA-- १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीजीवे णं भंते ! १ पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ २ बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ ३ बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ ४ बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ ? ___ १ उत्तर-गोयमा ! १ अत्यंगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ २ अत्थे. गइए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ ३ अत्थेगइए बंधी ण बंधड बंधिस्सइ ४ अत्यंगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ (१)। . कठिन शब्दार्थ -बंधी--बांधा था, बंधा-बांधता है, बंधिस्सइ--बांधेगा। भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने पूछा-हे भगवन् ! १ जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा। २ अथवा बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा? ३ अथवा बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा? ४ अथवा बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? १ उत्तर-हे गौतम ! १ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा। २ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, परंतु आगे नहीं बांधेगा । ३ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है, किंतु आगे बांधेगा। For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है. करेगा? ३५५५ ४ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा। ___ २ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधो बंधइ बंधिस्सइ २ बंधी बंधइ ण बंधिस्मइ पुच्छा ।। २ उत्तर-गोयमा ! १ अत्थेगइए बंधी बंधह बंधिस्सइ, अथे. गइए एवं चउभंगो। : भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव ने पापकर्म बाँधा था, बांधता है और बांधेगा ? अथवा बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा आदि०? २ उत्तर-हे गौतम ! किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा आदि चारों भंग। ३ प्रश्न-कण्हलेस्मे णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। ३ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधह बंधिस्मइ, अत्थेगइए बंधी बंधह ण बंधिस्सइ, एवं जाव पम्हलेस्से । सव्वत्थ पढम बिइयभंगा । सुकलेस्से जहा सलेस्से तहेव चउभंगो। . ___ भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी जोव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! १ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा। २ किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, किन्तु आगे नहीं बांधेगा। इसी प्रकार पद्मलेशी पर्यन्त । इन सभी में पहला और दूसरा-ये यो भंग होते हैं । शुक्ललेशी के लिए सलेशी के समान चार भंग जानो। . ४ प्रश्न-अलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५२ भगवती सूत्र-श. २६ उ. १ जीव ने कम का बन्ध किया, करता है. करेगा? ४ उत्तर-गोयमा ! बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सह (२)। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अलेशी जीव ने पापकर्म बांधा था ? ४ उत्तर-हे गौतम ! अलेशी जीव ने पापकर्म बांधा था, अब नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा। ५ प्रश्न-कण्हपविखए णं भंते ! जीवे पावं कम्म-पुन्छा ।.. ५ उत्तर-गोयमा ! अत्यंगइए बंधी० पढम-बिइया भंगा। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था.? ५ उत्तर-हे गौतम ! किसी जीव ने बांधा था आदि पहला और दूसरा भंग। ६ प्रश्न-सुकपक्खिए णं भंते ! जीवे-पुच्छा। .६ उत्तर-गोयमा ! चउभंगो भाणियब्यो (३) । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! शुक्लपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था.? ६ उत्तर-हे गौतम ! चारों भंग जानो। ७-सम्मदिट्ठीणं चत्तारि भंगा, मिच्छादिट्ठीणं पढम-विइया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव (४)। भावार्थ-७-समदृष्टि जीवों में चार भंग, मिथ्यादृष्टि जीवों में पहला और दूसरा-ये दो भंग, सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों में भी इसी प्रकार दो भंग । ८-णाणीणं चत्तारि भंगा, आभिणिबोहियणाणीणं जाव मणपनव For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा ? ३५५३ गाणीणं चत्तारि भंगा, केवलणाणीणं चरमो भंगो जहा अले. स्साणं (५)। अण्णाणीणं पढम-बिइया, एवं मइअण्णाणीणं, सुय. अण्णाणणं विभंगणाणीणं वि (६)। भावार्थ-८-ज्ञानी जीवों में चार भंग, आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यव ज्ञानी में चार भंग, केवलज्ञानी जीवों में अन्तिम एक भंग अलेशी जीवों के समान पाया जाता है। अज्ञानी जीवों में पहला और दूसरा भंग, इसी प्रकार मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी में भी पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। ९-आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताणं पढमबिइया, णोसण्णोवउत्ताणं चत्तारि (७)। भावार्थ-९-आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त जीवों में पहला और दूसरा और नोसंजोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। ____१०-सवेयगाणं पढम-बिइया । एवं इत्थीवेयगा, पुरिसवेयगा, णपुंसगवेयगा वि । अवेयगाणं चत्तारि (८)। ___ भावार्थ-१०-मवेदक जीवों में पहला और दूसरा भंग इसी प्रकार स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक तथा नपुंसकवेदक में भी पहला और दूसरा भंग पाये जाते है। अवेदक में चारों भंग पाये जाते हैं। ११-सकसायीणं चत्तारि, कोहकसायीणं पढम-विहया भंगा, एवं माणकसाइयस्स वि, मायाकसाइयस्स वि । लोभकसाइयस्स चत्तारि भंगा। For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५४ भगवती सूत्र-श. २६ उ १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा? . भावार्थ-११-सकषायी जीवों में चार मंग, क्रोधकषायी जीवों में पहला और दूसरा भंग और इसी प्रकार मानकषायी तथा मायाकषायी जीवों में भी ये दो भंग पाये जाते हैं। लोभकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। १२ प्रश्न-अकसायी णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधीपुच्छा । ____१२ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ ३, अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ ४ (९)। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन ! अकषायी जीव ने पापकर्म बांधा था.? १२ उत्तर-हे गौतम ! किसी जीव ने बांधा था, अभी नहीं बांधता है कित भविष्य में बांधेगा और किसी जीव ने बांधा था, अभी नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा। .. __१३-सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्स वि वयजोगिस्स वि कायजोगिस्स वि। अजोगिस्स चरिमो (१०)। सागागेवउत्ते चत्तारि, अणगारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा (११)। भावार्थ-१३-सयोगी जीवों में चार भंग। इसी प्रकार मनयोगी, वचनयोगो और काययोगी जीवों में भी चार भंग पाये जाते हैं । अयोगी जीवों में अन्तिम एक भंग पाया जाता है। साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। . विवेचन-उपरोक्त सूत्र में जीव, लेण्या आदि ग्यारह स्थानों में बन्ध का कथन किया गया। इनमें से पहले 'उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपत्रक आदि विशेषण रहित सामान्य जीव की अपेक्षा ग्यारह द्वारों से बन्ध वक्तव्यता का कथन किया है । 'जीव ने For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा ? ३५५५ पाप कर्म बांधा था' इसके चार भंग बनाये हैं । यथा १ बांधा था, बांधना है और बाँधेगा। . बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा। ३ बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा । ४ बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा यदि कोई यह शंका करे कि 'जिस प्रकार 'बांधा था' के चार भंग बनते हैं, उसी प्रकार नहीं बांधा था' के भी चार भंग क्यों नहीं बनते ?' इसका समाधान यह है कि 'भूतकाल में पाप कर्म नहीं बांधा था,-ऐसा कोई भी जीव नहीं है। इसलिए नहीं बांधा था' यह मूल भंग बन ही नहीं सकता, फिर चार भंग तो बने ही कहां से ? . (1) 'बांधा था, बांधता है और बांधेगा'-यह पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा है। . (२) 'बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा'-यह दूसरा भंग क्षपक अवस्था को . प्राप्त होने वाले भव्य जीव की अपेक्षा है । (३) बांधा था, नहीं बांधता है ओर बांधेगा'-यह तीसरा भंग जिस जीव ने मोहनीय कम का उपशम किया है, उम उपशम दशा में वर्तमान भव्य जीव की अपेक्षा है। क्योंकि उस उपशम अवस्था से गिरने पर वह अवश्य कर्मों का बन्ध करेगा। (४) 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा'-यह चौथा भंग क्षीण-मोदनीय जीव की अपेक्षा है। ...... . सलेशी जीव में चारों भंग पाये जाते हैं, क्योंकि शुक्ललेशी जीव पाप कर्म का बन्धक भी होता है। कृष्णादि पांच लेश्या वाले जीवों में पहले के दो भंग हो पाये जाते हैं। क्योंकि उन जीवों में वर्तमान काल में मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम नहीं है । इसलिए उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता। कृष्णादि पांच लेश्या वाले जीवों में दूसरा भंग (बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा) तो सम्भव है, क्योंकि कालान्तर में क्षपक अवस्था प्राप्त होने पर वह नहीं बांधेगा । .अलेशी में केवल चौथा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि अयोगी केवली अवस्था में जीव अलेशी होता हैं । लेश्या के अभाव में जीव अबन्धक होता है। . जिन जीवों का संसार-परिभ्रमण काल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल से अधिक है, वे 'कृष्ण पाक्षिक' कहलाते हैं और जिन जीवों का संसार-परिभ्रमण काल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन से अधिक नहीं है और वे अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल के भीतर ही मोक्ष चले जायेंगे, वे 'शक्ल For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २६ उ. १ जीव ने कर्म का बन्ध किया, करता है, करेगा ? पाक्षिक' कहलाते हैं । कृष्णपाक्षिक जीवों में पहले के दो भंग होते हैं. क्योंकि वर्तमान काल में उन जीवों में पापकर्म का अबन्धकपन नहीं है। शुक्लपाक्षिक जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। प्रथम भंग तो प्रश्न समय के अनन्तर तुरन्त के भविष्यत् समय की अपेक्षा घटित होता है । दूसरा भंग भविष्यत्काल में क्षपक अवस्था की प्राप्ति की अपेक्षा घटित होता है। तीसरा भंग उन शुक्लपाक्षिक जीवों में घटित होता है, जो मोहनीय कर्म का उपशम कर के पोछे गिरने वाले हैं और चौथा भंग क्षपक अवस्था की अपेक्षा घटित होता 1 ३५५६ 'कृष्णपाक्षिक जीवों में 'बांधगे नहीं' - यह अंश असम्भव होते हुए भी दुसरा भंग माना है, तो शुक्लपाक्षिक जीवों में वांधेगे नहीं' इस अंग का अवश्य सम्भव होने से 'बांधेंगे' - इस अंश युक्त प्रथम भंग क्यों नहीं घटित होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शुक्लपाक्षिक जीवों के प्रश्न समय के अनन्तर ( तुरन्त पश्चात् ) समय की अपेक्षा प्रथम भंग है और कृष्णपाक्षिक जीवों में शेष समयों की अपेक्षा दूसरा भंग घटित होता है । सम्यग्दृष्टि जीवों में शुतलपाक्षिक के समान चारों भंग होते हैं। मिथ्यादृष्टि और मिश्र दृष्टि में पहले के दो भंग होते हैं, क्योंकि उनके मोहनीय कर्म का बन्ध होने में अन्तिम दो भंग घटित नहीं होते । केवलज्ञानी जीव को वर्तमान में और भविष्यत्काल में बन्ध नहीं होने से उनमें एकमात्र चौथा भंग ही होता है। अज्ञानी जीवों के मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम न होने से पहले के दो भंग हो पाये जाते हैं । आहारादि की संज्ञा अर्थात् आसक्ति वाले जीवों में क्षपकपन और उपशमकपन नहीं होने से पहले के दो भंग ही होते हैं। नोसंज्ञा अर्थात् आहारादि की आसक्ति रहित जीवों में मोहनीय कर्म का क्षय और उपशम सम्भव होने से चारों भंग पाये जाते है । वेद का उदय हो, तत्र जीव मोहनीय का क्षय और उपगम नहीं कर सकता । इसलिये पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । अवेदी जीवों में वेद का उपगम हो, किन्तु सूक्ष्म संपराय गुणस्थान की प्राप्ति न हो, तब तक मोहनीय कर्म को बांधता है और बांध । अथवा वहां से गिर कर भी बांधेगा । वेद का क्षय हो जाने पर पापकर्म बाधता है, परन्तु सूक्ष्म संयादि अवस्था में नहीं बांधता है । उपशान्तवेदी जीव सूक्ष्म- संपरायादि अवस्था में पापकर्म नहीं बांधता है, किन्तु वहां से उतरने के बाद बांधता है। वेद का क्षय हो जाने पर सूक्ष्म-परायादि गुणस्थानों में पापकर्म नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा। सकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं । उनमें से महामंग अभव्य जीव की अपेक्षा है | दूसरा भंग उस भव्य जीव की अपेक्षा है, जिसका सोनीय कर्म क्षय होने वाला For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-बन्ध ३५५७ है । उपशमक सूक्ष्म-मंगय जीव की अपेक्षा तीसरा भग है और चौथा भग क्षगक मूक्ष्मसम्पराय जीव की अपेक्षा है । इसी प्रकार लोभ-कषायी जीवों के विषय में भी समझना चाहिये । क्रोध-कषायी. मान-कषायी और माया-कषायी जीवों में पहले के दो भंग पाये जाते हैं । पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा और दूसरा भंग भव्य विशेष की अपेक्षा है। उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, क्योंकि क्रोधादि के उदय में अबन्धकता नहीं होती। अकषायी जीवों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है। तीमग भंग उपशमक अकषायी में और नीथा भंग क्षपक अकषायी में पाया जाता है। सयोगी में अभव्य, भव्यविशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं । अयोगी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता और भविष्य में भी नहीं होगा, इसलिये एक चौथा भंग ही पाया जाता है। साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं । इसकी घटना पूर्ववत् है। नैरयिक के पाप-बन्ध १४ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? १४ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी० पढम-बिइया । . भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव ने पाप-कर्म बांधा था इत्यादि. ? १४ उत्तर-हे गौतम ! किसी नयिक जीव ने पाप-कर्म बांधा था, इत्यादि पहला और दूसरा भंग। १५ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं . ? १५ उत्तर-एवं चेव । एवं कण्हलेस्से वि, णीललेस्से वि, काउ. लेस्से वि । एवं काहपरिखए, सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५८ भगवती मूत्र-श. २६ उ १ नैयिक के पाप-बन्ध सम्मामिच्छादिट्ठी, गाणी, आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी, आहार सगोवउत्ते जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते, सवेयए, णपुंसगवेयए, सकमायी 'जाव लोभकसायी, सजोगी, मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी, सागारोवउत्ते, अणागारोवउत्ते-एएसु सव्वेसु पएसु पढम बिइया भंगा भाणियत्रा । एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा, णवरं तेउलेस्सा, इत्थिवेयग-पुरिसवेयगा य अमहिया, गपुंसगवेयगा ण भणति, सेसं तं चेव, सव्वत्थ पढमबिइया भंगा । एवं जाव थणियकुमारस्स । एवं पुढविकाइयस्स वि, आउकाइयस्स विजाव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियस्स वि सव्वत्थ वि पढम-विइया भंगा, णवरं जम्स जा लेस्सा । दिट्ठी, णाणं, अण्णाणं, वेदो, जोगो य अस्थि तं तस्स भाणियब्वं, सेसं तहेव । मणूसस्स जच्चेव जीवपए वत्तव्वया सच्चेव गिरवसेसा भाणियब्वा । वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स । जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव, णवरं लेस्साओ जाणियबाओ, सेसं तहेव भाणियव्वं । र भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था? १५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् पहला और दूसरा भंग । इसी प्रकार कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी, कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, सम्यगदष्टि, मिथ्यावृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधि. ज्ञानी, अज्ञानी, मतिअजानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त, सवेदक, नपुंसक वेदक, सकषायी यावत् लोभकषाया, सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी, साकारोपयुक्त, अनाकारोपयुक्त, इन सभी पदों For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-२६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध ३५५९ में पहला और दूसरा--भंग पाया जाता है । ___ इसी प्रकार असुरकुमारों में भी, किन्तु उनमें तेजोलेश्या, स्त्रीवेवक और पुरुषवेदक अधिक कहने चाहिये, नपुंसकवेदक नहीं। शेष पूर्ववत् । इनमें पहला और दूसरा भंग पाया जाता है । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त । .पृथ्वीकायिक, अप्कायिक यावत् पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक तक सभी के इसी प्रकार पहला और दूसरा भंग है। जिस जीव में जो लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद और योग हों, उसमें वही कहना चाहिये। शेष पूर्ववत । मनुष्य के लिए जीवपद को वक्तव्यता के अनुसार सभी कहना चाहिये। वाणव्यन्तर असुरकुमारों के समान है। ज्योतिषी और वैमानिक भी इसी प्रकार है, परन्तु जिसके जो लेश्या हों, वही कहनी चाहिये । शेष पूर्ववत् । १६ प्रश्न-जीवे पण भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं किं बंधो बंधह बंधिस्सइ-? ___ १६ उत्तर-एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया तहेव णाणावरणिजस्स वि भाणियब्वा, णवरं जीवपए मणुस्सपए य सकसायी जाव लोभकसाइंमि य पढम विइया भंगा, अवसेसं तं चैव जाव वेमाणिया । एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणिय वो गिरवसेमो। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था. ? १६ उतर-हे गौतम ! पापकर्म की वक्तव्यता के समान ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में भी जानना चाहिये। परन्तु जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी यावत् लोम कषायी में पहला और दूसरा भंग ही कहना चाहिये, शेष पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त । ज्ञानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी सम्पूर्ण वण्डक कहने चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श: २६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध विवेचन--नैरयिक जीव में उपशम श्रेणी या क्षषक श्रेणी नहीं होती इमलिये उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है। इसी प्रकार सलेशी इत्यादि विशेषण युक्त नारक पद में भी जानना चाहिये और इसी प्रकार असुरकुमारादि में भी जानना चाहिये। ___ औधिक जीव और सलेशी आदि विशेषण युक्त जीव के लिये जो चतुर्भगी आदि क्क्तव्यता कही है, वह मनुष्य के लिये भी उसो प्रकार को चाहिये, क्योंकि जीव और मनुष्य, दोनों समान धर्म वाले हैं । इस प्रकार औधिक जीव सहित पच्चीस दण्डक पापकर्म सम्बन्धी कहे, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में भी पच्चीस दण्डक कहने चाहिये, किन्तु पापकर्म के दण्डक में जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी और लोभ कषायी की अपेक्षा सूक्ष्म-संपराय गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय कर्म रूप पाप कर्म का अबन्धक होने से चार भंग कहे थे, किन्तु यहाँ ज्ञानावरणीय कर्म के दण्डक में पहले के दो भंग ही कहने चाहिये, क्योंकि सकषायी जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक अवश्य होता है, अबन्धक नहीं होता । ज्ञानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय के दण्डक भी कहना चाहिये । - १७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं किं बंधी-पुच्छा। १७ उत्तर-गोयमा ! १ अत्थेगइए बंधी बंधा बंधिस्सइ २ अत्थे. गइए बंधी बधंह ण बंधिस्सइ ४ अत्थेगहए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ, सलेस्से वि एवं चेव तइयविहूणा भंगा । कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बिइया भंगा, सुकलेस्से तइयविहणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खिए पढम-बिइया । सुकपक्खिया तइयविहूणा । एवं सम्मदिहिस्स वि, मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स य पढम बिइया। गाणिस्स तइयविहूणा, आभिणिबोहियणाणी जाव मणपजवणाणी पढम बिइया, केवलणाणी तइयविहूणा । एवं णोसण्णोवउत्ते, अवेयए, अकमायी। सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते एएसु तइयविहूणा । अजो. For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. २६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध गिम्मि य चरिमो, मेमेगु पढम-विइया । कठिन शब्दार्थ--विहूणा--विहीन-- रहित । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ने वेदनीय कर्म बांधा था ? १७ उत्तर-हे गौतम ! १ किसी जीव ने बांधा था, बांधता है और बांधेगा। २ किसी जीव ने बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा। ४ किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा। ये तीन भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार सलेशी जीव में तीसरे भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। कृष्णलेशी यावत् पद्मलेशी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। शुक्ललेशी जीवों में तीसरे भंग के अतिरिक्त तीन भंग पाये जाते हैं। अलेशी में चौथा भंग होता है। कृष्णपाक्षिक जीवों में पहला और दूसरा मंग तथा शुक्लपाक्षिक में तीसरे के अतिरिक्त तीन भंग पाये जाते हैं । इसी प्रकार सम्यगदष्टि में भी तीन भंग होते हैं। मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों में पहला और दूसरा भंग होता है । ज्ञानी जीवों में तोमरे के अतिरिक्त तीन भंग होते हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् मनः पर्यवज्ञानी जीवों में पहला और दूसरा भंग तथा केवलज्ञानी में तीसरे के अतिरिक्त तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार नोसंजोपयुक्त, अवेदक, अकषायी, साकारोपयुक्त और अना. कारोपयुक्त, इन सभी में तीसरे के अतिरिक्त तीन भंग होते हैं। प्रयोगी में एक चौथा भंग होता है। शेष सभी में पहला और दूसरा भंग ही होता है । १८ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं बंधी बंधइ-? - १८ उत्तर-एवं गैरइया जाव वेगाणिय त्ति । जस्स जं अस्थि सव्वत्थ वि पढम-बिड्या, णवरं मणुस्मे जहा जीवे । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव ने वेदनीय कर्म बांधा ? १८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । नरयिक से ले कर यावन वैमानिक तक For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६२ भगवती सून-श. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-बन्ध जिसके जो लेश्यादि हों, वे कहने चाहिये । इन सभी में पहला और दूसरा भग पाया जाता है । मनुष्य सामान्य जीव के समान है। विवेचन--वेदनीय कर्म के बन्धक में पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा में है। जो भव्य जीव मोक्ष जाने वाला है. उनकी अपेक्षा दुसरा भंग है । तीसरा भंग यहां संभव नहीं है, क्योंकि जो जीव वेदनीय का अबन्धन हो जाता है, वह फिर वेदनीय का बन्ध कभी नहीं करता । चौथा भंग अयोगी केवली की अपेक्षा से है । इस प्रकार वेदनीय कर्म में तीसरा भंग छोड़ कर शेष तीन गंग पाये जाते हैं। सलेशी जीव में पूर्वोक्त युक्ति से तासरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग होते है । 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा,' यह चौथा भंग यहाँ स्वीकार किया है, किन्तु यह यहाँ किस प्रकार घटित होता है, यह सम्यक् ज्ञात नही हाता । यह भंग लेश्या रहित अयोगी में ही घटित होता है, क्योकि लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है और वहाँ तक जीव वेदनीय कर्म का बन्धक होता है। इस विषय में कोई आचार्य इस प्रकार ममाधान करते हैं कि इस सूत्र के प्रामाण्य (वनन) से अयोगी अवस्था के प्रथम समय में 'घंटा - लाला न्याय' से परमशुक्ल लेण्या मम्भावित होता है और इसीलिये सलेशी में चौथा भग घटित हो सकता है । तत्त्व बहुश्रुत गम्य है । कृष्णादि पाँच लेश्या वाले जीवों में अयोगापन का अभाव होने से वे वेदनीय कर्म के अबन्धक नहीं होते। इसलिये उन में पहले के दो भंग होते हैं । शुक्ललेशी जीव में सलेशी के समान तीन भंग होते हैं। अलेशी जीव, केवली और सिद्ध होते हैं उनमें केवल चौथा भंग ही पाया जाता है । कृष्णपाक्षिक जीव में अयोगीपन का अभाव होने से पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । शुक्लपाक्षिक जीव अयोगी भी होता है, इसलिये उसमें नीमरे 'भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग होते हैं। सम्यगदष्टि जीव में अयोगीपन का सम्भव होने से तीसरे भंग के अतिरिक्त शष तीन भंग पाये जाते हैं । मिथ्या दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से वे वेदनीय कर्म के अबन्धक नहीं होते। इसलिये पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । ज्ञानी और केवलज्ञानी में, अयोगी अवस्था में चौथा भंग होता है । इसलिये तीसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भग पाये जाते हैं । आभिनिबोधिक आदि ज्ञान वाले जीवों में अयोगी अवस्था ना अभाव होने से नौथा भग नहीं पाया जाता । उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । इस प्रकार सभी स्थानों पर यह समझना चाहिये कि जहाँ अयोगी अवस्था का For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. १ ने यिक के पाप-बन्ध ३५६३ सम्भव है, वहाँ तीसरे भंग के अतिरिक्त तीन भंग पाये जाते हैं और जहाँ अयोगा अवस्था का सम्भव नहीं है, वहाँ पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है। १९ प्रश्न-जीवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी बंधइ० ? १९ उत्तर-जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिज्जपि गिरवसेसं जाव वेमाणिए। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ने मोहनीय कर्म बांधा था ? १९ उत्तर-हे गौतम ! पाप कर्म के समान मोहनीय कर्म भी है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक।. २० प्रश्न-जीवे णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी बंधइ-पुच्छा। २० उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी-चउभंगो। सलेस्से जाव सुकलेस्से चत्तारि भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो। • भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ने आयु-कर्म बांधा था. ? २० उत्तर-हे गौतम ! किसी जीव ने बांधा था, इत्यादि चारों भंग होते हैं । सलेशी यावत् शुक्ललेशी जीवों में भी चारों भंग होते हैं। अलेशी जीवों में एकमात्र अन्तिम भंग होता है। ५. २१ प्रश्न-कण्हपक्खिए गं-पुच्छा। .. २१ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगहए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ । सुक्कपक्खिए सम्मदिट्ठि मिच्छादिट्ठि चत्तारि भंगा। For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६४ भगवती सूत्र - श. २६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध भावार्थ - २१ प्रश्न- हे भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव ने आयु-कर्म बांधा था ०? २१ उत्तर - हे गौतम ! किसी जीव ने बांधा था, बांधता है और बांधेगा। किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और आगे बांधेगा- ये दो भंग पाये जाते हैं । शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं । २२ प्रश्न - सणामिच्छादिट्टी-पुच्छा । २२ उत्तर - गोयमा ! अत्येगइए बंधी ण बंध बंधिस्सइ, अत्थेगए बंधी बंधबंधिस्सह, णाणी जाव ओहिणाणी चत्तारि भंगा। भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जोव ने आयु कर्म बांधा था० ? २२ उत्तर - हे गौतम! किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधना है और बांधेगा। किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा- ये दो भंग पाये जाते है। ज्ञानो यावत् अवधिज्ञानी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। २३ प्रश्न - मणपज्जवणाणी - पुच्छा | २३ उत्तर - गोयमा ! अत्येगइए बंधी बंधड़ बंधिस्सह, अत्येग ए बंध बंधिस्स, अत्थेगइए बंधी ण बंध ण बंधिस्सह । केवलजाणे चरमो भंगो | एवं एएणं कमेणं णोमण्णोवउत्ते विश्यविहूणा जदेव मणपज्जवणा । अवेयए अकसायी य तइय- चउत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते । अजोगिम्मिं चरिमो सेसेसु परसु चत्तारि भंगा जाव अणागारोवउत्ते । For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगाती गुम-श. २६ उ. १ रयिक के पाप-बन्ध ३५६५ भावाथ-२३ प्रश्न-हे भगवन ! मनःपर्यवज्ञानी जीव ने आय-कर्म बांधा था.? २३ उत्तर-हे गौतम ! किसी मनःपर्यवज्ञानी ने आयु-कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा। किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है, बांधेगा। किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा। ये तीन भंग पाये आते हैं। केवलज्ञानी में एक चौथा भंग ही होता है । इसी प्रकार क्रमशः नोसंशोपयुक्त जीव में, दूसरे मंग के अतिरिक्त तीन भंग, मन:पर्यवज्ञानी के समान होते है । अवेदक और अकषायी जीवों में सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान तीसरा और चौथा भंग होता है। अयोगी में एक अन्तिम भंग होता है । शेष सभी पदों में यावत् अनाकारोपयुक्त तक चारों भंग होते हैं। ____ २४ प्रश्न-णेग्इए णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधो-पुच्छा। २४ उत्तर-गोयमा ! अत्यंगइए चत्तारि भंगा, एवं सब्वत्थ वि णेरइयाणं चत्तारि भंगा. णवरं कण्डलेस्से कण्हपक्खि य पढम-तइया भंगा, सम्मामिच्छत्ते तइय-चउत्था । असुरकुमारे एवं चेव, णवरं कण्ह. लेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियब्बा, सेसं जहा गैरइयाणं, एवं जाव थणिगकुमागणं । पुढविकाइयाणं सव्वस्थ वि चत्तारि भंगा, णवरं कण्हपरिखए पढम तहगा भंगा। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव ने आय-कर्म बांधा था.? - २४ उत्तर-हे गौतम ! किसी नैरयिक जीव ने बांधा था इत्यादि चार भंग । इस प्रकार सभी स्थानों में नैरपिक के चार भंग कहना चाहिये । परन्तु कृष्णलेशी और कृष्णपाक्षिक में पहला और तीसरा भंग तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि में तीसरा और चौथा भंग होता है । इसी प्रकार असुरकुमार में भी, किन्तु कृष्णलेशी में चार भंग कहने चाहिये । शेष सभी नरयिक के समान । For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र- ग. २६ उ. १ नैरयिक. के पाप-बन्ध इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक । पृथ्वीकायिक जीवों में भी सभी स्थानों में चारों भंग होते हैं, किन्तु कृष्णपाक्षिक में पहला और तीसरा भंग होता है । २५ प्रश्न-तेउलेस्से-पुच्छा। २५ उत्तर-गोयमा ! बंधी ण बंधड़ बंधिस्सइ, सेसेसु सव्वत्थ चत्तारि भंगा । एवं आउकाइय-वणस्सइकाइयाण वि णिश्वसेसं । तेउकाइय-चाउकाइयाणं सव्वत्थ वि पढम-तइया भंगा। बेइंदिय-सेइं. दिय-चरिंदियाणं पि सम्वत्थ वि पढम-तइया भंगा । णवरं सम्मत्ते, णाणे,आभिणिबोहियणाणे,सुयणाणे तइओ भंगो। पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं कण्हपपिखए पढम तइया भंगा, सम्मामिन् छत्ते तइय-चउत्थो भंगो, सम्मत्ते णाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे एएसु... पंचसु वि परसु बिइयविहणा भंगा, सेमेसु चत्तारि भंगा । मणुस्साणं जहा जीवाणं । णवरं सम्मत्ते, ओहिए णाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे एएसु बिहयविहूणा भंगा, सेसं तं चेव । वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा । णामं गोयं अंतरायं च एयाणि जहा णाणावरणिज्ज। 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ * ॥ छवीसहमे सए बंधिसए पढमो उद्देसओ समत्तो॥ भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजोलेशी (पृथ्वीकायिक) जीव ने आय: कर्म बांधा था० ? For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... भगवती सूत्र-श"३६ उ. १ नरयिक के पाप-बन्ध ३५६७ ... २५ उत्तर-हे गौतम ! बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा। यह एक भंग पाया जाता है । शेष सभी स्थानों में चार भंग होते हैं। इसी प्रकार अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में भी । तेउकायिक और वायकायिक जीवों के सभी स्थानों पहला और तीसरा भंग होता है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों में सभी स्थानों में पहला और तीसरा भंग होता है। किन्तु सम्यक्त्व, ज्ञान, आमिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान में एक तीसरा • भंग ही होता है। पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक में कृष्णपाक्षिक में पहला और तीसरा भंग, सम्यमिथ्यात्व में तीसरा और चौथा भंग, सम्यक्त्व, ज्ञान, आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान-इन पांच पदों में दूसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग होते हैं। शेष सभी पदों में चारों भंग होते हैं । मनष्य, औधिक जीव के समान, परन्तु सम्यक्त्व, औधिक (सामान्य) ज्ञान, आभिनि बोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन सभी पदों में दूसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिये। शेष पूर्ववत् । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, असुरकुमार के समान है। नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म, जानवरणीयकर्म के सदश है। 'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं। .... विवेचन-आय-कर्म बांधने के विषय में चार भंग बताये हैं। उनमें पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा है । जो जीव चरमशरीरी होगा, उसकी अपेक्षा दूसरा भंग है। तीसरा भंग उपशमक की अपेक्षा है, क्योंकि उसने पहले आयु बांधा था वर्तमान काल में-उपशम अवस्था में आयु नहीं बांधता ओर उपशम अवस्था से गिरने पर फिर आयु बाधेगा। चौथा भंग क्षपक की अपेक्षा है । उसने भूतकाल में (जन्मान्तर में) आयु बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा। सलेशी यावत् शुक्ललेशी जीवों में चार भंग बताये हैं। उनमें से जो निर्वाण को प्राप्त नहीं होगा, उसकी अपेक्षा पहला भंग है । जो चरमशरीरी रूप से उत्पन्न होगा, उसकी अपेक्षा दूसरा भंग है। अबन्ध समय की अपेक्षा तीसरा भंग है और जो चरमशरीरी है उसकी अपेक्षा चौथा भंग है । इस प्रकार अन्यत्र भी घटित करना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६८ भगवती सूत्र - स. . २६. क्र. १: नेरयिक के पापु-बन्ध अलेशी होते हैं । वे आयु का बन्ध नहीं एकमात्र चौथा भंग ही पाया जाता है । कृष्णपाक्षिक जोव में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है। अभव्य की अपेक्षा शैलेशी अवस्था प्राप्त जीत्र तथा सिद्ध भगवान् करते और आगे भी नहीं करेंगे । इसलिए उनमें 15 भंग होता है। क्योंकि वह वर्तमान काल में आयु बांधेगा। दूसरा और चौथा भंग कृष्णपाक्षिक में पहला और अबन्धकाल की अपेक्षा तीसरा नहीं बांधता है, किन्तु भविष्यत्काल में नहीं होता, क्योंकि उसमें आयु-बन्ध का सर्वथा अभाव नहीं होता । शुक्लपाक्षिक और सम्यग्दृष्टि में चार भंग होते हैं, क्योंकि उसने पहले आयु बांधा था, बन्धकाल में बांधता है और अवन्धकाल के बाद फिर बांधेगा। इस अपेक्षा से पहला भंग होता है । चरमशरीरी की अपेक्षा दूसरा, उपशम अवस्था की अपेक्षा तीसरा और क्षपक अवस्था की अपेक्षा चौथा भंग होता है। मिध्यादृष्टि में चार भंग होते हैं | अभव्य की अपेक्षा पहला भंग, चरमशरीर की प्राप्ति होने पर नहीं बांधेगा, अतः दूसरा भंग, अवन्धकाल की अपेक्षा तीसरा भंग है और चौथा भंग चरमशरीरी की अपेक्षा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( मिश्र दृष्टि ) जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवस्था में आयु नहीं बांधता और कोई जीव चरमशरीरी हो जाने पर बांधेगा भी नहीं, इसलिए इसमें तीसरा और चौथा भंग पाया. जाता है । ज्ञानी जीवों में चार भंग होते हैं, जिनकी घटना पूर्ववत् समझना चाहिये । मनः पर्यवज्ञानी में दूसरे भंग के अतिरिक्त तीन भंग पाये जाते हैं। उसने पहले आयु बांधा था, वर्त मान में देवा बांधता है और आगे मनुष्यायु बांधेगा, इस अपेक्षा से प्रथम भंग होता है । दूसरा भंग सम्भावित नहीं है, क्योंकि देव भव में अवश्य मनुष्य आयु बांधेगा, उपशम अवस्था : की अपेक्षा तीसरा और क्षपक अवस्था की अपेक्षा चौथा भंग है । केवलज्ञानी न तो आयु बांधते हैं और न बांधेगे । इसलिये एक चौथा भंग ही पाया जाता है । नोसंज्ञोपयुक्त जीव में भी मनः पर्यवज्ञानी के समान तीन भंग घटित करने चाहिये । अवेदक और अकषायी जीव में उपशम और क्षपक, अवस्था की अपेक्षा तीसरा और चौथा भंग पाया जाता हैं । • अज्ञान -- मतिअज्ञानादि तीन, संज्ञोपयुक्त आहारादि चार संज्ञोपयुक्त, सवेदक-स्त्रीवेद आदि तीन वेद, सकषाय-- क्रोधादि चार कषाय, सयोगी--मनोयोगी आदि तथा साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त इन सभी में चार-चार भंग पाये जाते हैं । नैरयिक जीवों में चार भंग कहे हैं, क्योंकि नैरयिक जीव ने आयु बांधा था. बंध काल में बांधता है और भवान्तर में बांधेगा, इस प्रकार पहला भंग होता है। जो मोक्ष For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श २६ उ १ नरयिक के पाप-बाध ३५६९ को प्राप्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से दूसग भंग है । बन्ध काल के अभाव और भावीबन्ध काल की अपेक्षा तीसरा भंग है । जिमने परभव का आयु बांध लिया और जिसका आयु वांधा है, वही उसका चरमभव है, उसकी अपेक्षा से चौथा भंग है । इस प्रकार सर्वत्र घटित करना चाहिये । कृष्णलेशी नैरयिक में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है । प्रथम भंग तो प्रतीत ही है । दूसरा भंग उसमें नहीं होता, क्योंकि कृष्णलेशी नैरयिक तिर्यंच में अथवा अचरमशरीरी भनुष्य में उत्पन्न होता है । कृष्णलेश्या पाँचवीं नरक पृथ्वी आदि में होती है । वहाँ से निकला हुआ केवली नहीं होता। इसलिये वहाँ से निकला हुआ नरयिक . अचरमशरीरी होने से फिर आयु बांधेगा। कृष्णलेशी नैरयिक अबन्धकाल में आयु नहीं बांधता, किन्तु बन्धकाल में बांधेगा। इस प्रकार तृतीय भंग घटित होता है । वह आयु का अबन्धक नहीं होता, इसलिये उसमें चोथा भंग नहीं पाया जाता। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक में भी पहले और तीसरे भंग की घटना करनी चाहिये। सम्यमिथ्यादृष्टि जीव, आयु नहीं वांधता। इसलिये उसमें तीसरा और चौथा भंग होता है । कृष्णलेशी असुरकुमार में चारों भंग होते हैं, क्योंकि वह वहाँ से निकल कर मनुष्य गति में आ कर सिद्ध हो सकता है। इस अपेक्षा से दूसरा और चौथा भंग घटित होता है । पृथ्वीकायिक जीवों में मभी स्थानों में चार भंग होते हैं. किन्तु कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग ही होता है । ने जोलेशी पृथ्वीकायिक में एक तीमरा भंग होता है, क्योंकि कोई तेजोलेशी देव, पृथ्वी कायिक जीवों में उत्पन्न हुआ, वह आर्याप्त अवस्था में तेजोलेशो होता है और तेजोलेश्या का समय बीत जाने पर आय बांधता है । इसलिये तेजोलेशो पृथ्वीकायिक ने पूर्वभव में आयु बांधा था, परन्तु तेजोलेण्या के समय नहीं बांधता और तेजोलेश्या का समय बात जाने पर फिर बांधेगा। इस प्रकार तीसग भंग घटित होता है । इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में प्रथम और तृतीय भंग होता है और उनमें तेजोलेश्या में तीसरा भग होता है । दूसरे स्थानों में चार भंग होते हैं। ते उकायिक और वायुकायिक जीवों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि वहाँ से निकल कर उनकी उत्पत्ति मनुष्य में नहीं होने से सिद्धि-गमन का अभाव है, अतः द्वितीय और चतुर्थ भंग नहीं होता। विकलेन्द्रिय जीवों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि वहां से निकले हुए मनुष्य तो हो सकते हैं, किन्तु मुक्ति नहीं पा सकते । इसलिये वे अवश्य आयु का बन्ध करेंगे । अतः दूसरा और चौथा भंग घटित नहीं होता। विकलेन्द्रियों में इतने स्थानों में For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७० भगवती सूत्र - शं. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-वन्ध विशेषता है । यथा - सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इनमें केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व आदि सास्वादन भाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं । इनके चले जाने पर आयु का बंध होता है। इसलिये उन्होंने पूर्व भव में आयु बांधा था, सम्यक्त्व आदि अवस्था में नहीं बांधते और उसके बाद बांधेंगे । इस प्रकार एक तृतीय भंग ही घटित होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच में कृष्णपाक्षिक पद में प्रथम और तृतीय भंग ही पाया जाता है, क्योंकि कृष्णपाक्षिक आयु बांध कर या नहीं बांध कर उसका अबन्धक अनन्तर ही होता है। और वह मोक्ष जाने के अयोग्य है । सम्यग्मध्यादृष्टि तियंच-पचेन्द्रिय में आयु-बन्ध का अभाव होने से तीसरा और चौथा भंग ही होता है । पंचेन्द्रिय तियंच में सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान-इन पांच में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं । क्योंकि सम्यग्दृष्टि आदि युक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच देवों में ही उत्पन्न होता है । वहाँ वह आयु बांधेगा, इसलिये दूसरा भंग घटित नहीं होता। प्रथम और तृतीय भंग की घटना पहने बता दी गई है। चौथा भंग इस प्रकार घटित होता है कि किसी पंचेन्द्रिय तियंच ने मनुष्य आयु बांध ली, इसके बाद उसको सम्यवत्व आदि की प्राप्ति हुई । इसके पश्चात् प्राप्त हुए मनुष्य भव में ही वह मोक्ष चला जाय, तो वह आयु नहीं बांधेगा । इस प्रकार चतुर्थ भंग घटित होता है । मनुष्य के लिये भी इन सम्यक्त्व आदि पाँच पदों में भी इन तीनों भंगों की घटना इसी प्रकार करनी चाहिये । ॥ छब्बीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण || For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ उद्देशक २ अनन्तरोपपत्रक के बन्ध १ प्रश्न-अर्णतरोववण्णए णं भंते ! गेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा तहेव । १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बन्धी पढम-बिया भंगा। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नरयिक ने पाप-कर्म बांधा था? ... १ उत्तर-हे गौतम ! किसी ने बांधा था इत्यादि पहला और दूसरा भंग होता है। - २ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववण्णए गेरइए पावं कम्म किं बन्धी-पुच्छा। ____२ उत्तर-गोयमा ! पढम-बिइया भंगा, एवं खलु सव्वस्थ पढमबिइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो यण पुच्छिजह । एवं जाव थणियकुमाराणं । बेइंदिय-तेइंदिए-चउरिंदियाणं वयजोगोण भण्णइ । पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं, ओहिणाणं, विभंगणाणं, मणजोगो, वयजोगो-एयाणि पंच पयाणि ण भण्णंति । मणुस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवणाण-केवलणाण-विभंग For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र - श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध णाण-पोसण्णोवउत्त-अवेयंग अकसायी मणजोग-वयजोग - अजोगीएयाणि एक्कारम प्रयाणि ण भण्णंति । वाणमंतर जोइसिय· वेमाणिया जहा रइयाणं तद्देव ते तिष्णि ण भण्णंति । सव्वेसिं जाणि साणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम विहया भंगा। एगिंदियाणं सव्वस्थ पढम-बिइया भंगा । जहा पावे एवं णाणावर णिज्जेण वि. दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ | ३५७२ भावार्थ-२ प्रश्न हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? 1 1 २ उत्तर - हे गौतम! यहां पहला और दूसरा भाग कहना चाहिये । इस प्रकार लेश्यादि सभी पदों में पहला और दूसरा भंग कहना, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग का प्रश्न नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय में वचनयोग नहीं कहना । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में सम्यगु मिथ्यात्व अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनोयोग और वचनयोग, ये पांच पद नहीं कहने चाहिये । मनुष्य में, अलेशीपन, सम्यग्मिथ्यात्व, मनःप्रयंवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञापयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगीपन, ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिये । वाणव्यन्तर। ज्योतिषी और वैमानिक इनका कथन नैरमिक के समान हैं, किन्तु पूर्वोक्त (सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग) ये तीन पढ नहीं कहने चाहिये । शेष स्थानों में पहला और दूसरा भंग । एकेन्द्रिय में सभी स्थानों में पहला और दूसरा भंग । जिस प्रकार पाप कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म विषय में भी दण्डक कहना चाहिये। इसी प्रकार आयु-कर्म छोड़ कर यावत् अन्तराय कर्म तक दण्डक कहना चाहिये । विवेचन - जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही है, उसे 'अनन्तरोपपन्नक' कहते हैं । 1 For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध ३५७३ इस दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि चौबीस ही दण्डकों में उपर्युक्त ग्यारह द्वारों से पाप-कर्म आदि की बन्ध वक्तव्यता कही जाती है । पहले उद्देशक में जीव नारकादि पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस उद्देशक में नैरयिकादिं चौबीस दण्डक ही कहने चाहिये. क्योंकि औधिक के साथ अनन्नरोपपत्रक आदि विशेषण नहीं लगाये जा सकते । अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में पहले के दो भंग पाये जाते है। क्योंकि उस में मोह रूप पाप-काम के अवन्धकपन का अभाव है । अबन्धकपन मूक्ष्म-संपरायादि गुणस्थानों में होता है और वे गुणस्थान मैरयिक के नहीं होते । लेश्यादि पद सामान्यतः नैरयिकादि में होते हैं । जो पद अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि में अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते, उनके विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । वे ये हैं-मिश्रदृष्टि, मनोयोग और वचनयोग । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । पर्याप्तक होने के बाद तो ये होते हैं । ३ प्रश्र-अणंतरोववण्णए णं भंते ! णेरइए आउयं काम किं बन्धी-पुच्छा। ३ उत्तर-गोयमा ! बन्धी ण बन्धइ बंधिस्सइ । - भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नरयिक ने आयु-कर्म बांधा था ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! पहले बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में बांधेगा। यह एक तीसरा भंग ही पाया जाता है। .४ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववण्णए णेरइए आउयं कम्मं किं बन्धी ? ४ उत्तर-एवं चेव तइओ भंगो, एवं जाव अणागारोवउत्ते । सव्वत्थ वि तइओ भंगो । एवं मणुस्सवजं जाव वेमाणियाणं । मणुस्साणं सब्वत्थ तइय-चउत्था भंगा, णवरं कण्हपक्खिएसु तइओ For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७४ भगवती सूत्र - श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध भंगो, सव्वेसिं णाणत्ताई ताईं चेव । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ छवीसइमे बंधिस बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने आयुकर्म बांधा था० ? ४ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् तीसरा भंग होता है। इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त तक सर्वत्र तीसरा मंग। इसी प्रकार मनुष्य के अतिरिक्त यावत् वैमानिक तक | मनुष्य में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग कहना चाहिये, किन्तु कृष्णपाक्षिक में तीसरा भंग ही है। सभी स्थानों में नानात्व ( मिनता) पूर्ववत् है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - आयु- कर्म के विषय में मनुष्य में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक मनुष्य आयु नहीं बांधता, वह बाद में बांधेगा । इस अपेक्षा तीसरा भंग होता है । यदि वह चरमशरीरी हो, तो आयु-कर्म नहीं बांधता और नहीं बांधेगा । इस प्रकार चौथा भंग घटित होता है। कृष्णपाक्षिक में केवल तीसरा भंग ही होता है । सभी नैरयिक आदि जीवों में पाप-कर्म दण्डक में जो भिन्नता कहीं, वह सभी आयु-दण्डक में कहनी चाहिये । मनुष्य के अतिरिक्त सभी दण्डकों में आयु की अपेक्षा एक तीसरा भंग ही पाया जाता है । आयु- कर्म की पृच्छा में तेईस दण्डक में एक तीसरा भंग ही बताया है। मनुष्य में कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर अनन्त रोपपन्नक मनुष्य में पाये जाने वाले पैंतीस बोलों में तीसरा और चौथा मंग बताया है। "बंधी, न बंध, न बंधिप्स" - यह चौथा भंग है । अर्थात् भूतकाल में आयु बांधा था, वर्तमान काल में नहीं बांधता और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा”—यह चौथा भंग चरमशरीरी जीव में ही घटित हो सकता है । समुच्चय मनुष्य में For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. ३ परंपरोपपन्नक के वन्ध ३५७५ ४७ बोल पाये जाते हैं । अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में ग्यारह बोल तो वजित किये हैं. किन्तु नपुंसक का बोल वजित नहीं किया। अनन्तरोपपन्नक-नपुंसक, जन्म-नपुंसक ही होता है, कृत्रिम नहीं। - शंका-कोई जन्म-नपुंसक मोक्ष गया हो-ऐसा कोई उदाहरण शास्त्रों में मिलता है ? समाधान-यद्यपि ऐसा उदाहरण शास्त्रों में देखने में नहीं आया, तथापि उपर्युक्त सूत्रपाठ से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि जन्म-नपुंसक उसी भव में मोक्ष जा सकता है। ... शंका--वृहत्कल्प सूत्र के चौथे उद्देशक में नपुंसक को दीक्षा के अयोग्य बताया है, फिर वह उसी भव में मोक्ष कैसे जा सकता है ? . __ समाधान--वृहत्कल्प सूत्र में जो नपुंसक को दीक्षा के अयोग्य बताया है, वह श्रुनव्यवहारी के लिये है, अर्थात् श्रुतव्यवहारी नपुंसक को दीक्षा नहीं दे सकता, किन्तु आगमव्यवहारी दीक्षा दे सकते हैं। वृहत्कल्प स्वयं श्रुतव्यवहार है, आगमव्यवहार नहीं । यदि यहां के निषेध से सम्पूर्णतया नपुंसक की दीक्षा का निषेध समझा जाय, तब तो जन्म-नपुंसक और कृत्रिम-नपुंसक सभी का निषेध हो जायगा। किन्तु शास्त्रकार को यह इष्ट नहीं हैं, क्योंकि नपुंसक-लिंग सिद्ध' बताया है। आगम-व्यवहारी को विशिष्ट ज्ञान होने से वे जन्म-नपुंसक और कृत्रिम नपुंसक दोनों को दीक्षा दे सकते हैं और वे दोनों उसी भव में मोक्ष भी जा सकते हैं। ... ॥ छब्बीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ 32 शतक २६ उद्देशक ३ N OARRRAN परम्परोपपत्रक के बन्ध १ प्रश्न-परंपरोववण्णए णं भंते ! गेरइए पावं कम्मं किं बंधीपुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७२ भगवती सूत्र-श. २६ उ. ३ परम्परोपपन्नक के बन्ध १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए पढम विइया । एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोक्वण्णएहि वि उद्देसओ भाणियब्वो णेरइयाइओ तहेव णवदंडगसहिओ । अgण्ह वि कम्मप्पगडीणं जा जस्स कामास वत्तव्बया सा तस्स अहीणमहरित्ता णेयव्वा जाव वेमाणिया अणागारो. वउत्ता। * 'सेव भंते ! मेवं भंते !' त्ति के । ॥ छवीसहमे बंधिसए तइओ उद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ--अहीणमहरिता--न कम, न अधिक, बराबर । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक नरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था ? १ उत्तर-हे गौतम ! किसी ने बांधा था इत्यादि पहला और दूसरा भंग कहना चाहिए। जिस प्रकार प्रथम उद्देशक कहा, उसी प्रकार परम्परोपपनक नैरयिक आदि के विषय में पापकर्मादि नौ दण्डक सहित यह तीसरा उद्देशक जानना चाहिए। आठ कर्म-प्रकृतियों में से जिसके लिए जिस कर्म की वक्तव्यता कही है, उसके लिए उस कर्म को वक्तव्यता बराबर कहनी चाहिये । इम प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त वैमानिकों तक। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जिस प्रकार पहले उद्देशक में जीव नारकादि के विषय में कथन किया है, उसी प्रकार यह तीसरा उद्देशक भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि पहले उद्देशक में जीव नारकादि पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस उद्देशक में नैरयिकादि चौबीस दण्डक ही कहने चाहिये, क्योंकि औधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक इत्यादि विशेषण नहीं लग सकते । For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २६ उ. ४ अनन्तरावगाढ़ बन्धक ३५७७ ": " पाप-कर्म का यह पहला सामान्य दण्डक और आठ कर्मों के आठ दण्डक, ये नौ दण्डक पहले उद्देशक में कहे हैं, वे ही नौ दण्डक इस उद्देशक में भी कहने चाहिये। ॥ छब्बीमवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥..... शतक २६ उद्देशक ४ अनन्तरावगाढ़ बन्धक १ प्रश्न-अणंतरोगाढए णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधीपुच्छा । १ उत्तर-गोयमा.! अत्थेगहए एवं जहेक अणंतरोववण्णएहिं णवदंडगसंगहिओ उद्देसो भणिओ तहेव अणंतरोगाढएहि वि अहीणमहरित्तो भाणियब्वो णेरइयाईए जाव वेमाणिए । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ® . ॥ छवीसहमे बंधिसए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरावगाढ़ नैरयिक ने पाप-कर्म बांधा था.? १ उत्तर-हे गौतम | जिस प्रकार अनन्तरोपपन्नक के नौ दण्डक सहित For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७८ भगवती सूत्र-श. २६ उ. ५ परम्परावगाढ़ बन्धक उद्देशक कहा है, उसी प्रकार अनन्तरावगाढ़ नरयिक आदि के भी वैमानिक पर्यन्त उद्देशक कहना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। : विवेचन--जो जीव एक भी समय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान को अवलम्बन कर के रहता है, वह 'अनन्तरावगाढ़' कहलाता है । परन्तु ऐसा अर्थ करने से अनन्तरोपपनक और अनन्तरावगाढ़ के अर्थ में भिन्नता नहीं रहती। इसलिये ऐसा अर्थ करना चाहिये कि उत्पत्ति के एक समय बाद फिर एक भी ममय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा कर के जो रहता है, वह अनन्तरावगाढ़ कहलाता है और फिर एकादि समय का अन्तर हो, वह 'परम्परावगाढ़' कहलाता है। अर्थात् उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ़ कहलाता है और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती परम्परावगाढ़ कहलाता है । ॥ छब्बीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २६ उद्देशक ५ परम्परावगाढ़ बंधक प्रश्न-परंपरोगाढए णं भंते ! रइए पावं कम्मं किं बंधी०१ ११ उत्तर-जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो सो चेव गिरवसेसो For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाणियव्वो । भगवती सूत्र - श. २६ उ ६ अनन्तराहारक बन्धक पुच्छा । 'सेवं भंते! सेवं भंते 'ति ॥ छवीसहमे बंधिसए पंचमो उद्देमो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! परम्परावगाढ़ नैरयिक ने पाप-कर्म बांधा था० ? १ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक के विषय में उद्देशक कहा, उसी प्रकार परम्परावगाढ़ के विषय में सम्पूर्ण उद्देशक कहना चाहिये । 3. ॥ छब्बीसवें शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ - शतक २६ उद्देशक ६ ३५७९ अनन्तराहारक बंधक १ प्रश्न - अनंतराहारए णं भंते ! शेरइए पावं कम्मं किं बंधी १ उत्तर - एवं जहेब अनंतरोववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसं । 'सेवं भंते । सेवं भंते!' ति ॥ छवीसहमे सए छट्टओ उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २६ उ ७ परम्पराहारक बन्धक १ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तराहारक नैरयिक ने पाप कर्म बांधा था ? १ उत्तर - हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान अनन्तराहारक उद्देशक भी कहना चाहिये । . विवेचन - आहारकत्व के प्रथम समयवर्ती को 'अनन्तराहारक' कहते हैं । ॥ छब्बीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ३५८० था० ? शतक २६ उद्देशक ७ 280000000 परम्पराहारक बंधक पुच्छा । १ उत्तर - गोयमा ! एवं जहेव परं परोववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसो भाणियव्वो । 'सेवं भंते । सेवं भंते! ति १ प्रश्न - परंपराहारएणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी ॥ छवीसहमे सप सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! परम्पराहारक नैरयिक ने पाप कर्म बांधा १ उत्तर - हे गौतम ! परम्परोपपत्रक उद्देशक के समान परम्पराहारक For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती - २६ उ. ८ अनन्तर पर्याप्तक बन्धक उद्देशक भी कहना चाहिये । ३५.८१ विवेचन आहारकल्प के द्वितीयादि सगयवर्ती को परम्पराहारक कहते हैं । ॥ छब्बीसवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ **ectieeee: शतक २६ उद्देशक अनन्तर पर्याप्तक बन्धक १ प्रश्न - अनंतरपजत्तए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा | १ उत्तर - गोयमा ! जहेव अनंतरोववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसं । 'सेवं भंते! सेवं भंते !' ति ॥ छवीसहमे सए अट्टम उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तर पर्याप्तक नैरविक ने पाप-कर्म बांधा था० ? १ उत्तर - हे गौतम! अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान सम्पूर्ण उद्देशक कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८२ भगवती सूत्र-स. २६ उ. ९ परम्पर पर्याप्तक वन्धक विवेचन-पर्याप्तकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तर पर्याप्तक कहते हैं । ॥ छब्बीसवें शतक का आठवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २६ उद्देशक ९ परम्पर पर्याप्तक बंधक Mam१ प्रश्न परंपरपजत्तए णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधीपुच्छा । ___ १ उत्तर-गोयमा ! एवं जहेव परंपरोक्वण्णएहिं उद्देसो तहेव गिरवसेसो भाणियो। । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरह ॥ छवीसइमे बंधिसए णवमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्पर पर्याप्तक नरयिक ने पाप-कर्म बांधा था० ? १ उत्तर-हे गौतम ! परम्परोपपन्नक के समान परम्पर पर्याप्तक उद्देशक भी कहना चाहिये। ॥ छब्बीसवें शतक का नोवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ उद्देशक १० चरम बन्धक xoxyE १ प्रश्न - चरिमे णं भंते! ग्इए पावं कम्मं किं बंधी - पुच्छा | १ उत्तर - गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो तहेव रिमेहिं रिवसेस | सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरह ॥ छवी बंधिस समो उद्देसो समत्तो || भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! चरम नेरयिक ने पाप कर्म बांधा था० ? १ उत्तर - हे गौतम! परम्परोपपन्नक उद्देशक के समान चरम नैरयिक आदि के विषय में भी सम्पूर्ण उद्देशक जानना चाहिये । विवेचन- जिसका नरक-भव 'चरम'- अन्तिम है अर्थात् जो नरक से निकल कर मनुष्यादि गति में जा कर मोक्ष प्राप्त करेगा, किन्तु पुनः लौट कर नरक में नहीं आएगा, वह 'चरम नैरयिक' कहलाता है । यहाँ चरम नैरयिक के लिये परम्परोपपन्नक उद्देशक का अतिदेश किया है और परम्परोद्देशक के लिये प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया है। फिर भी मनुष्य पद की अपेक्षा आयु-कर्म के बन्ध के विषय में यह विशेषता है। कि प्रथम उद्देशक में आयु- कर्म के सामान्यतः चार भंग कहे हैं, परन्तु चरम मनुष्य के विषय में केवल चौथा भंग ही घटित होता है, क्योंकि जो चरम मनुष्य है, उसने पहले आयु बांधा था, वर्तमान समय में नही बांधता है और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा । यदि ऐसा न हो, तो उसका चरमपना ही घटित नहीं हो सकता। इस प्रकार टीकाकार ने कहा है, किन्तु वह मनुष्य-भव की अपेक्षा चरम है। इसलिये वह नरक, तिथंच और देवगति तो नहीं जायगा, परन्तु मनुष्य के उत्कृष्ट आठ भव तक करते हुए भी मनुष्य का चरम For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८४ भगवती गूर-स. २६ उ. ११ अचरम बन्धक पना कायम रहता है और ऐगा होने पर उसमें आयु की अपेक्षा चारों भंग घटित हा सकते हैं । सम्यग्दृष्टि, सज्ञानी, मतिज्ञानी यावत् गनःपर्यवज्ञानी, नो संजोपयुक्त इन गात बोल में तीसरा, चौथा ये दो भंग ही घटित होते हैं । और चरम मनुष्य में कृष्णपाक्षिक क घोल घटित नहीं होता है । ॥ छब्बीसवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २६ उद्देशक ११ अचरम बंधक . १ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी-पुच्छा। १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव पढमोदेसए, पढमबिइया भंगा भाणियव्वा सव्वत्थ जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नयिक ने पाप-कर्म बांधा था०? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम उद्देशकानुसार सर्वत्र पहला और दूसरा भंग कहना चाहिये, यावत् पञ्चेन्द्रिय तियंच योनि पर्यन्त । २ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! मणुस्से पावं कम्मं किंबंधी-पुच्छा। २ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी ण वंधइ बंधिस्सह । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम मनुष्य ने पाप-कर्म बांधा थाo? २ उत्तर-हे गौतम ! १ किसी ने बांधा था, बांधता है और बांधेगा। For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २६ उ ११ अचरम बन्धक २ किसी ने बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा । ३ किसी ने बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा । ३ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! अचरिमे मणूसे पावं कम्मं किं बंधी ० ? ३ उत्तर - एवं चैव तिष्ण भंगा चरमविणा भाणियत्वा एवं जब पढमुद्दे से । वरं जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिणि मंगा भाणियव्वा चरिमभंगवज्जा । अलेस्से केवलणाणी य अजोगीय एए तिष्णिवि ण पुच्छिजंति, सेसं तहेव वाणमंतर जोड़ सिय-वेमाणिए जहा रहए । भावार्थ-३ प्रश्न- हे भगवन् ! सलेशी अचरम मनुष्य ने पाप कर्म बांधा ३५८५ था० ? ३ उत्तर - हे गौतम! पूर्वोक्त कथनानुसार चौथा भंग छोड़ कर शेष तीन मंग कहना चाहिये । शेष प्रथम उद्देशक के समान किन्तु वहां जिन बीस पदों में चार भंग कहे हैं, उन पदों में यहाँ अन्तिम भंग के अतिरिक्त प्रथम के तीन भंग कहना चाहिये। यहां अलेशी, केवलज्ञानी और अयोगी मनुष्य के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन नैरयिक के समान जानना चाहिये । ४ प्रश्न - अत्ररिमे णं भंते ! रइए णाणावर णिज्जं कम्मं किं बंधी - पुच्छा । ४ उत्तर - गोयमा ! एवं जहेव पावं० | णवरं मणुस्मेसु सकसायी लोभकसायी पदम बिड़या भंगा, सेसा अट्ठारस चरमविहणा, सेसं तहेव जाव वैमाणियाणं । दरिसणावरणिजं पि एवं चैव णिरव For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८६ भगवती मूत्र-श. २६ उ. ११ अचरम बन्धक सेसं । वेयणिजे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणियाणं, णवरं मणुस्सेसु अलेस्से, केवली अजोगी य णस्थि । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था० ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पाप-कर्म के समान । परन्तु सकषायी और लोभकषायो मनुष्यों में पहला और दूसरा भंग कहना चाहिये तथा शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिये । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । दर्शनावरणीय-कर्म के विषय में भी । इसी प्रकार वेदनीय-कर्म के विषय में समी स्थानों में पहला और दूसरा भंग यावत् वैमानिक पर्यंत । किंतु यहां अचरम मनुष्य में अलेशी, केवली और अयोगी नहीं होते। ५ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! गेरइए मोहणिजं कम्मं किं बंधीपुच्छा । ५ उत्तर-गोयमा ! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं जाव वेमाणिए । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नयिक ने मोहनीय कर्म बांधा था० ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पाप-कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। ६ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधीपुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! पढम-बिइया भंगा. एवं सव्वपएसु वि । णेरइयाणं पढम-तइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तहओ भंगो, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणस्सइकाइयाणं तेउ. For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २६ उ. ११ अचरम बन्धक ३५८७ लेस्साए तहओ भंगो. मेमेसु पएसु सव्वाथ पढम-तइया भंगा, तेउका. इय-वाउकाइयाणं सव्वत्थ पढम-तइया भंगा, बेइंदिय-तेईदिय चउरिंदियाणं एवं चेव णवरं सम्मत्ते ओहिणाणे आभिणिवोहियणाणे सुयणाणे एएसु चउसु वि ठाणेसु तइओ भंगो। पंचिंदियतिरिवख. जोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तहओ भंगो, सेसेसु पएसु सव्वस्थ पढमतइया भंगा। मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेयए अकसाइग्मि य तहओ भंगो, अलेस्स-केवलणाण-अजोगी य ण पुच्छिज्जति, सेसपएसु सम्वत्थ पढम-तइया भंगा, वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिया जहा णेरइया। णामं गोयं अंतराइयं च जहेव णाणावरणिज्ज तहेव गिरवसेसं. । ____® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ * ॥ ध्वीसइमे बंधिसए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ वीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नै रयिक ने आय-कर्म बांधा था.? ६ उत्तर-हे गौतम ! पहला और तीसरा भंग सभी पदों में कहना चाहिये । नरयिकों (बहुवचन) के सभी पदों में पहला और तीसरा भंग कहना चाहिये । किन्तु सम्यगमिथ्यात्व में तीसरा भंग ही कहना चाहिये । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक । पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के तेजोलेश्या में तीसरा भंग कहना चाहिये । शेष सभी पदों में सर्वत्र पहला और तीसरा भंग कहना चाहिये । तेउकाधिक और वायुकायिक के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये । बेइनिय, तेइन्द्रिय और For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र नं. २६ उ. ११ अनरम बन्धक चौरिन्द्रिय के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिये । परन्तु विशेष यह है कि सम्यक्त्व, औधिकज्ञान, आमिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इन चार स्थानों में तीसरा भंग कहना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में, सम्यग्मिथ्यात्व में तीसरा भंग और शेष सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये । मनुष्य के विषय में सम्यग्मिथ्यात्व, अवेदक और अकषायी, इन तीन पदों में तीसरा भंग 'कहना चाहिये । अलेशी, केवलज्ञान और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । शेष सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में नैरयिक के समान कहना चाहिये । ज्ञानावरणीय के समान नाम - कर्म, गौत्र-कर्म और अन्तराय-कर्म के विषय में भी कहना चाहिये । ३५८८ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - जो जीव, वही भव पुनः प्राप्त करेगा, वह भव की अपेक्षा 'अवरम' कहलाता है । अचरम उद्देशक में, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक के पदों में पाप कर्म की अपेक्षा पहला और दूसरा भंग कहा है। मनुष्य में अन्तिम भंग के अतिरिक्त तीन भंग होते हैं । इनमें चोथा भंग नहीं होता। क्योंकि चौथा भंग तो चरमशरीरी मनुष्य में पाया जाता है । जिन बीस पदों में, पहले उद्देशक में चार भंग कहे थे, उनमें यहाँ अन्तिम भंग के अतिरिक्त, पूर्व के तीन भंग कहने चाहिये । वे बीस पद ये हैं, यथा -- जीव, सलेशी, शुक्ललेशी, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानादि चार, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेद, सकषाय, लोभकपाय, सयोगी, मनोयोगी आदि तीन साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त। इनमें सामान्यतः वार भंग ही होते हैं, किन्तु जब ये बीस पद अचरम मनुष्य के साथ हों, तब इनमें चौथा भग नहीं होता, क्योंकि चौथा भंग चरम मनुष्य में ही होता है । अलेशी केवलज्ञानी और अयोगी, ये तीन पद चरम में ही होते हैं । इसलिये अनरम के साथ इनका प्रश्न करने का निषेध किया है। ज्ञानावरणीय दण्डक भी पाप कर्म दण्डक से समान है, किन्तु इसमें पाप कर्म दण्डक मैं कषायी और लोभकषायी में प्रथम के तीन भंग कहे हैं। परन्तु यहाँ प्रथम के दो मंग ही कहने चाहिये, क्योंकि ये ज्ञानावरणीय कर्म को बांधे बिना उसके पुनर्वन्धक नहीं होते For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २६ उ. ११ अचरम बन्धक और सकपायी जीव सदैव नागावरणीय के बन्धक ही होते हैं । इनमें अचरम होने से चौथा भंग नहीं होता । वेदनीय कर्म में सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग ही होता है। इनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं बन सकता, क्योंकि जो एक बार वेदनीय का अवन्धक हो जाता है, वह पुनः Sarita कर्म नहीं बांधता । चौथा भंग अयोगी अवस्था में होता है, इसलिए वह अचरम में नहीं बनता । आयु-कर्म के विषय में नैरयिक में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है । प्रथम मंग की घटना स्पष्ट है । तीसरा भंग इस प्रकार घटित होता है कि उसने आयु-कर्म बांधा था, वर्तमान में अबन्ध-काल में नहीं बांधता है, परन्तु बन्ध-काल में बांधेगा, क्योंकि यह अनरम है। इसमें दूसरा और नौथा भंग नहीं पाया जाता। दूसरा भंग तो इस प्रकार घटित नहीं होता है कि वह अचरम होने से आयु का बन्ध अवश्य करेगा । अन्यथा उसका अचरमपना ही नहीं हो सकता और इगी युक्ति से चौथा भंग भी घटित नहीं होता । शेष पदों की घटना पूर्ववत् करनी चाहिये । प्रत्येक उद्देशक में इसे 'बन्धी शतक' कहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक उद्देशक का प्रारम्भ 'बन्धी' शब्द से हुआ है। 'बन्धी' शब्द से उपलक्षित होने से इसे 'बन्धी शतक' कहा है । ।। छब्बीसवें शतक का ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण || H ॥ छब्बीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ ३५८९ For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २७ (करिसु शतक) शतक २७ उद्देशक १-११ जीव पाप-कर्म करता है ? १ प्रश्न-जीव णं भंते ! पावं कम्मं किं १ करिंसु करेंति करिसंति २ करिंसु करेंति ण करिस्संति ३ करिंसु ण करें ति करिस्संति ४ करिंसु ण करेंति ण करिस्संति ? ___ १ उत्तर-गोयमा ! १ अत्थेगइए. करिंसु करेंति करिस्मंति -२ अत्यंगइए करिंसु करेंति ण करिस्संति ३ अत्थेगइए करिमु ण करेंति करिस्संति ४ अत्यंगइए करिंसु ण करेंति ण करिस्संति । For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २७ उ १-११ जीव पाप कर्म करता है ? भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! ( १ ) जीव ने पाप कर्म किया था, करता है और करेगा ? (२) किया था, करता है और नहीं करेगा ? (३) किया था, नहीं करता है और करेगा ? ( ४ ) किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा ? १ उत्तर - हे गौतम! ( १ ) किसी जीव ने पाप कर्म किया था, करता है और करेगा । (२) किसी जीव ने किया था, करता है और नहीं करेगा । (३) किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और करेगा । (४) किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा । २ - सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं एवं एएवं अभिलावेणं जनचैव बंधिस वतव्वगा सच्चेव णिरवसेसा भाणियव्वा, तहेव णवदंडगसंगहिया एकारस उद्देगा भाणियव्वा । | सत्तवीमइमं करिंसु सयं समत्तं ॥ ३५९१ भावार्थ - २ - सलेशी जीव ने पाप कर्म किया था ? इत्यादि पूर्वोक्त पाठ द्वारा 'बन्धी शतक' में जो वक्तव्यता कही, वह सभी यहां कहनी चाहिये तथा उसी प्रकार नौ दण्डक सहित ग्यारह उद्देशक भी यहां कहना चाहिये । विवेचन- जिस प्रकार छब्बीसवें शतक में प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में 'बन्धी' शब्द आया हुआ होने से से वह 'बन्धी शतक' कहलाता है, उसी प्रकार इस सत्ताईसवें शतक में प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में 'करिसु' पद आया है, इसलिए इसे 'करिसु शतक' कहते हैं । शङ्का - छब्बीसवें शतक में 'बन्ध' का कथन किया है और इस सत्ताईसवें शतक में 'करण' का कथन किया जा रहा है, तब प्रश्न होता है कि 'बन्ध' में और 'करण' में क्या अन्तर है ? समाधान- यद्यपि बन्ध' और 'करण' में कोई अन्तर नहीं है, तथापि यहां जो पृथक् कथन किया है, इसका कारण यह बताना है कि जीव की जो 'कर्म-बन्ध क्रिया है, वह जीवकृत ही है अर्थात् जीव के द्वारा ही की हुई है, 'ईश्वरादिकृत' नही है । For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २७ उ. १-११ जीव पाप कर्म करता है ? अथवा - 'बन्ध' का अर्थ है - सामान्य रूप से कर्म को बांधना और 'करण' का अर्थ है - कर्मों को निधत्तादि रूप से बांधना, जिसमे विपाकादि रूप से उनका फल अवश्य भोगना पड़े, इत्यादि बातो को बताने के लिए 'बन्ध' और 'करण' का पृथक्-पृथक् कथन किया है । || सत्ताईसवाँ शतक का १ - ११ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ३५९२ ॥ सताईसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २८ (कर्म समर्जक शतक) शतक २८ उद्देशक १ • पाप का समर्जन और तिर्यंच-गति १ प्रश्न-जीवा णं भंते ! पावं कम्म कहिं समजिणिंसु, कहिं समायरिंसु ? ___१ उत्तर-गोयमा ! १ सब्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होजा २ अहवा तिरिक्खजोणिएसु य रइएमु य होन्जा ३ अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य होजा ४ अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होजा ५ अहवा तिरिक्खजोणिएसु य गेरइएसु य मणुस्सेसु य होजा For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९४ भगवती मूत्र-श. २८. उ. १ पाप का मंमर्जन और निर्गंव-गनि ६ अहवा तिरिक्ख जोणिपसु य णेरइएसु य देवेसु य होजा ७ अहवा तिरिक्वजोणिएसु य मणुम्सेमु य देवेमु य होजा ८ अहवा तिरिक्खजोणिएमु य गेरइएसु ग गणुरगेमु य देवेसु य होजा। कठिन शब्दार्थ-कहि-कहां पर, समजिणिसु-समजन किया--ग्रहण किया, समारसु-आचरण किया। . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन ! जीव ने किम गति में पाप-कर्मों का समर्जन (ग्रहण) किया था और किम गति में आचरण किया था ? १ उत्तर-हे गौतम ! (१) सभी जीव तियंच-गति में थे। (२) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि और नरक-योनि में थे। (३) अथवा सभी जीव तिर्यच योनि और मनुष्य में थे। (४) अथवा सभी जीव तियंच योनि और देव में थे। (५) अथवा सभी जीव तियं च-योनि, नैरयिक और मनुष्य में थे। (६) अथवा सभी जीव तियंच-योनि, नैयिक और देव में थे। (७) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि, मनुष्य और देव में थे। (८) अथवा सभी जीव तिर्यच-योनि, नैरयिक, मनुष्य और देव में थे। (उस-उस गति में उन्होंने 'पाप-कर्म का समर्जन और समाचरण किया था)। २ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं कहिं समजिणिंसु, कहिं समायरिंसु ? __२ उत्तर-एवं चेव । एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा । कण्हपक्खिया, सुकपक्खिया । एवं जाव अणागागेवउत्ता। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव ने किस गति में पाप-कर्मों का समर्जन और समाचरण किया था ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । कृष्णलेशी यावत् अलेशी, कृष्णपाक्षिक For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श २८ उ. १ पाप का समर्जन और तिर्यच-गति ३५६५ शुक्लपाक्षिक यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त । .. ३ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समन्जिाणिसु. कहिं समायरिंसु ? ३ उत्तर-गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएमु होज त्तिएवं चेव अट्ठ भंगा भाणियव्वा । एवं सब्वाथ अट्ट भंगा, एवं जाव अणागारोवउत्ता वि । एवं जाव वेमाणियाणं । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं जाव अंतराइएणं । एवं एए जीवादीया वेमाणियपज्जवसाणा णव दंडगा भवंति । 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ * ॥ अट्ठवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक ने किस गति में पाप कर्मों का समर्जन और समाचरण किया था ? ३ उत्तर-हे गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्च योनिक थे इत्यादि पूर्ववत् आठों भंग । इसी प्रकार सर्वत्र यावत् अनाकारोपयुक्त तक आठ-आठ भंग और (पण्डक के क्रम से) वैमानिक तक कहना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानावरणीय से ले कर यावत् अन्तराय पर्यन्त । जीव से ले कर वैमानिक तक नौ दण्डक होते है। विवेचन-यहाँ प्रश्न में समर्जन और समाचरण शब्द दिये हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है--पार-कर्मों का समर्जन अर्थात् उपार्जन और समाचरण अर्थात् पाप-कर्म के हेतुभत पाप-क्रिया का आचरण । प्रश्न का तातार्य यह है कि जीव ने पाप-कर्म के समा For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१६ भगवती मूत्र-श. २८ उ. १ पाप का समर्जन और तिर्यंच-गति चरण से पाप-कर्म का उपार्जन किस गति में किया था ? अथवा गर्जन और समाचरण शब्द पर्यायवाची हैं। अत: दोनों गब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। तियंच-योनि अधिक जीवों का आश्रय होने से सभी जीवों की माता रूप है । इसलिये अन्य नारकादि सभी जीव कदाचित् तिर्यंच से आ कर उत्पन्न हा हों, इसलिये वे 'सभी तिर्यंच-योनि में थे' ऐसा कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि किसी विवक्षित समय में जो नरयिक आदि थे, वे अल्प होने के कारण, मोक्ष चले जाने से तथा तियंच गति में प्रवेश कर जाने मे उन विवक्षित नरयिकों की अपेक्षा नरक गति निर्लेप (खाली) हो गई हो, किंतु तियंच गति, अनन्त होने से निर्लेप नहीं हो सकती, अतः उन तिर्यंच में से निकल कर उन विवक्षित नैरयिकों के स्थान में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुए हों, उनकी अपेक्षा यह कहा जा सकता है कि उन सभी ने तियंच-गति में नरक गत्यादि के हेतुभत पाप-कर्मों का उपार्जन किया था। यह प्रथम भंग है अथवा विवक्षित समय में जो मनुष्य और देव थे, वे निर्लेप रूप से वहाँ से निकल गये और उनके स्थानों में तिथंच और नरक गति से आ कर जीव उत्पन्न हो गये। उनको अपेक्षा दूसरा भंग बनता है कि सभी तियंचयोनिक और नैरयिक में थे। जो जहाँ थे, वहीं पर उन्होंने कर्म उपार्जन किये । अथवा विवक्षित समय में जो नैरयिक और देव थे, वे उसी प्रकार वहां से निलेप रूप से निकल गये और उनके स्थानों में तिथंच और मनुष्य से आ कर उत्पन्न हो गये । उनकी अपेक्षा यह तीसरा भंग बनता है कि सभी तिर्यंच और मनुष्य में थे। जो जहाँ थे, उन्होंने वहीं पर कर्म उपार्जन किये। इस प्रकार आठों ही भंगों के विषय में जानना चाहिये। - इन आठ भंगों में से पहला भंग तिर्यंच गति का ही है। दूसरा, तीसरा और चौथा-तिर्यंच और नैरयिक, तिर्यंच और मनुष्य, तियं च और देव, इस प्रकार दिक-संयोगी बनते हैं। पांचवां, छठा और सातवां, ये तीन भंग--(१) तिर्यच, नैरयिक और मनुष्य (२) तियंच, नैरयिक और देव तथा (३) तियंच, मनुष्य और देव, इस प्रकार त्रिमंयोगी बनते हैं । आठवां भंग-तिर्यन, नैरयिक, मनुष्य और देव, इस प्रकार चतुःसंयोगी बनता है। . इस प्रकार सलेशी आदि सभी के पाग-कर्म आदि नौ दण्डकों के साथ आठ-आठ भंग कहना चाहिये। ॥ अट्ठाईसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ - MOAMARARE For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ उद्देशक २ अनन्तरोपपन्नक कर्म समर्जन 09990 fax १ प्रश्न - अनंतशेववष्णगा णं भंते! णेरडया पावं कम्मं कहिं समज्जिर्णिसु, कहिं ममायरिंसु ? १ उत्तर - गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिषखजोणिएस होज्जा, एवं एत्थ वि अड भंगा। एवं अनंतशेववण्णगाणं णेरड्याईणं जस्स जं अत्थि लेसाईगं अणागारोवओगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वैमाणियाणं । णवर अणंतरेसु जे परिहरियव्वा ते जहा बंधि तहा इहं पि । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं जाव अंतराहणं णिरवसेसं । एसो वि णवदंडगसंगहिओ उद्देसओ भाणियो | सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति || अट्ठावीस मे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ- परिहरियव्या- छोड़ देने योग्य | भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने किस गति में पापकर्म का समर्जन किया और किस गति में पाप कर्मों का समाचरण किया था ? उत्तर - हे गौतम! वे सभी तियंच-योनिक थे, इत्यादि पूर्वोक्त आठ For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९८ भगवती सूत्र-श. २८ उ २ अनन्तरोपपन्नक कर्म गमर्जन भंग यहाँ भी कहना चाहिये। अनन्तरोपपन्नक नरयिक की अपेक्षा लेश्या यावत् अनाकारोपयोग पर्यन्त बोलों में से जिसमें जो पाये जाते हों, वे सभी विकल्प से यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये । परन्तु अनन्तरोपणनक जीवों में जो-जो बोल छोड़ देने योग्य हैं (मिश्रदष्टि, मनोयोग, वचनयोगादि) वे वे बोल बन्धी-शतक के अनुसार छोड़ देने चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय-कर्म यावत् अन्तराय-कर्म तक नौ दण्डक सहित यह उद्देशक कहना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग, वचनयोग आदि पद संभवित नहीं हैं। इसलिये जिस प्रकार बन्धी शतक में उन विषयों में प्रश्न नहीं किया, उसी प्रकार यहां भी नहीं करना चाहिये। शंका-प्रथम भंग में कहा है कि सभी तियंच-योनिक से आ कर उत्पन्न हुए, सो यह बात कैसे संभव हो सकती है ? क्योंकि तिर्यंच आठवें देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं ? फिर तिर्यच से निकले हुए आनत आदि देवों में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? तथा तिर्यंच से निकले हुए तीर्थंकर आदि उत्तम पुरुष भी नहीं होते, इसी प्रकार की शंका द्वितीयादि भंगों में भी होती है ? समाधानशंका उचित है, किन्तु बहुलता की अपेक्षा ये भंग कहे हैं. ऐसा समझना चाहिये। ॥ अट्ठाईसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २८ उद्देशक ३-११ १-एवं पएणं कमेणं जहेब बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इहं पि अट्ठसु मंगेसु णेयव्वा । णवरं जाणियध्वं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं जाव अचरिमुद्देसो । सव्वे वि एए एकारस उद्देसगा। 8 'सेवं भंते ! मेवं भंते !' सि जाच विहरइ ® ॥ अट्ठावीमइमे सए ३-११ उद्देसगा समत्ता ॥ । अट्ठावीसइमं कम्मसमजणसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी क्रम से, जिस प्रकार बन्धी शतक में उद्देशकों की परिपाटी कही है, उसी प्रकार यहाँ भी आठों ही मंगों में जाननी चाहिये । परन्तु जिसमें जो बोल संभावित हों, वे ही बोल कहना चाहिये, यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त । ये सभी ग्यारह उद्देशक है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ अट्ठाईसवें शतक का ३-११ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ अट्ठाईसवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ (कर्म-प्रस्थापन शतक) शतक २६ उद्देशक १ कर्म-वेदन का प्रारम्भ और समाप्ति १ प्रश्न-जीवा णं भंते ! पावं कम्मं किं १ समायं पट्टविंसु समायं णि?विंसु २ समायं पटुर्विसु विसमायं णिविंसु ३ विसमायं पट्ठः विसु समायं णिविंसु ४ विममायं पटुविसु विमगायं णिविंसु ? ___ १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया समायं पढविंसु समायं णिर्विसु, जाव अत्थेगइया विसमायं पट्टविंसु विसमायं णिविसु । For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-३२. २९ उ. १ कर्म-वेदन का प्रारंभ और गमाप्ति ३६०१ कठिन शब्दार्थ--समायं --एक माथ, पट्टधि सु-- प्रारम्भ किया था, णिविसु-- समाप्त किया था । ____ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! ? जीव, पाप-कर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं ? २ या एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं ? ३ या भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ? ४ या भिन्न समय में प्रारम्भ करते .. हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं यावत् कितने ही जीव भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। २ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'अत्थेगइया समायं पट्ठः विसु समायं णिविसु'-तं चे ? २ उत्तर-गोयमा ! जीवा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१ अस्थे. गइया समाउया समोववण्णगा २ अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा ३ अत्यंगइया विसमाउया समोववण्णगा ४ अथेगइया विसमाउया विसमोववण्णगा। १ तत्थ णं जे ते समाउया समोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु ममायं णिविंसु । २ तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु विसमायं णिविंसु । ३ तत्थ णं जे ते विसमाउया समोचवण्णगा ते णं पावं कम्मं विममायं पविंमु समायं णिविंसु । ४ तत्थ णं जे ते विसमाउया विममोववण्णगा ते णं पावं कम्मं विसमायं पट्टविंसु For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०२ भगवती सूत्र-॥ २९. उ. १ कर्म-वेदन का प्रारभ और गमाप्ति विसमायं णिविंसु । मे तेणटेणं गोयमा ! तं चेव । भावार्थ -२ प्रश्न-हे भगवन ! ऐसा क्यों कहा कि कितने ही जीव पाप कर्मों का वेदन एक साथ प्रारंभ करते है और एक साथ समाप्त करते है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जीव चार प्रकार के कहे हैं । यथा-१ कई जीव समान आय (एक साथ इस भव की आय के उदय) वाले हैं और समान (एक साथ परभव में) उत्पन्न होते हैं २ कई जीव समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम (भिन्न-भिन्न समय में) उत्पन्न होते हैं ३ कई जीव विषम आय वाले हैं और सम (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और ४ कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम उत्पन्न होते हैं । १ जो समान आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं, वे पाप कर्म का भोग एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। २ जो समान आयु वाले और विषम उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग एक साय प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। ३ जो विषम आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग भिन्न समय में प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं और ४ जो विषम आय वाले और विषम उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग भिन्न समय में प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा है। ३ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं सब्वट्ठाणेसु वि जाव अणगारोवउत्ता। . पए सव्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियब्वा। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव, पाप-कर्म एक साथ भोगना प्रारंभ करते हैं ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । सभी स्थानों में यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त । इन सभी पदों में यही वक्तव्यता कहनी चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २९ उ १ कर्म-वेदन का प्रारंभ और समाप्ति ३६०३ ४ प्रश्न-णेग्इया णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्टविंसु ममायं णिटविंसु-पुन्छ । ____४ उतर-गोयमा ! अस्थेगड्या समायं पट्टविंसु-एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्यं जाव अणागागेवउत्ता । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियव्वं । जहा पावेण दंडओ, एएणं कमेणं अट्टसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ट दंडगा भाणि. यवा जीवाईया वेमाणियपजवसाणा। एसो णवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियब्बो। के 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति के ॥ एगूणतीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! नेरयिक पाप-कर्म का भोग एक साथ प्रारंभ करते है और एक साथ समाप्त करते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! कई नैरयिक एक साथ पाप-कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं इत्यादि जीवों को वक्तव्यतानुसार पावत् अनाकारोपयुक्त तक। इसी प्रकार यावत वैमानिक तक, जिसमें जो बोल पाये जाते हों, वे इसी क्रम से कहना चाहिये । जिस प्रकार पाप-कर्म का दण्डक कहा, उसी प्रकार उसी क्रम से आठों कर्म-प्रकृतियों के आठ दण्डक, जीवादि से ले कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये। यह नौ दण्डक सहित प्रथम उद्देशक कहना चाहिये। . 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २९ उ. २ अनन्तरोपपत्रक कर्म - भोग विवेचन पाप कर्म को भोगने का प्रारंभ और समाप्ति के लिए समकाल और विषमकाल की अपेक्षा नौभंगी कही है। यह चौभगी सम आयु और विषम आयु तथा सम उत्पत्ति और विषय उत्पत्ति वाले जीवों की अपेक्षा घटित होती है । शंका- यह नौभगी आयु-कर्म की अपेक्षा तो घटित हो जाती है, किन्तु पाप-कर्म की अपेक्षा कैसे घटित होगी, क्योंकि पाप-कर्म, आयु-कर्म की अपेक्षा न तो प्रारंभ होता है और न समाप्त होता है ? समाधान - यहाँ कर्मों का उदय और क्षय, भव की अपेक्षा से माना है । इसी अपेक्षा " को ले कर आयु-कर्म की समानता और विषमता तथा परभव में उत्पत्ति की समानता और विषमता को ले कर पाप कर्म का प्रारम्भ और समाप्ति का कथन किया है। अतएव पापकर्म सम्बन्धी चौमंगी घटित हो जाती है । ३६०४ ॥ उनतीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ - w w W W W I A A A AAA शतक २६ उद्देशक २ अनन्तरोपपन्नक कर्म-भोग १ प्रश्न - अनंतरोववण्णगा णं भंते! णेरड्या पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं णिट्टर्विसु- पुच्छा | १ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टविंसु समायं णिट्ठर्विसु, अत्थेगया समायं पट्टविंसु विसमायं णिविंसु । For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २९ उ. २ अनन्तरोपपत्रक कर्म - भोग भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पाप-कर्म को एक साथ भोगना प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ० ? १ उत्तर- हे गौतम! कितने ही नैरयिक एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं, तथा कितने ही नरयिक एक साथ प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । २ प्रश्न - से केणणं भंते ! एवं बुचड़ - ' अत्थेगइया समायं पट्टर्विसु-तं चेव' ? ३६०५ २ उत्तर - गोयमा ! अतरोववण्णगा णेरड्या दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अत्थेगइया समाज्या समोववण्णगा, अत्थेगइया समाज्या विसमोववण्णा । तत्थ णं जे ते समाज्या समोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु समायं णिटुविंसु । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु विसमायं णिट्टविंसु । सेते - तं चैव । भावार्थ-२ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं ० २ उत्तर - हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं। यथाकितने ही नैरयिक समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, तथा कितने ही समान आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । जो समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे पाप कर्म का वेदन एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। जो समान आयु वाले और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे पाप कर्म का भोगना एक साथ प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । इस कारण हे गौतम! पूर्वोक्त कथन है । For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. २९ उ. २ अनन्तरोपपन्नक कर्म-भोग ३ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते! अनंतशेववण्णा रइया पावं० ? ३ उत्तर - एवं चेन, एवं जाव अणागारोवउत्ता । एवं असुरकुमा राणं । एवं जाव वेमाणियाणं, णवरंजं जस्स अत्थितं तस्स भाणियव्वं । एवं णाणावर णिज्जेण वि दंडओ, एवं णिरवसेसं जाव अंतगइएणं । * 'सेवं भंते ! मेवं भंते!' त्ति जाव विहरइ * ३६०६ || गूणती महमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ३ प्रश्न- हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपन्नक नैरधिक एक साथ पाप कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं० ? ३ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त तक । असुरकुमार से ले कर यावत् वैमानिक तक भी इसी प्रकार । किन्तु जिसके जो हो, वही कहना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय से ले कर यावत् अन्तराय पर्यन्त । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - आयु उदय के प्रथम समयवर्ती जीव, 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं । उनके आयु का उदय समकाल में ही होता है, अन्यथा उनका अनन्तरोपपन्नकपना ही नहीं वन सकता । मरण के पश्चात् परभव की उत्पत्ति की अपेक्षा 'समोपपन्नक' कहलाते हैं, और मरणकाल में भूतपूर्व गति की अपेक्षा वे अनन्तरोपपन्नक कहलाते हैं । इस प्रकार यह प्रथम भंग बनता । दूसरे भंग में समकाल में आयु का उदय होने से 'समायुष्क' कहलाते हैं और मरण समय की विषमता के कारण 'विषमोपपन्नक' कहलाते हैं, इस प्रकार दूसरा भंग बनता है । ये अनन्तरोपपन्नक हैं, इसलिए इनमें विषमायु सम्बन्धी तीसरा और चौथा मंग नहीं बनता । ॥ उनतीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६ उद्देशक ३-११ १ - एवं एएवं गमएवं जच्चेव बंधिसए उद्देमगपरिवाडी सच्चेव विभाणियव्वा जाव अचरिमो त्ति । अनंतर उद्देसगाणं चउण्ड वि एका वृत्तव्वया, सेसाणं सत्तण्हं एक्का । || गूणनीसइमे सए ३ - ११ उद्देसगा समत्ता ॥ || गूंजतीस कम्मपवणसयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ - - सच्चेव--वही । भावार्थ - १ - 'बन्धी - शतक' में उद्देशक की जो परिपाटी कही है, वह इस पाठ से सम्पूर्ण उद्देशकों की परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहना चाहिए । अनन्त सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यता कहनी चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन -- शेष उद्देशकों की वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिये, किन्तु अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ़, अनन्तराहारक और अनन्तर पर्याप्तक, इन चार उद्देशकों की एक समान वक्तव्यता है और शेष सात उद्देशकों की एक समान वक्तव्यता है । ॥ उनतीसवें शतक के ३-११ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ उनतीसवां शतक सम्पूर्ण ॥ -- For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३० शतक ३० उद्देशक १ समवसरण १ प्रश्न-कइ णं भंते ! समोसरणा पण्णचा ? १ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि समोसरणा पण्णत्ता, तं जहाकिरियावाई, अकिरियावाई, अण्णाणियवाई, वेणइयवाई। कठिन शब्दार्थ--समोसरणा--समवसरण--मत, दर्शन । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! समवसरण कितने कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! समवसरण चार कहे हैं । यथा-१ क्रियावादी २ अक्रियावादी ३ अज्ञानवादी और ४ विनयवादी। ___२ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं किरियावाई, अकिरियावाई, अण्णाणियवाई, वेणइयवाई ? For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवसरण ३६.९ २ उत्तर-गोयमा ! जीवा किरियावाई वि, अकिरियावाई वि, अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । ___ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव क्रियावादी है, अक्रियावादी है, अज्ञानवादी है या विनयवादी है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जीव क्रियावादी भी है, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी भी है। ३ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा किं किरियावाई-पुच्छा । ३ उत्तर-गोयमा ! किरियावाई वि, अकिरियावाई वि, अण्णा. णियवाई वि, वेणइयवाई वि । एवं जाव सुक्कलेस्सा । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव क्रियावादी है. ? ३ उत्तर-हे गौतम ! क्रियावादी भी है, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी भी है । इसी प्रकार यावत् शुक्ललेश्या पर्यन्त । .४ प्रश्न-अलेस्सा णं भंते ! जीवा-पुन्छा । ४ उत्तर-गोयमा ! किरियावाई, णो अकिरियावाई, णो अण्णाणियवाई, णो वेणइयवाई। भावार्थ -४ प्रश्न-हे भगवन् ! अलेशी जीव क्रियावादी है. ? ४ उत्तर-हे गौतम ! अलेशी जीव क्रियावादी है, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी नहीं है। ५ प्रश्न-कण्हपक्खिया णं भंते ! जीवा किं किरियावाई-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१० भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवमरण ५ उत्तर-गोयमा ! णो किरियावाई, अकिरियावाई, अण्णा. णियवाई वि, वेणइयवाई वि । सुकपक्खिया जहा सलेस्सा । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव क्रियावादी है. ? ५ उत्तर-हे गौतम ! क्रियावादी नहीं, अपितु अक्रियावादी है, अज्ञानवादी और विनयवादी भी है । शुक्लपाक्षिक जीव, सलेशी जीव के समान है। सम्यग्दृष्टि जीव, अलेशी जीव के समान है । मिथ्यादृष्टि जीव, कृष्णपाक्षिक जीव के समान है। ६ प्रश्न-सम्मामिच्छादिट्ठीणं-पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! णो किरियावाई, णो अकिरियावाई, अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । णाणी जाव केवलणाणी जहा अलेस्से। अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया । आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहमण्णोबउत्ता जहा सलेस्सा । णोसण्णोवउत्ता जहा अलेस्सा । सवेयगा जाव णपुंसगवेयगा जहा सलेस्सा । अवेयगा जहा अलेस्सा । सकसायी जाव लोभकसायी जाव सलेस्सा । अकसायी जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा। सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन्! सम्यमिथ्या(मिश्र) दृष्टि जीव क्रियावादी है०? ६ उत्तर-हे गौतम ! क्रियावादी नहीं, अक्रियावादी भी नहीं, किन्तु अज्ञानवादी है और विनयवादी भी है । ज्ञानी यावत् केवलज्ञानी जीव, अलेशी For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ १ समवसरण जीवों के समान हैं । अज्ञानी यावत् विमंगज्ञानी जेव, कृष्णपाक्षिक जीवों के समान है । आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त जीव, मलेशी जीवों के समान है। नोसंज्ञोपयुक्त जीव, अलेशी जीवों के तुल्य है । सवेदक यावत् नपुंसकवेदक जीव, सलेशी जीव सदश है। अवेदक जीव अलेशी जीवों के अनुरूप है। सकषायी यावत् लोभकषायी जीव, सलेशी जीवों के तुल्य है। अकषायी जीवों का वर्णन अलेशी जीवों के अनुरूप है। सयोगी यावत् काययोगी जीव, सलेशी जीवों के समान हैं। अयोगी जीव, अलेशी जीवों के तुल्य है। साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, सलेशी जीव के सदृश है। ७ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं किरियावाई-पुच्छा। ७ उत्तर-गोयमा ! किरियावाई वि जाव वेणइयवाई वि । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक क्रियावादी हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! क्रियावादी यावत् विनयवादी भी हैं। ८ प्रश्र-सलेस्सा णं भंते ! णेरइया कि किरियावाई-? . ...८ उत्तर-एवं चेव । एवं जाव काउलेस्सा। कण्हपक्खिया किरियाविवजिया। एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया सच्चेव रइयाणं वत्तव्वया वि जाव अणागारोवउत्ता । णवरं जं अस्थि तं भाणियव्यं, सेसं ण भण्णइ । जहा णेरइया एवं जाव थणियकुमारा। . भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी नैरयिक क्रियावादी हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् यावत् कापोतलेशी नरयिक पर्यन्त। कृष्णपाक्षिक नरयिक क्रियावादी नहीं हैं, इसी प्रकार और इसी क्रम से जीवों की वक्तव्यता नैरयिकों के विषय में यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त । किन्तु वही कहना For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श ३० उ. १ समवसरण चाहिए जिसके जो हो, शेष नहीं कहना चाहिये । नरयिक के समान असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त भी। ९ प्रश्न-पुढविकाइया णं भंते ! किं किरियावाई-पुच्छा। ९ उत्तर-गोयमा ! णो किरियावाई, अकिरियावाई वि. अण्णाणियवाई वि, णो वेणइयवाई । एवं पुढविकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दोमज्झिल्लाइं समोमरणाइं जाव अणागारोवउत्ता वि। एवं जाव चरिंदियाणं । सव्वठाणेसु एयाइं चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई । सम्मत्तणाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाइं दो समो. सरणाइं । पंचिंदियतिरिक्वजोणिया जहा जीवा । णवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं । मणुस्सा जहा जीवा तहेव णिरवसेसं । वाणमंतर-जोइ. सिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक क्रियावादी हैं.? ९ उत्तर-हे गौतम ! वे क्रियावादी और विनयवादी नहीं, अक्रियावादी और अज्ञानवादी हैं । पृथ्वीकायिक जीवों में जो पद संप्रवित हों, उन ममी पदों में अक्रियावादी और अज्ञानवादी-ये मध्य के दो समवसरण जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पृथ्वीकायिक पर्यन्त और इसी प्रकार यावत् चौरिन्द्रिय जीवों तक सभी पदों में मध्य के दो समवसरण होते हैं। इनके सम्यक्त्व और ज्ञान में भी मध्य के ये दो ही समवसरण हैं। पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक का कथन औधिक जीवों के समान है, किन्तु इनमें भी जो बोल हों, वही कहना चाहिये। मनुष्य, औधिक जीवों के समान है। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, असुरकुमार के तुल्य हैं। - विवेचन-अनेक प्रकार के परिणाम वाले जीव जिसमें हो, उसे 'समवसरण' कहते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को 'समवसरण' कहते हैं । 'समवसरण' के चार भेद For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३० उ. १ समवसरण हैं। यथा- क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी । इनका स्वरूप इस प्रकार है १. क्रियावादी - कर्ता के बिना क्रिया सम्भव नहीं है इसलिए 'क्रिया का जो कर्त्ता है, वह आत्मा है - इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी हैं । अथवा 'क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है इस प्रकार क्रिया को प्रधान मानने वाले 'क्रियावादी' कहलाते हैं । अथवा एकान्त रूप से जीव अजीव आदि पदार्थों के अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी कहलाते हैं । इनके १८० भेद हैं। यथा जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ पदार्थों कै स्व और पर से अठारह भेद होते हैं । इन अठारह के नित्य और अनित्य रूप से ३६ भेद होते हैं । इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पाँच-पाँच भेद करने से १८० भेद होते हैं । ३६१३ जैसे- जीव स्व स्वरूप से काल की अपेक्षा नित्य है और अनित्य भी है। जीव पर रूप से काल की अपेक्षा नित्य है और अनित्य भी है। इस प्रकार काल की अपेक्षा चार भेद होते हैं । इसी प्रकार नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा भी जीव के चार-चार भेद हैं । इस प्रकार जीवादि नौ तत्त्वों के प्रत्येक के बीस-बीस भेद होने से . कुल १८० भेद होते हैं । 8 २ अक्रियावादी -- अक्रियावादी की भी अनेक व्याख्याएँ हैं । यथा- किसी भी अनस्थित पदार्थ में क्रिया नहीं होती । यदि पदार्थ में क्रिया होगी, तो वह अनवस्थित नहीं होगी । इस प्रकार पदार्थों को अनवस्थित मान कर उनमें क्रिया का अभाव मानने वाले 'अक्रियावादी' कहलाते हैं । अथवा क्रिया की आवश्यकता ही क्या है ? केवल चित्त की पवित्रता होनी चाहिये । इस प्रकार मात्र ज्ञान से ही मोक्ष की मान्यता वाले 'अक्रियावादी' कहलाते हैं । जीवादि के अस्तित्व को नहीं मानने वाले 'अक्रियावादी' कहलाते हैं । इनके ८४ -भेद हैं। यथा-जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात तत्त्वों के और पर के भेद से चौदह भेद होते हैं। काल, यदुच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा, इन छह की अपेक्षा चौदह भेदों का वर्णन करने से ८४ भेद होते हैं । जैसे- जीव, स्वतः काल से नहीं है जीव परतः काल से नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं | काल के समान यदृच्छा, नियति आदि की अपेक्षा भी जीव के दो-दो भेद हैं । इस प्रकार जीव के बारह भेद हैं। जीव के समान शेष छह तत्त्वों के भी बारह-बारह A For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१४ भगवती सूत्र - श ३० उ १ समवसरण भेद होते हैं । यो कुल ८४ भेद होते हैं । ३ अज्ञानवादी -- जीवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई नहीं है और न उनके जानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ज्ञानी और अज्ञानी-इन दोनों का समान अपराध होने पर ज्ञानी को अधिक दोष माना है और अज्ञानी को कम । इसलिये अज्ञान ही श्रेष्ठ है । ऐसा मानने वाले 'अज्ञानवादी' कहलाते हैं। इनके ६७ भेद हैं। यथा-जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौं तत्त्वों के सत्, असत्, सदसद्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात से गुणन करने पर ६३ भेद होते हैं । उत्पत्ति के सद्. असद्, सदसद् और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भेद होते हैं । जैसे कि--जीव सद् है, यह कौन जानता है और इसके जानने से क्या लाभ है इत्यादि । ४ विनयवादी - स्वर्ग, अपवर्ग आदि की प्राप्ति विनय से ही होती है । इसलिये विनय ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार विनय को प्रधान रूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं । इनके बत्तीस भेद हैं। यथा-देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता, इन आठों का मन, वचन, काया और दान, इन चार प्रकार से विनय होता है । इस प्रकार आठ को चार से गुणा करने पर बत्तीस भेद होते हैं । ये चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं । क्रियावादी, जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं । इस प्रकार एकांत अस्तित्व को मानने से इनके मत में पर रूप की अपेक्षा से नास्तित्व नहीं माना जाता । पर रूप की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व नहीं मानने से वस्तु में स्वरूप के समान पर रूप का भी अस्तित्व रहेगा । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सभी वस्तुओं का अस्तित्व रहने से एक ही वस्तु सर्व रूप हो जायगी, जो कि प्रत्यक्ष बाधित है । इस प्रकार क्रियावादियों का मत मिथ्यात्व पूर्ण है । अक्रियावादी जौवादि पदार्थों का अस्तित्व नहीं मानने से असद्भूत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । इसलिये वे भी मिथ्यादृष्टि हैं। एकान्त रूप से जीव के अस्तित्व का प्रतिध करने से उनके मत में निषेधकर्त्ता का ही अभाव हो जायगा । निषेधकर्त्ता का अभाव हो जाने से सभी का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है । I अज्ञानवादी अज्ञान को ही श्रेय मानते हैं । इसलिये वे भी मिथ्यादृष्टि हैं और उनका कथन स्ववचन बाधित है, क्योंकि 'अज्ञान श्रेय है' - यह बात भी वे बिना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं और बिना ज्ञान के वे अपने मत का समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३० उ. १ समवसरण इस प्रकार अज्ञान को श्रेय मानते हुए उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है । विनयवादी -- केवल विनय से ही स्वर्ग. मोक्ष आदि कल्याण को पाने की इच्छा रखने वाले विनयवादी मिथ्यादृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिया, दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अकेले ज्ञान से या अकेली क्रिया से नहीं । ज्ञान को छोड़ कर एकान्त रूप से क्रिया के केवल एक अंग का आश्रय लेने से वे सत्य मार्ग से दूर हैं । इस प्रकार ये चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं । इस शतक में उपरोक्त क्रियावादी का ग्रहण नहीं किया है, किन्तु 'क्रियावादी' शब्द से 'सम्यग्दृष्टि' का ग्रहण किया है । सम्यग्दृष्टियों का कथन अलेशी जीवों के समान कहा है। अलेशी जीव अयोगी और सिद्ध होते हैं । वे क्रियावाद के कारणभूत द्रव्य और पर्याय के यथार्थ ज्ञान से युक्त • होने से क्रियावादी हैं । यहाँ जो सम्यग्दृष्टि के योग्य अलेश्यत्व, सम्यग्दर्शन, ज्ञानी, नोज्ञोपयुक्त और अवेदकत्व आदि स्थान हैं, उन सभी का क्रियावाद में समावेश होता है। और मिथ्यादृष्टि के योग्य मिथ्यात्व अज्ञान आदि स्थानों का अक्रियावाद आदि तीन समवसरणों में समावेश होता है। मिश्रदृष्टि, साधारण परिणाम वाला होने से उसकी गणना आस्तिक में या नास्तिक में नहीं की है। इसलिये वे अज्ञानवादी और विनयवादी हो होते हैं । पृथ्वी कायिकादि जीव, मिथ्यादृष्टि होने से अक्रियावादी और अज्ञानवादी होते हैं । यद्यपि उनमें वचन का अभाव होने से वाद नहीं होता, तथापि उस उस वाद के योग्य परिणाम होने से वे अक्रियावादी और अज्ञानवादी कहे जाते हैं । उनमें विनयवाद के योग्य परिणाम न होने से वे विनयवादी नहीं होते । पृथ्वी कायिकादि के योग्य सलेश्यत्व, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या तथा कृष्णपाक्षिकत्वादि जो स्थान हैं, उन सभी में अक्रियावादी और अज्ञानवादी समवसरण होते हैं । इस प्रकार चौरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिये, किन्तु यहाँ इतना समझना आवश्यक है कि क्रियावाद और विनयवाद, विशिष्ट सम्यक्त्वादि परिणाम के सद्भाव में होते हैं । इसलिये यद्यपि बेइन्द्रियादि जीवों में सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति के समय सम्यक्त्व और ज्ञान का अंश होता है, तथापि वे क्रियावादी और विनयवादी नहीं कहलाते । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में अलेश्यत्व, अकषायित्वादि की पृच्छा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ये स्थान इनमें नहीं होते । ३६१५ For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१६ १० प्रश्न - किरियावाई णं भंते! जीवा किं णेरड्याउयं पकरेंति तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेंति, मणुस्साज्यं पकरेंति, देवाज्यं पकरेंति ? १० उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पिपकरेंति, देवाउयं पिपकरेंति । : भगवती सूत्र - श ३० उ. १ समवसरण भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्रियावादी जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं या तिच-योनिक, मनुष्य अथवा देव का आयु बांधते हैं ? . १० उत्तर - हे गौतम! क्रियावादी जीव, नैरयिक और तियंच-योनिक का आयु नहीं बाँधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयु बांधते हैं । ११ प्रश्न - जह देवायं पकरेंति किं भवणवासीदेवाउयं पकरेंति जाव वैमाणियदेवायं पकरेंति ? ११ उत्तर - गोयमा ! णो भवणवासीदेवाज्यं पकरेंति, णो वाणमंतर देवाउयं पकरेंति णो जोइसियदेवाज्यं पकरेंति, वेमाणियदेवाउयं पकरेंति । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि क्रियावादी जीव देव का आयु ध है, तो पति देव को आयु बांधते हैं, अथवा यावत् वैमानिक देव बांधते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम ! वे भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव आयु नहीं बाँध, किन्तु वैमानिक देव का आयें बाँधते हैं । १२ प्रश्न - अकिरियावाई णं भंते! जीवा किं णेरहयाज्यं पकरेंति, तिरिक्ख० - पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श ३० उ. १ ममवसरण ३६१७ १२ उत्तर-गोयमा ! णेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि पकरेंति । एवं अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अक्रियावादो जीव, नरयिफ का आयु बांधते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक यावत् देव का आय बांधते हैं। इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवाटी भी। १३ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं णेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। १३ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं एवं जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि चउहि वि समोसरणेहिं भाणियव्वा । ____भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी क्रियावादी जीव, नरयिक का आयु बांधते हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक का आय नहीं बांधते इत्यादि औधिक ‘जीव के समान सलेशी में चारों समवसरण कहना चाहिये। १४ प्रश्न-कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं णेरझ्याउयं पकरेंति-पुच्छा। ___१४ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति,मणुस्साउयं पकरेंति,णो देवाउयं पकरेंति । अकिरियावाई अण्णाणियवाई वेणइयवाई य चत्तारि वि आउयाई पकरेंति । For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१८ भगवती मूत्र-श ३० उ. १ समवसरण एवं नीललेस्सा वि । एवं काउलेस्सा वि । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेशी क्रियावादी जीव, नैरविक का आयु बांधते हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम ! नेरथिक, तिर्यंच-योनिक और देव का आयु नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य का आयु बांधते हैं । कृष्णलेशी अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी जीव, नैरयिक आदि चारों प्रकार का आयु बांधते हैं । इसी प्रकार नीललेशी और कापोतलेशी भी । १५ प्रश्न - तेउलेस्सा णं भंते! जीवा किरियाबाई किं णेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । १५ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पिपकरेंति । जड़ देवाउयं पकरेंति - तव । भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! तेजोलेशी क्रियावादी जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं ? १५ उत्तर - हे गौतम! नैरथिक और तिथंच का आयु नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयु बांधते हैं । यदि वे देव का आयु बांधते हैं, तो पूर्ववत् आयु का बन्ध करते हैं । १६ प्रश्न - तेउलेस्सा णं भंते! जीवा अकिरियावाई किं णेरइयाउयं - पुच्छा । १६ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३० उ. १ समवसरण पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि करेंति, देवा उयं पि पकरेंति । एवं अण्णाणियवाई वि, वेणहयवार्ड वि । जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि सुकलेस्सा वि णायव्वा । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! तेजोलेशी अक्रियावादी जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं ? ३६१९ १६ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक का आयु नहीं बांधते, किन्तु तियंच, मनुष्य और देव का आयु बांधते हैं । इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी जीव भी । तेजोलेशी जीव के समान पद्मलेशी और शुक्ललेशी जीव भी जानना चाहिये । १७ प्रश्न - अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं णेरइयाउयं पुच्छा । १७ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिख०, जो मणु०, णो देवाउयं पकरेंति । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! अलेशी क्रियावादी जीव, नैरयिक का बांधते हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! वे नरयिक, तिथंच मनुष्य और देव, किसी का भी आयु नहीं बांधते । १० प्रश्न - कण्हपक्खिया णं भंते! जीवा अकिरियाबाई किं रइयाउयं पुच्छा । १८ उत्तर - गोयमा ! रइयाउयं पिपकरेंति एवं चउवि पि । For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२० भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवसरण एवं अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णपाक्षिक अक्रियावादी जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक, तिथंच आदि चारों प्रकार का आय बांधते हैं। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक अज्ञानवादी और विनयवादी भी । शुक्लपाक्षिक, सलेशी जीव के समान बन्ध करते हैं । १९ प्रश्न-सम्मदिट्ठी णं भंते ! जीवा किरियावाई किं गेरइया. उयं-पुच्छा । १९ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाज्यं पि पकरेंति । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । भावार्थ-१९ प्रश्न हे भगवन् ! सम्यगदष्टि क्रियावादी जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं ? .. १९ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक और तियंच का आय नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयु बांधते हैं। मिथ्यादृष्टि क्रियावादी का बन्ध कृष्णपाक्षिक के समान है। २० प्रश्न-सम्मामिच्छादिट्टी णं भंते ! जीवा अण्णाणियवाई कि णेरड्याउयं० ? २० उत्तर-जहा अलेस्सा । एवं वेणइयवाई वि । णाणी आभिणि बोहियणाणी य सुयणाणी य ओहिणाणी य जहा सम्मदिट्ठी। For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-पा. ३० उ. १ समवगरण ३६२१ भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! सम्यमिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी जीव, नरयिक का आयु बांधते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! अलेशी जीव के समान । इसी प्रकार विनय. वादी भी जानना चाहिये । ज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी की वक्तव्यता सम्यगदष्टि के समान है। २१ प्रश्न-मणपज्जवणाणी णं भंते ! पुच्छा। २१ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख०, णो मणुस्स०, देवाउयं पकरें ति । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन ! मनःपर्यवज्ञानी क्रियावादी जीव, नरयिक का आयु बांधते हैं ? ____ २१ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक, तिथंच और मनुष्य का आयु नहीं बांधते, किन्तु देव का आयु बांधते हैं। २२ प्रश्न-जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासि०-पुच्छा। .....२२ उत्तर-गोयमा ! णो भवणवासिदेवाउयं पकाति, णो वाणमंतर०, णो जोइसिय०, वेमाणियदेवाउयं पकरेंति । केवलणाणी जहा अलेस्सा । अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया । सण्णासु चउसु वि जहा सलेस्सा । णोसण्णोवउत्ता जहा मणपजवणाणी । सवेयगा जाव णपुंसगवेयगा जहा सलेस्सा । अवेयगा जहा अलेस्सा। सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकमायी जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा । अजोगी जहा अलेस्सा। For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३६२२ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवमरण सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे देव का आय बांधते हैं, तो क्या मवनपति देव यावत् वैमानिक देव का आयु बांधते हैं ? ...२२ उत्तर-हे गौतम ! वे भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव का ., आयु नहीं बांधते, परन्तु वैमानिक देव का आयु बांधते हैं । केवलज्ञानी का कथन अलेशी जीव के समान है। अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी, कृष्णपाक्षिक के समान है। आहारादि चारों संज्ञा वाले जीव, सलेशी जीव के समान है । नोसंजोपयुक्त जीव, मनःपयंब ज्ञानी के समान है। सवेदी यावत् नपुंमक वेदी जीव, सलेशी जीव के समान है। अवेदी जीव, अलेशी के समान है । सकषायी यावत् लोमकषायी जीव, सलेशी जीव के सदृश है । अकषायी, अलेशी के तुल्य है। सयोगी यावत् काययोमी, सलेशीवत् हैं । अयोगी, अलेशी के समान है। साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, सलेशी के समान है। विवेचन--यहां कहा है कि क्रियावादी जीव, नैरयिक और तिर्यच का आय नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयु बांधते हैं । इसका आशय यह है कि जो नैरयिक ओर देव क्रियावादी हैं. वे मनुष्य का आयु बांधते हैं और जो मनुष्य और पंचेन्द्रिय तियंच क्रियावादी हैं, वे देव का आयु बांधते हैं। कृष्णलेशी क्रियावादी जीव, नैरयिक, तियंच और देव का आयु नहीं बांधते, किन्तु एक मनुष्य का आयु बांधते हैं । यह कथन नैरयिक और असुरकुमारादि की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि जो कृष्णलेशी, सम्यग्दष्टि मनुष्य और पंचेन्द्रिय तियंच हैं, वे मनुष्य का आयु तो बांधते ही नहीं हैं, वैमानिक का आयु कृष्णादि तीन लेश्या में बंधता नहीं है । ___ अलेशी जीव, अयोगी और सिद्ध होते हैं । अतः वे किसी भी प्रकार का आयु नहीं बांधते । ....... 'सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव का कथन अलशी के समान है-ऐसा जो कहा है, इसका आशय यह है कि अलेशी जाव जो सिख है, वे तो कृत-कृत्य होने से एवं कर्मों का समूल क्षय करने से आयु-कर्म का बन्ध नहीं करते और अयोगी जीव भी उसी भव में मोक्ष प्राप्त करने है, इसलिये वे भी किसी प्रकार का आयु नहीं बांधते, इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव भी सम्यगमिथ्यादृष्टि अवस्था में किसी प्रकार के आयु का बन्ध नहीं करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ १ ममवमरण ३६२३ २३ प्रश्न-किरियावाई णं भंते ! णेरड्या किं णेग्हयाउयं-पुच्छा। २३. उत्तर-गोयमा! णो णेरहयाउयं०, मोतिरिक्ख०, मणुस्सा. उयं पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति । भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रियावादी नैरयिक, नरयिक का आयु बांधते हैं? २३ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक, तियंच और देव का आय नहीं बांधते, मनुष्य का आयु बांधते हैं। ____ २४ प्रश्न-अकिरियावाई ण भंते ! गेरइया-पुन्छा । .. ____ २४ उत्तर-गोयमा ! णो णेरड्याउयं०, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, णो देवाउय पकरेंति । एवं अण्णा. पियवाई वि, वेणयवाई वि। ____भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! अक्रियावादी नरयिक, नरयिक का आयु बांधते हैं ? .... २४ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक और देव का आय नहीं बांधते, किन्तु तिथंच और मनुष्य का आय बांधते हैं । अज्ञानवादी और विनयवादी भी इसी प्रकार । २५ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! णेरड्या किरियावाई किं णेरड्याउयं०१ ____२५ उत्तर-एवं सव्वे वि णेरड्या जे किरियावाई ते मणुस्साउयं एगं पकरेंति, जे अकिरियावाई, अण्णाणियवाई, वेणइयवाई ते सव्व For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२४ भगवती मूत्र-श. ३० उ. १ समवसरण ठाणेसु वि णो णेग्इयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति । णवरं सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहि वि समोसरणेहिं ण किंचि वि पकरेंति जहेव जीवपए । एवं जाव थणियकुमारा जहेव गोरइया । __भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी क्रियावादी नरयिक का आय बांधते हैं ? २५ उत्तर-हे गौतम ! जो नैरयिक क्रियावादी हैं, वे सभी एकमात्र मनुष्य का ही आयु बांधते हैं और जो अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी हैं, वे सभी स्थानों में तियंच और मनुष्य का ही आयु बांधते हैं, नैरयिक और देव का आयु नहीं बांधते, परन्तु सम्यमिथ्यादष्टि, अज्ञानवादी और विनयवादी, इन दो समवसरण में, जीव-पद के अनुसार किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त । २६ प्रश्न-अकिरियावाई णं भंते ! पुढविक्काइया-पुच्छा ।। २६ उत्तर-गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिपखजोणियाउयं० मणुस्माउयं० णो देवाउयं पकरेंति । एवं अण्णाणियवाई वि । . भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! अक्रियावादी पृथ्वीकायिक जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं. ? २६ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक और देव का आय नहीं बांधते, किन्तु तियंच और मनुष्य का आय बांधते हैं । अज्ञानवादी भी इसी प्रकार । .. २७ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते !० ? For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ ममवसरण ३६२५ २७ उत्तर-एवं जं जं पयं अत्थि पुढविकाइयाणं नहिं नहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चेव दुविहं आउयं पकरेंति । णवरं तेउलेस्साए ण किं पि पकरेंति। एवं आउकाइयाण वि, एवं वणम्सइ. काइयाण वि । तेउकाइया वाउकाइया सव्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसुणोणेग्इयाउयं पकाति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं०, णो देवाउयं पकरेंति । बेइंदिय तेइंदिय चरिंदियाणं जहा पुढविकाइयाणं । णवरं सम्मत्त-णाणेसु ण एक्कं पि आउयं पकति । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी अक्रियावादी पृथ्वीकायिक जीव, नरयिक का आयु बांधते हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! जो-जो पद पश्वीकायिक जीव में होते हैं, उन सभी में अक्रियावादी और अज्ञानवादी, इन दो समवसरण में पूर्व कथनानसार मनुष्य और तियंच, दो प्रकार का आयु बांधते हैं, परन्तु तेजोलेश्या में तो किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते। इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के भी जानना चाहिये । तेजस्काय और वायुकाय के सभी स्थानों में अक्रियावादी और अज्ञानबादी, ऐसे दो समवसरण में नरयिक, मनुष्य और देव का आयु नहीं बांधते, एकमात्र तियंच का आयु बांधते हैं। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीव का निरूपण पृथ्वीकायिक के तुल्य है, परन्तु सम्यक्त्व और ज्ञान में वे किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते । ___२८ प्रश्न-किरियावाई णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं णेरड्याउयं पकरेंति-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवसरण २८ उत्तर-गोयमा ! जहा मणपजवणाणी। अकिरियावाई अण्णाणियवाई वेणइयवाई य चउन्विहं पि पकरेंति । जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि। . भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रियावादी पञ्चेनिय तियंच जीव, नैरयिक का आयु बांधते हैं ? - २८ उत्तर-हे गौतम ! इनका बन्ध मनःपर्यव ज्ञानी के तुल्य है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक जीव, चारों प्रकार का आयु बांधते हैं। सलेशी जीव का निरूपण औधिक तिर्यंच पंचेन्द्रिय के सदृश है। । २९ प्रश्न-कण्हलेस्सा णं भंते । किरियावाई पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं रहयाउयं-पुच्छा ? २९ उत्तर-गोयमा ! णो रहयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख०, णो मणुस्साउयं०, णो देवाउयं पकरेंति । अकिरियावाई अण्णाणियवाई वेणइयवाई चउन्विहं पि पकरेंति । जहा कण्हलेस्सा एवं णीललेस्सा वि, काउलेस्सा वि, तेउलेस्सा जहा सलेस्सा । णवरं अकिरियावाई, अण्णाणियवाई, वेणइयवाई य णो णेरइयाउयं पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरेंति, मणुस्साउयं पिपकरोति । एवं. पम्हलेस्सा वि, एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा । कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं चउब्विहं पि आउयं पकरेंति । सुकपक्खिया जहा सलेस्सा। सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवणाणी तहेव वेमाणियाउयं पकरेंति। For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ ममवसरण ३६२७ मिच्छदिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्टी ण य एक्कं पि पकरेंति जहेव गेरइया । णाणी जाव ओहिणाणी जहा सम्मदिट्टी। अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया । सेसा जाव अणागारोवउत्ता सब्वे जहा सलेस्मा तहा चेव भाणियव्वा । जहा पंचिंदिय- .. तिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुम्साण वि भाणियव्वा, णवरं मणपजवणाणी णोमण्णोवउत्ता य जहा सम्मदिट्ठी तिग्विखजोणिया तहेव भाणियव्वा । अलेस्सा केवलणाणी अवेयगा अकसायी अजोगी य एए ण एगं पि आउयं पकरेंति । जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव । वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमाग। भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तियंच जीव, नरयिक का आयु बांधते हैं. ? . २९ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक, तियंच, मनुष्य और देव, किसी का भी आयु नहीं बाँधते । अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी चारों प्रकार का आयु बांधते हैं । नीललेशी और कापोतलेशो भी कृष्णलेशी के समान है। तेजोलेशी का बन्ध, सलेशी के समान है, परन्तु अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी जीव, नैरयिक का आयु नहीं बांधते । देव, तियंच और मनुष्य का आयु बांधते हैं। इसी प्रकार पद्मलेशी और शुक्ललेशी भी जानना चाहिये । कृष्णपाक्षिक, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी, चारों प्रकार का आयु बांधते हैं । शुक्लपाक्षिक का कथन सलेशी के समान है । सम्यग्दष्टि, मनःपर्यव शानी के सदृश वैमानिक का आयु बांधता है। मिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक के तुल्य है । सम्यगमिथ्यावृष्टि जीव, एक भी आयु नहीं बांधते । उनमें नरयिक के समान दो समवसरण होते हैं । ज्ञानी यावत् अवधिज्ञानी का आयु बन्ध सम्यग For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२८ भगवती मूत्र-श. ३० उ १ समवसरण ~ दृष्टि के समान है । अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी का कथन कृष्णपाक्षिक के तुल्य है । शेष सभी यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जीव का कथन सलेशीवत् है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान मनुष्य का भी जानना चाहिये, परन्तु मन:पर्यव ज्ञानी और नोसंजोपयुक्त जीव का कथन सम्यगदष्टि तियंच-योनिक जैसा है । अलेशी, केवलज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी, ये सभी किसी भी प्रकार का आयु नहीं बांधते । इनका कथन औधिक जीव के तुल्य है। वाण. व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव का कथन असुरकुमार जैसा है। विवेचन-क्रियावादी नरयिक, नारक-भव के स्वभाव के कारण नैरयिक आयु और देवायु का बन्ध नहीं करते हैं और क्रियावादी होने के कारण वे तिर्यंच आयु भी नहीं बांधते हैं, एकमात्र मनुष्य का आयु ही बांधते हैं । अक्रियावाद आदि तीन समवसरण में नैरयिक जीव, सभी स्थानों में तियंच और मनुष्य का आयु बांधते हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टि नैरयिक, अज्ञानवादी और विनयवादो ही होते है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें रहते हुए जीव किसी भी प्रकार का आयु नहीं बांधते ।। पृथ्वीकायिक जीव में, अपर्याप्त अवस्था में, इन्द्रिय-पर्याप्ति पूरी होने के पूर्व ही तेजोलेश्या होती है और वे इन्द्रिय-पर्याप्ति पूरी होने पर ही पर-भव का आयु बांधते हैं। इसलिये तेजोलेश्या के अभाव में ही उनके आयु का बन्ध होता है। बेइन्द्रिय आदि जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व होने से उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान होता है, किन्तु उनका काल अत्यन्त अल्प होने से उस समय में आयु का बन्ध नहीं होता । अतः उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान के अभाव में आयु का बन्ध होता है। जब सम्यग्दृष्टि पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, कृष्णादि अशुभ लेश्या के परिणाम वाले होते है, तब वे किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते । जब वे तेजोलेश्यादि शुभ परिणाम वाले होते हैं, तभी एकमात्र वैमानिक देव का आयु बांधते हैं। तेजोलेश्या वाले जीव के आयु का बन्ध सलेशी जीव के समान बताया है । इसका अभिप्राय यह है कि क्रियावादी केवल वैमानिक का ही आयु बांधते हैं । शेष तीन समवसरण वाले जीव, चारों प्रकार का आयु बांधते हैं, क्योंकि सलेशी जीव में इसी प्रकार का आयु का बन्ध कहा है। For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श ३० उ. १ समवसरण ३० प्रश्न - किरियावाई णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभव सिद्धिया ? ३० उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया । भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! क्रियावादी जीव, भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक० ? ३० उत्तर - हे गौतम! अभवसिद्धिक नहीं, भवसिद्धिक हैं । ३१ प्रश्न - अकिरियाबाई गं भंते ! जीव किं भवसिद्धिया ३६२९ पुच्छा । ३१ उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं अण्णाणियंवाई वि, वेणइयवाई वि । भावार्थ - ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! अक्रियावादी जीव, भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक० ? • पुच्छा । ३१ उत्तर - हे गौतम! भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी । इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी भी । ३२ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते! जीवा किरियावाई किं भवपुच्छा । ३२ उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया । भावार्थ - ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी क्रियावादी जीव मवसिद्धिक हैं० ? ३२ उत्तर - हे गौतम! अभवसिद्धिक नहीं, भवसिद्धिक हैं । ३३ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियाबाई किं भव For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३० भगवती मूत्र-श ३० उ. १ ममवगरण ३३ उत्तर-गोयमा ! भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि जहा सलेस्सा। एवं जाव सुक्कलेस्सा। भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी अक्रियावादी जीव, भवसिद्धिक है. ? __३३ उत्तर-हे गौतम ! भवसिद्धिक भी हैं, और अभवसिद्धिक भी। इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी भी । सलेशी के समान कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी पर्यन्त। . ३४ प्रश्न-अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं भवपुच्छा । . .. ___ ३४ उत्तर-गोयमा ! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया। एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि. समोसरणेसु भयणाए । सुकपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया । सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा । मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया । सम्मामिच्छादिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा । णाणी जाव केवल. णाणी भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया । अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया। सण्णासु चउसु वि जहा सलेस्सा । णो सण्णोवउत्ता जहा सम्मदिट्ठी । सवेयगा,जाव णपुंसगवेयगा जहा सलेस्सा अवेयगा जहा सम्मदिट्ठी। सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। अकसायी जहा सम्मदिट्ठी। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। अजोगी जहा सम्मदिट्ठी। सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ. १ समवसरण ३६३१ सलेस्सा । एवं णेरड्या वि भाणियव्वा, णवरं णायव्वं जं अस्थि । एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा । पुढविक्काइया सब्वट्ठाणेसु 'वि मज्झिल्लेसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं जाव वणस्मइकाइया । बेइंदिय-तेइंदिय चरिंदिया पवं. चेव । णवरं सम्मत्ते ओहिणाणे आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे एएसु. चेव दोसु मज्झिमेसु समोमरणेसु भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया सेसं तं चेव । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा परइया । णवरं णायव्वं जं अस्थि । मणुस्सा जहा ओहिया जीवा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमा. णिया जहा असुरकुमारा। ____® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ® ॥ तीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! अलेशी क्रियावादी जीव, भवसिद्धिक हैं.? ३४ उत्तर-हे गौतम ! भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं। इस अभिलाप से कृष्णपाक्षिक तीनों समवसरण में (अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी) भजना (विकल्प) से भवसिद्धिक हैं। शुक्लपाक्षिक जीव, चारों समवसरण में भवसिद्धिक हैं, अमवसिद्धिक नहीं। सम्यगदष्टि जीव, अलेशी जीव के समान हैं। मिथ्यादृष्टि जीव, कृष्णपाक्षिक के तुल्य है । सम्यगमिथ्यादृष्टि अज्ञानवादी और विनयवादी, इन दोनों समवसरण में अलेशी जीव के वल्य भवसिद्धिक हैं। ज्ञानी यावत् केवलज्ञानी जीव भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं । अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी, जीव, कृष्णपाक्षिक जीव के तुल्य हैं। चारों संज्ञा वाले जीव का निरूपण सलेशी जीव के सदृश है । नोसंजोपयुक्त जीव का कपन सम्यग्दृष्टि जैसा है। सवेदी यावत् नपुंसकवेदी जीव, सलेशी जैसे है और For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३० उ १ समवसरण अवेदी जीव सम्यगदष्टि के तुल्य हैं। सकषायी यावत् लोभकषायो जीव, सलेशी जीव के समान हैं । अकषायी जीव, सम्यग्दृष्टि के तुल्य है सयोगी यावत् काय. योगी जीव, सलेशी जीव जैसे हैं । अयोगी जीव, सम्यग्दृष्टि जीव के समान हैं । साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, सलेशी जीव जैसे हैं । इसी प्रकार नैरयिक भी हैं, किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, वे कहने चाहिये । इसी प्रकार असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए । पृथ्वीकायिक सभी स्थानों में मध्य के दो समवसरण में (अक्रियावादी, अज्ञानवादी) भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी। इसी प्रकार यावत वनस्पतिकायिक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीव भी है, किन्तु सम्यक्त्व, औधिकज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान में इन दोनों के मध्य के समवसरण में भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। शेष पूर्ववत् । पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक जीव नैरयिक के तुल्य हैं, किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, वे कहने चाहिये । मनुष्य, औधिक जीव के समान हैं। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव का निरूपण असुरकुमार के समान है। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ तीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३० उद्देशक २ अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी० ➡ unit in Arran १ प्रश्न - अनंतशेववण्णगा णं भंते ! णेरड्या किं किरिया वाई - पुच्छा | १ उत्तर - गोयमा ! किरियाबाई वि जाव वेणहयवाई वि भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैर थिंक क्रियावादी हैं० ? १ उत्तर- हे गौतम! क्रियावादी भी है यावत् विनयवादी भी हैं । २ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते ! अनंतरोववण्णगा रहया किं किरिया वाई० ? २ उत्तर - एवं चेव, एवं जहेव पढमुद्देसे जेरइयाणं वतव्वया ata se विभाणियन्त्रा । णवरं जं जस्स अत्थि अनंत रोववण्णगाणं इह रहाणं तं तस्स भाणियव्वं । एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं । वरं अतरोववण्णगाणं जं जहिं अत्थि तं तहिं भाणियव्वं । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक क्रियावादी हैं ० ? २ उत्तर - हे गौतम! प्रथम उद्देशंक के समान । किन्तु अनन्तरोपपत्रक नैरयिक में जो संभव हो, उसी का निरूपण करना चाहिये। इसी प्रकार सर्व : जीव यावत् वैमानिक पर्यन्त । अनन्तरोपपत्रक जीव में जहां जो संभव हो, For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३४ भगवती सूत्र-श. ३० उ. २ अनन्तरोपपत्रक क्रियावादी. वही जानना चाहिये। ___ ३ प्रश्न-किरियावाई णं भंते ! अणंतरोववण्णगाणेरइया कि णेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। __ ३ उत्तर-गोयमा ! णो णेरड्याउयं पकरेंति, णो तिरि०, णो मणु०, णो देवाउयं पकरेंति । एवं अकिरियावाई वि अण्णाणियवाई वि वेणइयवाई वि। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक, नैरयिक का आयु बांधते हैं. ? ३ उत्तर-हे गौतम ! नयिक, तियंच, मनुष्य और देव का आयु नहीं बांधते । इसी प्रकार अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी भी। ४ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोक्वण्णगा गेरइया किं णेरड्याउयं-पुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! णो गेरइयाउयं पकरेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया। एवं सब्वट्ठाणेसु वि अणंतरोववण्णंगा रइया ण किंचि वि आउयं पकरोति जाव अणागारोवउत्तत्ति । एवं जाव वेमाणिया, णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । भावार्थ-४ प्रश्न हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी नैरयिक, नेरयिक का आयु बांधते हैं ? '४ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक यावत् देव किसी का आयु नहीं बांधते । For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३० उ. २ अनन्तरोपपत्रक क्रियावादी० इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त। इस प्रकार सभी स्थानों में अनन्तरोपपन्नक नैरयिक किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त और इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त, जिसके जो संभव हो, वही जानना चाहिये । ५ प्रश्न - किरियावाई णं भंते! अनंतरोववण्णगा णेरड्या किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया ? ५ उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया । 9 ३६३५ भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपत्रक नैरयिक भवसिद्धिक हैं ० ? ५ उत्तर - हे गौतम! अभवसिद्धिक नहीं, भवसिद्धिक हैं । ६ प्रश्न - अकिरियावाई णं - पुच्छा । ६ उत्तर - गोयमा ! भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं अण्णाणियवाई वि वेणइयवाई वि । भावार्थ - ६ प्रश्न हे भगवन् ! अक्रियावादी अनन्तरोपपत्रक नैरथिक, भवसिद्धिक हैं ० ? ६ उत्तर - हे गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी । इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी भी । ७ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अनंतरोववण्णगा रइया किं भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया १ For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३६ . भगवती सूत्र-श. ३० उ. ३ अनन्त रोपपनक क्रियावादी.. ७ उत्तर-गोयमा ! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए णेरइयाणं वत्तव्वया भणिया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव अणागागेवउत्तत्ति । एवं जाव वेमाणियाणं। णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्यं । इमं से लक्खणं-जे किरियावाई सुस्कपक्खिया सम्मामिच्छदिट्टीया एए सब्वे भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया, सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि । 8 सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ तीसइमे सप बीओ उद्देसो समत्तो । भावार्थ-७ प्रश्न--हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी नरयिक, भवसिद्धिक हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। इसी प्रकार इस अभिलाप से, औधिक उद्देशक में नरपिक की वक्तव्यता है, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिये, यावत् अनाकारोपयुक्त और वैमानिक पर्यन्त, जिसके जो हो, वही समझना चाहिये । उसका लक्षण यह है कि क्रियावादी, शुक्ल. पाक्षिक और सम्यमिथ्यादष्टि, ये सभी भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं । शेष सभी भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। : "विवेचन तत्काल उत्पन्न हुआ जीव 'अनन्त रोपपन्नक' कहलाता है । इस दूसरे उद्देशक में सभी कथन अनन्तरोपपन्नक की अपेक्षा किया है। क्रियावादी, शुक्लपाक्षिक और सम्यग्मिध्यादृष्टि, ये भव्य ही होते हैं, अभव्य नहीं। For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूग-श. ३० उ. ३ परम्परोपपत्रक क्रियावादी०, ३६३७ शेष जीव भव्य और अमव्य दोनों प्रकार के हाते हैं । अलेगी, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी, ये भी भव्य ही होते हैं । इनका समावेश क्रियावादी में हो गया है। इसलिये यहां इनका पृथक् निर्देश नहीं किया है। ॥ तीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ३० उद्देशक ३ परम्परोपपन्नक क्रियावादी १ प्रश्न-परंपरोववण्णगा णं भंते ! णेरइया किरियावाई० ? १ उत्तर-एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोक्वण्णएसु वि णेरहयाईओ तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ ॥ तीसइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-तियदंडगसंगहिओ-त्रिदण्डकसंगृहीत-तीन दण्डकों से युक्त । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक नैरयिक क्रियावादी हैं.? For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र - श. ३० उ. ४ - ११ समुच्चय क्रियावादी० १ उत्तर - हे गौतम! औधिक उद्देशकानुसार परम्परोपपनक नैरयिक मी हैं और नरयिक से ले कर वैमानिक पर्यन्त समग्र उद्देशक भी उसी प्रकार, तीन दण्डक सहित जानना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ३६३८ विवेचन-जिन जीवों को उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो गया है, वे परंपरोपपनक' कहलाते हैं । इनके लिये औधिक उद्देशक का अतिदेश किया है । क्रियावादित्व आदि की प्ररूपणा करना, यह एक दण्डक है । आयु-बन्ध की प्ररूपणा का दूसरा दण्डक है और भव्या मव्यत्व की प्ररूपणा का तीसरा दण्डक है। इन तीन aussi सहित यहां कथन करना चाहिये । ॥ तीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण || शतक ३० उद्देशक ४ – १९ — win win an arra समुच्चय क्रियावादी० [992ee0c १ - एवं एए कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चैव इहं पि जाव अचरिमो उद्देसो । णवरं अनंतरा चत्तारि वि एकगमगा, परंपरा चचारि वि. एक्कगमएणं । एवं चरिमा बि अच For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गुत्र - ३० उ. ४-१ समुच्चय क्रियावादी० रिमा वि एवं चैव । णवरं अलेस्सो केवली अजोगी ण भण्णइ, सेसं तहेव | * 'सेवं भंते! सेवं भंते !' त्ति एए एक्कारस वि उद्देसगा । ४ - ११ ॥ तीसइमं समवसरण सयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ - इसी प्रकार और इस क्रम से बन्धी शतक में उद्देशकों की जो परिपाटी है, वही परिपाटी यहां भी, यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त समझनी चाहिये । 'अनन्तर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एकगम वाले ( एक समान ) हैं और 'परम्पर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एकगम वाले हैं । इसी प्रकार 'चरम' और 'अचरम' शब्द से विशेषित उद्देशकों के विषय में भी समझना चाहिये, किन्तु अलेशी, केबली और अयोगी का कथन यहां नहीं करना चाहिये । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - जो जीव अचरम हैं, वे अलेशी, केवलज्ञानी और अयोगी नहीं हो सकते । इसलिये अचरम उद्देशक में उनका कथन नहीं करना चाहिये । ॥ तीसवें शतक के ४ - ११ उद्देशक समाप्त ॥ ॥ तीसवां शतक सम्पूर्ण ॥ ३६३९ For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३१ ( उपपात शतक) शतक ३९ उद्देशक १ क्षुद्रयुग्म 2800/200x १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी कह णं भंते ! खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता । तं जहा१ कडजुम्मे २ तेयोए ३ दावरजुम्मे ४ कलिओए । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुञ्चह - ' चत्तारि खुड्डा जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कडजुम्मे जाव कलिओए' ? उत्तर - गोयमा ! जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र--श. ३१ उ. १ क्षुद्रयुग्म चउपजवसिए सेत्तं खुड्डागकडजुम्मे । जे णं रासी चउक्कएणं अव. हारेणं अबहीरमाणे तिपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागतेओगे । जे णं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागदावर जुम्मे । जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए सेत्तं खुड्डागकलिओगे । से तेणटेणं जाव कलिओगे। कठिन शब्दार्थ-खुड्डा-शुद-लघु, जुम्मा-युग्म-राशि । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! क्षुद्रयुग्म कितने कहें हैं ? १ उत्तरं-हे गौतम ! क्षुद्रयुग्म चार कहे हैं । यथा-कृतयुग्म, व्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज। प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्म यावत् कल्योज-ये चार क्षुद्रयुग्म क्यों उत्तर-हे गौतम ! जिस राशि में से चार चार का अपहार करते हुए अन्त में चार रहे, उसे 'क्षुद्रकृतयुग्म' कहते हैं। जिसमें से चार-चार का अपहार करते हुए. अन्त में तीन शेष रहे, उसे 'क्षुद्रव्योज' कहते हैं । जिसमें से चारचार का अपहार करते हुए अन्त में दो शेष रहे, उसे 'क्षुद्रद्वापरयुग्म' कहते हैं और जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते अन्त में एक ही शेष रहे, उसे 'क्षुवकल्योज' कहते हैं । इस कारण हे गौतम ! यावत् कल्योज कहा है । २ प्रश्न-खुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? किं णेरइएहिंतो उववजति ? तिरिक्ख-पुच्छा ? ..... २ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिती उववजति । एवं गैरइयाणं For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४२ भगवती गूत्र-श. ३१ उ. १ क्षुदयुग्म उववाओ जहा वक्तीए तहा भाणियन्वो । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि परिमाण नैयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिक, तियंच० ? २ उत्तर-हे गौतम ! नैरपिक से आ कर उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिपंच भौर गर्भज मनुष्य से आ कर उत्पन्न होते हैं) इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में नैरयिक के उपपात के अनुसार। ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजति ? ... ३ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा सोलस वा . संखेजा वा असंखेजा वा उववति । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कहं उववजंति ? ४ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे अजवसाणएवं जहा पंचविंसहमे सए अट्ठमुद्देसए णेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियन्वा जाव आयप्पओगेणं उववजंति णो परप्पओगेणं उववजंति। . .......... भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई कूदने वाला करता हुआ (अपने पूर्व स्थान को छोड़ कर आगे के स्थान को प्राप्त करता है, इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३१ उ. १ क्षुद्रयुग्म नैरमिक भी पूर्ववर्ती भव को छोड़ कर अध्यवसाय रूप कारण से अगले भव को प्राप्त करते हैं ) इत्यादि पच्चीसवें शतक के आठवें उद्देशक में नैरयिक संबंधी कथंनानुसार यावत् वे आत्म-प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर प्रयोग से नहीं । ३६४३ ५ प्रश्न - रयणप्पभापुढ विखुड्डागकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जेति ? ५ उत्तर - एवं जहा ओहियणेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियव्वा जाव णो परप्पओगेणं उववज्र्ज्जति । एवं सकरप्पभाए वि जाव आहेसत्तमाए एवं उववाओ जहा वक्कंतीए । "असण्णी खलु पढमं दोच्चं व सरीसवा तइय पक्खी" । गाहाए उववायव्वा, सेसं तहेव । कठिन शब्दार्थ- सरसवा - सरीसृप - गोह आदि । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं० ? ५ उत्तर - हे गौतम! औधिक नैरयिक की वक्तव्यतानुसार रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक भी, यावत् वे पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते पर्यन्त । इसी प्रकार शर्कराप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रांति पद के अनुसार यहाँ भी उपपात जानना चाहिये । यावत् 'असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप (भुजपरिसृप ) दूसरी नरक तक और पक्षी तीसरी नरक तक उत्पन्न होते हैं' इत्यादि गाथा से उपपात जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् । ६ प्रश्न – खुड्डागतेओगणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? किं रहए हिंतो ० ? For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४४ भगवती सूत्र - श. ३१ उ. १ क्षुद्रयुग्म ६ उत्तर - उववाओ जहा वक्कंतीए । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्षुद्रत्रयोज राशि प्रमाण नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं० ? ६ उत्तर - हे गौतम! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार उपपात जानना चाहिये । ७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उबवज्जेति ? ७ उत्तर - गोयमा तिष्णि वा सत्त वा एक्कारस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा उववज्जंति । सेसं जहा कडजुम्मस्स, एवं जाव असत्तमाए । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सभी कृतयुग्म नैरयिक के समान यावत् अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त । ८ प्रश्न - खुड्डागदावर जुम्मणेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति ? ८ उत्तर - एवं जहेव खुड्डाकडजुम्मे । णवरं परिमाणं दो वा छ . वा दस वा चोदस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, सेसं तं चैव जाव असत्तमाए । भावार्थ-८ प्रश्न हे भगवन् ! क्षुद्रद्वापरयुग्म राशि प्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम! क्षुद्रकृतयुग्म राशि के अनुसार । परिमाण दो, For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूग-श. ३० उ. १ क्षुद्रयुग्म ३६४५ छह, दस, चौदह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्, यावत् अधःमप्तम पृथ्वी पर्यन्त । ९ प्रश्न-खुड्डागकलियोगणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ९ उत्तर-एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे । णवर परिमाणं एको वा पंच वा णव वा तेरस वा संखेजा वा असंखेना वा उववज्जति सेसं तं चेव । एवं जाव अहेसत्तमाए । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति २ जाव विहरइ * ॥ इकतीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्र कल्योज राशि प्रमाण नैरयिक कहाँ से आ. र उत्पन्न होते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! क्षुद्रकतयुग्म राशि के अनुसार । परिमाण एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत् यावत् अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। - विवेचन-लघु (अल्प ) संख्या वाली राशि को 'क्षुद्रयुग्म' कहते हैं । इनमें से चार, आठ, बारह आदि संख्या वाली राशि 'क्षुद्रकृतयुग्म' कहलाती है। तीन, सात, ग्यारह आदि संख्या वाली राशि 'क्षुद्रयोज' कहलाती है । दो, छह, दस आदि संख्या वाली राशि 'क्षुद्रद्वापरयुग्म' कहलाती है । एक, पाँच, नौ आदि संख्या वाली राशि'क्षुद्रकल्योज' कहलाती है। ॥ इकत्तीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३१ उद्देशक २ कृष्णलेश्या वाले नैरयिक की उत्पत्ति १ प्रश्न-कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? . १ उत्तर-एवं चेव जहा ओहियगमो जाव णो परप्पओगेणं उववज्जति । णवरं उववाओ जहा वक्कंतीए धूमप्पभापुढविणेरइयाणं, सेसं तं चेव। - भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण कृष्णलेश्या वाले नरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं. ?. १ उत्तर-हे गौतम ! औधिक गमक के अनुसार, यावत् पर-प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते । यहां भी प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार । धमप्रमा पृथ्वी के नरयिकों का उपपात कहना चाहिये तथा प्रश्न और उत्तर पूर्ववत् जानना चाहिये। २ प्रश्न-धूमप्पभापुढविकण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइया गं भंते ! को उववज्जति ? २ उत्तर-एवं चेव गिरवसेसं । एवं तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। णवरं उववाओ सव्वत्थ जहा वक्कंतीए । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण कृष्णलेश्या वाले For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र-श. ३० उ. २ कृष्णलेश्या वाले नैरयिक की उत्पत्ति ३६४७ . धूमप्रभा पथ्वी के नैरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त । सभी स्थानों में उपपात होता है-प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार। .. ३ प्रश्न-कण्हलेस्सखड्डागतेओगणेरड्या णं भंते ! कओ उववजति ? ३ उत्तर-एवं चेव, णवरं तिण्णि वा सत्त वा एकारस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा, सेसं तं चेव । एवं जाव अहे. सत्तमाए वि। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्रयोज राशि प्रमाण कृष्णलेश्या वाले नरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त। .. ४ प्रश्न-कण्हलेस्सखुड्डागदावरजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववनंति ? - ४ उत्तर-एवं चेव । णवरं दो वा छ वा दस वा चोइस वा, सेसं तं चेव, धूमप्पभाए वि जाव अहेसत्तमाए । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षद्वापरयुग्म राशि प्रमाण नैरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं. ? For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४८ भगवती सूत्र-श. ३० उ. २ कृष्णलेश्या वाले नैयिक की उत्पत्ति ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । परिमाण-दो, छह, दस, चौदह, संख्णत या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार धूमप्रमा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त । ५ प्रश्न-कण्हलेस्सखड्डागकलिओग णेरइया णं भंते ! कओ उववजति ? ५ उत्तर-एवं चेव । णवरं एको वा पंच वा णव वा तेरस वा संखेजा वा असंखेजा वा, सेंसे तं चेव । एवं धूमप्पभाए वि, तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ इकतीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकल्योज राशि प्रमाण नरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । परिमाण-एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार घूमप्रभा, तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त । _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ... विवेचन-इस दूसरे उद्देशक में कृष्णलेश्या वाले नरयिकों का कथन किया है। यह लेश्या पांचवीं, छठी और सातवीं नरक के नरयिकों में होती है । सामान्य दण्डक और तीन नरक विषयक तीन दण्डक, इस प्रकार यहाँ कुल चार दण्डक होते हैं । इनका उपपात प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार है । इनमें असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी और सिंह (सभी चतुष्पद) के अतिरिक्त दूसरे तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य उत्पन्न होते हैं । ॥ इकत्तीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३१ उद्देशक ३ नील लेश्या वाले नैयिक की उत्पत्ति . १ प्रश्न-णीललेस्सग्बुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववनंति ? १ उत्तर-एवं जहेव कण्हलेस्सखुइडागकडजुम्मा । णवरं उववाओ जो वालुयप्पभाए, सेसं तं चेव । वालुयप्पभापुढविणीललेस्स. खुइडागकडजुम्मणेरइया एवं चेव, एवं पंकप्पभाए वि, एवं घूमप्पभाए वि। एवं चउसु वि जुम्मेसु । णवरं परिमाणं जाणियध्वं । परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए । सेसं तहेव । E 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ इकतीसइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नीललेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म प्रमाण नैरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं. ? १ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म नरयिक के समान, किन्तु उपपात वालुकाप्रभा के समान है । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार वालुकाप्रभा पृथ्वी के नीललेल्या वाले क्षुवकृतयुग्म नरयिक और पङ्कप्रमा और धूमप्रभा के विषय में भी चारों युग्म का कयन करना चाहिये । परिमाण For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५० भगवती मूत्र-श ३१ उ. ४ कापोतलेशी नैरयिक की उत्पत्ति कृष्णलेश्या के उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् । ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-तीसरे उद्देशक में नीललेश्या वाले नयिकों की प्ररूपणा की गई है। नीललेण्या तीसरी, चौथी और पांचवीं नरक में होती है। इसलिए एक सामान्य दण्डक और तीन नरकों के तीन दण्डक, इस प्रकार चार दण्डक कहे हैं । यहाँ नीललेश्या का प्रकरणं चल रहा है । वह वालुकाप्रभा आदि में ही होती है। इसलिए उसमें जिन जीवों का उत्पाद होता है, उन्हीं का उत्पाद जानना चाहिए । इसमें असंजी और सरीसृप के अतिरिक्त शेष तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य उत्पन्न होते हैं। ॥ इकतीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ३१ उद्देशक ४ कापोतलेशी नैरयिक की उत्पत्ति १ प्रश्न-काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? - १ उत्तर-एवं जहेव कण्हलेस्सखुडागकडजुम्म०, णवरं उव. वाओ जो रयणप्पभाए, सेसं तं चेव । For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३१ उ. ४ कापोतलेशी नैरयिक की उत्पत्ति ३६५१ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण नैरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं. ? १ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकतयुग्म नैयिक के समान उपपात रत्नप्रभा के अनुसार । शेष पूर्ववत् । २ प्रश्न-रयणप्पभापुढविकाउलेस्सनुड्डागकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जति ? २ उत्तर-एवं चेव । एवं सकरप्पभाए वि, एवं वालुयप्पभाए वि। एवं चउसु वि जुम्मेसु । णवरं परिमाणं जाणियव्वं, परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए, सेसं तं चेव । 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ® .. ॥ इकतीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण रत्नप्रभा पथ्वी के नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार शर्कराप्रभा में और वालुकाप्रभा में चारों युग्म का निरूपण करना चाहिए । परिमाण कृष्णलेश्या उद्देशक के अनुसार। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--इस चौथे उद्देशक में कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का कथन किया है। कापोतलेश्या पहली, दूसरी और तीसरी नरक में होती है। इसलिये एक सामान्य दण्डक For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३१ उ. ५ भवसिद्धिक नैरयिक की उत्पत्ति और इन तीन नरकों के तीन दण्डक, यौं इस उद्देशक में चार दण्डक कहे हैं । सामान्य दuse में रत्नप्रभा के समान उपपात जानना चाहिये । ॥ इकत्तीस शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ३६५२ शतक ३१ उद्देशक ५ भवसिद्धिक नैरयिक की उत्पत्ति १ प्रश्न - भवसिद्धियखुड्डा गकडजुम्मणेरइया णं भंते! कओ उववज्र्ज्जति १ किं रहय० १ १ उत्तर - एवं जहेव ओहिओ गमओ तहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेण उववज्र्ज्जति । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण मवसिद्धिक नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! औधिक गमक के अनुसार, यावत् वे पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते । २ प्रश्न - रयणप्पभापुढ विभवसिद्धियखुड्डागकडजुम्मणेरड्या ‍ भंते ० १ For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ३१ उ. ६ कृष्णलेशी भवसिद्धिक की उत्पत्ति ६६५३ २ उत्तर-एवं चेव, णिरवसेसं, एवं जाव अहेमत्तमाए । एवं भव. सिद्धियखड्डागतेओगणेरड्या वि। एवं जाव कलिओग ति । णवरं परिमाणं जाणियव्वं, परिमाणं पुब्वभणियं जहा पढमुद्देसए । _ 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ®.. ॥ इकतीसइमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण भवसिद्धिक नरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक। इसी प्रकार भवसिद्धिक क्षुद्रव्योज राशि प्रमाण नरयिक के विषय में यावत् कल्योज पर्यन्त जानना चाहिये । परिमाण प्रथम उद्देशक के अनुसार। ___हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ इकत्तीसवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ३१ उद्देशक कृष्णलेशी भवसिद्धिक की उत्पत्ति १ प्रश्र-कण्हलेसभवसिद्धियखुड्डागकाडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३१ उ. ७-२८ समुच्चय उत्पत्ति १ उत्तर - एवं जहेब ओहिओ कण्हलेस्सउद्देसओ तहेव णिरवसेसं चउसु वि जुम्मेसु भाणियन्वो जाव प्रश्न - अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्सखड्डाग कलिओगणेरड्या णं भंते! कओ उववज्जति ? उत्तर - aa | * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ३६५४ || इकतीस मे सए छट्टो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्म प्रमाण नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं० ? १ उत्तर - हे गौतम ! औधिक कृष्णलेश्या के उद्देशक के अनुसार चारों युग्म का कथन करना चाहिये । प्रश्न - हे भगवन् ! अधः सप्तम पृथ्वी के कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकल्योज राशि प्रमाण नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ० ?" उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ इकतीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ३१ उद्देशक ७ - २५ समुच्चय उत्पत्ति - नीललेस्सभवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियव्वा For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. ३१ उ. ७-२८ समुच्चय उत्त्पत्ति जहा ओहिए नीललेस्स उद्देसए | 'सेवं भंते ० ' । ३१-७ । भावार्थ- नीललेश्या वाले भवसिद्धिक नैरयिकों के चारों युग्म का कथन औधिक नीललेश्या उद्देशक के अनुसार ॥७॥ --2040. - काउलेस्सा भवसिद्धिया चउसु वि जुम्मेसु तहेव उववाएयव्वा जव ओहिए काउलेस्स उद्देसए । ' सेवं भंते ० ' । ३१-८ । भावार्थ- कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक नैरधिक के चारों युग्म का निरूपण औधिक कापोत लेश्या उद्देशक के अनुसार ||८|| ३६५५ ―nnil MAAAAA - जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देगा भणिया एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देगा भाणियव्वा जाव काउलेस्सउद्देसओ त्ति । 'सेवं भंते ० ' । ३१ - ९-१२ । भावार्थ - जिस प्रकार भवसिद्धिक के चार उद्देशक कहे हैं, उसी प्रकार अभवसिद्धिक के भी चार उद्देशक, कापोतलेश्या उद्देशक पर्यन्त हैं ॥ ९-१२ ॥ - एवं सम्मदिट्ठीहि वि लेस्सा संजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा, वरं सम्मदिट्ठी पढमबिएस वि दोसु वि उद्देसएस अहेसत्तमापुढवीए वायव्वो, सेसं तं चैव । ' सेवं भंते ० ' । ३१ - १३-१६ । भावार्थ - इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के भी लेश्या सहित चार उद्देशक हैं । पहले और दूसरे उद्देशक में सम्यग्दृष्टि का अधः सप्तम नरक पृथ्वी में उपपात नहीं कहना, शेष पूर्ववत् ।।१३ - १६॥ For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५६ भगवती मूत्र-श. ३१ उ. ७-२८ ममुच्चय उत्पत्ति -मिच्छादिट्टीहि वि चत्तारि उद्देसगा काय वा जहा भवसिद्धियाणं । 'सेवं भंते० '। ३१-१७-२० । भावार्थ-भवसिद्धिक के समान मिथ्यादृष्टि के भी चार उद्देशक हैं। _ ।१७-२०। -एवं कण्हपक्खिएहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायवा जहेव भवसिद्धि एहिं । 'सेवं भंते० । ३१-२१-२४। भावार्थ-इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक के लेश्या सहित चार उद्देशक भी. भवसिद्धिक के समान है । २१-२४ । -सुक्कपक्खिपहिं एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा । जाव वालुयप्पभापुढविकाउलेस्ससुक्कपक्खियखुड्डागकलिओगणेरहया णं भंते ! कओ उववज्जति ? तहेब जाव णो परप्पओगेणं उववज्जंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति । सव्वे वि एए अट्ठावीसं उद्देसगा। ।३१-२५-२८ । ॥ इकतीसइमे सए ७-२८ उद्देसगा समत्ता ॥ ॥ इक्कतीसइमं उक्वायसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक के भी लेश्या सहित चार उद्देशक हैं। यावत् हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के कापोतलेश्या वाले शुक्लपाक्षिक क्षुवकल्योज राशि प्रमाण नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । यावत् वे पर-प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। । २५-२८॥ For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३१ उ. ७-२८ समुच्चय उत्पत्ति ३६५७ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ये सभी अट्ठाईस उद्देशक हैं। ॥ इकत्तीसवें शतक के ७-२८ उद्देशक समाप्त ॥ ।। इकत्तीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३२ (उद्वर्तन शतक) उद्देशक १-२८ १ प्रश्न-खुड्डागकडजुम्मणेरइया णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छति, कहिं उववज्जति ? किं णेरइएसु उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएसु उवक्वज्जति ? . १ उत्तर-उव्वट्टणा जहा वक्कंतीए। कठिन शब्दार्थ--उव्वट्टित्ता--उद्वर्तित होकर--वहाँ से निकल कर । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण नैरपिक वहां से उर्तित हो कर (निकल कर-मर कर) तुरन्त कहां जाते हैं और कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिक में उत्पन्न होते हैं अथवा तिर्यञ्च-योनिक में उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार। २ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उव्वटुंति ? For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३२ उ. १-२८ उन २ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि वा अट्ट वा वारस वा सोलस वा संखेजा वा असंखेजा वा उब्वति । ? भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उद्वर्तते ( मरते ) हैं २ उत्तर - हे गौतम! चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उद्वर्तते हैं । ३६५९ ३ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा कहं उब्वनंति ? ३ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए पवए० एवं तहेव । एवं सो चैव गमओ जाव आयप्पओगेणं उब्वनंति णो परप्पओगेणं उब्वति । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव किस प्रकार उद्वर्तते है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार कोई कुंदने वाला इत्यादि पूर्ववत्, यावत् वे आत्म-प्रयोग से उद्धर्तते हैं, पर प्रयोग से नहीं । ४ प्रश्न - रयणप्पभापुढविखुड्डागकड० ? ४ उत्तर - एवं रयणप्पभाए वि, एवं जाव अहेसत्तमाए । एवं खुड्डागतेओग खुड्डागदावर जुम्म- खुड्डाग कलिओगा । णंवरं परिमाणं जाणियव्वं सेसं तं चैव 'सेवं भंते ०' । ३२-१ । " भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण नैरयिक वहां से उद्धर्तित हो कर तुरन्त कहां जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर- हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरथिक की उद्वर्तना के अनुसार, यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक की उद्वर्तना पर्यन्त । इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३२ उ. १-२८ उद्वर्तन क्षुद्रत्र्योज, क्षुद्रद्वापरयुग्म और क्षुद्रकल्योज के विषय में भी जानना चाहिये । परिमाण पूर्ववत् अपना-अपना पृथक्-पृथक् कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । ३२-१० ३६६० ५ - कण्हलेस कडजुम्मणेरइया एवं एएणं कमेणं जहेव उव वायसर अट्ठावीस उद्देगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देगा भाणियव्वा णिरवसेसा । णवरं 'उब्वनंति' त्ति अभिलावो भाणियव्वो, सेसं तं चैव । 'सेवं भंते! सेवं भंते !' ति ॥ बत्तीसइमं उब्वट्टणासयं समत्तं ॥ भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्म राशि प्रमाण नैरकि वहाँ से निकल कर तुरन्त कहां जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? ५ उत्तर- इसी क्रम से उपपात शतक के अट्ठाईस उद्देशक के समान, उद्वर्तना शतक के भी अट्ठाईस उद्देशक जानना चाहिये । अन्तर यह है कि ' उत्पन्न होते हैं' के स्थान पर 'उद्वर्तते हैं' - कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।. 77 मनुष्य विवेचन--नरक से निकल कर जीव पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले और तिर्यंच में उत्पन्न होते हैं । ॥ बत्तीसवें शतक के १ - २८ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ बत्तीसवाँ सतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३३ ( एकेन्द्रिय शतक) अवान्तर शतक 9 -AAAAAA १ प्रश्न - कविहा णं भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहापुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । २ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! कहविहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सुहुमपुढविकाइया बायर पुढविकाइयाय । For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे है। यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक । ३ प्रश्न-सुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्ता सुहुमपुढविकाइया य अपजत्ता सुहुमपुढविकाइया य । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे हैं । यथा-पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक। ४ प्रश्न-बायरपुढविकाइया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ४ उत्तर-गोयमा ! एवं चेव, एवं आउकाइया वि चउक्करण भेएणं भाणियन्वा, एवं जाव वणस्सइकाइया । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन ! बादर पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? - ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार अप्कायिक जीव के भी चार भेद हैं यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ५ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णचाओ ? ५ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं ।। For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ३३ अवान्तर शतक १ ३६६३ . ___ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक जीव के कितनी कर्म-प्रकृतियां कही हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियां कही हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । ६ प्रश्न-पजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ६ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पराडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिजं जाव अंतराइयं । - भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्म-प्रकृतियां कही हैं ? .६ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म-प्रकृतियां कही है । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। ...७ प्रश्न-अपजत्तबायरपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ७ उत्तर-गोयमा ! एवं चेव । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्म-प्रकृतियां कही हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । ८ प्रश्न-पजत्ताबायरपुढविकाइयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ०? For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६४ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक ? ८ उत्तर-एवं चेव । एवं एएणं कमेणं जाव बायरवणस्सहकाइयाणं पजत्तगाणं ति। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के कितनी कमप्रकृतियां कही हैं ? । ८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार इसी क्रम से यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ९ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधति ? ९ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्टविहबंधगा वि । सत्त बंधमाणा आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति, अट्ठ बंधमाणा पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मप्पगडीओ बंधति । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! सात कर्म-प्रकृतियां भी बांधते हैं और आठ भी बांधते हैं। सात बांधते हुए आयु-कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्म-प्रकृतियां बांधते हैं। आठ बांधते हुए प्रतिपूर्ण आठ कर्म-प्रकृतियां बांधते हैं। १० प्रश्न-पजत्तसुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कइ कम्म० १ . १० उत्तर-एवं चेव, एवं सव्वे जाव भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्म-प्रकृतियां बांधते हैं ? : For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ३३ अवान्तर शतके १ १० उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में दण्डक कहना चाहिये । यावत् ११ प्रश्न - पज्जत्तबायरवणस्सइकाइया णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधति ? ३६६५ ११ उत्तर - एवं चैव । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव कितनी कर्म - प्रकृतियाँ बाँधते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । १२ प्रश्न - अपज्जत्तसुमपुढविकाइया णं भंते! कड़ कम्मप्पगडीओ वेदेंति ? १२ उत्तर - गोयमा ! चोद्दस कम्मप्पगडीओ वेदेति तं जहाणाणावर णिज्जं जाव अंतराइयं, सोइंदियवज्झं, चक्खिदियवज्झं, घार्णिदियवज्झं, जिभिदियवज्झ, इत्थिवेयवज्यं, पुरिसवेयवज्यं । एवं चक्कणं भेएणं जाव भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जींव कितनी कर्मप्रकृतियां वेदते हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! वे चौदह कर्म-प्रकृतियां वेदते हैं। यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय, ९ श्रोतेन्द्रियवध्य ( श्रोते न्द्रियावरण) १० चक्षुरिन्द्रियare ( चक्षुरिन्द्रियावरण) ११ घ्राणेन्द्रियवध्य १२ जिव्हेन्द्रियवध्य १३ स्त्रीdaaru और १४ पुरुषवेदवध्य । इस प्रकार सूक्ष्म, बावर, पर्याप्त और अपर्याप्त के चार मेव पूर्वक पर्याप्त बावर वनस्पतिकायिक पर्यन्त यावत् For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६६ भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक १ १३ प्रश्न - पज्जत्तबायरवणस्सइकाया णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ वेदेंति ? १३ उत्तर--गोयमा ! एवं चेव चोइस कम्मप्पगडीओ वेदेंति । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति । ३३ - १ । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव कर्म-प्रकृतियां कितनी वेदते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् चौदह कर्म-प्रकृतियां वेदते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । उद्देशक २ .. १ प्रश्न कइ विहा णं भंते ! अनंतरोववण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर- गोयमा ! पंचविहा अनंतरोववण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा -- पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया | भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् । अनन्तरोपपत्रक ( तत्काल उत्पन्न हुए) एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! अनन्तरोपपत्रक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे । यथा- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | २ प्रश्न - अनंतशेववण्णगा णं भंते ! पुदविकाइया कविहा For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गुत्र-ग.३३ अवान्तर शतक १ पण्णता? २ उत्तर--गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--सुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य, एवं दुपएणं गेएणं जाव वणस्सइकाइया । ___ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन ! अनन्तरोपपन्नक पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? __ २ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे हैं। यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक । इसी प्रकार दो भेद से यावत् वनस्पतिकायिक पर्यंत। .. ३ प्रश्न अणंतरोववण्णगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडोओ पण्णत्ताओ? ___३ उत्तर--गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा.. णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । मावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म-प्रकृतियाँ कही हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। ४ प्रश्न-अणंतरोववण्णगवायरपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? ४ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिज्ज जाव अंतराइयं । एवं जाव अणंतरोववण्णगवायरवणस्सइकाइयाणं ति। For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक बादर पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियां कही हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ५ प्रश्न-अर्णतरोववण्णगसुहमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधंति ? __ ५ उत्तर-गोयमा ! आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति। एवं जाव अणंतरोववण्णगबायरवणस्सइकाइय ति । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव । कर्मप्रकृतियां कितनी बांधते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! आयु-कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्म प्रकृतियां बांधते है । इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ६ प्रश्न-अणंतशेववष्णगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ वेदेति ? ६ उत्तर-गोयमा ! चउद्दस कम्मप्पगडीओ वेदेति, तं जहाणाणावरणिज्ज, तहेव जाव पुरिसवेयवज्झं। एवं जाव अर्णतरोववण्णगबायरवणस्सइकाइय त्ति । 'सेवं भंते.' !। ३३-२ । भावार्ष-६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कर्मप्रकतियां कितनी वेदते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १ ६ उत्तर-हे गौतम ! चौदह कर्म प्रकृतियां वेदते हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् पुरुष वेद-वध्य (पुरुषवेदावरण)। इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नक बावर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ३३-२ । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। - उद्देशक ३ १ प्रश्न-कइविह्य णं भंते ! परंपरोववण्णगा एगिदिया पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा परंपरोक्वण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइया-एवं चउकओ भेओ जहा ओहिउद्देसए । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? -१ उत्तर--हे गौतम ! पांच प्रकार के कहे हैं। यथा--पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । इसी प्रकार औधिक उद्देशक के अनुसार प्रत्येक के चार-चार भेद कहने चाहिये। २ प्रश्न-परंपरोववण्णगअपजत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? २ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसए तहेव गिरवसेसं भाणियब्वं जाव 'चउद्दस वेदेति' । 'सेवं भंते.' ति । ३३.३ । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वोकायिक For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७० भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक १ जीव के कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! इसी प्रकार इस अभिलाप से औधिक उद्देशक के अनुसार, यावत् चौदह कर्म- प्रकृतियाँ वेदते हैं । ३३-३ । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । उद्देशक ४-११ - अनंतरोगाढा जहा अणंतरोववण्णगा । ३३ -४ । - परंपरोगाढा जहा परंपरोववण्णगा । ३३ - ५ । - अतिराहारगा जहा अनंतरोववण्णगा । ३३ -६ । - परंपराहारगा जहा परंपरोववण्णगा । ३३ -- ७ । - अनंतरपजत्तगा जहा अतरोववण्णगा । ३३-८ । - परंपरपजत्तगा जहा परंपरोववणगा । ३३ - ९ । - चरिमा वि जहा परंपरोववण्णगा तहेव । ३३.१० । - एवं अचरिमा वि११ | एवं एए एकारस उद्देगा । * 'सेव भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ || पढमं एगिंदियसयं समत्तं ॥ -- अनन्तरोपपन्नक के समान अनन्तरावगाढ़ भी । ३३-४ । - परम्परोपपन्नक के समान परम्परावगाढ़ भी । ३३-५ । - अनन्तरोपपन्नक के समान अनन्तराहारक भी । ३३-६ । - परम्परोपपत्रक के समान परम्पराहारक भी । ३३-७ । For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १ - - -अनन्तरोपपन्नक के समान अनन्तरपर्याप्तक भी । ३३-८ । -परम्परोपपन्नक के समान परम्परपर्याप्तक भी । ३३-९ । -परम्परोपपन्नक के समान चरम भी । ३३-१० । -इसी प्रकार अचरम भी कहना चाहिये । ये सभी ग्यारह उद्देशक हैं। ३३-११। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-एकेन्द्रिय जीव चौदह कर्म-प्रकृतियां वेदते हैं । यथा-ज्ञानावरणीय से ले कर अन्तराय तक आठ कर्म-प्रकृतियां, श्रोतेन्द्रियावरण, चक्षुरिन्द्रियावरण, घ्राणेन्द्रियावरण जिव्हेन्द्रियावरण, स्त्रीवेदावरण और पुरुषवेदावरण । एकेन्द्रिय जीवों के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है । शेष चार इन्द्रियाँ नहीं होती, इसलिए वे चारों इन्द्रियों के आवरण का वेदन करते हैं । इनका मतिज्ञानावरणीय में समावेश होता है । एकेन्द्रिय जीवों में एक नपुंसक वेद ही होता है । इसलिए वे स्त्रीवेदावरण और पुरुषवेदावरण का वेदन करते हैं अर्थात् इनके इन दोनों वेदों का उदय नहीं होता। तत्काल उत्पन्न हुए जीव 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं और जिनको उत्पन्न हुए दोतीन आदि समय हो गये हैं, वे 'परम्परोपपन्नक' कहलाते हैं । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद नहीं होते । इसलिए उनमें ये दो भेद नहीं कहने चाहिये, सूक्ष्म और बादर, ये दो भेद ही कहने चाहिये । ॥ तेतीसवें शतक का प्रथम एकेन्द्रिय शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक २ १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७२ भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक २ १ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाया जाव वणरसइकाइया । भावार्थ - १ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के कहे हैं । यथा- पृथ्वी कायिक यावत् वनस्पतिकायिक | A २ प्रश्न - कण्हलेस्सा णं भंत ! पुढविकाइया कविहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सुहुमपुढ विकाइया बायरपुढविकाइयाय । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तरर - हे गौतम! दो प्रकार के कहे हैं । यथा - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक । ३ प्रश्न - कण्हलेस्सा णं भंते ! सुहुमपुढविकाइया कड़विहा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कभेओ जहेव ओहिउद्देसर जाव वणस्सइकाइय त्ति । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले सूक्ष्म पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? अनुसार । इस अभिलाप से ३ उत्तरर - हे गौतम! भौधिक उद्देशक चार मेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक २ ४ प्रश्न–कण्हलेस्सअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? १६७३ ४ उत्तर--एवं चेव एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेब पण्णत्ताओ, तहेव बंधंति, तहेव वेदेति । 'सेवं भंते ० ' । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म - प्रकृतियां कितनी कही हैं ? ४ उत्तर - हे गौतम! औधिक उद्देशक के अनुसार, उसी अभिलाप से कर्म-प्रकृतियां कहनी चाहिये, तथा उसी प्रकार उनका बन्ध और वेदन भी कहना चाहिये । ३३-२-१ । १ प्रश्न - - कहविहा णं भंते ! अनंतरोववण्णगकण्ह लेस्सएगिंदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! पंचविद्या अनंतशेववण्णग़ा कण्हलेरसा - एगिंदिया एवं एएवं अभिलावेणं तहेव दुयओ भेओ जाव वणरसहकाइति । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं । इस अभिलाप से पूर्वोक्त रूप से दो भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त । २२ प्रश्न - अणंतरोववण्णग कण्हले रससुहमपुढविकाइयाणं भंते ! For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७४ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक २ कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर--एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोववण्णगाणं उद्देसओ तहेव जाव वेदेति । 'सेवं भंते । ___भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार यावत् 'वेवते हैं' तक । ३२-२-२।। - १ प्रश्न कइविहा गं भंते ! परंपरोववण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा परंपरोववण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया-एवं एएणं अभिलावेणं तहेव चउको भेओ जाव वणस्सइकाइय ति । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक आदि । इस अभिलाप से उसी प्रकार चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त । २ प्रश्न-परंपरोववण्णगकण्हलेस्सअपज्जत-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ। २ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोववण्णग For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक ३-४ ३६७५ उद्देसओ तहेव जाव वेदेति । एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिएगिदियमए एकारम उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्ससए वि भाणियव्वा जाव चरिमअचरिमकण्हलेस्सा पगिदिया। ॥ बिइयं एगिंदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही हैं ? . २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक उद्देशक के अनुसार परम्परोपपत्रक सम्बन्धी भी यावत् वेदते हैं' तक जानना चाहिए। अधिक एकेन्द्रिय शतक में ग्यारह उद्देशक कहे, उसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णलेश्या शतक में भी कहना चाहिये, यावत् चरम और अचरम कृष्णलेश्या वाले एकेंद्रिय पर्यन्त । ३३-२-३ से ११ उद्देशक तक। ॥ तेतीसवें शतक का दूसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक ३ -जहा कण्हलेस्सेहिं भणियं एवं णीललेस्सेहि वि सयं भाणियव्वं । 'सेवं भंते'। ॥ तइयं एगिदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-कृष्णलेश्या के समान नौललेश्या के विषय में भी शतक कहना चाहिये । ३३-३। अवान्तर शतक ४ -एवं काउलेरसेहि वि सयं भाणियव्वं, णवरं 'काउलेस्से' For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७६ भगवती सूत्र-श. ३३ अवांतर शतक ५ ति अभिलावो भाणियव्यो। ॥ चउत्थं एगिंदियसयं ममत्तं ॥ भावार्थ-१-कापीत लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार शतक कहना चाहिये, किन्तु 'कापोत लेश्या' ऐसा पाठ कहना चाहिये । ३३-४ । | অনুতন হানক ৭ १ प्रश्र-कहविहा णं भंते ! भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, भेओ चउक्काओ जाव वणस्सइकाइय ति। २ प्रश्न-भवसिद्धिय-अपजत्त-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! का कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? २ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमिल्लगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धियसयं पि भाणियव्वं । उद्देसगपरिवाडी तहेव जाव अचरिमो त्ति । 'सेवं भंते । ॥पंचमं एगिंदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के १ उत्तर-हे गौतम ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । इनके चार भेव आदि वक्तव्यता वनस्पतिकायिक पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३३ अवांतर शतक ६ २ प्रश्न - हे भगवन् ! भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? ३६७७ २ उत्तर - हे गौतम ! प्रथम एकेन्द्रिय शतक के अनुसार मवसिद्धिक शतक भी कहना चाहिये । उद्देशकों की परिपाटी भी उसी प्रकार यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त । ॥ तेतीसवें शतक का पांचवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण || अवान्तर शतक ६ १ प्रश्न – कइ विहा णं भंते ! कण्डलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता - १ १ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के कहे हैं। यथा- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । २ प्रश्न - कण्हलेस्सभवसिद्धियपुढ विकाइया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - सुहुमपुढविकाइया य बायरपुद विकाइया य । For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७८ भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक ६ भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले मवसिद्धिक पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! दो प्रकार के कहे हैं । यथा - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक । ३ प्रश्न – कण्डलेस्सभवसिद्धियसुहुमपुढविकाइया णं भंते ! कइ विहा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्तगा य अपजत्तगा य । एवं बायरा वि । एएणं अभिलावेणं तदेव चउकओ भेओ भाणियव्वो । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार के कहे हैं। यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसी प्रकार बादर पृथ्वीकायिक के भी दो भेद हैं । इसी अभिलाप से उसी प्रकार चार भेद कहना चाहिये । ४ प्रश्न—कण्डलेस्सभवसिद्धियअपजत्त सुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! क कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? ४ उत्तर - एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेव जाव वेदेंति । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले मवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक ६ ३६७९ ४ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार इस अमिलाप से यावत् 'वेवते हैं' तक कहना चाहिये। . ५ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! अणंतगेववण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णता ? ५ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववण्णगा० जाव वणस्सइ. काइया। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक। ६ प्रश्न-अणंतरोववण्णगकण्हलेस्सभवसिद्धियपुढविकाइया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? - ६ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमपुढविकाइया एवं दुयओ भेओ। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले भव. सिद्धिक पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? .. ६ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे हैं । यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वोकायिक । इस प्रकार दो भेद कहने चाहिये । ७ प्रश्न-अणंतरोववण्णगकण्हलेस्सभवसिद्धियसुहमपुढविकाह. For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३३ अवान्तर शतक ७ या भंते! कह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? ७ उत्तर - एवं एएवं अभिलावेणं जहेन ओहिओ अनंतशेववण्णउद्देओ तव जाव वेदेति । एवं एएवं अभिलावेणं एकारस वि उद्देगा तव भाणियव्वा जहा ओहियसर जाव 'अचरिमो' त्ति !. ॥ छ एर्गिदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? ७ उत्तर-ह गौतम ! अनन्तरोपपत्रक के औधिक उद्देशक के अनुसार, यहां भी थावत् 'वेदते हैं' तक। इसी अभिलाप से औधिक शतक के अनुसार ग्यारह उद्देशक यावत् 'अचरम' उद्देशक पर्यन्त' । ॥ तेतीसवें शतक का छठा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ७ “जहा कण्हलेस्सभवसिद्धिएहिं सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि विसयं भाणियां | ३६८० || सत्तमं एगिंदियसयं समत्तं ॥ - कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक के अनुसार नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के विषय में भी शतक कहना चाहिये । ॥ तेतीसवें शतक का सातवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवांतर शतक ८ -एवं काउलेस्सभवसिद्धिएहि वि सयं । ॥ अट्ठमं एगिदियसयं समत्तं ॥ . भावार्थ-कापोत लेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के भी इसी प्रकार । ॥ तेतीमवें शतक का आठवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक ९ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! अभवसिद्धिया एगिंदिया पण्णता ? उत्तर-गोयमा ! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया । एवं जहेव भवसिद्धियसयं भणियं, [एवं अभवसिद्धियसयं] णवरं णव उद्देसगा चरमअचरमउद्देसगवजा, सेसं तहेव । ॥ णवमं एगिदियसयं समत्तं ॥ ___ भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के ___उत्तर--हे गौतम! अमवसिद्धिक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कह हैं । यथापृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । भवसिद्धिक शतक के अनुसार अमबसिद्धिक शतक भी कहना चाहिये, परन्तु यहां 'चरम और अचरम' ये दो उद्देशक छोड़ कर शेष नो उद्देशक कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् ।। 'विवेचन--अभवसिद्धिक जीव अचरम होते हैं। इसलिये उनमें 'चरम और For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८२ भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १०-१२ अचरम' ऐसे दो विभाग नहीं होते । अतएव ये दो उद्देशक छोड़ने से इस शप्तक में नौ उद्देशक ही होते हैं । ॥ तेतीसवें शतक का नौवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक १० -एवं कण्हलेस्सअवसिद्धियएगिदियसयं पि। ॥ दसमं एगिदियसयं समत्तं ।। भावार्थ-इसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी। ॥ तेत्तीसवें शतक का दसवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ११ -णीललेस्सअभवसिद्धियएगिदियहि वि सयं । ॥इस्कारसमं एगिदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी प्रकार नीललेश्या वाले अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी कहना चाहिये। ॥ तेतीसवें शतक का ग्यारहवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक १२ -काउलेस्सअभवसिद्धियसयं, एवं चचारि वि अभवसिद्धियसयाणि, For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ३३ अवान्तर शनक १२ ३६८३ णव णव उद्देसगा भवंति, एवं एयाणि बारस एगिदियसयाणि भवंति । ॥ बारसमं पगिदियमयं समत्तं ॥ ॥ तेत्तीसइमं सयं समत्तं ॥ -इसी प्रकार कापोत लेश्या वाले अमवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी कहना चाहिये । अभवसिद्धिक के चार शतक हैं और प्रत्येक में नौ-नौ उद्देशक हैं। इस प्रकार कुल मिला कर एकेन्द्रिय के बारह शतक हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। ॥ तेतीसवें शतक का बारहवाँ अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ - || तेतीसवाँ सतक सम्पूर्ण ॥ . For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३४ (श्रेणी शतक) अवांतर शतक -उद्देशक १ विग्रहगति १ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! एगिंदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढवि. काइया जाव वणस्सइकाइया । एवं एएणं चेन चउक्कएणं भेएणं भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइया। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? । १ उत्तर-हे गौतम ! एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । इस प्रकार पूर्वोक्त (सूक्ष्म, बावर, पर्याप्त और अपर्याप्त) चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त ।। २ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पढवीए पुरन्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीमे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइय. For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ताए उववजित्तए, से णं भंते ! कइसमएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? २ उत्तर- गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। भावार्थ-२ प्रश्न- हे भगवन ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य है, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! एक समय, वो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। ३ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ- 'एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववजेजा। ३ उत्तर--एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा--१ उज्जुआयता सेठी २ एगओवंका ३ दुहओवंका ४ एगओखहा ५ दुहओखहा ६ चक्वाला ७ अद्धचकवाला । १ उज्जुआयताए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। २ एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। ३ दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे तिममइएणं विग्गहेणं उववजेजा। से तेणटेणं गोयमा ! जाव उववजेजा। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि वह एक समय, For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८६ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ... दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ३ उत्तर - हे गौतम! मैने सात श्रेणियाँ कही हैं। यथा-१ ऋज्वायता २ एकतोवा ३ उभयतोवका ४ एकतःखा ५ उभयतःखा ६ चक्रवाल और ७ अर्द्धचक्रवाल । जो पृथ्वीकायिक जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह एक समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । जो एकतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । जो उभयतोवा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण हे गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होना कहा है । ४ प्रश्न - अपज्जत्तसुहुम पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाप पुढवीर पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पचच्छिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववचित्त से णं भंते ! कहसमहणं विग्गणं उववज्जेज्जा ? ४ उत्तर - गोयमा ! एगसमहणण वा सेसं तं चैव जांव से तेणट्टेणं जाव विग्गहेणं उववज्जेज्जा । एवं अपज्जत्तसुहुम पुढविकाइओ पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते बादरपुढविकाइएस अपज्जत्तरसु उववायव्वो, ताहे तेसु चैव पज्जत्तएसु ४ । एवं आउकाइएसु चत्तारि आलावगा - १ सुहुमेहिं अपज्जत्तएहिं २ ताहे पज्जत्तएहिं ३ बायरेहिं अपज्जत्तएहिं ४ ताहे पजत्त For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मूत्र-ग. ३४ अवान्तर शतक १ उ १ विग्रहगति ३६८७ एहिं उववाएयव्यो । १ एवं चेत्र सुहुमतेउकाइएहिं वि अपजत्तएहिं २ ताहे पजत्तएँहि उववाएयव्यो। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व-दिशा के चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के इस रत्नप्रमा पृथ्वी के पश्चिम दिशा के चरमान्त में पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य है, हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ___ ४ उत्तर-हे गौतम ! वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है इत्यादि पूर्ववत्, यावत् 'इस कारण विग्रहगति से उत्पन्न होता है' पर्यन्त । इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का पूर्व चरमान्त में मरण-समुद्घात से मरण हो कर पश्चिम चरमान्त में बावर अपप्ति पृथ्वीकायिकपने और वहीं पर्याप्तपने उपपात कहना चाहिये । इस प्रकार अपकायिक जीव के भी चार आलापक हैं, यथा-सूक्ष्म अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त, बादर अपर्याप्त और बादर पर्याप्त में उपपात कहना चाहिये और इस प्रकार सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त और पर्याप्त में उपपात कहना चाहिये । ५ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तवायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा ? - ५ उत्तर-सेसं तं चेव । एवं पजत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववाए. यव्यो ४ । वाउकाइएसु सुहुमबायरेसु जहा आउकाइएसु उववाहओ तहा उववाएयव्वो ४ । एवं वणस्सइकाइएसु वि २० । For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८८ भगवती सुत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ १ विग्रहगति भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो इस रत्न-प्रभा पृथ्वी के पूर्व-दिशा के चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजसकायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत । इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजसकायिकपने भी उपपात कहना चाहिये । जिस प्रकार सूक्ष्म और बादर अपकायिक में उपपात कहा, उसी प्रकार सूक्ष्म और बादर वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में भी कहना चाहिये। ६ प्रश्न-पजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० ? ६ उत्तर-एवं पजत्तसुहमपुढविकाइओ वि पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो जाव बायरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु वि ४० । एवं अपजत्तबायरपुढविकाइओ वि ६० । एवं पजत्तबायरपुढविकाइओ वि ८० । एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, एयाए चेव वत्तव्वयाए एएसु चेव वीसहठाणेसु उववाएयव्वो १६० । सुहुमतेउकाइओ वि अपजत्तओ पजत्तओ य एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न । ६ उत्तर-हे गौतम ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी रत्नप्रमा For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. ३४ अबालर यतका ५ उ. १ विग्रहगति ३६८९ पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण समुदघात से मर कर अनक्रम से इन बीस स्थानों में यावत् बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक तक उपपात कहना चाहिये । इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक और पर्याप्त बादर पथ्वीकायिक भी कहना चाहिये । इसी प्रकार अपकायिक जीव के भी चार गमक से पूर्व चरमान्त में समघातपूर्वक मर कर पूर्वोक्त बीस स्थानों में पूर्वक्ति वक्तव्यता से उपपात का कथन करना चाहिये। अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव के भी इन बीस स्थानों में पूर्वोक्त रूप से उपपात कहना चाहिये । ७ प्रश्न-अपजत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणिता जे भविए इमीसे रयणप्पभाग पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपज तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइ. समइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? ___ ७ उत्तर-सेसं तहेव जाव से तेणटेणं० । एवं पुढविकाइएसु चरविहेसु वि उववाएयबो, एवं आउकाइएसु चउविहेसु वि, तेउकाइ. एसु सुहुमेसु अपजत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव उववाएयव्यो । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजसकायिक जीव, जो मनुष्य क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य है, हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ७ उत्तर-हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव का चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक में, चारों प्रकार के अपकायिक में तथा अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजसकायिक जीव में भी उपपात कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ३३ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ८ प्रश्न - अपजत्तवायर ते उकाइए णं भंते! मणुरसखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तबायर तेउका इयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते! कसम एणं० ? ८ उत्तर - सेसं तं चैव । एवं पज्जत्तबायर तेउका इयत्ताए वि उववायव्वो । वाउकाइयत्ताए य वणस्स इकाइयत्ताए य जहा पुढविकाड़एस तहेव चउकरणं भेएणं उववाएयव्वो । एवं पज्जत्तवायर तेउकाइओ विसमयखेत्ते समोहणावेत्ता एपसु चेव वीसाए ठाणेसु उववायव्वो । जव अपज्जत्तओ उववाहओ, एवं सव्वत्थ वि बायर तेउकाइया अपज्जतगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते उववायव्वा समोहणावेयव्वा वि २४० । वाउकाइया वणस्सइकाइया य जहा पुढविकाइया तहेव चकरणं भेएणं उववायव्वा जाव कठिन शब्दार्थ - समयखेते समय क्षेत्र - मनुष्य क्षेत्र । भावार्थ-८ प्रश्न है भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो .: मनुष्य क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कापिने उत्पन्न होने के योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रह गति से उत्पन्न होता है ? ३६९० ८ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार पर्याप्त बादर ते जस्कायिकपने भी उपपात कहना चाहिये। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक में कहा, उसी प्रकार चार भेदों से वायुकायिकपने और वनस्पतिकायिकपने उपपात कहना चाहिये । इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक का भी मनुष्य क्षेत्र में समुद्घात कर के इन बीस स्थानों में उपपात कहना चाहिये। जिस प्रकार अपर्याप्त का उपपात कहा है, उसी प्रकार सभी पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती स्त्र-श.३४ अवान्तर शतक १ उ.१ विग्रहगति ३६११ का मनुष्य-क्षेत्र में समुदघात और उपपात कहना चाहिये । पृथ्वीकायिक उपपात के समान चार-चार भेद से वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव का उपपात भी कहना चाहिये । यावत् ९ प्रश्न-पजत्ताबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्प. भाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्छिमिल्ले चरिमंते पजत्तबायरवणस्सहकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं० ? ९ उत्तर-सेसं तहेव जाव से तेणटेणं० । ४०० भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में बादर वनस्पतिकायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय. को विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त यावत् 'इस कारण ऐसा कहा है' पर्यन्त । .१० प्रश्न-अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उपवजित्तए से णं भंते ! कहसमइएणं० ? १० उत्तर-सेसं तहेव णिरवसेसं । एवं जहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सव्वपएसु वि समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उपधाइया, जे य समयखेत्ते समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समय For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९२ भगवती गूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रगति खेते य उववाहया, एवं एएणं चेव कमेणं पचच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेते य समोहया पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयव्वा तेणेव गमएणं । एवं एएणं गमएणं दाहिणिल्ले चरिमंते समोहयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाओ, एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयब्वा तेणेव गमएणं। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, रत्नप्रमा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में समुद्घात कर के, रत्नप्रभा पथ्वी के पूर्व चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । पूर्व चरमान्त के सभी पदों में समदघात कर के पश्चिम चरमान्त में और मनुष्य-क्षेत्र में तथा जिसका मनुष्य-क्षेत्र में समुद्घातपूर्वक पश्चिम चरमान्त में और मनुष्य-क्षेत्र में उपपात कहा, उसी प्रकार उसी क्रम से पश्चिम चरमान्त में और मनुष्य-क्षेत्र में समुद्घातपूर्वक पूर्व चरमान्त में और मनुष्य-क्षेत्र में उसी गमक से उपपात होता है और इसो प्रकार दक्षिण के चरमान्त से समुद्घातपूर्वक उत्तर के चरमान्त में और मनुष्यक्षेत्र में उपपात तथा उत्तर चरमान्त में और मनुष्य क्षेत्र से समुद्घात कर के दक्षिण चरमान्त में और मनुष्य-क्षेत्र में उपपात कहना चाहिये । .११ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए सरकरप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मुत्र-ग. ३४ अवालर शता १ उ १ विगहगति उववजित्तए० ? . ११ उत्तर-एवं जहेव रयणप्पभाए जाव से तेणटेणं । एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, शर्कराप्रमा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के शर्कराप्रभा के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो ? .. ११ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के कथनानुसार, यावत् 'इस कारण ऐसा कहा है' पर्यन्त और इस क्रम से यावत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्यन्त । " १२ प्रश्न-अपजत्तसु हुमपुढविकाइए णं भंते ! सपकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेते अपजत्तवायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमएणं०-पुच्छा। १२ उत्तर-गोयमा ! दुसमइएण वा तिममइएण वा विग्गहेण उववज्जेजा। भावार्थ--१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के मनुष्य-क्षेत्र में अपप्ति बादर तेजस्कायिफपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से.? १२ उत्तर-हे गौतम ! दो अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९४ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति १३ प्रश्न - से केणट्टेणं० ? १३ उत्तर एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेदीओ पण्णत्ताओ. तं जहा - १ उज्जुआयता जाव अद्धचकवाला । एगओवंकाए सेटीए उववज्जमाणे दुसमहणणं विग्गहेणं उववजेज्जा, दुहओवंकाए सेटीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणट्टे० । एवं पज्जतसु वि वायरते उकाइए। सेसं जहा रयणप्पभाए । जे वि बायरते काइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते समोह णित्ता दोचा पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइएस चउन्विहेसु, आउकाइरसु चउन्विहेसु, तेउकाइएस दुविहेसु, वाउकाइएस चउब्विहेसु, वणस्सइकाइए चउव्विसु उववजंति ते वि एवं चैव दुसमइएण वा तिसम एण वा विग्गण उववा एयव्वा । बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य जाहे तेसुं चेव उववज्जंति ताहे जहेब रयणप्पभाए तव एगसमय दुसमइय-तिसमइयविग्गहा भाणियव्वा सेसं जहेव रयणप्पभाए तहेव णिरवसेसं । जहा सकरप्पभाए वत्तव्वया भणिया एवं जाव असत्तमाए वि भाणियव्वा । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। ? १३ उत्तर - हे गौतम! मैने सात श्रेणियां कही हैं। यथा-ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाल । जो एकतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और जो उभयतोवा श्रेणी से उत्पन्न होता है, For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. ९ विग्रहगति वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण है गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा है । इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने भी । शेष सभी रत्नप्रभा के समान । पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव मनुष्य-क्षेत्र में समुद्घात कर के शर्कराप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में, चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में, चारों प्रकार के अप्कायिक जीवों में, दो प्रकार के तेजस्काधिक जीवों में, चार प्रकार के वायुकायिक जीवों में और चार प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं । उनके भी दो या तीन समय की विग्रहगति से उपपात कहना चाहिये। जब पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, तब उनके लिये रत्नप्रभा पृथ्वी के अनुसार एक, दो या तीन समय की विग्रहगति कहनी चाहिये । शेष सभी रत्नप्रभा के समान । इसी प्रकार शर्कराप्रमा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानो । विवेचन - एक स्थान से मर कर दूसरे स्थान पर जाते हुए जीव की मध्य में जो गति होती है, उसे 'विग्रहगति' कहते हैं । वह श्रेणी के अनुसार होती है । श्रेणी सात कही है । जिससे जीव और पुद्गलों की गति होती है, ऐसी आकाश प्रदेश की पंक्ति को 'श्रेणी' कहते हैं । जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जा सकते हैं, बिना श्रेणी के गति नहीं होती । श्रेणियाँ सात हैं- ३६९५ १ ऋज्वायता -- जिस श्रेणी के द्वारा जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे 'ऋज्वायता श्रेणी' कहते हैं । इस श्रेणी के अनुसार जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है । २ एकतोवा - जिस श्रेणी से जीव सीधा जा कर वक्रगति प्राप्त करे अर्थात् दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे, उसे 'एकतोवा' कहते हैं। इससे जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं । ३ उभयतोवा - जिस श्रेणी से जाता हुआ जीव दो बार वक्रगति करे अर्थात् दो बार दूसरी श्रेणी को प्राप्त करे, उसमें जीव को तीन समय लगते हैं। यह श्रेणी आग्नेयी (पूर्व-दक्षिण) दिशा से अधोलोक कौ वायव्यी ( उत्तर-पश्चिम) दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव के होती । पहले समय में वह आग्नेयी दिशा से नीचे की ओर आग्नेयी दिशा For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९६ भगवती सूत्र--श. ३४ अवान्तर शप्तक १ उ. १ विग्रहगति में जाता है । दूसरे समय में तिर्छा पश्चिम की ओर दक्षिण दिशा के कोण अर्थात् नैऋत्य दिशा का ओर जाता है। तीसरे समय में वहाँ से तिर्छा हो कर उत्तर पश्चिम कोण अर्थात् वायव्यी दिशा की ओर जाता है। यह तीन समय की गति सनाही अथवा उससे बाहर के भाग में होती है। ४ एकतःखा--जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल सनाड़ी के बाएँ पक्ष से सनाही में प्रवेश करे और फिर सनाड़ी से जा कर उसके बाईं ओर वाले भाग में उत्पन्न होते हैं, उसे 'एकतःखा' श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी के एक ओर प्रसनाड़ी के बाहर का आकाश आया हुआ है । आकाश को 'ख' कहते हैं। इसलिये इसका नाम 'एकतःखा' है । इस श्रेणी में एक, दो, तीन या चार समय की वक्रगति होने पर भी क्षेत्र की अपेक्षा उसे पृथक् कहा है। ५ उभतःखा-त्रसनाड़ी से बाहर से बाएँ पक्ष में प्रवेश कर के सनाड़ी से जाते हुए दाहिने पक्ष में जिस श्रेणी में उत्पन्न होते हैं, उसे 'उमतःसा' कहते हैं। ६ चक्रवाल--जिस श्रेणी से परमाणु आदि गोल चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'चक्रवाल' कहते हैं। ७ अर्द्ध चक्रवाल--जिस श्रेणी से आधा चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'अद्ध चक्रवाल' श्रेणी कहते हैं । बादर तेजस्काय मनुष्य-क्षेत्र में ही होती है, उसके बाहर उसकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये उसके प्रश्नोत्तरों में 'मनुष्य-क्षेत्र' कहा है। पृथ्वीकायिक आदि में प्रत्येक के सूक्ष्म. बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार-चार भेद होने से बीस भेद होते हैं । इनमें प्रत्येक जीव-स्थान में बीस-बीस गमक होते हैं । इस प्रकार २०४२०-४०० गमक पूर्व-दिशा के चरमान्त की अपेक्षा होते हैं । इसी प्रकार चारों दिशाओं के रत्नप्रभा के १६०० गमक होते हैं और इसी प्रकार प्रत्येक नरक के सोलह सौ-सोलह सौ गमक होते हैं। शर्कराप्रभा के पूर्व चरमान्त से मनुष्य-क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव को समश्रेणी नहीं होती। इसलिये उसमें एक समय की विग्रहगति नहीं होती, दो या तीन समय की होती है। रत्नप्रभा के पश्चिम चरमान्त में बादर तेजस्काय न होने से सूक्ष्म पर्याप्त भौर अपर्याप्त ये दो भेद ही कहे हैं । बादर पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद मनुष्य-क्षेत्र की अपेक्षा कहे हैं। For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ३४ अवान्तर शतक १ उ ९ विग्रहगति १४ प्रश्न - अपजत्तसुमपुढविकाइए णं भंते! अहोलोयखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए. समोहणित्ता जे भवि उड्ढलोय - खेत्तणाली बाहिरिल्ले खेते अपज्जत्तसुहमपुढ विकाइयत्ताए उववज्जि - तर से णं भंते! कसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? १४ उत्तर - गोयमा ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । ३६९७ प्रश्न-से केणटुणं भंते! एवं बुचड़ - 'तिसमइएण वा चउसमइएन वा विग्गणं उववज्जेज्जा ?' उत्तर - गोयमा ! अपज्जत्तसुहुम पुढविकाइए णं अहोलोयखेत्तणाली बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए एगपयरंमि अणुसेढी उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, जे भवि विसेटीए उववज्जित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणणं जाव उववज्जेज्जा । एवं पज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए वि, एवं जाव पज्जत्तसुहुमते उका इयत्ताए । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, अधोलोक की साड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण - समुद्घात कर के ऊर्ध्वलोक की नाड़ी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १४ उत्तर - हे गौतम ! वह तीन या चार समय की विग्रहगति से For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९८ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि वह तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? उत्तर-हे गौतम ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक मोव अधोलोक क्षेत्र की प्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के ऊर्ध्वलोक क्षेत्र को सनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) में उत्पन्न होने योग्य है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और जो विश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य है । वह चार समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा है कि 'तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है।' इस प्रकार जो पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने यावत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकपने उत्पन्न होता है, उसके विषय में भी जानना चाहिये। १५ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! अहेलोग जाव समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भवे ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? १५ उत्तर-गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। प्रश्न-से केणटेणं० ? उत्तर-एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ उज्जुआयता, जाव ७ अद्धचक्कवाला । एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, दुहओवंकाए सेढीए For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणटेणं० । एवं पजत्तएसु वि बायरते उकाइएसु वि उववाएयत्वो । वाउकाइयवणस्सइकाइयत्ताए चउकएणं भेदेणं जहा आउकाइयत्ताए तहेव उववाएयव्यो २० । एवं जहा अपजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स गमओ भणिओ एवं पजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स वि भाणियबो, तहेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो ४०। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्र की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वह दो या तीन समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? | .: उत्तर-हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही है । यथा-ऋज्वायता यावत् अर्द्ध चक्रवाल । यदि वह जीव एकतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि उभतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन है । इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव में भी उपपात जानो। अपकायिक के समान वायुकायिक और वनस्पतिकायिकपने भी चार-चार भेद से उपपात कहना चाहिये । इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के गमक के समान पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक में भी गमक और उसी प्रकार बीस स्थानों में उपपात कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०० भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति १६ प्रश्न-अहोलोयखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता ? १६ उत्तर-एवं बायरपुढविकाइयस्स वि अपज्जत्तगस्स पजत्त. गस्स य भाणियन्वं ८० । एवं आउकाइयस्स चउन्विहस्स वि भाणि. यव्वं १८० । सुहुमतेउकाइयस्स दुविहस्स वि एवं चेव २०० । . भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक क्षेत्र की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के० ? १६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक में और चारों प्रकार के अपकायिक जीव में तथा पर्याप्त भौर अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव में भी इसी प्रकार है । १७ प्रश्न-अपज्जत्तबायरतेउक्काइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उपवजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। १७ उत्तर-गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। प्रश्न-से केणटेणं० ? उत्तर-अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ। एवं जाव भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त बावर तेजस्कायिक जीव For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूप-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७.१ मनुष्यक्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के ऊवलोक क्षेत्र की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! दो, तीन, या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी में सात श्रेणी आदि का जो कथन किया है, वही यहां भी कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् १८ प्रश्न-अपजत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेतणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते पजत्तसुहुमतेउकाइयत्ताए उपवजित्तए से णं भंते !० ? १८ उत्तर-सेसं तं चेव । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, मनुष्य-क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के ऊर्ध्वलोक क्षेत्र की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकपने उत्पन्न हो, तो० ? १८ उत्तर-हे गौतम ! शेष पूर्वोक्त प्रकार से ही। १९ प्रश्न-अपजत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समो. हए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपजत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? ___ १९ उत्तर-गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०२ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति वा विग्गहेणं उववजेजा। प्रश्न-से केणटेणं ? उत्तर-अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ। एवं पजत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि । वाउकाइएसु वणस्सइकाइपसु य जहा पुढवि. काइएसु उववाइओ तहेव चउकएणं . भेदेणं उववाएयव्यो । एवं पजत्तवायरतेउकाइओ वि एएसु चेव ठाणेसु उववाएयवो । वाउकाइयः वणस्सइकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववाओ तहेव भाणियव्यो । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव मनुष्य-क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! एक, दो या तीन समय की विग्रहगति से । प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् तीन समय० ? उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी में जैसे सात श्रेणी रूप हेतु कहा, वही यहां भी जानो। इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने भी। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक में उपपात कहा, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पति. कायिक जीव में भी चार-चार भेद से उपपात जानना चाहिये । इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव का उपपात भी इन्हीं स्थानों में जानो। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव का उपपात कहा, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव का उपपात भी कहना चाहिये। २० प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! उड्ढलोगखेत्तणालए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए अहेलोग. For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७०३ खेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कहसमएणं० ? २० उत्तर-एवं । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, ऊर्ध्वलोक क्षेत्र को प्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के अधोलोक क्षेत्र की सनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? . २० उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । २१-उड्ढलोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं अहेलोगखेतणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववजयाणं सो चेव गमओ गिरवसेसो भाणियव्वो जाव बायर-वणस्सहकाइओ पजत्तओ बायर वणस्सइकाइएसु पजत्तएसु उववाइओ। . भावार्थ-२१-ऊर्ध्वलोक क्षेत्र की सनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात कर के अधोलोक क्षेत्र को प्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में उत्पन्न होने के योग्य पृथ्वीकायिकादि के लिए भी वही सम्पूर्ण गमक यावत् पर्याप्त बावर वनस्पतिकायिक जीव का उपपात पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव में भी जानो। २२ प्रश्न-अपजत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते कहसमइएणं विग्रहेणं उववजह ? . For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०४ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति २२ गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजह । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एगसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा' ? उत्तर-एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ उज्जुआयया जाव ७ अद्धचकवाला । उज्जुआययाए सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा। एगओवंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा । दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुमेढी उववजित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा, जे भविए विसेटिं उववज्जित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा, से तेणटेणं० जाव उववज्जेजा । एवं अपजत्तसुहुमपुढविकाइओ लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तएसु पजत्तएसु य सुहुमपुढविकाइएसु, सुहुमआउकाइएसु, अपजत्तएसु पजत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु, अपजत्तएसु, पजत्तएसु य सुहुमवाउकाइएसु, अपजत्तएसु पज्जत्तएसु बायरवाउकाइएसु, अपज्ज-- तपसु पजत्तएसु सुहुमवणस्सइकाइएसु, अपजत्तएमु पजत्तएमु य बारसमु वि ठाणेसु एएणं चेव कमेणं भाणियव्यो । मुहुमपुढविकाइओ पज तओ-एवं चेव गिरवसेसो बारसमु वि ठाणेमु उववाएयब्बो २४॥ For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३ ४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७०५ एवं एएणं गमएणं जाव सुहृमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुट्ठमवणस्सइ. काइएसु पज्जत्तएसु चेव भाणियव्वो । २२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्व चरमान्त में मरण-समुदघात कर के लोक के पूर्व चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने योग्य है, तो वह कितने समय की विग्रहगति? २२ उत्तर-हे गौतम ! एक दो, तीन, या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् चार समय की विग्रहगति.? उत्तर-हे गौतम ! मैने सात श्रेणियां कही हैं। यथा-ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाल । यदि ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो एक समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । यदि एकतोय का श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, यदि उभयतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो जो एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) से उत्पन्न होने योग्य है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि विश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य है, तो वह चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। हे गौतम! इस कारण पूर्वोक्त कथन है । इस प्रकार.अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव का लोक के पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के लोक के पूर्व चरमान्त में ही अपर्याप्त और पर्याप्त पृथ्वीकायिक में, अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक में, अपप्ति और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक में, अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक में, अपर्याप्त और पर्याप्त बादर वायुकायिक में तथा अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक में, इस प्रकार इन बारह स्थानों में क्रमपूर्वक उपपात कहना चाहिये । पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव का उपपात भी इसी प्रकार बारह स्थानों में कहना चाहिये । इस प्रकार इस गमक से यावत् पर्याप्त सूक्ष्म बनस्पतिकायिक का उपपात पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक में भी कहना । For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०६ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति २३ प्रश्न - अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुमपुरुषिकाइपसु उववज्जित्तर से णं भंते ! कहसमइणं विग्गणं उववज्जेज्जा ? २३ उत्तर - गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गणं उववज्जइ । प्रश्न - से केणणं भंते ! एवं वुच्चह ? उत्तर - एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ता, तं जहा१ उज्जुआयया जाव ७ अद्धचकवाला । एगओवंकाए सेटीए उववज्जमाणे दुसमणं विग्गणं उववज्जह, दुहओवंकाए सेढीए उबवज्जमाणे जे भविए एगपयरंमि अणुसेढीओ उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उचवज्जेज्जा, जे भविए विसेदिं उपवजित्तए से णं च समहणं विग्गणं उववज्जेज्जा से तेणट्टेणं गोयमा० । एवं एएणं गमपणं पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए दाहिणिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो जाव सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सहकाइएसु पज्जत्तपसु चेव । सव्वेसिं दुसमइओ तिसमइओ उसमइओ विग्गहो भाणियव्वो । भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में समुदघात कर के लोक के दक्षिण चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिकपने उत्पन्न हो, तो कितने समय की विग्रहगति० ? For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७०७ २३ उत्तर-हे गौतम ! वह दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि यावत् चार समय ? उत्तर-हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही है । यथा-ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाल । यदि वह जीव एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है। यदि उभयतोवक्रा श्रेणी से एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) से उत्पन्न होने योग्य है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि विश्रेणी में उत्पन्न होने के योग्य है, तो चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन है । इसी गमक से पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के दक्षिण चरमान्त में उपपात पावत् पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव का उपपात पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव में भी होता है। इन सभी में दो, तीन या चार समप की विग्रहगति कहनी चाहिये। २४ प्रश्न-अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छि. मिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइ. समइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? | ____२४ उत्तर-गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। प्रश्न-से केणटेणं० ? उत्तर-एवं । जहेब पुरिच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरच्छि For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०८ भगवती सूत्र--श ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति मिल्ले चेव चरिमंते उववाइया तहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते उववाएयध्वा सव्वे । भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के लोक के पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से० ? २४ उत्तर-हे गौतम ! वह एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् चार समय की विग्रहगति से ०? उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । जिस प्रकार पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के पूर्व चरमान्त में ही उपपात कहा, उसी प्रकार पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के पश्चिम चरमान्त में सभी का उपपात कहना चाहिये । २५ प्रश्न-अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपजत्नसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भते० ? २५ उत्तर-एवं जहा पुररिछमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिपिल्ले चरिमंते उववाहओ तहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्यो। भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के लोक के उत्तर चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से० ? २५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के दक्षिण चरमान्त में उपपात कहा, उसी प्रकार पूर्व चरमान्त में समुद्घात कर के उत्तर For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्नर शराय १ उ. १ विग्रहगनि ३७०९ चरमान्त में उपपात कहना चाहिये । २६ प्रश्न-अपजत्नसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहि. पिल्ले परिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए ? । ___२६ उत्तर-एवं जहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ पुरन्छिमिल्ले चेव उववाइओ तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयव्वो, तहेव गिरवसेस जाव सुहुमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइ. काइएसु चेव पन्जत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो, एवं दाहिपिल्ले समोहओ पचच्छिमिल्ले चरिमंते उववाएयब्यो । णवरं दुसमइय-तिसमइय चउसमइय विग्गहो, सेसं तहेव । दाहिणिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयवो जहेव सट्टाणे तहेव । एगसमइय. दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय घिग्गहो । पुरच्छिमिल्ले जहा पञ्चच्छि. मिल्ले, तहेव दुसमइय-तिसमइय-घउसमइय विग्गहो । पञ्चच्छिमिल्ले य चरिमंते समोहयाणं पच्छिमिल्ले चेव उपवजमाणाणं जहा सट्टाणे। . भावार्थ -२६ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, लोक के दक्षिण चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के लोक के दक्षिण चरमान्त में ही अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो तो. ? .. २६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पूर्व चरमान्त में समधात कर के पूर्व परमान्त में ही उपपात कहा, उसी प्रकार दक्षिण चरमान्त में समुद्धात For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१० भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर ससक १ उ. १ विग्रहगति कर के दक्षिण चरमान्त में ही उपपात इत्यादि पूर्ववत् यावत् पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक का उपपात पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक में दक्षिण चरमान्त पर्यन्त । इसी प्रकार दक्षिण चरमान्त में समुद्घात कर के पश्चिम चरमान्त में उपपात होता है, इनमें दो, तीन या चार समय की विग्रहगति होती है, शेष पूर्ववत् । जिस प्रकार स्वस्थान में कहा, उसी प्रकार दक्षिण चरमान्त में समुद्घात कर के उत्तर चरमान्त में उपपात और एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिये । पश्चिम चरमान्त के समान पूर्व चरमान्त में भी वो, तीन या चार समय की विग्रहगति जाननी चाहिये । पश्चिम चरमान्त में समघात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक के लिए स्वस्थान के अनुसार यहां भी · हना चाहिये। . उत्तरिल्ले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो णस्थि, सेसं तहेव । पुरच्छिमिल्ले जहा सट्टाणे, दाहिणिले एगसमइओ विग्गहो णत्थि, सेसं तं चेव । उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहेव सट्ठाणे । उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरन्छिमिल्ले उववज. माणाणं एवं चेव । णवरं एगसमहओ विग्गहो गस्थि । उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववजमाणाणं जहा सट्टाणे, उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चच्छिमिल्ले उवक्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो गस्थि, सेसं तहेव, जाव सुहुमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सहकाइ. एसु पजत्तएसु चेष । भावार्थ-उत्तर चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय की विग्रहगति नहीं होती। शेष पूर्ववत् । पूर्व चरमान्त स्वस्थान के समान । For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७११ दक्षिण चरमान्त में एक समय की विग्रहगति नहीं होती । शेष पूर्ववत् । उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के उत्तर चरमात में उत्पन्न होने वाले जीव स्वस्थान के समान है । उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के पूर्व चरमान्त में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिकादि भी इसी प्रकार, किन्तु एक समय की विग्रहगति नहीं होती। उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के दक्षिण चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव भी स्वस्थान के समान है। उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव के एक समय की विग्रहगात नहीं होती। शेष पूर्ववत्, यावत् 'पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव का उपपात पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों में जानो। विवेचन--जब कोई स्थावर जीव अधोलोक क्षेत्र की नाड़ी के बाहर पूर्वादि दिशा में मर कर एक समय में सनाड़ी में प्रवेश करता है, दूसरे समय में ऊर्ध्व जाता है और इसके बाद एक प्रतर में पूर्व या पश्चिम दिशा में उत्पत्ति होती है, तब अनुश्रेणी में जा कर तीसरे समय में उत्पन्न होता है । इस प्रकार तीन समय की विग्रहगति होती है । जब कोई जीव सनाड़ी के बाहर वायव्यादि विदिशा में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब एक समय में पश्चिम या उत्तर दिशा में जाता है, दूसरे समय में सनाड़ी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊँचा जाता है और चौथे समय में अनुश्रेणी में जा कर पूर्वादि दिशा में उत्पन्न होता है । यह चार समय की विग्रहगति होती है । टीकाकार तो पांच समय की विग्रहगति भी मानते हैं। उनका कथन है कि अधोलोक के कोण में से मर कर ऊर्ध्वलोक के कोण में उत्पन्न होने वाले जीव के पांच समय की विग्रहगति होती है, किन्तु सिद्धान्तपक्ष ऐसा नहीं है. क्योंकि अधोलोक के कोण से मर कर ऊर्ध्वलोक के कोण में और ऊर्ध्वलोक के कोण से मर कर अधोलोक के कोण में कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि लोक-स्वभाव ही ऐसा है। जब अपर्याप्त बादर तेजसकायिक जीव ऊर्ध्वलोक की सनाड़ी के बाहर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय की विग्रहगति होती है । इसकी घटना इस प्रकार है-- बादर तेजस्काय मनष्य-क्षेत्र में ही होती है। इसलिये एक समय में मनुष्य-क्षेत्र से कार जाता है और दूसरे समय में प्रसनाड़ी से बाहर रहे हुए उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होता है। इस प्रकार यह दो समय की विग्रहगति होती है । अथवा एक समय में मनुष्य-क्षेत्र से ऊपर For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१२ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति जाता है, दूसरे समय में सनाड़ी से बाहर पूर्वादि दिशा में जाता है और तीसरे समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होता है । लोक के चरमान्त में बादर पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव नहीं होते, किंतु सूक्ष्म पृथ्वीकायादि पाँचों होते हैं और बादर वायुकाय भी होती है। इन छह के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से बारह भेद होते हैं। यहाँ लोक के पूर्व चरमान्त से पूर्व चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय से ले कर चार समय तक की विग्रहगति होती है। क्योंकि उसमें अनुश्रेणी और विश्रेणी दोनों होती हैं । पूर्व चरमान्त से दक्षिण चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की दो, तीन या चार समय की ही विग्रहगति होती है। वहाँ अनुश्रेणी न होने से एक समय की विग्रहगति नहीं होती। इसी प्रकार विश्रेणी गमन में सर्वत्र दो आदि समय की विग्रहगति ही होती है। २७ प्रश्न-कहिं णं भंते ! बायरपुढबिकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णता ? ___२७ उत्तर-गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपए जाव सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावण्णा पण्णत्ता समणाउसो। कठिन शब्दार्थ-अविसेसमणाणत्ता--विशेषता और भिन्नता से रहित । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त बावर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियां हैं इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार, यावत् पर्याप्त और अपर्याप्त सभी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के हैं। इनमें कुछ भी विशेषता या भिन्नता नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त है। For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गुत्र- ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति २८ प्रश्न - अपजत्तसु हुमपुढे विकाइयाणं भंते! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? २८ उत्तर - गोयमा ! अटु कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ णाणावर णिज्जं जाव ८ अंतराइयं । एवं चउक्कणं भेएणं जहेव एगिंदियसासु जाव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं । ३७१३ भावार्थ - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? २८ उत्तर - हे गौतम! आठ कर्म प्रकृतियां कही हैं। यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इस प्रकार चार भेदों से एकेन्द्रिय- शतक के अनुसार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त | २९ प्रश्न - अपजत्तसुमपुढविकाइया णं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ बंधंति ? २९ उत्तर - गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अद्रविहबंधगा वि. जहा एर्गिदियस एसु जाव पज्जत्ता बायरवणस्सइकाइया | भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्म - प्रकृतियाँ बांधते हैं ? २९ उत्तर - हे गौतम! सात या आठ कर्म प्रकृतियां बांधते हैं इत्यादि एकेन्द्रिय- शतक के अनुसार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ३० प्रश्न - अपज्जत्तसुदुमपुढविकाइया णं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ वेदेंति ? For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१४ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३० उत्तर-गोयमा ! चोदस कम्मप्पगडीओ वेदेति, तं जहाणाणावरणिज्जं जहा रागिदि यसपसु जाव पुरिसवेयवझं, एवं जाव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं । भावार्थ-३० प्रश्न हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कर्मप्रकृतियां कितनी वेदते हैं ? __ ३० उत्तर-हे गौतम ! चौदह कर्म-प्रकृतियां वेदते हैं। यथा-ज्ञाना- . धरणीय आदि एकेन्द्रिय शतक के अनुसार, यावत् पुरुषवेदवध्य कर्म-प्रकृति पर्यन्त । इसी प्रकार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ३१ प्रश्न-एगिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? किं रहएहिंतो उववज्जति ? .३१ उत्तर-जहा वकंतीए पुढविकाइयाणं उववाओ। भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कहां से आ कर उत्पा होते हैं. ? ___ ३१ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में पृथ्वी. कायिक जीव के समान उपपात कहना चाहिये। ३२ प्रश्न-एगिदियाणं भंते ! कह समुग्धाया पण्णत्ता ? ३२ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहावेयणासमुग्धाए जाव वेउब्वियसमुग्याए । भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव के समुद्घात कितने कहे हैं। ३२ उत्तर-हे गौतम ! चार समुद्घात कहे हैं । यथा-वेदना समुद्घात यावत् वैक्रिय समुद्घात। For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गुत्र श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. ९ विग्रहगति ३३ प्रश्न - एगिंदिया णं भंते! किं तुल्लडिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकति ? तुल्लडिया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? माया तुल्लविमाहियं कम्मं पकरेंति ? वेमायटिया बेमायविमेाहियं कम्मं पकरेंति ? ३३ उत्तर - गोगमा ! अत्थेगइया तुल्लडिईया तुल्लविमेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्येगइया तुल्लट्ठिईया वेमायविसेमा हियं कम्मं पकरें ति, अत्येगइया बेमायईिया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया मायया मायविसे साहियं कम्मं पकरेंति । ३७१५. प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - ' अत्थेगइया तुल्लट्टिईया जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? उत्तर - गोयमा ! पगिंदिया चउव्विद्या पण्णत्ता तं जहा- १ अत्थे या समाजा समोववणगा २ अत्थेगइया समाज्या विसमोववण्णगा ३ अत्थेगइया विसमाज्या समोववण्णगा ४ अत्थेगडया विसमाज्या विसमोववण्णगा । १ तत्थ णं जे ते समाज्या समोववण्णगा ते णं तुल्लट्टिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति २ तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं तुल्लट्ठिईया वेमायविसे साहियं कम्मं पकरेंति ३ तत्थ णं जे ते विसमाज्या समोक्वण्णगा ते णं वेमायट्टिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ४ तत्थ णं जे ते विसमाउया विममोववण्णगा ते णं वेमायडिया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । से तेणट्टेणं For Personal & Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१६ भगवती मूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति गोयमा ! जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति २ जाव विहरइ ॥ चोत्तीसहमे सए पढमे एगिंदियस पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! १ तुल्य ( समान) स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव, तुल्य और विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं २ अथवा तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव, भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं ३ अथवा भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं और ४ अथवा मित्रभिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं ? ३३ उत्तर - हे गौतम! तुल्य स्थिति वाले कुछ एकेन्द्रिय जीव तुल्य और विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं । कुछ तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं । कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव, तुल्य विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं और कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा कि कितने ही एकेन्द्रिय जीव तुल्य स्थिति वाले यावत् भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं । उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे हैं। यथा-१ कई जीव समान आयु वाले और साथ उत्पन्न हुए २ कितने ही समान आयु वाले और विषम उत्पन्न हुए ३ कितने ही विषम आयु वाले और साथ उत्पन्न हुए और ४ कुछ विषम आयु वाले और विषम उत्पन्न हुए। जो समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले तुल्य एवं विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं । जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। जो जीव विषम आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले तुल्य विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं और जो विषम आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति ३७१७ वाले, विमात्रा-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। हे गौतम ! इस कारण यावत् विमात्रा-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। 'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। _ विवेचन--बादर पृथ्वी कायिका दि जीव, जिस स्थान पर रहता है, वह उसका 'स्वस्थान' कहलाता है। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद की विवक्षा जहाँ न हो, वह 'अविशेष' कहलाता है । जिनमें परस्पर नानात्व अर्थात् अन्तर न हो, उसे 'अनानात्व' कहा है । एकेन्द्रिय में जो वैक्रिय-समुद्घात का कथन किया है, वह वायुकायिक जीवों की अपेक्षा है। स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों के यहाँ चार भंग कहे हैं और इन्हीं चार भंगों की अपेक्षा चार प्रकार का कर्म-बन्ध कहा है । ॥चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण॥ अवान्तर शतक १ उद्देशक २ १ प्रश्न-कहविहा गंभंते ! अणंतरोववण्णगा एगिदिया पण्णत्ता? .१ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा-१ पुढविकाइया-दुयाभेओ जहा एगिदियसएसु जाव बायरवणस्सइकाइया य । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एके न्निय कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार यावत् बावर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ ७.२ विग्रहगति २ प्रश्न - कहिं णं भंते! अनंतशेववण्णगाणं बायरपुढ विकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! सट्टाणेणं अट्टसु पुढवीसु तं जहा - रयण'पभाए जहा ठाणपए जाव दीवेसु समुद्देसु । एत्थ णं अंतरोववण्णगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता, उववारणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोगस्स असंखेजड़भागे । अनंतरोववण्णगसुहुमपुढविकाइया एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोए परियावण्णा पण्णत्ता समणाउसो ! | एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिंदिया भाणियव्वा, सट्टाणाई सव्वेसिं जहा ठाणपए । तेसिं पज्जत्तगाणं बायरा उववाय समुग्धाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं बायराणं । सुहुमाणं सव्वेसिं जहा पुढविकाइयाणं भणिया तव भाणियव्वा जाव वणस्मइकाइयति । कठिन शब्दार्थ - - परियावण्णा व्याप्त । ३७१८ भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में, यथारत्नप्रभा इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार यावत् द्वीपों में और समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहे हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं । स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं । अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सभी एक प्रकार के हैं और विशेषता तथा मिनता रहित हैं । For Personal & Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति . ३७१९ तथा हे आयुष्यमन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। यही क्रम समी एकेन्द्रिय का है । उन सभी के स्वस्थान प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार है । पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के भी जानना चाहिये और सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। ३ प्रश्न-अणंतरोववण्णगाणं सुहुमपुढविकाहयाणं भंते ! कह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ? ३ उत्तर-गोयमा ! अटु कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ-एवं जहा एगिंदियसएसु अणंतरोववण्णगउद्देसए तहेव पण्णत्ताओ, तहेव बंधति, तहेव वेदेति जाव अणंतरोववण्णगा बायरवणस्सइकाइया । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही है ? . ... ३ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म-प्रकृतियां कही हैं इत्यादि एकेन्द्रिय शतक में अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार । यावत् उसी प्रकार बांधते और घेदते हैं, यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ४ प्रश्न-अणंतरोववण्णगएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति? ४ उत्तर-जहेव ओहिए उद्देसओ भणिओ तहेव । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव, कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं? For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२० भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति ४ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशकानुसार । ५ प्रश्न-अणंतरोववण्णगएगिदियाणं भंते ! कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? ५ उत्तर-गोयमा ! दोण्णि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणा. समुग्घाए य कसायसमुग्घाए य। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव के कितने समुद्घात कहे हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! दो समुद्घात कहे है । यथा-वेदना-समुद्घात और कषाय-समुद्घात । ६ प्रश्न-अणंतरोववण्णगएगिदिया णं भंते ! किं तुल्लटिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति-पुच्छा तहेव ? ' ६ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लट्टिईया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, अत्यगइया तुल्लट्टिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । . प्रश्न-से केणटेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? उत्तर-गोयमा ! अणंतरोववण्णगा एगिदिया दुविहा पण्णता, तं जहा-अत्थेगहया समाउया समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववाणगा । तत्थ णं जे ते समाउया समोववण्णगा ते णं तुल्ल. ट्टिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोवषण्णगा ते णं तुल्लटिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । For Personal & Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति ३७२१ से तेणटेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ चोत्तीसड़मे सए पढमे एगिदियसए बीओ उद्देमो समत्तो॥ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! तुल्य स्थिति वाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव, परस्पर तुल्य, विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं. ? ६ उत्तर-हे गौतम ! कई तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव, तुल्य विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं और कई तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव विमात्र-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं । यथा-कई जीव समान आयु और समान उत्पत्ति वाले होते हैं और कई जीव समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । जो समान आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले परस्पर तुल्य विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र-विशेषाधिक कर्म बन्ध करते हैं। इस कारण हे गौतम ! यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पहले स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा चार भंग कहे, उनमें मे विषम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम दो भंग अनन्तरोपपन्न क जीव में नहीं पाये जाते, क्योंकि अनन्तरोपपन्नकत्व में विषम स्थिति का अभाव है। ॥ चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का दूसरा उद्देशक संपूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर शतक १ उद्देशक ३ १ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! परंपरोवण्णगा एगिंदिया पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा परंपरोक्वण्णगा एगिदिया पण्णत्ता, त जहा-पुढविकाइया-भेओ चउक्कओ जाव वणस्सइकाइय त्ति । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक आदि और उनके चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त। २ प्रश्न-परंपरोववण्णगअपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव पचन्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए ? २ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमो उद्देसओ जाव लोगचरिमंतो ति। . भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण-समुद्घात कर के रत्नप्रभा पृथ्वी के यावत् पश्चिम चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! इस अभिलाप से प्रथम उद्देशकानुसार यावत् लोक के चरमान्त पर्यन्त । ३ प्रश्न-कहिं णं भंते ! परंपरोक्वण्णगबायरपुढविकाइयाणं For Personal & Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ३४ अवान्तर शतक १ उ. ४-१९ विग्रहगति ३७२३ ठाणा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! सहाणेणं असु पुढवीसु एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देस जाव तुल्लटिईय त्ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ चोत्तीसहमे सए पढमे एगिंदियस भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहां कहे हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में और इस अभिलाप से प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् तुल्य स्थिति पर्यन्त । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' - कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ।। तईओ उद्देसो समत्तो ॥ अवांतर शतक 9 उद्देशक ४-११ - एवं सेसा वि अट्ट उद्देसगा जाव 'अचरमो' त्ति । णवरं अनंतरा अनंतरसरिसा, परंपरा परं परसरिसा, चरमा य अचरमा य एवं चैव । एवं एए एक्कारस उद्देसगा । || चोत्तीसइमे सए पढमे एगिंदियस ४ - ११ उद्देसा समत्ता || - इसी प्रकार शेष आठ उद्देशक यावत् 'अचरम' पर्यन्त । अनन्तर For Personal & Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२४ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक २ विग्रहगति उद्देशक अनन्तर के समान, परम्पर, परम्पर के समान और चरम तथा अचरम भी उसी प्रकार है । ये ग्यारह उद्देशक हुए । ॥ चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक के ४ - ११ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ एकेन्द्रिय श्रेणी शतक का प्रथम अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक २ १ प्रश्न - कविहा णं भंते! कण्डलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! पंचविद्या कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता; भेओ चकओ जहा कण्हलेस्सए गिंदियसए जाव वर्णस्स इकाइयं ति । भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। उनके चार-चार भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यंत । २ प्रश्न - कण्हलेम्सअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणसभा पुढवीर पुरच्छिमिल्ले० ? २ उत्तर - एवं एवं अभिलावेणं जहेब ओहिउद्देसओ जाव 'लोग चरिमंते' त्ति । सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उववाएयव्वो । For Personal & Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मत्र-ग. :४ अवान्तर शतक : विग्रहगति भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो कृष्णलेश्या वाला अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व चरमान्त में समुदघात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार इस अभिलाप से यावत् लोक के चरमान्त तक, सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना चाहिये । ३ प्रश्न-कहिं णं भंते ! कण्हलेस्सअपजत्तवायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णता ? ३ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसओ जाव तुल्लटिइय त्ति । 'सेवं भंते। .. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमं सेढिसयं तहेव एकारस उद्दे. - सगा भाणियध्वा ३४-२-११ । ॥ बिइयं एगिदियसेढिसयं समत्तं ॥ . .. भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशक के इस अभिलाप के अनुसार यावत् 'तुल्य स्थिति वाले' पर्यन्त कहना चाहिये। जिस प्रकार प्रथम श्रेणी शतक कहा, उसी प्रकार इसी अमिलाप से कृष्णलेशी श्रेणी-शतक के ग्यारह उद्देशक कहना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ चौतीसवें शतक का दूसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर शतक ३-५ -एवं णीललेस्सेहि वि तइयं सयं । काउलेस्सेहि नि सयं । एवं चेव चउत्थं सयं । भविसिद्धियएहि वि सयं पंचमं समत्तं । ॥ चोत्तीसइमे सए ३-५ सयाई समत्ताई ॥ भावार्थ-इसी प्रकार नीललेश्या वाले जीव का तीसरा शतक, कापोतलेश्या वाले का चौथा शतक तथा भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव का पांचवां शतक है। ॥ चौतीसवें शतक के ३-५ अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक ६ १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता ? १ उत्तर-एवं जहेव ओहियउद्देसओ। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! औधिक उद्देशकानुसार । २ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! अणंतरोववण्णा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक ६ विग्रहगति २ उत्तर - जहेब अंतरोववण्णउद्देसओ ओहिओ तहेव । भावार्थ-२ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! अनन्तरोपपन्नक सम्बन्धी औधिक उद्देशकानुसार । ३७२७ ३ प्रश्र - काइविहा णं भंते! परंपरोववण्णा कण्हलेस्सा भवसिद्धियए गिंदिया पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा परंपरोववण्णा कण्हलेस्सभवसिद्धियए गिंदिया पण्णत्ता - ओहिओ भेओ चउकओ जाव वर्णस्सहकाइयति । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले मवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! परम्परोपपत्रक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के कहे हैं । इस प्रकार औधिक चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त । ४ प्रश्न - परंपरोववण्ण - कण्हलेस्स भवसिद्धिय अपज्जत्त सुहमपुढंविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ? ४ उत्तर - एवं एएवं अभिलावेणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव लोयचरमंतेति । सव्वत्थ कण्हलेस्सेसु भवसिद्धिएसु उववाएयव्वो । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! जो परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाला For Personal & Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२८ भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक ६ विग्रहगति भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरण - समुद्घात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत्, इस अभिलाप से अधिक उद्देशक के अनुसार लोक के चरमान्त तक कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक में उपपात होता है । ५ प्रश्न - कहिं णं भंते ! परंपरोववण्णकण्हलेस्सभवसिद्धियपज्जत्तवायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता ? ५ उत्तर - एवं एएवं अभिलावेणं जहेब ओहिओ उद्देसओ जाव 'तुल्लट्ठिय' ति । एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्स भवसिद्धियएगिदिएहि वि तव एकारसउदेसगसंजुत्तं छटुं सयं । ॥ चोत्तीसहमे सए छ सयं समत्तं ॥ भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! परम्परोपपत्रक कृष्णलेश्या वाले मवसिद्धिक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत्, इस अभिलाप से तुल्य स्थिति वाले तक औधिक उद्देशक के अनुसार । इसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णलेश्या वाले raffe एकेन्द्रिय के मी ग्यारह उद्देशक सहित छठा अवान्तर शतक जानो । 'हे भगवन् | यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ चौतीसवें शतक का छठा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only -- Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर शतक ७-१२ - नीललेस्सभवसिद्धियए गिंदिएस सयं सत्तमं । एवं काउलेस्सभवसिद्धिय ए गिदिएहि वि अट्टमं सयं । जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धि हि वि चत्तारि सयाणि भाणियव्वाणि । णवरं चरम अचरमवज्जा णव उद्देगा भाणियव्वा, सेसं तं चैव । एवं एयाई बारस एगिंदिय सेटीसयाई । * 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! त्ति जाव विहरइ | एगिंदियमेढीसयाई समत्ताई ॥ || चउतीसइमं एगिंदियसेदिसयं समत्तं ॥ - नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव का सातवां शतक ३४-७ । इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव का आठवां शतक ३४-८ । भवसिद्धिक जीव के चार शतक अनुसार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव के भी चार शतक कहना चाहिये । परन्तु इनमें चरम और अचरम छोड़ कर शेष नौ उद्देशक कहने चाहिये। शेष पूर्ववत् । इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रिय श्रेणी शतक कहे हैं । -- 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन -- इसमें ऋज्वायतादि श्रेणियों की प्रधानता होने से इस चौतीसवें शतक का नाम 'श्रेणी शतक' दिया है । ॥ चौतीसवें शतक के अवान्तर शक्तक ७ - १२ सम्पूर्ण ॥ ॥ चौतीसवाँ श्रेणी शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३५ (महायुग्म शतक) अवांतर शतक १ उद्देशक १ १ प्रश्न-कइ णं भंते ! महाजुम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा-१ कडजुम्मकडजुम्मे २ कडजुम्मतेओगे ३ काडजुम्मदावरजुम्मे ४ कडजुम्मकलिओगे ५ तेओगकडजुम्मे ६ तेओगतेओगे ७ तेओगदावरजुम्मे ८ तेओगकलिओए ९ दावरजुम्मकडजुम्मे १० दावरजुम्मतेओए ११ दावरजुम्मदावरजुम्मे १२ दावरजुम्मकलिओगे १३ कलिओग. कडजुम्मे १४ कलिओगतेओगे १५ कलिओगदावरजुम्मे १६ कलि, ओगकलिओगे। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! महायुग्म कितने कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! महायुग्म सोलह कहे हैं । यथा-१ कृतयुग्मकतयुग्म २ कृतयुग्मयोज ३ कृतयुग्मद्वापरयुग्म ४ कृतयुग्मकल्योज ५ व्योजकृतयम्म ६ योजयोज ७ योजद्वापरयुग्म ८ व्योजकल्योज ९ द्वापरयुग्मकतयुग्म For Personal & Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ १० द्वापरयुग्मत्रयोज ११ द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म १२ द्वापरयुग्मक्ल्योज १३ कल्योज कृतयुग्म १४ कल्योजत्रयोज १५ कल्योजद्वापरयुग्म और १६ कल्योजकल्योज | ३७३१ २ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'सोलस महाजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कडजुम्मकडजुम्मे जाव कलिओगकलिओगे' ? २ उत्तर - गोयमा ! १ जे णं रासी चउकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया ते वि कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मकडजुम्मे २ जेणं रासी चउकरणं अवहारेणं अवडीरमाणे तिपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिम्स अवहारसमया कड जुम्भा, सेत्तं कडजुम्मतेओए ३ जेणं रासी चक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, सेत्तं कडजुम्मदावरजुम्मे ४ जे गं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरपाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कड जुम्मा, सेत्तं कडजुम्म कलिभोगे ५ जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगा, सेत्तं तेओगकडजुम्मे ६ जे णं रासी चक्करणं अवहारेणं अवहौरमाणे तिपज्जवमिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेगा, सेत्तं तेओगतेओगे ७ जे णं रासी चउकरणं अवहारेणं अवीरमाणे दोपज्जवमिए, जे णं तस्स रासिम्स अवहारसमया For Personal & Private Use Only . Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३२ भगवती सूत्र--- ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ तेओगा, सेत्तं तेओगदावरजुम्मे ८ जे णं गसी चउपकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिरस अवहारसमया तेओगा, सेत्तं तेओगकलिओगे ९ जे णं रासी चउपकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिरस अव. हारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दापरजुम्मकडजुम्मे १० जे णं. रासी चउपकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा सेत्तं दावरजुम्मतेओए ११ जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए. जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दावरजुम्मदावरजुम्मे १२ जे णं रासी चउपकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अघहारसमया दावरजुम्मा, सेत्तं दावरजुम्मकलिओगे १३ जे णं रासी चउपकरणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपन्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा सेतं कलिओगकड. जुम्मे १४ जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहौरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा सेत्तं कलि ओगतेओए १५ जे णं रासी चउवकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपजवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा, सेतं कलिओगदावरजुम्मे १६ जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपजवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा, For Personal & Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक ? उ. १ ३७३३ सेत्तं कलिओगकलिओगे । से तेणटेणं जाव 'कलिओगकलिओगे'। कठिन शब्दार्थ-अवहारसमया-अपहार समय । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन ! सोलह महायुग्म कहने का कारण क्या है ? २ उत्तर-हे गौतम ! १ जिस राशि में से चार संख्या का अपहार करते हुए चार शेष रहें और उस राशि के अपहार समय भी कृतयुग्म (चार) हो, तो वह राशि 'कृतयुग्मकृतयुग्म' कहलाती है । २ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए तीन शेष रहें और उन राशि के अपहार समय भी कृतयुग्म हों, तो वह राशि ‘कृतयुग्मत्र्योज' कहलाती है । ३ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहत करते हुए दो शेष रहें और उस राशि के अपहार समय कृतयुग्म हो, तो वह राशि 'कृतयुग्मद्वापरयुग्म' कहलाती है । ४ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए एक शेष रहें और उस राशि के अपहार समय कृतयुग्म हो, तो वह राशि 'कृतयुग्मकल्योज' कहलाती है। ५ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहत करते हुए चार शेष रहें और उस राशि के अपहार समय व्योज हो, तो वह राशि 'त्र्योजकृतयुग्म' कहलाती है। ६ जिस राशि में से चार के अपहार से अपहत करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि के अपहार समय व्योज (तीन) हो, तो वह राशि 'योजत्र्योज' कहलाती है । ७ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहत करते हुए दो बचे और उस राशि के अपहार समय योज हो, तो वह राशि 'योजद्वापरयुग्म' कहलाती है । ८ जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए एक बचे और उस राशि के अपहार समय व्योज हो, तो वह राशि 'योजकल्योज' कहलाती है । ९ जिस राशि में से चार सख्या से अपहृत करते हुए चार शेष रहें और उस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म (दो) हो, तो वह राशि 'द्वापरयुग्मकृतयुग्म' कहलाती है । १० जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म हो, तो वह राशि 'द्वापरयुग्मयोज' कहलाती है। ११ जिस राशि For Personal & Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३४ भगवती सूत्र श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ में से चार संख्या से अपहृत करते हुए दो बचे और उस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म हो, तो वह राशि द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म' कहलाती है। १२ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए एक और उस राशि के अपहार समय द्वापरयुग्म हो, तो वह राशि द्वापरयुग्मकल्योज' कहलाती है । १३ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए चार बचे और उस राशि का अपहार समय कल्योज हो, तो वह राशि 'कल्योजकृतयुग्म' कहलाती है । १४ जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि का अपहार समय कल्योज हो, तो वह राशि 'कल्योजत्र्योज' कहलाती है। १५ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए दो बचे और उस राशि का अपहार समय कल्योज हो, तो वह राशि 'कल्योजद्वापरयुग्म' कहलाती है और १६ जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए एक बचा रहे और उस राशि का अपहार समय कल्योज हो, तो वह राशि 'कल्योजकल्योज' कहलाती है । इस कारण हे गौतम ! यावत् कल्पोजकल्योज कहा है। विवेचन - राशि (संख्या) विशेष को 'युग्म' कहते हैं। वह युग्म क्षुल्लक (छोटा) भी होता है और यहान् (बड़ा) भी होता है । इनमें से क्षुल्लक युग्म का वर्णन पहले किया जा चुका है । अब महायुग्म का वर्णन किया जाता है । जिस राशि में से प्रति समय चार-चार के अपहार से अपहृत करते हुए अन्त में चार शेष रहें और अपहार समय भी चार हों, तो वह राशि 'कृतयुग्मकृतयुग्म' कहलाती है । क्योंकि जिस द्रव्य में से अपहरण किया जाता है, वह प्रव्य भी कृतयुग्म है और अपहरण के समय भी कृतयुग्म हैं । अतः यह राशि 'कृतयुग्मकृतयुग्म' कहलाती है । इसी प्रकार दूसरी राशियां भी शम्दार्थ से जानना चाहिये । जैसे कि-१६ की संख्या जघन्य कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप है, क्योंकि उसमें से चार संख्या से अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहते हैं और अपहार समय भी चार होते हैं । कृतयुग्मयोज-जैसे जघन्य से १९ की संख्या में से प्रतिसमय चार का अपहार करते हुए अन्त में तीन शेष रहते हैं और अपहार ममय चार होते हैं । इस प्रकार अपहरण किये जाने वाले द्रव्य की अपेक्षा बह राशि योज है और. अपहार समय की अपेक्षा 'कृतयुग्म' है । अतः इस राशि को 'कृतयुग्मत्र्योज' कहते हैं । यहाँ सभी स्थानों पर अपहारक For Personal & Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा दूसरा पद १६ । ( २ ) १९ । समय की अपेक्षा पहला पद है और अपहार किये जाने वाले द्रव्य की है । इन सोलह महायुग्मों की जघन्य संख्या इस प्रकार है- ( १ ) (३). १८.० (४) १७ । (५) १२ । (६) १५ । (७) १४ । (८) १३ । (९) ८ । (१०) ११ । ( ११ ) १० । (१२) ९ । (१३) ४ । (१४) ७ । (१५) ६ । (१६) ५ । भगवती सूत्र - श ३५ अत्रान्तर शतक ९ उ. ९ ३ प्रश्न - कडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया णं भंते ! कओ उवबज्जं ति ? किं णेरइए हिंतो • ? ३ उत्तर - जहा उप्पलुद्देसए तहा उववाओ । होते हैं ? भावार्थ-३ प्रश्न हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं, क्या नैरयिक से आकर उत्पन्न होते हैं ० ? ३ उत्तर - हे गौतम! उत्पलोद्देशक ( शतक ग्यारह उद्देशक एक) के अनुसार । ४ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा एगसमपर्ण केवहया उववजंति ? ४ उत्तर - गोयमा ! सोलस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अनंता वा उववज्जति । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न ३७३५ होते हैं । ४ उत्तर - हे गौतम ! सोलह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न ५ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा समए समए - पुच्छा । ५ उत्तर - गोयमा ! ते णं अनंता समए समए अवहीरमाणा अवरमाणा अनंताहिं उस्सप्पिणी अवसप्पिणीहिं अघहीरं ति, णो चेव For Personal & Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३६ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ णं अवहरिया सिया । उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! वे अनन्त जीव समय-समय में एक-एक अपहृत किये जाय, तो कितने काल में अपहृत (खाली) होते हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम ! प्रति समय अपहृत किये जाय, और ऐसा करते हुए अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी बीत जाय, तो भी वे खाली नहीं होते (तु ऐसा किसी ने किया नहीं) । उनकी ऊँचाई उत्पलोद्देशक के अनुसार है । ६ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा णाणावर णिज्जस्स कम्मरस किं बंगा, अबंधगा ? ६ उत्तर - गोयमा ! बंधगा, णो अबंधगा । एवं सव्वेसिं आउयवजा | आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! वे एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक हैं या अबन्धक ? ६ उत्तर - हे गौतम! बे बन्धक हैं, अबन्धक नहीं। इसी प्रकार आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सभी कर्मों के बन्धक हैं। आयु-कर्म के वे बन्धक भी हैं और अबन्धक भी । ७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा णाणावर णिज्जरस - पुच्छा । ७ उत्तर - गोयमा ! वेयगा, गो अवेयगा । एवं सव्वेसिं । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के वेवक हैं या अवेदक ? ७ उत्तर - हे गौतम! वे वेदक हैं, अवेचक नहीं। इसी प्रकार सभी कर्मों के विषय में जानना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ ८ प्रश्न- ते णं भंते! जीवा किं सातावेयगा, असातावेयगा पुच्छा । ८ उत्तर - गोयमा ! सातावेयगा वा असातावेयंगा वा । एवं उप्पलुदेसगपरिवाडी । सव्वेसिं कम्माणं उदई, णो अणुदई । छहं कम्माणं उदीरगा, जो अणुदीरगा । वेयणिज्जाउयाणं उदीरगा वा अणुदीरगा वा ।. ३७३७ भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव साता के ८ उत्तर - हे गौतम! वे सातावेदक होते हैं उत्पलोद्देशक परिपाटी के अनुसार । वे सभी कर्मों के नहीं। छह कर्मों के उदीरक हैं, अनुदीरक नहीं । वेदनीय और आयु-कर्म के वीरक भी हैं और अनुदीरक भी । वेदक हैं या असाता के ? अथवा असातावेदक । उदय वाले हैं, अनुदयी ९ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं कण्ह - पुच्छा । ९ उत्तर - गोयमा । कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा. वा. काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा । णो सम्मदिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्टी, मिच्छादिट्टी । णो णाणी, अण्णाणी, नियमं दुअण्णाणी, तं जहा - महअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । जो मणजोगी, णो वहजोगी, कायजोगी । सागारोवउत्ता वा, अणागारोवउत्ता वा । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं० ? ९ उत्तर - हे गौतम ! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और For Personal & Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३८ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ तेजोलेश्या वाले हैं । वे सम्यगदृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, एक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें नियम से दो अज्ञान-मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान होता है । वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं, काययोगी होते हैं । वे साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त होते हैं। १० प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा कइवण्णा-जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थपुच्छा। १० उत्तर-गोयमा ! जहा उप्पलुद्देसए ऊसासगा वा, णीसासगा वा, णो उस्सासणीसासगा वा । आहारगा वा अणाहारगा वा । णो विरया, अविरया, णो विरयाविरया । सकिरिया, णोअकिरिया। सत्तविहबंधगा वा अट्ठविहबंधगा वा। आहारसण्णोवउत्ता वा जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वा। कोहकसायी वा, माणकसायी जाव लोभकसायी वा । णोइथिवेयगा, णो पुरिसवेयगा. गपुंसगवेयगा । इत्थिवेयबंधगा वा पुरिसवेयबंधगा वा नपुंसगवेयबंधगा वा । णो सण्णी, असण्णी । सइंदिया, णो अफिदिया। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! उन एकेन्द्रिय जीवों के शरीर कितने वर्ण के होते हैं, इत्यादि उत्पलोद्देशक के अनुसार सभी प्रश्न करना चाहिये । १० उत्तर-हे गौतम ! उत्पलोद्देशकानुसार । उनके शरीर पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले होते हैं। वे उच्छ्वास वाले अथवा निःश्वास वाले अथवा नो-उच्छ्वासनिःश्वास वाले होते हैं । आहारक अथवा अनाहारक होते हैं । वे विरत (सर्वविरति) और विरताविरत (वेशविरत) नहीं होते, अविरत होते हैं। वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं । वे सात अथवा For Personal & Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ । आठ कर्म-प्रकृति के बन्धक होते हैं । वे आहार संज्ञा यावत् परिग्रह संज्ञा वाले होते हैं । वे क्रोधकषायी, मानकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं । स्त्रीवेदी और पुरुष वेटी नहीं होते, किन्तु नपुंसकवेदी होते हैं । वे स्त्रीवेद बन्धक, पुरुषवेद बन्धक अथवा नपुंसकवेद बन्धक होते हैं। वे संज्ञी नहीं, असंज्ञी होते हैं । वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते । 1 ३७३९ ११ प्रश्न - ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया कालओ केवचिरं होंति ? " ११ उत्तर गोयमा ! जहण्णेणं एक्क समयं उक्कोसेणं अनंत कालं - अनंता उस्सप्पिणी ओस्सप्पिणीओ, वणस्सइकाइयकालो | संवेहो भण्ण, आहारो जहा उप्पलुद्देसए, णवरं णिव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायं पच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, सेसं तहेव । ठिई जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं बावीसं वाससहस्साई | समुग्घाया आदिल्ला चत्तारि । मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति, असमोहया विमति । उव्वट्टणा जहा उप्पलुद्देसए । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! वे कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय जीव, काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल, अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप वनस्पति काल पर्यन्त होते हैं । यहाँ संवेध नहीं कहना । आहार उत्पलोद्देशक के अनुसार, व्याघात रहित छह दिशा का और व्याघात हो, तो कदाचित् तीन, चार या पांच दिशा का आहार लेते हैं । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । समुद्घात पहले के चार For Personal & Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ होते हैं । मारणान्तिक समुद्घात से समवहत अथवा असमवहत हो कर मरते । उद्वर्तना उत्पलोद्देशक के अनुसार जाननी चाहिये ! ३७४० विवेचन - जिन एकेंद्रिय जीवों में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहें और अपहार समय भी चार हों, तो वे ' कृतयुग्मकृतयुग्म एकेद्रिन्य' कहलाते हैं । यहाँ 'उत्पलोद्देशक' का अतिदेश किया गया है, सो यह उत्पलोद्देशक ११ वें शतक का पहला उद्देशक है । उत्पल शक में उत्पल ( कमल) के जीव का उत्पाद विवक्षित है और वह पृथ्वीकाकादि दूसरी काय में जावे, पुनः उत्पल में आ कर उत्पन्न हो, तब उसका संवेध होता है, परन्तु यहाँ कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय का उत्पाद अधिकृत है और एकेन्द्रिय तो अनंत उत्पन्न होते हैं । उनमें से निकल कर विजातीयकाय में उत्पन्न हो कर पुनः एकेन्द्रियपने उत्पन्न हों, तब संवेध होता है, किन्तु उनका वहाँ से निकलना असम्भवित होने से संवेध नहीं होता । यहाँ जो सोलह कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय का उत्पाद कहा है, वह सकाय से आकर उत्पन्न होने वाले जीव की अपेक्षा है, परन्तु वह वास्तविक उत्पाद नहीं है । क्योंकि एकेन्द्रिय में प्रतिसमय अनंत जीव का उत्पाद होता है । इसलिये यहाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा संवेध असम्भवित होने से नहीं कहा है । १२ प्रश्न - अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कडजुम्मकड-जुम्म एगिंदियत्ताए उववण्णपुव्वा ? १२ उत्तर - हंता गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो । भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी प्राण यावत् सभी सत्त्व कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय रूप से पहले उत्पन्न हुए हैं ? १२ उत्तर - हाँ, गौतम ! पहले अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए । १३ प्रश्न - कडजुम्मते ओय ए गिंदिया णं भंते! कओ उववष्नंति ? १३ उत्तर - उववाओ तहेव । For Personal & Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ ३७४१ भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मभ्योज राशि के एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! उपपात पूर्ववत् । १४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमए-पुच्छा। १४ उत्तर-गोयमा ! एगूणवीसा वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं जहा कडजुम्मकडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो। भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! उन्नीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्, कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय के अनुसार यावत् 'पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं'-पर्यन्त । .१५ उत्तर-कडजुम्मदावरजुम्मएगिंदिया णं भंते ! कओहितो उववजंति ? १५ उत्तर-उववाओ तहेव । ... भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मद्वापरयुग्म राशि के एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? __१५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । १६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। १६ उत्तर-गोयमा ! अट्ठारस वा संखेजा वा असंखेजा वा For Personal & Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४२ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ अणंता वा उववजंति, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! एक समय में अठारह, संख्यात असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । शेष सभी पूर्ववत्, यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न १७ प्रश्न-कडजुम्मकलिओगएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? १७ उत्तर-उववाओ तहेव । परिमाणं सत्तरस वा संखेजा वा असंखेन्जा वा अणंता वा सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। ___भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकल्योज राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, परिमाण सत्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्, यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। १८ प्रश्न-तेओगकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उव. वजंति ? १८ उत्तर-उपवाओ तहेव, परिमाणं बारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! त्र्योजकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! उपपात पूर्ववत् । परिमाण एक समय में बारह For Personal & Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३५ अयान्तर शतक १ उ. १ ३७४३ संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत्, यावत् 'पहले अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हए है' पर्यन्त । ___ १९ प्रश्न-तेओयतेओयएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजति ? १९ उत्तर-उववाओ तहेव । परिमाणं पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो । एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एको गमओ। णवरं परिमाणे णाणतं. तेओगदावरजुम्येसु परिमाणं चोदस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववति । तेओगकलिओगेसु तेरस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववनंति । दावरजुम्मकडजुम्मेसु अट्ट वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति । दावरजुम्मतेओगेसु एक्कारस वा संखेजा वा असंखेना वा अणंता वा उववजंति।दावरजुम्मदावरजुम्मेसु दस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । उववज्जति दावरजुम्मकलिओगेसु णव वा संखेना वा असंखेजावा अणंता वा उववजति । कलिओगकडजुम्मे चत्वारि वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजति । कलिओगतेओगेसु सत्त वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उवज्जति । कलिओगदावरजुम्मेसु छ वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववति । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! त्र्योजत्र्योज राशि एकेंद्रिय जीव कहाँ से For Personal & Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४४ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ आते हैं ? १९ उत्तर - हे गौतम ! उपपात पूर्ववत । परिमाण प्रतिसमय पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्, यावत् 'पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं' पर्यन्त । इस प्रकार सोलह महायुग्मों का एक ही प्रकार का कथन समझना चाहिये । परिमाण में विशेषता है । यथा योजद्वापरयुग्म में परिमाण - चौदह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । त्र्योजकल्योज में तेरह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । द्वापरयुग्मकृतयुग्म में आठ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । द्वापरयुग्मयोज में ग्यारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म में दस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । द्वापरयुग्मकल्योज में नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । फल्योजकृतयुग्म में चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । कल्योजग्योज में सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । कल्योजद्वापरयुग्म में छह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । २० प्रश्न - कलिओगकलिओगए गिंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? २० उत्तर - उववाओ तहेव । परिमाणं पंच वा संखेज्जा वा असं खेजा वा अनंता वा उववज्जति । सेसं तहेव जाव अनंतखुत्तो । 'सेवं भंते । सेवं भंते' ! ति ॥ पणतीस मे स पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! कल्योजकल्योज राशि एकेंद्रिय जीव कहां से आते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-रा. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १ ३७४५ २० उत्तर-हे गौतम ! उपपात पूर्ववत् । परिमाण-पांच, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं । शेष पूर्ववत्, यावत् 'पहले अनेक बार या अनन्त चार उत्पन्न हुए हैं। ___'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ पैंतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ - OAAMAN अवान्तर शतक १ उद्देशक २ १ प्रश्न-पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते ! कओ उववजति ? १ उत्तर-गोयमा ! तहेव, एवं जहेब पढमो उद्देसओ तहेव सोलसखुत्तो बिइओ वि भाणियव्वो, तहेव सव्वं । णवरं इमाणि य दस णाणत्ताणि-१ ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । २ आउयकम्मस्स णो बंधगा, अबंधगा । ३ आउयस्स णो उदीरगा, अणुदीरगा । ४ णो उस्सामगा, णो णिस्सासगा, णोउस्सासणिस्सासगा । ५ सत्तविहबंधगा, णो अट्ठविहबंधगा। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय उत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४६ भगवती सूत्र-श ३५ अवान्तर शतक १ उ. २ १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, प्रथम उद्देशकानुसार सोलह राशि की अपेक्षा सोलह बार पाठ के कथनपूर्वक दूनरा उद्देशक कहना । शेष पूर्ववत्, किन्तु इनमें दस नानात्व (विशेषताएँ) हैं । यथा-१ अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग, २ आयु-कर्म के बन्धक नहीं, भबन्धक होते हैं, ३ वे आयु.कर्म के उदीरक नहीं, अनुदीरक होते हैं, ४ बे उच्छ्वास, निःश्वास युक्त नहीं होते किन्तु नोउच्छ्वासनिःश्वास युक्त होते हैं और ५ वे सात प्रकार के कर्म-बन्धक होते हैं, आठ. प्रकार के नहीं। २ प्रश्न-ते णं भंते ! 'पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? ____२ उत्तर-गोयमा ! एक्कं समयं । एवं ठिईए वि । समुग्घाया . आदिल्ला दोण्णि । समोहया ण पुच्छिति । उव्वट्टणा ण पुच्छिजइ । सेसं तहेव सव्वं णिरवसेसं । सोलससु वि गमएसु जाव अणंतखुत्तो। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ३५-१-२ * कठिन शब्दार्थ-आदिल्ला-आदि (पहले) के । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेनिय जीव कितने काल तक होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! एक समय तक होते हैं। स्थिति भी यही । प्रथम के दो समुद्घात होते हैं । समवहत और उद्वर्तना असम्भव होने से प्रश्न नहीं करना । शेष सोलह महायुग्मों में उसी प्रकार यावत् 'अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं' पर्यन्त। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ३५ अवान्तर शतक १ उ. ३-११ कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - एकेन्द्रियपने उत्पन्न हुए जिनको अभी एक समय ही हुआ है और जो कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप हैं, ऐसे एकेन्द्रिय जीव को 'प्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म ' एकेन्द्रिय कहते हैं । यहाँ पहले की अपेक्षा दस बातों में भिन्नता है । ये जीव प्रथम समयोत्पन्न हैं, इसलिए इनमें जो बातें सम्भवित नहीं होती, उनका अभाव है । जैसे अवगाहना प्रथम उद्देशक में बादर वनस्पति की बड़ी अवगाहना कही गई थी, किन्तु यहाँ प्रथम समयोत्पन्न होने से अवगाहना अल्प होती है। इसी प्रकार दूसरी भिन्नताएँ भी समझनी चाहिये । ॥ पैंतीसवें शतक के प्रथम अवान्तर शतक का दूसरा उद्देशक संपूर्ण ॥ स अवान्तर शतक १ उद्देशक ३-११ ३७४७ १ प्रश्र - अपढमसमय कडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर - एसो जहा पढमुद्दे सो सोलसहि वि जुम्मेसु तहेव णेयव्वो जाव कलिओगकलिओगत्ताए जाव अनंतखुत्तो ॥ ३५-१-३॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अप्रथम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! प्रथम उद्देशकानुसार इस उद्देशक में भी सोलह महायुग्मों से निरूपण करना यात्रत् कल्योजकल्योज राशि से यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं ।। ३५-१-३॥ १ प्रश्न- चरमसमयकडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया णं भंते ! कभ For Personal & Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४८ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. ३-११ हिंतो उववज्जति ? १ उत्तर-एवं जहेव पढमसमयउद्देसओ। णवरं देवा ण उववज्जति, तेउलेस्सा ण पुच्छिज्जंति, सेसं तहेव ॥३५-१-४॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! चरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आते हैं ? . १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय उद्देशक के अनुसार । किन्तु यहां देव उत्पन्न नहीं होते और तेजोलेश्या विषयक प्रश्न भी नहीं करना चाहिये । शेष पूर्ववत् । ३५-१-४ । १ प्रश्न-अचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-जहा अपढमसमयउद्देसो तहेव गिरवसेसो भाणियव्यो। ॥३५-१-५॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! अप्रथमसमय उद्देशक के अनुसार । ३५-१-५ । १ प्रश्न-पढमपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? १ उत्तर-जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव गिरवसेसं ॥३५-१-६॥ . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथमप्रथम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक, १ उ. ३-११ ३७४९ १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय सम्बन्धी उद्देशक के अनुसार ।३५-१-६। १ प्रश्न-पढमअपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-जहा पढमसमयउद्देसो तहेव भाणियब्वो॥३५-१-७॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम-अप्रथम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय उद्देशक के अनुसार । ३५-१-७ । १ प्रश्न-पढमचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? , १ उत्तर-जहा चरमुद्देसओ तहेव णिरवसेसं ॥ ३५-१-८॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम-चरम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चरम उद्देशक के अनुसार । ३५-१-८ । १ प्रश्न-पढमअचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिया णं भंते ' कओ उववज्जति' १ उत्तर-जहा बीओ उद्देसओ तहेव गिरवसेसं ॥३५-१-९॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम-अचरम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आते है ? १ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे उद्देशक के अनुसार । ३५-१-९। For Personal & Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५० भगवती सूत्र - श ३५ अवान्तर शतक १ उ. ३--११ १ प्रश्न - चरमचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर - जहा चउत्थो उद्देसओ तहेव णिरवसेसं ॥ ३५-१-१०॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! चरम चरम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! चौथे उद्देशक के अनुसार संपूर्ण । ३५-१-१० । १ प्रश्न - चरम अचरमसमयकडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? १ उत्तर - जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव णिरवसेसं । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ । ३५-१-११ एवं एए एकरस उद्देगा। पढमो तइओ पंचमओ य सरिसगमा, सेसा अट्ट सरिसगमगा । णवरं चउत्थे अट्टमे दसमे य देवाण उववज्जति । तेउलेस्सा णत्थि । || पणतीस मे सए पढमं एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! चरम-अचरम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! प्रथम समय के उद्देशक के अनुसार । ३५-१-११। इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हैं । इनमें से पहला, तीसरा और पांचवां, ये तीन उद्देशक एक समान पाठ वाले हैं, शेष आठ उद्देशक एक समान हैं, किन्तु चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशक में देव का For Personal & Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ ३-११ उपपात और तेजोलेश्या का कथन नहीं करना चाहिये । विवेचन - जिनको उत्पन्न हुए द्वितीयादि समय हो गये हैं और वे संख्या में कृतयुग्मकृतयुग्म हैं, ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को 'अप्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहा गया है । इनका कथन सामान्य एकेंद्रियों के समान है । इसलिये प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया गया है । ३७५१ 'चरमसमय' शब्द से यहाँ एकेंद्रियों का मरण समय विवक्षित है और वह उनके परभव आयु का प्रथम समय जानना चाहिये । उस समय में रहे हुए कृतयुग्मकृतयुग्म राशि केंद्रियों का कथन प्रथम समय के एकेंद्रियोद्देशक के समान है । उसमें जो दस की विशेषता बताई गई है, वह यहां भी जाननी चाहिये, परन्तु विशेषता यह है कि यहां देव उत्पन्न नहीं होते । अतएव इस उद्देशक में तेजोलेश्या का कथन नहीं करना चाहिये । एकेंद्रियों में तेजोलेश्या तभी पाई जाती है, जब उनमें देव उत्पन्न होते हैं। यहां देवों की उत्पत्ति संभव नहीं है, इसलिये तेजोलेश्या वाले एकेंद्रियों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए | जिन एकेंद्रिय जीवों का उपर्युक्त चरम समय नहीं हैं, वे अचरमसमय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेंद्रिय' कहे गये हैं । प्रथम समयोत्पन्न और कृतयुग्मकृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथम समय में वर्तमान ऐसे एकेंद्रिय जीव 'प्रथमप्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय ' कहलाते हैं । सातवें उद्देशक में प्रथम समयोत्पन्न होते हुए भी कृतयुग्मकृतयुग्म राशि का पूर्वभव में अनुभव किया हुआ होने से वे एकेन्द्रिय जीव 'प्रथमअप्रथम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहलाते हैं । यहां एकेंद्रियपने की उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान और पूर्वभव में कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संख्या का अनुभव किया हुआ होने से इन्हें 'अप्रथम समयवर्ती केंद्र' कहा हैं । कृतयुग्मकृतयुग्म संख्या के अनुभव के प्रथम समयवर्ती और चरमसमय अर्थात् मरण समयवर्ती होने से इन्हें 'प्रथम - चरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहा है । इनका कथन आठवें उद्देशक में किया है । कृतयुग्मकृतयुग्म संख्या के अनुभव के प्रथम समय में वर्तमान तथा अचरम समय अर्थात् एकेंद्रियोत्पत्ति के प्रथम समयवर्ती एकेंद्रिय जीवों को 'प्रथम- अचरम समयकृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहा है, क्योंकि इनमें चरमत्व का निषेध है। यदि ऐसा न हो, तो For Personal & Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५२ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक २ दूसरे उद्देशक में कही हुई अवगाहनादि की समानता घटित नहीं हो सकती । अतः नौवें उद्देशक में 'प्रथमअचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियों' का कथन किया है । कृतयुग्मकृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम समय में वर्तमान और चरम समय अर्थात् मरणसमयवर्ती एकेंद्रियों को 'चरमचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहा है। इनका कथन दसवें उद्देशक में किया है। ___कृतयुग्मकृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम अर्थात् अंतिम समय में वर्तमान और अचरमसमय अर्थात् एकेंद्रियोत्पत्ति के प्रथम समयवर्ती एकेंद्रिय जीव 'चरमअचरम समय कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय' कहलाते हैं । इनका कथन ग्यारहवें उद्देशक में किया है। . पहला, तीसरा और पांचवां, इन तीन उद्देशकों का कथन समान है अर्थात् इनमें अवगाहना आदि की विशेषता का कथन नहीं है । शेष आठ उद्देशकों का कथन एक समान है। उनमें अवगाहनादि दस बातों की विशेषता है, किन्तु चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशकों में देवोत्पत्ति और तेजोलेश्या का कथन नहीं करना चाहिये। ॥पैंतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक के ३-११ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ प्रथम अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक २ १ प्रश्न-कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उवधाजति ? १ उत्तर-गोयमा ! उववाओ तहेव, एवं जहा ओहिउद्देसए । णवरं इमं णाणतं-ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? उत्तर-हंता कण्हलेस्सा । For Personal & Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक २ ३७५३ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेंद्रिय जीव कहां से आते हैं ? . १ उत्तर-हे गौतम ! उपपात औधिक उद्देशक के अनुसार । विशेष प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? उत्तर-हां, गौतम ! कृष्णलेश्या वाले हैं। २ प्रश्न-ते णं भंते ! 'कण्हलेसकडजुम्मकडजुम्मएगिंदिय' त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? २ उत्तर-गोयंमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं एवं ठिईए वि । सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो । एवं सोलस वि जुम्मा भाणियव्वा ॥ ३५-२-१॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेंद्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक, इसी प्रकार स्थिति भी । शेष पूर्ववत्, यावत् 'अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं' तक । इस प्रकार सोलह महायुग्मों का कथन करना चाहिये । ३५-२-१। १ प्रश्न-पढम-समय-कण्हलेस्स-कडजुम्मकडजुम्म-एगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-जहा पढमसमयउद्देसओ । णवरं For Personal & Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५४ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक २ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? उत्तर-हंता कण्हलेस्सा, सेसं तं चेव ॥ ३५-२-२॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय के कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्मकृतयुग्म एकेंद्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय के उद्देशक के अनुसार । विशेष मेंप्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? उत्तर-हां, गौतम ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष पूर्ववत् । ३५-२-२। -एवं जहा ओहियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एकारस उद्देसगा भाणियन्वा । पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ठ वि सरिसगमा । णवरं चउत्थ-अट्ठम दसमेसु उववाओ णत्थि देवस्स ॥ ३५-२-११ ॥ . ॥ पणतीसइमे सए बिइयं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ -औधिक शतक के ग्यारह उद्देशक के समान कृष्णलेश्या वाले शतक में भी ग्यारह उद्देशक कहना । पहला, तीसरा और पांचवां, ये तीन उद्देशक एक समान हैं, शेष आठ उद्देशक एक समान हैं। विशेष में चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशकों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती ॥३५-२-११ ॥ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ पैंतीसवें शतक का द्वितीय अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवांतर शतक -एवं गीललेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं, एकारस उद्देसगा तहेव ॥ ३५-३ ॥ ॥ पणतीसइमे सए तइयं पगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-कृष्णलेश्या शतक के समान नीललेश्या के भी ग्यारह उद्देशक हैं। अवांतर शतक ४ -एवं काउलेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं ॥ ३५-४ ॥ ॥ पगतीसहमे सए चउत्थं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं ।। . भावार्थ-कृष्णलेश्या शतक के समान कापोतलेश्या शतक है। अवांतर शतक ५ . १ प्रश्न-भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-जहा ओहियसयं तहेव । णवरं एकारससु वि उद्देसएसु प्रश्न-अह भंते ! सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववण्णपुव्वा ? For Personal & Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५६ भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक ६ उत्तर - गोयमा ! णो इट्टे समट्ठे, सेसं तहेव ॥३५-५ ॥ || पणतीस मे सए पंचमं एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! औधिक शतक के अनुसार । इनके ग्यारह उद्देशकों में प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सर्वप्राण यावत् सर्वसत्त्व भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रियपने पहले उत्पन्न हुए हैं । उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अवांतर शतक ६ १ प्रश्न - कण्हलेस - भवसिद्धिय· कडजुम्म· कडजुम्म एगिंदिया ‍ भंते! कओहिंतो उववज्जंति ? ११ उत्तर - एवं कण्हलेस्सभवसिद्धियए गिदिएहि वि सयं बिइयसय कण्हलेस्ससरिसं भाणियव्वं ॥ ३५-६ ।। ॥ पणतीसहमे सए छ एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आते हैं ?. १ उत्तर - हे गौतम ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के विषय में कृष्णलेश्या के दूसरे शतक के समान यह शतक भी कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवांतर शतक ७ - एवं णीललेस्सभवसिद्धियए गिंदि एहि विसयं । || पणतीस मे सए सत्तमं एगिंदियमहा जुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ - इसी प्रकार नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी है। अवांतर शतक ८ - एवं काउलेस्सभवसिद्धियए गिदिएहि वि तहेव एकारसउद्देसगसंजुत्तं सयं । एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि । चउसुवि ससु सव्वे पाणा जाव उववण्णपुव्वा ? णो इणट्टे समट्टे । || पणतीसइमे सए अट्टमं एगिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ - इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के भी ग्यारह उद्देशक सहित यह शतक है। ये चार शतक भवसिद्धिक जीवों के हैं । इन चारों शतक में 'सर्वप्राण यावत् पहले उत्पन्न हुए हैं ?' इस प्रश्न के उत्तर में 'यह अर्थ समर्थ नहीं है' - जानना चाहिये । अवांतर शतक ९-१२ - जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि विचत्तारि सयाणि लेस्सा संजुत्ताणि भाणियव्वाणि । सव्वे पाणा ० For Personal & Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५८ भगवती सूत्र-श. ३५ अवान्तर शतक ९--१२ तहेव णो इणटे समढे। एवं एयाई बारस एगिदियमहाजुम्मसयाई भवंति। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति * ॥ पणतीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-जिस प्रकार भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के चार शतक कहे, उसी प्रकार अमवसिद्धिक एकेन्द्रिय के भी लेश्या सहित चार शतक कहना चाहिये । 'सर्वप्राण यावत् सर्वसत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं ?' इस प्रश्न के उत्तर में यह अर्थ समर्थ नहीं है'-ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रिय महायुग्म शतक हैं। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ पैंतीसवें शतक के बारह अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ ॥ पैतीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३६ (बेइन्द्रिय महायुग्म शतक) अवान्तर शतक १ उद्देशक १ १ प्रश्न-कडजुम्मकडजुम्मबेइंदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? १ उत्तर-उपवाओ जहा वकंतीए । परिमाणं सोलस वा संखेजा वा उववज्जति असंखेना वा उववज्जति । अवहारो जहा उप्पलुद्देसए । ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसेणं बारस जोयणाई। एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव । णवरं तिण्णि लेस्साओ, देवा ण उववज्जति । सम्मदिट्ठी वा मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी। णाणी वा अण्णाणी वा । णो मण जोगी, वयजोगी वा कायजोगी वा । ___भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि बेइन्द्रिय जीव कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! उपपात प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार । परिमाण-एक समय में सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इनका अपहार उत्पलोद्देशक (ग्यारहवें शतक का पहला उद्देशक) के For Personal & Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६० भगवती सूत्र-श. ३६ अवान्तर शतक १ उ. १ अनुसार । अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कष्ट बारह योजन । शेष वर्णन एकेन्द्रिय महायुग्म राशि के प्रथम उद्देशकवत् । किन्तु यहाँ तीन लेश्याएँ होती हैं। ये देवों से नहीं आते । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यावृष्टि होते हैं, सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते । वे ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनयोगी नहीं होते, किन्तु वचनयोगी और काययोगी होते हैं। २ प्रश्न-ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मबेइंदिया कालओ केवचिरं होइ ? २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेनं कालं । ठिई जहण्णेणं एक्कं समय, उकोसेणं बारस संवच्छराई । आहारो णियमं छदिसिं । तिण्णि समुग्घाया। सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ छत्तीसइमे सए पढमे बेइंदियमहाजुम्मसए पढमो उद्देसओ समत्तो॥ ___ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि बेइन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यात काल तक होते हैं। स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह वर्ष । आहार नियम से छह दिशा का लेते हैं, पहले के तीन समुद्घात होते हैं। शेष पूर्ववत, यावत् वे अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं, तक । इस प्रकार सोलह महायुग्म होते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥छत्तीसवें शतक के प्रथम अवान्तर शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण। For Personal & Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर शतक १ उद्देशक २-११ - १ प्रश्न-पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मवेइंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमयउद्देसए । दस णाणत्ताई ताई चेव दस इह वि। एकारसमं इमं णाणत्तं णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी। सेसं जहा बेइंदियाणं चेव पढमुद्देसए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति । एवं एए वि जहा एगिदियमहाजुम्मेसु एकारस उद्देसगा तहेव भाणियव्वा । णवरं चउत्थ अट्ठम-दसमेसु सम्मत्त-णाणाणि ण भण्णंति । जहेव एगिदिएसु पढमो तहओ पंचमो य एकगमा सेसा अट्ठ एकगमा। ॥ छत्तीसइमे सए पढमं बेइंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ।। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि बेइनिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! एकेन्द्रिय महायुग्मों का प्रथम समय सम्बन्धी उद्देशक के अनुसार । दस बातों को विशेषता यहां भी है । ग्यारहवीं विशेषता यह है कि वे मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, मात्र काययोगी होते हैं। शेष बेइन्द्रिय के प्रथम उद्देशक के अनुसार। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । एकेन्द्रिय महायुग्मों के ग्यारह उद्देशक के समान यहां भी कहना चाहिये, किन्तु चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशकों में सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता । एकेन्द्रिय के समान पहला, तीसरा For Personal & Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६२ भगवती सूत्र-श. ३६ अवान्तर शतक २, ३ और पांचवां, ये तीन उद्देशक एक समान हैं। शेष आठ उद्देशक एक समान हैं। ॥ छत्तीसवें शतक का प्रथम बेइन्द्रिय महायुग्म शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक २ . १ प्रश्न-कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबेइंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं चेव । कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देसगसंजुत्तं सयं । णवरं लेस्सा, संचिट्ठणा, ठिई जहा एगिदियकण्हलेस्साणं । ॥ छत्तीसइमे सए बिइयं बेइंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ - मावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशि बेइन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । कृष्णलेश्या वाले जीवों के ग्यारह उद्देशक सहित शतक जानना चाहिये । विशेष में लेश्या मंचिढाणा (कायस्थिति. काल) स्थिति, कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीवों के समान है। अवान्तर शतक ३ -एवं णीललेस्सेहि वि सयं । ॥ छत्तीसइमे सए तइयं बेइंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी प्रकार नीललेश्या वाले बेइन्द्रिय जीवों का शतक है। For Personal & Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवांतर शतक 8 - एवं काउलेस्सेहि वि । ॥ उत्थं बेईदियं महाजुम्मसयं समत्तं ॥ - इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले बेइन्द्रिय का शतक है । अवांतर शतक ५-८ १ प्रश्न - भवसिद्धिय कडजुम्मकड जुम्मबेइंदिया णं भंते !• ? १ उत्तर - एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमपूर्ण यव्वा । णवरं सव्वे पाणा० ? णो इणट्टे समट्टे । सेसं तहेव ओहियस्याणि चत्तारि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ॥ छत्तीस मे सए अट्टमं बेइंदियमहा जुम्मसयं समत्तं ॥ १ प्रश्न - हे भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि बेइन्द्रिय ० ? १ उत्तर - हे गौतम! पूर्वोक्त पाठ से भवसिद्धिक जीवों के चार शतक जानो । विशेष में प्रश्न - सर्वप्राण भूत- जीव-सत्व यावत् अनन्त बार उत्पत्र हुए ? उत्तर- 'ऐसा नहीं है'। शेष पूर्ववत् । ये चार औधिक शतक हुए । अवांतर शतक ९-१२ - जहा भवसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि For Personal & Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६४ भगवती सूत्र - श. ३६ अवान्तर शतक ९-१२ भाणियव्वाणि । णवरं सम्मत्त - णाणा णि णत्थि सेसं तं चेव । एवं एयाणि बारस बेइंदियमहाजुम्मसयाणि भवंति । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति || बेइंदियमहाजुम्मसयाई समत्तं ॥ ॥ छत्तीसह सयं समत्तं ॥ - जिस प्रकार भवसिद्धिक बेइन्द्रिय जीवों के चार शतक कहे, उसी प्रकार अभवसिद्धिक बेइन्द्रियों के भी चार शतक कहने चाहिये। इनमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता । शेष पूर्ववत् । ये बारह बेइन्द्रिय महायुग्म शतक हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । 1 ॥ छत्तीसवें शतक के बारह अवांतर शतक सम्पूर्ण || ॥ छत्तीसवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३७ । (तेइन्द्रिय महायुग्म) १ प्रश्न-कडजुम्मकडजुम्मतेइंदिया णं भंते ! कओ उववजति ? .:. १ उत्तर-एवं तेइंदिएसु वि बारस सया कायव्वा बेइंदियसयसरिसा । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उको. सेणं तिण्णि गाउयाइं । ठिई जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं एकूणवणं राइंदियाई, सेसं तहेव । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति . ॥ तेइंदियमहाजुम्मसया समत्ता ॥. . ॥ सत्ततीसइमं सयं समत्तं ।। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि तेइन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? .१ उत्तर-हे गौतम ! बेइन्द्रिय शतक के समान ते इन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक हैं । विशेष में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट तीन गाऊ । स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट ४९ रात्रि-दिन की होती है । शेष पूर्ववत् । । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। || सेंतीसवाँ सतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३८ (चौरिंद्रिय महायुग्म शतक) -चरिदिएहि वि एवं चेव बारस सया कायब्वा । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । ठिई जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा । सेसं जहा बेइंदियाणं । ** 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ बरिं दियमहाजुम्मसया समत्ता ॥ ॥ अट्टतीसइमं संयं समत्तं ॥ -इसी प्रकार चौरिन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक कहने चाहिये । विशेष में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गाऊ। स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास । शेष बेइन्द्रियों के समान । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ अड़तीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ HTRAILER - ACIOUND SAN ' For Personal & Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३६ [असंज्ञी पंचेंद्रिय महायुग्म शतक] • १ प्रश्न-कडजुम्मकडजुम्मअसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-जहा बेइंदियाणं तहेव असण्णिसु वि बारस सया कायब्वा । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभार्ग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं । संचिटणा जहण्णेणं एक समयं, उक्को. सेणं पुवकोडीपुहुत्तं । ठिई जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं पुग्धकोडी, सेसं जहा बेइंदियाणं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ॥ असण्णिपंचिंदियमहाजुम्मसया समत्ता ॥ ॥ एग्णयालीसइमं सयं समत्तं ॥ .' भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि असंशी पञ्चेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! बेइन्द्रिय शतक के समान असंजी पञ्चेन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक करना । विशेष में अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन । संचिटणा (काय स्थिति) जघन्य एक समय उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व । स्थिति (भव स्थिति) जघन्य एक समय उत्कष्ट पूर्वकोटि । शेष पूर्ववत् बेहन्द्रिय जीवों के समान है। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ उनचालीसवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४० (संज्ञी महायुग्म शतक) अवांतर शतक १ १ प्रश्न-कडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उवबज्जति ? १ उत्तर-उववाओ चउसु वि गईसु । संखेजवासाउयअसंखेजवासाउयपजत्तअपजत्तएसु य ण कओ वि पडिसेहो जाव 'अणुत्तरविमाण' त्ति । परिमाणं अवहारो ओगाहणा य जहा असण्णिपंचिंदियाणं। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चारों गतियों से आते हैं। संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों से आते हैं। निषेध किसी गति का भी नहीं है, यावत् अनुत्तर विमान पर्यन्त । परिमाण, अपहार और अवगाहना असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के समान । २-वेयणिजवजाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वा, वेयणिज्जस्स बंधगा, णो अबंधगा। मोहणिजस्स वेयगा वा अवेयगा वा, सेसाणं सत्तण्ह विवेयगा, णो अवेयगा। सायावेयगा वा असाया For Personal & Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक ? ३७६९ वेयगा वा । मोहणिजस्म उदयी वा अणुदयी वा, मेसाणं सत्तण्ह वि उदयी, णो अणुदयी । णामस्स गोयस्स य उदीरगा, णो अणुदीरगा, सेसाणं छह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुकलेस्सा वा। सम्मदिट्ठी वा, मिच्छादिट्ठी वा, सम्मामिच्छादिट्ठी वा। णाणी वा अण्णाणी वा, मणजोगी, वय जोगी, कायजोगी। उपओगो, वण्णमाई, उस्सासगा वा णीसासगा वा, आहारगा य जहा एगिदियाणं, विरया य अविरया य विरयाविरया य । सकिरिया, णो अकिरिया। . भावार्थ-२-वे जीव वेदनीय के अतिरिक्त सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक अथवा अबन्धक होते हैं। वेदनीय के तो बन्धक ही होते हैं, अबन्धक नहीं होते। मोहनीय कर्म के वेदक अथवा अवेदक होते हैं। शेष सात कर्म-प्रकतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं होते। वे साता वेदक अथवा असाता वेदक होते हैं। मोहनीय कर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं, शेष सात कर्म-प्रकृतियों के उदयी होते हैं, अनुदयी नहीं। नाम और गोत्र कर्म के उदीरक होते हैं, अनुदोरक नहीं । शेष छह कर्म-प्रकृतियों के उदीरक अथवा अनुदीरक होते हैं। वे कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यगमिथ्यावृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि, उच्छ्वासक, निःश्वासक और आहारक का कथन एकेन्द्रियों के समान है । वे विरत, अविरत और विरताविरत होते हैं। वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते। ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अट्टविह For Personal & Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ४० अवान्तर शतक १ बंगा वा छविबंधगा वा एगविहबंधगा बा ? ३ उत्तर - गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे जीव सप्तविध कर्म बन्धक, अष्टविद्य कर्मबन्धक, षविध कर्म बन्धक या एकविध कर्म-बन्धक होते हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! वे सप्तविध कर्म-बन्धक यावत् एकविध कर्मबन्धक होते हैं । ३७७० ४ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वा णोसण्णोवउत्ता वा ? सव्वत्थ पुच्छा भाणि - यव्वा । ४ उत्तर - गोयमा ! आहारसण्णोवउत्ता जाव णोसण्णोवउत्ता वा । कोहकसायी वा जाव लोभकसायी वा अकसायी वा । इत्थीवेयगा वा पुरिसवेयगा वा पुंसगवेयगा वा अवेयगा वा । इत्थवेयबंधना वा पुरिसवेयबंधगा वा णपुंसगवेयबंधगा वा अबंधगा वा । सण्णी, णो असण्णी । सइंदिया, जो अनिंदिया। संचिट्टणा जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । आहारो तहेव जाव णियमं छद्दिसिं । ठिई जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । छ समुग्धाया आदिलगा । मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया चिमरंति, असमोहया वि मरंति । उव्वट्टणा जहेव उववाओ, ण कत्थइ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति । 9 For Personal & Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ४० अवान्तर शतक १ ३७७१ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन ! वे जीव आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त या नोसंजोपयुक्त होते हैं ? इस प्रकार सर्वत्र प्रश्न करना चाहिये । ४ उत्तर-हे गौतम ! वे आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं। वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी अथवा अकषायो होते हैं । वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक अथवा अवेदक होते हैं। वे स्त्रीवेद बन्धक, पुरुषवेदबन्धक, नपुंसकवेद-बन्धक या अबन्धक होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं । वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते । इनकी संचिटणा (संस्थिति काल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम शतपृथक्त्व होती है । आहार के विषय में पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का आहार होता है । स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम होती हैं। प्रथम के छह समुदघात होते हैं। मारणांतिक समुद्घात से समवहत हो कर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं । उद्वर्तना का कथन उपपात के समान है, कहीं भी निषेप नहीं, यावत् अनुत्तर विमान तक । ५-अह भंते ! सव्वपाणा जाव अणंतखुत्तो । एवं सोलसु घि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव अणंतखुत्तो । णवरं परिमाणं जहा बेइंदि. याणं, सेसं तहेव ॥ ४०-१॥ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी प्राण, भूत, सत्व, यहां यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सोलह युग्मों में यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। परिमाण बेइन्द्रियों के समान । शेष पूर्ववत् । ४०-१। ६ प्रश्न-पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजति ? For Personal & Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७२ भगवती मूत्र-श ४० अवान्तर शतक १ ६ प्रश्न-उववाओ, परिमाणं आहारो जहा एएसिं चेव पढमो. देसए । ओगाहणा बंधो वेयो वेयणा उदयी उदीरगा य जहा बेइंदियाणं पढमसमयाणं, तहेव कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा । सेस जहा बेइंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अणंतखुत्तो। णवरं इत्थिवेयगा वा पुरिसवेयगा वा णपुंसगवेयगा वा, सण्णिणो णो असणिणो, सेसं तहेव । एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सव्वं ॥ ४०-२॥ . -एवं एत्थ वि एकारस उद्देसगा तहेव, पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमा, सेसा अट्ठ वि सरिसगमा । चउत्थ-अट्ठम-दसमेसु णत्थि विसेसो कायवो। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति .* ॥ चत्तालीसइमे सए पढमं सणिपंत्रिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ ___ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय के कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञो पञ्चेन्द्रिय जीव कहाँ से आते हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! उपपात, परिमाण और आहार प्रथम उद्देशक के अनुसार । प्रथम समय के बेइन्द्रिय जीवों के समान अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदयो, उदीरक जानना चाहिए । कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी भी उसी प्रकार । शेष प्रथम समयोत्पन्न बेइन्द्रिय के समान यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। वे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी होते हैं । संज्ञो और असंज्ञी इत्यादि पूर्ववत् । इसी प्रकार सोलह युग्मों में जानना चाहिये । परिमाण आदि वक्तव्यता पूर्ववत् । ४०-२। For Personal & Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ४० अवांतर शतक ? ३७७३ यहां भी ग्यारह उद्देशक है । पहला, तीसरा और पांचवां उद्देशक एक समान हैं और शेष आठ उद्देशक एक समान हैं तथा चौथा, आठवां और दसवां, इन तीन उद्देशकों में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है। __'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-उपशांत मोहादि जीव वेदनीय के अतिरिक्त सात कर्मों के अबन्धक होते हैं। शेष जीव यथासम्भव बन्धक होते हैं । केवली अवस्था से पहले सभी संजी जीव संजी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं और वहां तक वे अवश्य वेदनीय कर्म के बन्धक ही होते हैं अबन्धक नहीं होते । इनमें से सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान तक मंत्री पञ्चेन्द्रिय मोहनीय कर्म के वेदक होते हैं और उपशांत मोहादि जीव अवेदक होते हैं । उपशांत मोहादि जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होते हैं, वे मोहनीय के अतिरिक्त सात कर्म-प्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं होते। यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्म-प्रकृतियों के वेदक होते हैं. परन्तु वे इन्द्रियों के उपयोग रहित होने से पंचेन्द्रिय और संज्ञी नहीं कहलाते, अनिन्द्रिय और नोसंज्ञीनोअसंज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्म-सम्पराय गणस्थान तक मोहनीय कर्म के उदय वाले होते हैं और उपांत मोहादि अनुदय वाले होते हैं । वेदकपन और उदय, इन दोनों में यह अन्तर है कि अनुक्रम से और उदीरणाकरण के द्वारा उदय में आये हुए (फलोन्मुख बने हुए) कर्म का अनुभव करना वेदकत्व है और अनुक्रम से उदय में आये हुए कर्म का अनुभव करना उदय कहलाता है। - अकषाय अर्थात् क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी संजी पंचेन्द्रिय नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं । शेष छह कर्म-प्रकृतियों के यथासम्भवं उदीरक और अनुदीरक होते हैं । उदीरणा का क्रम इस प्रकार हैं-छठे प्रमत्त गुणस्थान तक सामान्य रूप से सभी जीव आठ, सात या छह कर्म के उदीरक होते हैं और जब आयु आवलिका मात्र शेष रह जाता है, तब वे आयु के अतिरिक्त सात कर्मों के उदीरक होते हैं । अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानवी जीव वेदनीय और आयु के अतिरिक्त छह कर्मों के उदीरक होते हैं । जब सूक्ष्मसम्पराय आवलिका मात्र शेष रहता है, तब मोहनीय, वेदनीय और आयु के अतिरिक्त पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। उपशांत मोह गुणस्थानवी जीव इन्हीं पांच कर्मों के उदीरक होते हैं । क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीव का काल आवलिका मात्र शेष होता है, तब नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं । सयोगी गुणस्थानवी जीव भी इसी प्रकार उदीरक होते हैं और अयोगी गुणस्थानवी जीव अनुदीरक होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७४ भगवती सूत्र-श. ४० अवांतर शतक २ कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थिति काल जघन्य एक समय है, क्योंकि समय के बाद संख्यान्तर होने का संभव है और उत्कृष्ट सातिरेक • सागरोपम शत-पृथक्त्व है, क्योंकि इसके बाद वे संज्ञा पंचेन्द्रिय नहीं होते । संज्ञी पंचेन्द्रियों में पहले के छह समुद्घात होते हैं । सातवां केवली-समुद्घात तो केवलज्ञानियों में होता है और वे अनिन्द्रिय होते हैं । ॥ चालीसवें शतक का पहला अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक २ १ प्रश्न-कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उपवनंति ? १ उत्तर-तहेव जहा पढमुद्देसओ सण्णीणं । णवरं बंधो वेओ उदयी उदीरणा लेस्सा बंधग-सण्णा कसाय वेयबंधगा य एयाणि जहा बेइंदियाणं । कण्हलेस्साणं वेओ तिविहो, अवेयगा णत्थि । संचिट्ठणा जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्त. मन्भहियाई । एवं ठिईए वि । णवरं ठिईए अंतोमुहुत्तमब्भहियाई ण भण्णंति । सेसं जहा एएसिं चेव पढमे उद्देसए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मसु । 'सेवं भंते । ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संशी पचेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! संज्ञी के प्रथम उद्देशक के अनुसार । विशेष में For Personal & Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शश. ४. अवान्तर शतक २ बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेद-बन्धक, इन सभी का कथन बेइन्द्रिय के समान । कृष्णलेशी संज्ञी के तीनों वेद होते हैं, अवेदक नहीं होते । संचिटणा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और स्थिति भी इसी प्रकार । स्थिति में अन्तर्मुहर्त अधिक नहीं कहना चाहिये । शेष प्रथम उद्देशक के अनसार यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार सोलह युग्म में जानना चाहिये । ४०-२-१ । २ प्रश्न-पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? २ उत्तर-जहा सण्णिपंचिंदियपढमसमयउद्देसए तहेव गिरवसेसं । णवरं-- प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? उत्तर-हंता कण्हलेस्सा, सेसं तं चेव। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' तिएवं एए वि एकारस वि उद्देसगा कण्हलेस्ससए । पढम तइय-पंचमा सरिसगमा, सेसा अट्ठ वि एक्कगमा । ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति • ॥ चत्तालीसइमे सए बिइयं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय के कृष्णलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञो पञ्चेन्द्रिय जीव कहां से भाते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय के संज्ञी पञ्चेन्द्रियों के उद्देशक के अनुसार । विशेष में For Personal & Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७६ भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? उत्तर-हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष पूर्ववत् । इस प्रकार सोलह युग्म जानों। ४०-२-२। ___ इस प्रकार कृष्णलेश्या शतक में ग्यारह उद्देशक हैं। पहला, तीसरा और पांचवा, ये तीन उद्देशक एक समान हैं और शेष आठ उद्देशक एफ समान हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--यहाँ कृष्णलेश्या का संचिढणा-काल सातवीं नरक पृथ्वी के नैरयिक की उत्कृष्ट स्थिति और पूर्वभव के अन्तिम परिणाम की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त मिला कर, अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम होता है । ॥ चालीसवें शतक का दूसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ३ . -एवं गोललेस्सेसु वि सयं । णवरं संचिटणा जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोप्सेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजहभाग. मन्महियाइं । एवं ठिईए । एवं तिसु उद्देसएसु, सेसं तं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ॥ चत्तालीसहमे सए तइयं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-नीललेश्या वाले जीवों के भी इसी प्रकार । विशेष में-संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक बस सागरोपम। स्थिति भी इसी प्रकार समझना चाहिये। इसी प्रकार पहले, तीसरे For Personal & Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श. ४. अवान्तर या ४ और पांचवें, इन तीन उद्दशकों के विषय में भी जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् । विवेचन--पाँचवी नरक पृथ्वी के ऊपर के प्रतर में पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का उत्कृष्ट आयु है और वहाँ तक नील-लेश्या है । यहाँ पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहर्त का पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही समावेश कर दिया है । इस कारण उस अन्तर्मुहूर्त का पृथक् कथन नहीं किया है । ॥ चालीसवें शतक का तीसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक 8 -एवं काउलेस्ससयं पि। णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एवक समयं, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजहभागमभहियाई । एवं टिईए वि, एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति के ..॥ चत्तालीसइमे सए चउत्थं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी प्रकार कापोत-लेश्या के विषय में भी शतक है । विशेष में-संचिटणा काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम । स्थिति भी इसी प्रकार तथा इसी प्रकार तीनों उद्देशक जानो । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन--तीसरी नरक पृथ्वी के ऊपर के प्रतर में रहने वाले नरयिक की स्थिति पल्पोपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम की है और वहीं तक कापोत-लेश्या For Personal & Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७८ भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक ५ है । इसलिये यह पूर्वोक्त स्थिति घटित हो सकती है। ॥ चालीसवें शतक का चौथा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ५ -एवं तेउलेस्सेसु वि संयं । णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजहभागमभहियाई । एवं ठिईए वि । णवरं णोसण्णोवउत्ता वा । एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव। . * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति। * ॥ चत्तालीसहमे सए पंचमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-तेजोलेश्या में भी इसी प्रकार शतक हैं। विशेष में-संचिटणा काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम है । स्थिति भी इसी प्रकार, किन्तु यहां नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इस प्रकार तीनों उद्देशकों में भी समझना चाहिये । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-यहाँ तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति कही है, वह ईशान देवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा है। ॥ चालीसवें शतक का पांचवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवांतर शतक ६ . -जहा तेउलेस्सासयं तहा पम्हलेस्सासयं पि । णवरं संचिटणा जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाइं । एवं ठिईए वि। वरं अंतोमुहत्तं ण भण्णह, सेसं तं चेव । एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेस्सासए गमओ तहा णेयव्वो जाव अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते। . ॥ चत्तालीसइमे सए छटुं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-तेजोलेश्या शतक के समान पदमलेश्या का शतक है। संचिटणा काल जघन्यं एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है । स्थिति भी इतनी ही है। इसमें अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार इन पांच शतकों में, कृष्णलेश्या शतक के समान गमक जानना चाहिये, यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। विवेचन--पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति, ब्रह्मदेवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा पूर्व मव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त सहित दस सागरोपम कही है। ॥ चालीसवें शतक का छट्टा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ७ -सुकलेस्ससयं जहा ओहियसयं । णवरं संचिट्ठणा ठिई य जहा कण्हलेस्ससए, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते । ॥ चत्तालीसहमे सए सत्तमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ For Personal & Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ४० अवान्तर शतक ८ भावार्थ- शुक्ललेश्या शतक भी औधिक शतक के समान है । संचिट्ठणा काल और स्थिति कृष्णलेश्या शतक के समान । शेष पूर्ववत्, यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। विवेचन - शुक्ललेश्या की स्थिति पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त सहित अनुत्तर देवों की उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति की अपेक्षा जाननी चाहिये । ॥ चालीसवें शतक का सातवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ ३७८० अवान्तर शतक ८ १ प्रश्न - भवसिद्धियकाडजुम्मकडजुम्मसष्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? १ उत्तर - जहा पढमं सणितयं तहा यव्वं भवसिद्धियाभिलावेणं । णवरं - प्रश्न - सव्वपाणा० ? उत्तर - णो इट्ठे समट्ठे, सेसं तहेव । सेवं भंते! ० । ॥ चत्तालीसहमे सए अट्टमं सष्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कृतयुग्मकृतयुग्म राशि भवतिद्धिक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तरर - हे गौतम! प्रथम संज्ञी शतक के अनुसार मवसिद्धिक के आलापक से यह शतक जानना चाहिये । विशेष में प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सभी प्राण भूत जीव-सत्त्व यहां पहले उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । शेष पूर्ववत् । ॥ चालीसवें शतक का आठवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर शतक ९ १ प्रश्न-कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! को उववज्जति ? १ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्ससयं । ॥ चत्तालीसइमे सए णवमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञो पञ्चेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णलेश्या वाले औधिक शतक के अनुसार । ॥ चालीसवें शतक का नौवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक १० -एवं णीललेस्सभवसिद्धिए वि सयं । 'सेवं भंते !० ॥ चत्तालीसहमे सए दसमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-नोललेश्या वाले भवसिद्धिक शतक भी इसी प्रकार है । ॥ चालीसवें शतक का दसवाँ अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ११-१४ -एवं जहा ओहियाणि सण्णिपंचिंदियाणं सत्त सयाणि For Personal & Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८२ . भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक १५ । भणियाणि, एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायव्वाणि । णवरं सत्तसु वि सएसु सव्वपाणा जाव णो इणटे समटे, सेसं तं चेव । ॥ चत्तालीसइमे सए चोदसंमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के सात औधिक शतक कहे हैं, उसी प्रकार भवसिद्धिक जीवों के भी कहने चाहिये । सातों शतक में 'सर्व प्राण यावत् उत्पन्न हुए है ? उत्तर-'यह अर्थ समर्थ नहीं है । शेष पूर्ववत् । ॥ चालीसवें शतक के ११-१४ अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवान्तर शतक १५ १ प्रश्न-अभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसणिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उक्वज्जति ? १ उत्तर-उववाओ तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो । परिमाणं, अवहारो, उच्चत्तं, बंधो, वेदो, वेदणं, उदओ, उदीरणा य जहा कण्हलेस्समए । कण्हलेस्सा वा जाव सुकलेस्सा वा । णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी। णो णाणी, अण्णाणी-एवं जहा कण्हलेस्ससए । णवरं णो विरया, अविरया, णो विरयाविरया। संचिटणा ठिई य जहा ओहिउद्देसए । समुग्धाया आदिल्लगा पंच । उवट्टणा तहेव अणुत्तर विमाणवज्जं । सव्वपाणा० जाव णो इण? For Personal & Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ४० अवांतर शतक १५ समडे, सेसं जहा कण्हलेएससए जाव अनंतखुत्तो । एवं सोलससु 4:5 विजुम्मेसु | 'सेवं भंते • ३७८३ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! अनुत्तर विमानों को छोड़ कर शेष सभी स्थान से । परिमाण, अपहार, ऊँचाई, बन्ध, वेद, वेदन, उदय और उदीरणा कृष्णलेश्या शतक के समान हैं। वे कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होते हैं । वे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मध्यादृष्टि नहीं होते, मात्र मिथ्यादृष्टि हैं । ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं । सब कृष्णलेशी शतक के अनुसार विशेष में वे विरत और विरताविरत नहीं होते, अविरत होते हैं । संचिट्ठा काल और स्थिति औधिक उद्देशक के अनुसार । प्रथम के पांच समुद्घात होते हैं । उद्वर्तना अनुत्तर विमानों के अतिरिक्त पूर्ववत् - जाननी चाहिये । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सभी प्राण यावत् सत्त्व पहले यहां उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं। शेष कृष्णलेश्या शतक के अनुसार, यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए है' पर्यन्त । इस प्रकार सोलह युग्म जानना चाहिये । २ प्रश्न - पढमसमयअभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते! कओ उववज्जंति ? २ उत्तर - जहा सण्णीर्ण पढमसमयउद्देसए तहेव । णघरं सम्मतं, सम्मामिच्छत्तं, णाणं च सव्वत्थ णत्थि, सेसं तहेव | 'सेवं भंते ! सेवं भंते! ति । एवं एत्थ वि एकारस उद्देसगा कायव्वा पढम-तइयपंचमा एकगमा, सेसा अटू वि एकगमा । ' सेवं भंते ! सेवं भंते !' For Personal & Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८४ भगवती-सूत्र-श. ४० अवांतर शतक १६ त्ति । अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं समत्तं । ॥ चत्तालीसइमे सए पण्णरसमं सण्णिपंचिंदियमहाजुम्मसयं समत्तं ।। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन ! प्रथम समय के अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञी पंचेंद्रिय जीव कहां से आते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय के संज्ञी उद्देशक के अनुसार, किन्तु सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और ज्ञान सर्वत्र नहीं होता। शेष पूर्ववत् । यहां भी ग्यारह उद्देशक है । इनमें से पहला, तीसरा और पांचवां, ये तीन उद्देशक एक समान हैं और शेष आठ उद्देशक एक समान हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ चालीसवें शतक का पन्द्रहवां अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक १६ १ प्रश्न-कण्हलेस्सअभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववजति ? १ उत्तर-जहा एएसिं चेव ओहियसयं तहा कण्हलेस्ससयं पि । णवरं प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? उत्तर-हंता कण्हलेस्सा । ठिई, संचिट्ठणा य जहा कण्हलेस्सासए सेसं तं चेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति। बिइयं अभवसिद्धिय For Personal & Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४० अवांतर शतक १७-२१ ३७८५ महाजुम्मसयं । ॥ चत्तालीसइमे संए सोलसमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञी पंचेंद्रिय जीव कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! औधिक शतक के अनुसार कृष्णलेश्या शतक भी जानो । विशेष में प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? उत्तर-हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। इनकी स्थिति और संचिटणा काल कृष्णलेश्या शतक के अनुसार । शेष पूर्ववत् । ॥ चालीसवें शतक का सोलहवां अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक १७-२१ : -एवं छहि वि लेस्साहिँ छ सया कायया जहा कण्हलेस्ससयं । णवरं संचिट्ठणा ठिई य जहेव ओहियसए तहेव भाणियव्वा । णवरं सुकलेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तममहियाई । ठिई एवं चेव । णवरं अंतोमुहत्तं णत्थि जहण्णगं, तहेव सव्वत्थ सम्मत्तणाणाणि णस्थि । विरई विरयाविरई अणुत्तरविमाणोववत्ति-एयाणि णत्थि । सव्वपाणा० (जाव) णो इणटे समटे । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति । एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धियमहाजुम्मसया भवंति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति । एवं एयाणि एकवीसं सण्णिमहाजुम्म For Personal & Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३७८६ भगवती सूत्र-श. ४० अवांतर शतक १७-२१ सयाणि । सव्वाणि वि एकासीइमहाजुम्मसयाई समत्ताई। ॥ चत्तालीसइमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ -जिस प्रकार कृष्णलेश्या का शतक कहा, उसी प्रकार छहों लेश्या के छह शतक कहना चाहिये । संचिटणा काल और स्थिति का कथन औधिक शतक के अनुसार कहना चाहिये । किंतु शुक्ललेश्या का उत्कृष्ट संचिटणा काल अन्तमुहर्त अधिक इकत्तीस सागरोपम होता है और स्थिति. पूर्वोक्त ही होती है, किंतु जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहनी चाहिये । सर्वत्र सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता । विरति, विरताविरति और अनुत्तर विमानोत्पत्ति भी नहीं होती। प्रश्न-हे भगवन ! सभी जीव यायत् सत्त्व यहां पहले उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इस प्रकार ये सात अभवसिद्धिक महायुग्म शतक हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । इस प्रकार इक्कीस संजी पंचेन्द्रिय महायुग्म शतक कहे हैं। सभी मिला कर ८१ महायुग्म शतक सम्पूर्ण हुए। विवेचन-अभव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय की शुक्ललेश्या की स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक इकतीस सागरोपम कही है। वह पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहुर्त सहित नौवें ग्रेवेयक की इकत्तीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा जाननी चाहिये । अभव्य जीव उत्कृष्ट नौवें अवेयक तक उत्पन्न होते हैं और वहां शुक्ललेश्या होती है। एकेंद्रिय. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, इन पांच के प्रत्येक के बारह-बारह महायुग्म शतक हैं । संजी पंचेन्द्रिय के इक्कीस महायुग्म शतक हैं । इस प्रकार सभी मिला कर ये ८१ महायुग्मं शतक हुए। ॥ चालीसवें शतक के १७-२१ अवांतर शतक सम्पूर्ण ॥ ॥ चालीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४१ ( राशि-युग्म शतक) उद्देशक १ १ प्रश्न - क णं भंते ! रासीजम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि रासीजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - कडजुम्मे जाव कलिओगे । प्रश्न-से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ - ' चत्तारि रासीजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - जाव कलिओगे' ? उत्तर - गोयमा ! जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सेत्तं रासीजुम्मकडजुम्मे, एवं जाव जे णं रासी चक्कएवं अवहारेणं एगपज्जवसिए सेत्तं रासीजुम्मकलिओगे, से तेणट्टेणं जाव कलिओगे । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! राशि-युग्म कितने कहे हैं ? For Personal & Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८८ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. १ १ उत्तर-हे गौतम ! राशि-युग्म चार कहे हैं । यथा-कृतयुग्म, व्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज । प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा कि राशि-युग्म चार कहे हैं । यथाकृतयुग्म यावत् कल्योज ? उत्तर-हे गौतम ! जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहें, उस राशि-युग्म को 'कृतयुग्म' कहते हैं, यावत् जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में एक शेष रहे, उस राशि युग्म को 'कल्योज' कहते हैं । इस कारण हे गौतम ! यावत् कल्योज कहलाता है। २ प्रश्न-रासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववनंति ? २ उत्तर-उववाओ जहा वकंतीए । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्म राशि नैरयिक कहां से आते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! उपपात प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार। ३ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववनंति ? ३ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि वा अट्ठ वा बारस वा सोलस वा संखेजा वा असंखेज्जा वा उववजंति । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? ३ उत्तर-हे गौतम ! चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ४ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं संतरं उववजंति, णिरंतर उववज्जति ? For Personal & Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ १ ३७८९ ४ उत्तर-गोयमा ! संतरं पि उववजति, णिरंतरं पि उववजति । संतरं उववजमाणा जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेजा समया अंतरं कटु उववज्जति । णिरंतरं उववजमाणा जहण्णेणं दो समया, उक्कोसेणं असंखेना समया अणुसमयं अविरहियं णिरंतरं उववज्जंति। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं, या निरन्तर? ४ उत्तर-हे गौतम ! वे सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। यदि सान्तर उत्पन्न होते हैं, तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय का अन्तर कर के उत्पन्न होते हैं। निरन्तर उत्पन्न होते हुए जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक निरन्तर अनुसमय अविरहित उत्पन्न होते हैं । . ५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेओगा, जं समयं तेओगा तं समयं कडजुम्मा ? ... ५ उत्तर-णो इणटे समटे । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव जिस समय कृतयुग्म राशि होते हैं, उसी समय व्योज राशि होते हैं और जिस समय व्योज राशि होते हैं, उसी समय कृतयुग्म राशि होते हैं। ५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ६ प्रश्न-जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? ६ उत्तर-णो इणटे समढे। For Personal & Private Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९० भगवती सूत्र - श. ४१ उ. १ भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस समय वे कृतयुग्म होते हैं, उस समय द्वापरयुग्म होते हैं और जिस समय द्वापरयुग्म होते हैं, उस समय कृतयुग्म होते हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ७ प्रश्न - जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा, जं समयं कलिओगा तं समयं कडजुम्मा ? ७ उत्तर - णो इणट्टे समट्ठे । भावार्थ-७ प्रश्न- हे भगवन् ! जिस समय कृतयुग्म राशि होते हैं, उस समय कल्योज राशि होते हैं और जिस समय कल्योज राशि होते हैं, उस समय कृतयुग्म राशि होते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ८ प्रश्न- ते णं भंते ! जीवा कहिं उववज्जंति ? ८ उत्तर - गोयमा ! से जहा णामए पवए पवमाणे - एवं जहा उववायसर जाव णो परप्पओगेणं उववज्र्जति' । भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम ! जैसे कोई कूबने वाला इत्यादि इकत्तीसवें शतक के प्रथम उपपात उद्देशक के अनुसार, यावत् वे आत्म-प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर प्रयोग से नहीं । ९ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं आयजसेणं उववज्जंति, आयअजसेणं उववज्जंति ? For Personal & Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. १ ९ उत्तर-गोयमा ! णो आयजसेणं उववजंति, आयअजसेणं उववजंति । कठिन शब्दार्थ-आयजसेणं-आत्म-यश से-अपने संयम से । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव आत्म-यश (आत्म संयम) से उत्पन्न होते हैं अथवा आत्म-अयश (आत्म-असंयम) से उत्पन्न होते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! वे आत्म-यश से उत्पन्न नहीं होते, आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं। १० प्रश्न-जइ आयअजसेणं उपवजंति किं आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति ? १० उत्तर-गोयमा ! णो आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं, तो आत्म-यश से जीवन चलाते हैं अथवा आत्म-अयश से जीवन-निर्वाह करते हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे आत्म-यश से जीवन-निर्वाह नहीं करते, परन्तु आत्म-अयश से करते हैं। ११ प्रश्न-जह आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा, अलेस्सा ? ११ उत्तर-गोयमा ! सलेस्सा, णो अलेस्सा। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे आत्म-अयश से जीवन-निर्वाह करते हैं, तो वे सलेशी होते हैं अथवा अलेशी ? For Personal & Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९२ भगवती सूत्र-श. ४१. उ.१ ११ उत्तर-हे गौतम ! वे सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते। १२ प्रश्न-जह सलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? १२ उत्तर-गोयमा ! सकिरिया, णो अकिरिया । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सलेशी होते हैं, तो सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते। १३ प्रश्र-जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिम्झंति जाव अंतं करेंति ? १३ उत्तर-णो इणटे समटे । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सक्रिय होते हैं, तो उसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सभी कर्मों का अन्त करते हैं ? ____ १३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। १४ प्रश्न-रासीजुम्मकडजुम्मअसुरकुमारा णं भंते ! कओ उव. वज्जति ? .१४ उत्तर-जहेव णेरडया तहेव गिरवसेसं, एवं जाव पंचिंदियः तिरिक्खजोणिया । णवरं वणस्सइकाइया जाव असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं एवं चेव । मण्णुस्सा वि एवं चेव जाव ‘णो आयजसेणं उववजंति, आयअजसेणं उववनंति'। भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्म राशि असुरकुमार कहाँ से आते हैं? For Personal & Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ४१ उ. १ १४ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक के समान असुर कुमार भी जानो। इसी प्रकार यावत् पंचेंद्रिय तिर्यच-योनिक पर्यन्त, परन्तु वनस्पतिकायिक असंख्यात अथवा अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी, यावत् वे आत्म-यश से उत्पन्न नहीं होते, आत्म-अयश से होते हैं। १५ प्रश्न-जइ आयअजसेणं उववजंति, किं आयजसं उवजीवंति, आयअजसं उवजीवंति ? १५ उत्तर-गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आयअजसं पि उवजीवंति। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं, तो आत्मयश से जीवन चलाते हैं अथवा आत्म-अयश से ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे आत्म-यश से जीवन चलाते हैं और आत्मअयश से भी। १६ प्रश्न-जइ आयजसं उवजीवंति किं सलेस्सा, अलेस्सा ? १६ उत्तर-गोयमा ! सलेस्सा वि अलेस्सा वि । - भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे आत्म-यशपूर्वक जीवन चलाते हैं, तो वे सलेशी होते हैं अथवा अलेशी ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वे सलेशी भी होते हैं और अलेशी भी। १७ प्रश्न-जइ अलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? १७ उत्तर-गोयमा ! णो संकिरिया, अकिरिया । For Personal & Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९४ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. १ भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे अलेशी होते हैं, तो सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय ? १७ उत्तर-हे गौतम ! वे सक्रिय नहीं होते, अक्रिय होते हैं। . १८ प्रश्न-जइ अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? १८ उत्तर-हंता सिझंति जाव अंतं करेंति । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे अक्रिय होते हैं, तो उसी भव से सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? १८ उत्तर-हां, गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। १९ प्रश्न-जह सलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? १९ उत्तर-गोयमा ! सकिरिया, णो अकिरिया । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सलेशी होते हैं, तो सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय ? १९ उत्तर-हे गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते। २० प्रश्न-जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? २० उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया णो तेणेव भवग्गणेणं सिझति जाव अंतं करेंति ? For Personal & Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ४१ उ. १ ३७९५ भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सक्रिय होते हैं, तो उसी भव में सिद्ध होते हैं, यावत सभी दुःखों का अन्त करते हैं ? । २० उत्तर-हे गौतम ! कितने ही उसी भव में सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं और कितने ही उसी भव में सिद्ध नहीं होते, यावत् सभी दुःखों का अन्त नहीं करते। २१ प्रश्न-जइ आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा, अलेस्सा ? २१ उत्तर-गोयमा ! सलेस्सा, णो अलेस्सा ? भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे आत्म-अयश जीवन वाले हैं, तो सलंशी होते हैं या अलेशी ? २१ उत्तर-हे गौतम ! वे सलेशी होते हैं, अलेशी नहीं होते। २२ प्रश्न-जह सलेस्सा किं सकिरिया, अकिरिया ? २२ उत्तर-गोयमा ! सकिरिया, णो अकिरिया । भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे सलेशी होते हैं, तो सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय ? २२ उत्तर-हे गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते। २३ प्रश्न-जह सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? २३ उत्तर-णो इणढे समटे । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा णेरइया । For Personal & Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. २ __* 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ इक्कचत्तालीसइमे रासीजुम्मसए पढमो उद्देसओ समत्तो। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन ! यदि वे सक्रिय होते हैं, तो उसी मव ' में सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं ? २३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव का कथन नरयिक के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गोतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन-युग्मशब्द, युगलवाचक भी है । अतः उसके साथ 'राशि' विशेषण लगाया गया है । जो राशि-युग्म हो और कृतयुग्म परिमाण हो, उन्हें राशि-युग्म कृतयुग्म कहते हैं । यश का हेतु 'संयम' है । इसलिये यहां कारण में कार्य का उपचार कर के संयम को 'यश' शब्द से कहा है । समी जीवों की उत्पत्ति आत्म-अयश अर्थात् आत्म-असंयम से ही होती है. क्योंकि उत्पत्ति में सभी जीव अविरत होते हैं । ॥ इकतालीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ४१ उद्देशक २ १ प्रश्न-रासीजुम्मतेओयणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं चेव उद्देसओ भाणियन्यो । णवरं परिमाणं तिण्णि वा सत्त वा एक्कारस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेजा वा For Personal & Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. २ ३७९७ उववज्जति । संतरं तहेव । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में त्र्योज राशि नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् उद्देशक कहना चाहिये । परिमाण-तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। सान्तर पूर्ववत् । २ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा जं समयं तेओगा तं समयं कड. जुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेओगा ? २ उत्तर-णो इणटे समटे । भावार्थ-२ प्रश्म-हे भगवन् ! वे जीव जिस समय व्योज राशि होते हैं, उस समय वे कृतयुग्म राशि होते हैं और जिस समय कृतयुग्म राशि होते हैं, उस समय वे व्योज राशि होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ३ प्रश्न-जं समयं तेओगा, तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेओगा ? ३ उत्तर-णो इणढे समटे । एवं कलिओगेण वि समं, सेसं तं चेव जाव वेमाणिया । णवरं उववाओ सम्वेसि जहा वकंतीए । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ४१-२ ® ॥ बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव जिस समय योज राशि होते हैं, उस समय द्वापरयुग्म राशि होते हैं और जिस समय द्वापरयुग्म राशि होते हैं, For Personal & Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६८ भगवती सूत्र - श ४१ उ ३ उस समय त्र्योज राशि होते हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं । कल्योज राशि के साथ मी इसी प्रकार । शेष पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त । सभी का उपपात प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार । || इकतालीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण || शतक ४९ उद्देशक ३ १ प्रश्न - रासी जुम्मदावर जुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जंति ? १ उत्तर - एवं चेव उद्देसओ । णवरं परिमाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, संवेहो ।' भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! राशि युग्म में द्वापरयुग्म राशि नैरयिक कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? । १ उत्तर - हे गौतम! उद्देशक पूर्ववत् । परिमाण -दो, छह, दस, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। संवेध भी जानना चाहिये । २ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कड जुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? २ उत्तर - णो इट्टे समट्ठे । एवं ते ओएण वि समं, एवं कलिओगेण वि समं । सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया । For Personal & Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. ४ * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ४१-३ ॥तईओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन ! वे जीव जिस समय द्वापरयुग्म होते हैं, उस समय कृतयुग्म होते हैं अथवा जिस समय कृतयुग्म होते हैं, उस समय द्वापरयुग्म होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । इस प्रकार योज राशि और कल्योज राशि के साथ भी जानो। शेष प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् वैमानिक पर्यन्त । और.. ॥ इकतालीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ४१ उद्देशक ४ १ प्रश्न-रासीजुम्मकलिओगणेरइया णं भंते ! कओ उववजंति ? १ उत्तर-एवं । णवरं परिमाणं-एको वा पंच वा णव वा तेरस वा संखेजा वा असंखेजा उववज्जति, संवेहो । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कल्योज राशि नरयिक कहां से आते हैं ? ... उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । परिमाण एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । संवेध पूर्ववत् । २ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा जं समयं कलिओगा तं समयं कड. जुम्मा; जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा ? For Personal & Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०० - श. ४१ उ. ५ . २ उत्तर-णो इणढे समढे । एवं तेओएण वि समं, एवं दावरजुम्मेण वि समं । सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ४१-४ ॐ ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो।। भालार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव जिस समय कल्योज राशि हैं, उस समय कृतयुग्म राशि होते हैं और जिस समय कृतयुग्म राशि होते हैं, उस समय कल्योज राशि होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। इसी प्रकार योज और द्वापरयुग्म के साथ भी जानो। शेष प्रथमोद्देशक के समान यावत् वैमानिक पर्यन्त । . ॥ इकतालीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ .. शतक ४१ उद्देशक ५ १ प्रश्न-कण्हलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ . उववज्जति । १ उत्तर-उववाओ जहा धूमप्पभाए, सेसं जहा पढमुद्देसए । असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं । मणुस्साण वि जहेव णेरइयाणं 'आयअजसं उवजीवंति ।' अलेस्सा, अकिरिया, तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति एवं ण भाणियव्वं सेसं जहा पढमुद्देसए । For Personal & Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ४१ उ. ६-८. ३८०१ ..............-----..... 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ४१-५ * ॥ पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-यग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेश्या वाले नरयिक कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं.? .. १ उत्तर-हे गौतम ! धूमप्रभा पृथ्वी के समान उपपात है, शेष पूर्ववत् प्रथमोद्देशक के अनुसार । असुरकुमार के विषय में भी इसी प्रकार यावत् वाणव्यन्तर पर्यन्त । नरयिक के समान मनुष्य का वर्णन है वे आत्म-असंयम युक्त जीवन-निर्वाह करते हैं । अलेशी, अक्रिय और उसी भव में सिद्ध होने का कथन नहीं करना चाहिये । शेष प्रथमोद्देशक के समान है। ॥ इकतालीसवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥. शतक ४१ उद्देशक ६-८ -कण्हलेस्सतेओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। ४१-६। ॥ छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-कृष्णलेश्या वाले राशि-युग्म में त्र्योज-राशि नैरयिक आदि भी पूर्ववत् । -कण्हलेस्सदावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ। ४१-७ । ॥ सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-द्वापरयुग्म राशि कृष्णलेश्या वाले नैरयिक आदि का उद्देशक भी इसी प्रकार । _-कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ । परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएसु उद्देसएसु । 'सेवं भंते० । ४१-८ । ॥ अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०२ भगवती सूत्र - श. ४१ उ. ९-२० भावार्थ - कृष्णलेश्या वाले कल्योज राशि नेरयिक आदि का उद्देशक मी इसी प्रकार | परिमाण और संवेध औधिक उद्देशक के अनुसार जानो । - जहा कण्हलेस्सेहिं एवं णीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा णिरवसेसा । णवरं णेरइयाणं उववाओ जहा वालुयप्पभाए, सेसं तं चेव | 'सेवं भंते० । ४१-९-१२ ॥ ९-१२ उद्देसा समत्ता ॥ क भावार्थ - कृष्णलेश्या वाले जीवों के भी चार उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिये, परन्तु का उपपात जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् । - काउलेस्सेहि वि एवं चैव चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । णवरं रहयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए, सेसं तं चैव । ४१-१६ । ॥ १३-१६ उद्देसा समत्ता ॥ अनुसार नीललेश्या वाले जीवों के वालुकाप्रमा के समान नैरयिक भावार्थ- कापोतलेश्या के भी इसी प्रकार चार उद्देशक करना चाहिये । नैरयिक का उपपात रत्नप्रभा पृथ्वी के समान । शेष पूर्ववत् । १ प्रश्न - तेउलेस्सरा सीजुम्मकडजुम्म असुरकुमारा णं भंते ! कओ उववज्जंति ? १ उत्तर - एवं चेव । णवरं जेसु तेउलेस्सा अत्थि तेसु भाणियव्वं । एवं एए वि कण्हलेस्सासरिसा चत्तारि उद्देसगा कायव्वा ।। १७ - २० उसा समत्ता । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि तेजोलेश्या वाले असुरकुमार कहाँ से आते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ४१ उ. २४-३२ ३८०३ १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, किन्तु जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के कहना । इस प्रकार कृष्णलेश्या के समान चार उद्देशक जानो। __-एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एएसिं पम्हलेस्सा, सेसाणं णत्थि ॥ २१-२४ उद्देसा समत्ता ॥ .. भावार्थ--इसी प्रकार पद्मलेश्या के भी चार उद्देशक जानो। पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य और वैमानिक देव में पद्मलेश्या होती है, शेष में नहीं होती। ___-जहा पम्हलेस्साए एवं सुकलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । णवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउद्देसएसु, सेसं तं चेव। एवं एए छसु लेस्सासु चउवीसं उद्देसगा, ओहिया चत्तारि, सव्वे ते अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति। सेवं भंते' ॥२५-२८ उद्देसा समत्ता॥ भावार्थ--पद्मलेश्या के अनुसार शुक्ललेश्या के भी चार उद्देशक करना चाहिये, परन्तु मनुष्य के लिये औधिक उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् । इस प्रकार छह लेश्याओं के चौबीस उद्देशक होते हैं और चार औधिक उद्देशक हैं। ये सभी मिला कर अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। १ प्रश्न-भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववति ? १ उत्तर-जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव गिरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा । ४१-३२ । २ प्रश्न-कण्हलेस्सभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववजति ? For Personal & Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०४ भगवती सूत्र - श. ४१ उ. २९-५६ २ उत्तर - जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमे विभवसिद्धियकण्डलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । ४१-३६ । ३ - एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा कायध्वा । ४१-४० । ४ - एवं काउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा । ४१-४४ ॥ ५ - तेउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा ओहियसरिसा । ४१-४८ ॥ ६ - पहले सेहि विचत्तारि उद्देगा । ४१ - ५२ ॥ ७ - सुकलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा एवं एए वि भवसिद्धिएहि वि अट्ठावीस उद्देगा भवंति । ४१ - ५६ । ।। २९-५६ उद्देसा समत्ता ॥ भावार्थ - १ प्रश्न-हे भगवन् ! भवसिद्धिक राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि नैरयिक कहां से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! पहले चार औधिक उद्देशक के अनुसार यहां भी चार उद्देशक सम्पूर्ण जानना चाहिये । २९-३२ । २ प्रश्न - हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक नैरयिक कहां से आते हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! कृष्णलेश्या के चार उद्देशक के समान अवसिद्धिक कृष्णलेश्या वाले जीवों के भी चार उद्देशक जानना चाहिये । ३३-३६। ३- इसी प्रकार नीललेश्यां वाले मवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानना चाहिये । ३७-४० । ४ - इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानना चाहिये । ४१-४४ । For Personal & Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८१ उ. ५७-८४ ३८०५ ५-इसी प्रकार तेजोलेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी औधिक के समान चार उद्देशक हैं। ४५-४८ । ६-इसी प्रकार पद्मलेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक हैं। ४९-५२। ७-शुवललेझ्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी औधिक के समान चार उद्देशक जानो। इस प्रकार भवसिद्धिक जीवों के ये अट्ठाईस उद्देशक होते हैं । ५३-५६ । १ प्रश्न-अभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? । १ उत्तर-जहा पढमो उद्देसगो। णवरं मणुस्सा णेरइया य सरिसा भाणियव्वा । सेसं तहेव । 'सेवं भंते । एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा। - २ प्रश्न-कण्हलेस्स-अभवसिद्धिय-रासीजुम्मकडजुम्मणेरइया गं भंते ! कओ उववज्जति । - २ उत्तर-एवं चेव चत्तारि उद्देसगा। ३-एवं णीललेस्स-अभवसिद्धिय-रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं चत्तारि उद्देसगा। ४-काउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा। ५-तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा। ६-पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा। ७-सुक्कलेस्सअभवसिद्धिए वि चत्तारि उद्देसगा। For Personal & Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०६ भगवती सूत्र-श. ४१ उ ५७-८४ एवं एएसु अट्ठावीसाए वि अभवसिद्धियउद्देसएसु मणुम्सा णेरइयगमेणं णेयव्वा । 'सेवं भंते । एवं एए वि अट्ठावीसं उद्देसगा। ४१-८४ । ५७-८४ उद्देसा समत्ता । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कृतयुग्म राशि अभवसिद्धिक नरयिक कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम उद्देशक के अनुसार । विशेष में-मनुष्य और नरयिक का कथन समान जानो। शेष पूर्ववत् । ५७-६० । २ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेश्या वाले अभवसिद्धिक नेरयिक कहां से आते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् चार उद्देशक जानो। ६१-६४। । ३-इसी प्रकार नीललेश्या वाले कृतयुग्म राशि अभवसिद्धिक जीवों के चार उद्देशक जानो । ६५-६८० ४-इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक है । ६९-७२। ५-तेजोलेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों के भी ऐसे ही चार उद्देशक जानो । ७३-७६ । ६-पद्मलेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक हैं। ७७-८०। ७-शुक्ललेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक हैं। ८१-८४। इस प्रकार अभवसिद्धिक जीवों के ये अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। इनमें मनुष्य का कथन नैरयिक के अमिलाप के समान जानो। ॥ इकतालीसवें शतक के ५७-८४ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ४१ उ. ८५--१४० ३८०७ १ प्रश्न-सम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं जहा पढमो उद्देसओ। एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायध्वा । 'सेवं भंते । २ प्रश्न-कण्हलेस्ससम्मदिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? ____२ उत्तर-एए विकण्हलेस्ससरिसा चत्तारि वि उद्देसगा कायव्वा। एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा । 'सेवं भंते जाव विहरइ । ८५-११२ उद्देसा समत्ता । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि सम्यग्दृष्टि नैरयिक कहां से आते हैं ? १ उत्तर-प्रथम उद्देशक के समान यह उद्देशक भी है । ऐसे ही चारों युग्म में भवसिद्धिक के समान चार उद्देशक करना । ८५-८८ । २ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेश्या वाले सम्यगदष्टि नैरयिक कहां से आते हैं ? २ उत्तर-यहां भी कृष्णलेश्या वाले के समान चार उद्देशक करना। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों के भी मवसिद्धिक जीवों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहना। १ प्रश्न-मिच्छादिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं एत्थ वि मिच्छादिट्ठीअभिलावेणं अभवसिद्धिय For Personal & Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०८ भगवती सूत्र-गः ४१ उ. ११३--१९६ सरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा । 'सेवं भंते० । ११३-१४० उद्देसा समत्ता। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि मिथ्यादष्टि नरयिक कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर-यहां भी मिथ्यादृष्टि के अभिलाप से अभवसिद्धिक जीवों के समान अट्ठाईस उद्देशक जानना चाहिये । १ प्रश्न-कण्हपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर-एवं एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायवा । 'सेवं भंते० १४१-१६८ उद्देसा समत्वा । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णपाक्षिक नरयिक कहां से आते हैं ? १ उत्तर-यहां भी अभवसिद्धिक के समान अट्ठाईस उद्देशक कहना। १ प्रश्न-सुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मणेरड्या णं भंते ! कओ उववज्जति ? १ उत्तर--एवं एत्थ वि . भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति । एवं एए सब्वे वि छण्णज्यं उद्देसगसयं भवंति रासीजुम्मसयं । जाव सुक्कलेस्सा सुक्कपक्खियरासीजुम्मकलिओगवेमाणिया जाव जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? (उत्तर) णो इणटे समटे । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ १६९.-१९६ ॥ __ भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिण-पया For Personal & Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुत्र-ग. ४१ उ. १६६ | ३८०९ हिणं करेइ, करेसा वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी'एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! अमंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिन्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! सच्चे णं एममटे, जे णं तुम्भे वयह त्ति कटु अपूड़वयणा खलु अरिहंता भगवंतो, समणं भगवं महावीरं वंदह, णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरह । रासीजुम्मसयं समत्तं । ॥ इगचत्तालीसमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ--अण्णउयं-- छियानवे (९६), अवितह-अवितथ--सत्य, असंविझं--असंदिग्ध--सन्देह रहित, इच्छियं--इच्छित (इष्ट), परिच्छियं-प्रतीच्छित, अपूरवयणा- पवित्र वचन वाले । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! राशि-युग्म में कृतयुग्म राशि शुक्लपाक्षिक नरयिक कहां से आते हैं ? .. १ उत्तर-यहां भवसिद्धिक के समान अट्ठाईस उद्देशक हैं । इस प्रकार सभी मिला कर १९६ उद्देशक का राशि-युग्म शतक होता है । यावत् प्रश्न-हे भगवन् ! शवललेश्या वाले शुक्लपाक्षिक कल्पोज राशि वैमानिक यावत् जो सक्रिय हैं, वे उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं यावत् समी दुःखों का अन्त करते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। भगवान् गौतम, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार भावक्षिणप्रदक्षिणा करते हैं। आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर के वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर के इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। For Personal & Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१० भगवती सूत्र-उपसंहार हे भगवन् ! यह उसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह अवितथ-सत्य है । हे भगवन् ! यह असंदिग्ध-सन्देह रहित है। हे भगवन् ! यह इच्छित है । हे भगवन् ! यह प्रतीच्छित-विशेष रूप से इच्छित (स्वीकृत) है । हे भगवन् ! यह इच्छितप्रतीच्छित है । हे भगवन् ! यह अर्थ सत्य है, जैसा आप कहते हैं । अरिहन्त भगवन्त पवित्र वचन वाले होते हैं। अरिहन्त भगवन्त अपूर्व वचन वाले होते हैं अर्थात् अरिहन्त भगवन्तों की वाणी पवित्र और अपूर्व होती हैं।" ऐसा कह कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को पुनः वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दननमस्कार कर के संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। ॥ राशि-युग्म शतक सम्पूर्ण ॥ उपसंहार सव्वाए भगवईए अट्ठतीसं सयं १३८ सयाणं, उद्देसगाणं १९२५। चुलसीय सयसहस्सा पयाण पवरवरणाणदंसीहि । भावाभावमणंता पण्णत्ता एत्थमंगंमि ॥१॥ तवणियमविणयवेलो जयइ सदा णाणविमलविउलजलो। हेउसयविउलवेगो संघसमुद्दो गुणविसालो ॥ २ ॥ भगवती सूत्र के सभी मिला कर १३८ शतक होते हैं और १९२५ For Personal & Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ४१ उपसंहार ३८११ उत्तम (सर्व श्रेष्ठ)ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंग में चौरासी लाख पद कहे हैं तथा विधि रूप और निषेध रूप अनन्त (अपरिमित) भाव कहे हैं ॥१॥ तप, नियम और विनय रूप जिसको वेला है तथा निर्मल और विपुल ज्ञान रूपी जल जिसमें मरा हुआ है, जो सकड़ों हेतु रूप महान् वेग वाला है और जो गुणों से विशाल है, ऐसा संघ रूपी समुद्र जय को प्राप्त होता है ॥२॥ ___शतकों का परिमाण इस प्रकार है-एक से ले कर बत्तीसवें शतक तक किसी भी शतक में अवान्तर शतक नहीं है। तेतीसवें शतक से ले कर उनचालीसवें शतक तक सात शतकों में प्रत्येक में बारह बारह अवान्तर शतक हैं। इस प्रकार ये ८४ शतक हैं। चालीसवें शतक में २१ अवान्तर शतक हैं। इकतालीसवें शतक में अवान्तर शतक नहीं हैं। इन सभी को मिलाने से १३८ (३२+८४+२१+१=१३८)शतक होते हैं। पहले शतक से ले कर इकतालीसवें शतक तक के उद्देशकों को मिलाने से सभी १९२५ उद्देशक होते हैं।। इस सम्पूर्ण भगवती सूत्र में पदों की संख्या चौरासी लाख कही है। इस सम्बन्ध में टीकाकार कहते हैं कि यह पदों की गणना किस प्रकार की है, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पदों का यह स्वरूप विशिष्ट सम्प्रदायगम्य है। णमो गोयमाईणं गणहराणं, णमो भगवईए विवाहपण्णत्तीए, णमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स ।। १ ॥ कुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटबेंटसंकासा । सुयदेवया भगवई, मम मतितिमिरं पणासेउ ॥ २ ॥ शतकों के प्रारम्भ में दी गई संग्रहणी गाथाओं के अनुसार तो उद्देशकों की संख्या १९२३ ही होती है, किन्तु यहाँ इस गाथा में १९२५ बताई है। बीसवें शतक के १२ उद्देशक गिने जाते हैं, परन्तु प्रस्तुत वांचना में पृथ्वीकाय, अप्काय, ते उकाय इन तीनों का सम्मिलित एक (छठा) उद्देशक ही उपलब्ध होने से दस ही उद्देशक हैं । इस प्रकार दो कम हो जाने से गिनती १९२३ ही आती है। For Personal & Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - श. ४१ उपसंहार पण्णत्तीए आइमाणं अट्टहं सयाणं दो दो उद्देसगा उद्दिसिजंति । वरं च उत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ, विश्यदिवसे दो उद्देसगा उद्दिसिज्जंति । णवमाओ सयाओ आरद्धं जावइयं जावइयं एइ तावइयं तावइयं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ, उकोसेणं सयं पि एगदिवसेणं, मज्झिमेणं दोहिं दिवसेहिं सयं, जहणेणं तिहिं दिवसेहिं सयं । एवं जाव वीसइमं सयं । णवरं गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिज्जह, जह ठिओ एगेण चेव आयंबिलेणं अणुण्णज्जइ । अहणं ठिओ आयंबिलेां छट्टेणं अणुण्णव । एकवीस-बावीस-तेवीसइमाई सयाई एक्केकदिवसेणं उद्दिसिज्जति । चउवीसइमं सयं दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देगा | पंच ३८१२ समं दोहिं दिवसेहिं छ छ उद्देगा । बंधिसयाई अट्ठसयाई एगेणं दिवसेणं, सेढिसयाई बारस एगेणं, एगिंदियमहाजुम्मसयाई बारस एगेणं, एवं बेइंदियाणं बारस, तेइंदियाणं बारस, चउरिंदियाणं बारस एगेणं, असण्णिपंचिंदियाणं बारस, सष्णिपंचिदियमहाजुम्प्रसयाई एकवीसं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जैति, रासीजम्मसयं एगदिवसेणं उद्दिसिजइ ॥ विसिय अरविंदकरा, णासियतिमिरा सुयाहिया देवी । झं पिदेउ मेहं, बुहविबुहणमंसिया णिच्चं ॥ १ ॥ सुयदेवया पणमिमो, जीए पसाएण सिक्खियं णाणं । अण्णं पवयणदेवी, संतिकरी तं णमंसामि ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूज-ग ४१ उपगंहार ३८१३ सुयदेवया य जक्खो, कुंभधरो बंभसंति वेरोट्टा । विजा य अंतहुंडी, देउ अविग्घं लिहंतस्स ॥ ३ ॥ ॥ सिरिविवाहपण्णत्ति समत्ता ॥ भावार्थ-गौतमादि गणधरों को नमस्कार हो । भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति को नमस्कार हो । द्वादशांगगणपिटक को नमस्कार हो ॥ १ ॥ __ कछुए के समान सुसंस्थित चरण वाली, अम्लान (नहीं मुरझाई हुई) कोरण्ट वृक्ष की कलि के समान, भगवती श्रुत-देवी मेरे मति अज्ञान का विनाश करे ॥ २॥ ____ व्याख्याप्रज्ञप्ति के पहले के आठ शतकों के दो-दो उद्देशकों का उद्देश (उपदेश-वाचन) एक-एक दिन में किया जाता है । परंतु चौथे शतक के आठ उद्देशकों का कथन पहले दिन किया जाता है और दूसरे दिन दो उद्देशकों का कथन किया जाता है । नौवें शतक से आगे जितना-जितना ग्रहण किया जा सके, उतना-उतना एक-एक दिन में उपदिष्ट करना चाहिये । उत्कृष्ट एक दिन में एक शतक का भी उपदेश किया जा सकता है, मध्यम दो दिन में और जघन्य तीन दिन में एक शतक का उपदेश करना चाहिये । इस प्रकार नौवें शतक से ले कर बीसवें शतक तक जानना चाहिये, किन्तु पन्द्रहवें गोशालक शतक का एक दिन में वांचन करना चाहिये । यदि शेष रह जाय, तो दूसरे दिन आयम्बिल कर के वांचन करना चाहिये। यदि फिर भी शेष रह जाय, तो तीसरे दिन आयम्बिलछट (आयम्बिल का बेला) कर के वांवन करना चाहिये। इक्कीसवें, बाईसवें और तेईसवें शतक का एक-एक दिन में बांचन करना चाहिये। चौबीसवें शतक के छह-छह उद्देशक प्रति दिन वांच कर सम्पूर्ण करना चाहिये। इसी प्रकार पच्चीसवें शतक के भी छह-छह उद्देशक प्रतिदिन वांच कर दो दिन में सम्पूर्ण करना चाहिये । बन्धी-शतक आदि आठ शतकों का वाचन एक दिन में, श्रेणी शतकादि बारह शतकों का वांचन एक दिन में, एकेन्द्रिय के बारह महायुग्म शतकों का वांचन एक दिन में करना चाहिये । इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१४ भगवती सूत्र-स. ४१ उपसंहार बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और असंजी-पञ्चेन्द्रिय के बारह-बारह शतकों का वांचन तथा संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय के इक्कीस महायुग्म शतकों का और राशियुग्म शतकों का वांचन एक-एक दिन में करना चाहिये। जिसके हाथ में विकसित कमल है, जिसने अज्ञान का नाश किया है और जिसको बुध (पण्डित) तथा विवुधों (देवों) ने सदा नमस्कार किया है, ऐसी श्रुताधिष्ठित देवी मुझे बुद्धि दे ॥ १॥ जिसकी कृपा से ज्ञान की शिक्षा मिली है, उस श्रुत-देवता को नमस्कार करता हूँ और शान्ति करने वाली प्रवचन देवी को भी नमस्कार करता हूँ ॥२॥ श्रुतदेवता, कुम्भधरयक्ष, ब्रह्मशान्ति वैरोटयादेवी विद्या और अन्त हुण्डी लेखक के लिये अविघ्न प्रदान करे अर्थात् उसके कार्य में कोई विघ्न न आवे ॥३॥ ॥ भगवती सूत्र सम्पूर्ण ॥ RMA A 1: 21.. E टपON प For Personal & Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की हुण्डी--अकारानुक्रम से ( गंगाहक -श्री धीमूलाल जी पितलिया, सिरियारी ) अ६4 शतक उद्देशक भाग पृष्ट १ १ १ २ ९४-१०१ . १ १०१-१०९ १ १५१-१५२ ६ १ १५२--१५६ १ १५९-१६२ १ . २८२-२८५ १ ३३०-३३२ ९ ९ १ ३३०-~३३९ असंवृत्त-संवृत्त अनगार के सिद्ध होने न होने १ असंयती अव्रती किस कारण से देव होते हैं । अन्तक्रिया वर्णन पर प्रज्ञा पना पद २० का निर्देश १ असंयत भव्य द्रव्य-देवादि १४ प्रकार के जीव देवों . में कहाँ तक उत्पन्न होते हैं असंज्ञी के आयुष्य का भेद विचार अप्काय-स्नेहकाय का गिरना आदि १ अठारह पापों के सेवन व त्याग का परिणाम १ (श. १२ उ. २ भाग ४ पृ. १९९०-११ भी) अगरु-लघऔर गरु-लघ का विचार १ अप्रत्याख्यान क्रिया अव्रत की अपेक्षा राजा-रंक को समान लगती है १ अस्थिर, स्थिर, बाल, पंडित, बालत्व-पंडितता १ अभिगम पाँच का वर्णन २ अस्तिकाय पांच का वर्णन २ असुरकुमारों का निवास स्थान, तिरछी आदि गति गमन हेतु, वैमानिक अप्सराओं से गमनाधिकार ३ असुरकुमार कितने काल से व किसकी सहायता से ऊर्ध्वगमन करते हैं आदि वर्णन असुरकुमारों के उर्ध्वगमन के हेतु ३ अन्तक्रिया (अयोगी) अकंप अवस्था में होती है, घास के पूले, जलबिंदु व नावा का दृष्टांत ३ अवधिज्ञानी साधु द्वारा देव विमान वृक्षादि देखने । की चौभंगिया ९ ५ १० . ३५३--- ५४ १ ३६०-६१ १ ४७८-७९ १५१२---५३२ २ २ ६०६- १४ و سه سد २ २ ६४८- ५० ३ . २ ६५६- ६५ For Personal & Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ अनगार की वैभारगिरि उल्लंघने आदि की शक्ति, मायी साधु विकुर्वणा करता है, अमायी नहीं उनका आहार व आराधना वर्णन ३ ४ २ ६८१--६८६ अनगार की स्त्री आदि की विकुर्वणा की शक्ति और उनकी गति ३ ४ २ ६८६--६९६ अमाई सम्यग्दृष्टि द्वारा विकुवित नगरादि यथार्थ देखे जाते हैं, मिथ्यादृष्टि विपरीत देखता है ३ ६ २ ६९७-७०५ असुरादि देवों पर कितने-कितने अधिपति देव हैं ? ३ ८ २ ७२७- ३८ अढ़ाई द्वीप का रात्रि-दिवस आदि समय विभाग ५ १ २ ७५६-७४ अग्निकाय के संयोग से अन्यकाय भी अग्निकाय के शरीर कहे जाते हैं ५ २ २ ७८१-८५ अनुत्तर विमानवासी अपने स्थान से ही केवली से वार्तालाप करते हैं __ ५ ४ २ ८२४- २६ अनुत्तर विमानवासी देव उपशांत-वेदी . ५ ४ , २ ८२५-२६ अल्प-दीघ, शुभ-अशुभ आयु-बन्ध के कारण ५ ६ २ ८३९- ४५ अग्निकाय (तत्काल प्रदीप्त ) महाकर्मी व हीन होता है, क्रमशः अल्पतर कर्म वाला होता है ५ ६ २ ८५१- ५२ अभ्याख्यानी उसी प्रकार के कर्म बांधता है ५ ६ २ ८६२-६३ अनंत व परित्त रात्रि-दिवस किस हेतु है ५ ९ २ ९२१-९२७ अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले देवों के जानने न जानने संबंधी १२ भांगे अनाहारक व अल्पाहारक जीव कब होता है ७ । ३ १०७८-८. अकाम (अनिच्छा से)प्रकाम (तीव्र इच्छा से) निकरण (शक्ति के अभाव से) वेदना ७ ७ , ३ १.१७८-८२ अप्रत्याख्यान क्रिया हाथी व कुंथु को समान ७ ८ ३ ११८६-८७ असंवत (प्रमत्त) मनगार की विकुविणा का वर्णन ७ ९ ३ ११८८- ९. अग्नि जलाने वाले की अपेक्षा बुझाने वाला अल्पकर्मी है ___७ १०३ १२२५-२८ ا سه سه For Personal & Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ अचित्त तेजोलेश्या के पुद्गल प्रकाश करते ७ १० ३ १२२८- ३० अकृत्य स्थान सेवित साधु-साध्वी के आलोचना के विचारों से आराधना ३ १३९९ ---१४०५ अन्यतीथिकों द्वारा स्थविर साधुओं को असंयतादि कहना ८ ७ . ३ १४१५ - २८ अन्तर्वीपों का वर्णन ६ ३-३० ४ १५७६-७८ (श. १० उ. ७ भा. ४ पृ. १८४१-४२ भी) असोच्चा और सोच्चा केवली का अधिकार ९ ३१ ४ १५७९-१६१४ अश्व के फेफड़े की वायु के खू खू शब्द . १० ३ ४ १८०६ - ७ अस्तिकाय के लक्षण, गुण तथा तत्स्वरूप लोक १३ ४ ५ २१८८- ९३ अस्तिकाय के प्रदेशों की परस्पर स्पर्शना १३ ४ ५ २१९३-२२०९ अस्तिकाय के प्रदेशों की अवगाहना, स्थानाधिकार १३ ४ ५ २२१०-२२२२ अंतर सहित या रहित नैरयिकादि का उत्पाद व उद्वर्तन १३ ५ २२२७ . अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक निर्गत, अनिर्गत १४ १ ५ १२८०- ८७ अग्नि में जीवों का गमन, जलने न जलने संबंधी १४ ५ ५ २३१०- १५ अनुत्तर विमानवासी देवों का अवधिज्ञान अनन्त ___ मनोद्रव्य वर्गणा युक्त १४ ७ ५ २३२७- २८ अनुत्तरोपपातिक देव कहे जाने के कारण १४ ७ ५ २३३४- ४. अंतर-रत्नप्रभादि पृथ्वियों देवलोक, सिद्ध शिला आदि का १४ ८ ५ २३४१- ४४ अम्बड परिव्राजक के शिष्यों का वर्णन, १०० घरों में पारणा, उववाई का निर्देश १४ . ८ ५ २३४७- ४८ अध्याबाध देव कहे जाने के कारण १४८ ५ २३४९- ५० अत्ता, अनत्ता ईर्ष्यादि पुद्गलों का दंडकापेक्षा १४ ९ ५ २३५६- ५८ अग्निकाय का वायुकाय से संबंध व स्थिति १६ १ ५२५०४- १ अधिकरण अधिकरणी संबंधी जीवों का अव्रत १६ १ ५२५०८- १७ For Personal & Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) विषय अवग्रह ( आज्ञा ) पंचक अलोक में महद्धिक देव भी हाथ आदि नहीं पसार सकता अवधिज्ञान के भेदादि पर प्रज्ञापना पद ३३ का निर्देश शतक उद्देशक भाग १६ १६ १६ अठारह पाप स्थान यावत् अनाकार उपयोग युक्त वही जीव और जीवात्मा है अठारह पाप स्थान आदि जीव अजीव द्रव्यों में कुछ जीव के उपभोग में आते हैं, कुछ नहीं १८ अनगार तलवार आदि अस्त्रधारा को अवगाहन करें, पर छिन्न-भिन्न नहीं होते अवगाहना के ४४ बोलों की अल्पाबहुत्व अवसर्पिणी काल कहाँ है और कहाँ नहीं है ? अल्पबहुत्व - गति, इंद्रिय, काय जीव, पुद्गलादि तथा आयुष्य कर्म के बंधक अबंधकादि अस्तिकाय चार व जीवास्तिकाय के मध्य प्रदेशों की अवगाहना १७ १८ १९ २० २५ २५ (आ) आत्मारंभादि चार के जीवादि आश्रित प्रश्न आवासों की संख्या । (श. ६ उ. ६ भाग २ पृ. १०२४ तथा श. २५ उ. ३ भाग ७ पू. ३२ ५५ पर भी ) १ धाकर्मी वस्तु के सेवन का फल । (श. ७ उ ८ भाग ३ पृ. ११८७ पर भी ) आयुष्य सहित जीव परभव में उत्पन्न होता है आत्म, अनन्तर, परम्पर आगम ये प्रमाण के अन्तर्गत आधाकर्मादि दस सदोष स्थान सेवन का फल १ १ ५ ५ ५ For Personal & Private Use Only २ ८ १० २ ૪ १० ३ ८ ३ ४ ܕ ९ ३ ४ ६ ५ ५ ५ ५ ६ ६ ६ ७ ७ १ ६ २६९२ – ९५ १ २ २ पृष्ठ २ २५१९ – २१ २५८४-८५ २५८८ – ८६ २६०७-१२ २७५०-५१ २७८१ - ८५ २९०० -- २ ३२५८-- ६२ ३३३३-३५ ८३-९१ २२२-२७ ३५४-५८ ७९०-९३ ८१९ – २१ ८५८ - ८६१ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ आचार्य-उपाध्याय अपने कर्तव्य का पालन करते हुए कितने भवों में मोक्ष जाते हैं ? ५ ६ २ ८६१--८६२ आरंभ परिग्रह आश्रित २४ दण्डकों का वर्णन ५ ७ २ ८८४-- ६० आहार वर्णन पर प्रज्ञापना पद २८ का निर्देश ६ २ २ १४४ मायुष्य बंध जाति, नाम आदि के छ: भेद ६८२ १०५१- ५६ आहार ग्रहण करने के क्षेत्र २ १०७४ आयुष्य बंध अनाभोग अवस्था में ही होता है ३ ११५३ आशीविषाधिकार ८ २ ३ १२८८--९६ आराधना-अधिकार ३ १५४१--४७ आलोचना से आरधिना व अनालोचक के विचार ८ ६ ३ १९९९-१४०५ आत्मा के आठ भेदों का परस्पर संबंध व अल्प-बहुत्व १२ १० ४ २१.५--१५ आत्मा से ज्ञानादि का भेदाभेद १२ १० ४ २११५-१७ आत्मा, नो आत्मा, अव्यक्तादि रत्नप्रभा से सिद्धशिला तक तथा परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कंध तक के भांगे १२ १० ४ २११७--३२ आहार सचित्त आदि पर प्रज्ञापना पद २८ .' का निर्देश १३ ५ ५ २२२६ आत्मा भाषा, मन व काय स्वरूप है या नहीं. १३ ७ ५ २२४५--५४ आहार-त्यागी मुनि के आहार का वर्णन १४ ७ ५ २३३६-३८ आत्मकृत दुःख वेदना आदि वर्णन १७ ४ ५ २६२७--२६ आहार रूप से ग्रहण किए पुद्गलों का असंख्यातवां भाग प्रहित होता है, अनन्तवा भाग त्याज्य होता, ___ उन पर शयनादि नहीं होता १८ ३ ६ २६९०--९१ आकाश के भेद व उनमें जीव-अजीव विचार - २० २ ६ २८३४-३६ इहभव, परभव, उभयभव आश्रित ज्ञानादिक का विचार १ १ १ ९२--९४ For Personal & Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विषय (६) शतक उद्देशक भाग पृष्ठ (ई.) ईर्यापथिकी ओर सांपरायिकी में से एक क्रिया लगती है इंद्रिय अधिकार प्रज्ञापना का निर्देश ३ इंद्र, सामानिक, श्रायस्त्रिश, लोकपाल आदि तथा कुरुदत्त अनगार की ऋद्धि आदि का वर्णन ईशानेंद्र ( तामलीतापस के जीव ) का वर्णन इंद्रों के आत्म-रक्षक ३ ३ ३ इंद्रों के विषयाधिकार पर जीवाभिगम का निर्देश इंद्रों की परिषदाएँ ३ ईर्यापथिकी ओर सांपरायिकी क्रिया किस के लगती है ७ (श. ७ उ. ७ भाग ३ पृ. ११६८-६९ में भी ) इंगाल, धूम, संयोजना दोष का वर्णन ७ इंद्र, लोकपाल व ८८ महाग्रहों की अग्रमहिषियों तथा सौधर्म सभा में मैथुन - क्रिया इंद्रादि के भोग भोगने के लिए विकुर्वणा ईशानेंद्र की सुधर्मा सभा का वर्णन ईर्या-शोधन करते हुए भावितात्मा अनगार के पैर नीचे पंचेंद्रिय जीव भी मर जाय, तो भी पथिकी क्रिया लगती है। इंद्रिय उपचयादि पर प्रज्ञापना का निर्देश (उ) १ २ १० १४ १७. १५ २० १ २ उत्पत्ति विरह काल पर प्रज्ञापना का निर्देश उश्वास निःश्वास पर चौबीस दण्डक उद्योत - अंधकार का चौबीस दण्डक आश्रित वर्णन ५ उष्ण ऋतु में अल्पाहारी होते हुए भी वनस्पति शोभित क्यों होती है ? ७ For Personal & Private Use Only ܘܕ ४ १ १ ६ ह १० १ १ ५ ६ ५ ८ ४ १० १ ε - ३ १ २ २ २ २ २ ५५३-६६ ५६७- ९५ ७०६-- ७ ७३२-- ૩૪ ७३४ ३८ ३१०९३ -- ९५ ३७१-- ७४ ४५७-- ५८ ३ १०९५- ४ १८१९- ५ २३२५५२६२६ ६ २७३६- ६ २८४४ १ १ २ ९९ ३९ २६ ३० ३७ ३.७४ ३७७-- ८५ ९१५-- ..१९ ३ ११३०- ३२ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ उत्पल, कमल आदि का अधिकार ११ १-८ उदायन राजा व उनके पुत्र अभीचिकुमार का वर्णन १३ ६ उन्माद के दोनों भेद चौबीस दण्डकों में १४ २ उपयोग व पश्यता के भेदों पर प्रज्ञापना का निर्देश १६ ७ उदायी व भूतानंद नामक हाथियों के चार भव १७ १ उपधि, परिग्रह व प्रणिधान के भेद-प्रभेद १८ ७ ५ ५ ५ ६ ४ १८४३-- ७२ ५ २२३१-- ४५ २२८७-- ९१ २५७१-- ७३ २१९४-- ६५ २७१५-- २० ऋषभदत्त-देवानंदा वर्णन . ___ ९ ३३ ४ १६९०--१७०४ एकान्त बाल, एकान्त पंडित तथा बालपंडितााद ___का आयुष्य बंध एक समय में एक ही वेद वेदन का अधिकार २ ५ १ ४५९-- ६२ एक जीव एक समय में एक ही वेदना वेदता है, आयुष्य बंध पर जाल का दृष्टान्त ५ ३ .२ ७८७--.७९० एवंता मुनिवर का वर्णन ----- ५ . ४ २ ८०५- ९ एवंभूत व अनेवंभूत वेदना का अधिकार ५ ५. २ ८३३- ३६ एक आकाश प्रदेश में जघन्य उत्कृष्ट जीव-प्रदेश - और सभी जीवों की अल्प-बहुत्व टीका में निगोद छत्तीसी का वर्णन ११ १० ४ १९११-- १४ एक भी प्राणी के दण्ड से निवृत जीव एकान्त बाल नहीं, बालपण्डित है, आदि . १७ २ ५ २६०७--- १. एजना शंलेशी अवस्था में नहीं होती, भेद प्रभेद १७ ३ ५ २६१५-- १८ एकेंद्रिय में समाहार व समलेश्याएं संबंधी प्रश्न १७ १२ ५ २६४०- ४२ एकाभवावतारी पृथ्वी, पानी, वनस्पति में है १८ ३ ६ २६७४-- ७९ एकेंद्रिय शतक, अन्तर शतक १२, एकेंद्रियों के कर्म-बंधन, वेदन आदि ३३ १२४ ७ ३६६१- ४३ एकेंद्रिय श्रेणी-शतक ३४ १२-३ ७ ३६८४--३७२९ For Personal & Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ कांक्षा मोहनीय कर्म के बंधन, वेदन, हेतु उदीरणा तथा अस्तित्वादि १ ३ १ १६३-२०२ कर्म-प्रकृति पर प्रज्ञापना पद २३ का निर्देश १ ४ १ २०३- ५ कर्म-वेदने के दो भेद-प्रदेश व अनुभाग १ ४ १ २११-१४ केवली ही सिद्ध होते हैं, छद्मस्थादि नहीं, केवली ही अलमत्थु (पूर्ण) है । (श. ५ उ. ५ भाग २ पृ. ८३२-३६ पर भी, तथा श. ७ उ. ८ भाग ३ पृ. ११८२-८३ पर भी है) १ ४ १ २१६-२२१ कषाय की स्थिति, अवगाहना आदि १० द्वारों पर । २४ दण्डक निरूपण १ ५ १ २२७ - ३७ क्रियाएँ प्राणातिपातादि जीवों को स्पर्शी हुई, . १ ६ १ २६४- ६९ क्रियाएँ मृगवध, अग्नि-प्रज्वलन, पुरुष-वधादि १ ८ १ ३१६- २५ कालास्यवेषि अनगार के पंचमहाव्रतादि प्रश्न १ . ९ १ ३४४-- ५३ क्रिया के ५ भेद, प्रभेद, क्रिया व वेदना का .. अनुक्रम, प्रमाद व योग से श्रमण-निग्रंथों को क्रिया लगती है । मंडितपुत्र के प्रश्न ३ ३ . १ ६५१- ५६ केवली के सर्वगत शब्द ज्ञानादि, छद्मस्थ के इंद्रियगोचर ५ ४ २ ७९४-७९८ केवलियों के हास्य-निद्रादि नहीं, छद्मस्थों के ५ ४ २ ७९८-८०२ केवली चरमशरीरी को स्वयं जानते हैं, छद्मस्थ ___ सुन कर जानता है ५ ४ २ ८१७- १९ केवली चरमकर्म व चरमनिर्जरा को स्वयं जानते हैं ५ ४ २ ८२१-२४ केवलियों के प्रकृष्ट मन वचन जानते हैं ५. ४. २ ८२१- २४ केवली केवलज्ञान से जानते है, इंद्रियों से नहीं (श. ६ उ १० भाग २ पृ. १०७५ पर भी है) ५ २ २ ८२६- २८ < For Personal & Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ केवलियों के हाथ आदि से अवगाहित प्रदेशों को पुन: न अवगाह सकना । ५. ४ २ ८२८- ३० कुलकर, तीर्थंकर का वर्णन समवायांग निर्देश ५ ५ २ ७३६- ३९ क्रियाएँ आरंभिकी आदि, चोरी की हुई वस्तु को शोधते हुए को तथा खरीदने-बेचने वालों को कितनी क्रियाएँ लगती है ५ ६ २ ८४५- ५ क्रियाएँ कायिकी आदि, पुरुष, धनुष, शरीर आदि को कितनी लगती है ५ ६ २ ८५२- ५६ काल (समय आदि) का वर्तन मनुष्य-क्षेत्र में ही ५ ९ २ ९१९- २१ करण ४ का चौबीस दण्डक संबंधी वर्णन ६ -१ ।२ ९३८- ४१ कर्म-पुद्गलों के सर्वतः बंध व निर्जरा पर वस्त्र का उदाहरण ____६ ३ . २ ९४५-- ६५६ कर्म के भेद जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति, अबाधाकाल ६ ३ २ ९५७- ५९ कर्म-प्रकृतियाँ वेद से चरमाचरम तक कौन कितनी बांधता है ६ ३ २ ९६०- ७६ कालाश्रित जीवादि सप्रदेशी हैं या अप्रदेशी ६ ४ २ ९७७- ९५ कृष्णराजियों का वर्णन ६ ५ २ १०११- १८ काल (गणनीय-उपमेय) वर्णन, आरों का स्वरूप ६ ७ २: १०३३- ४४ कर्म रहित जीव की गति तुम्बे का दृष्टान्त ७ १ ३ १०८७- ९१ कर्म सहित जीव ही दुःखों से व्याप्त होता है ग्रहण, उदीरणा, वेदनादि ७ १ ३ १०९१- ९३ कर्कश वेदनीय अकर्कशवेदनीय का बंध ७ ६ ३ ११५३- ५६ काम-भोगों का रूपी-अरूपी आदि स्वरूप ७ ७ ३ ११६९- ७५ कोणिक राजा को शकेंद्र, चमरेंद्र की सहायता ७ ९ ११९.-१२१३ कालोदायी की पंचास्तिकाय संबंधी चर्चा व प्रतिबोध ७ १० ३ . १२१४- २१ क्रिया वर्णन प्रज्ञापना पद २२ का निर्देश ८ ४ .. ३ १३७३- ७४ For Personal & Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय कषायों से बंध और फल क्रोधादि के पर्यायवाची नाम (१०) कर्मादान वर्णन ८ क्रियाएँ - औदारिकादि शरीर आश्रित लगने वि. ८ ८ कर्म - प्रकृतियों में परीषहों का समवतार कर्म के अनन्त अबिभागी परिच्छेदों से जीव प्रदेश आवेष्ठित-परिवेष्ठित है कर्मों की परस्पर नियमा व भजना काल के प्रमाणादि चार भेद-प्रभेद कर्म से ही जीव और जगत नानारूप में है कर्म - प्रकृतियों पर प्रज्ञापना सूत्र का निर्देश केवली और सिद्धों का ज्ञान समान है। क्रियाएँ - लोहारी कर्म संबंधी कर्म 'वेदावेद, वेदा बंध, बंधावेद, पर प्रज्ञापना का निर्देश शतक उद्देशक भाग पृष्ठ ८ U ८ ११ १२ १२ १२ १३ १४ १६ १६ (श. ६ उ. भा. २ पृ. १०५९-६० पर भी है ) कायोत्सर्ग रहे मुनि का अर्श छेदन में क्रिया १६ कोष्ठादि पुड़ों को इधर-उधर ले जाते हुए गंध के पुद्गलों का बहना १६ १७ क्रियाएँ तालफल - मूलादि को हिलाने आदि में १७ क्रियाएँ शरीर इंद्रियाँ व योगबंध से क्रियाएँ प्राणातिपातादि पाँच, जीवों को स्पर्शी हुई, अवगाहन की हुई, उसी समय उसी क्षेत्र उसी प्रदेश में लगने विषयक कार्तिक सेठ ( शकेन्द्र) का पूर्वभव केवलियों के अंतिम निर्जरा के पुद्गलों को छद्मस्थ जानता है और आहार रूप से ग्रहण करता है १८ १७ १८ ५ ३ ६ ३. १४०७- ८ ३ १० १० ११ १. ४. ५. જ ५ ८ १० १ ३ ६. ܕ १ ४ २ ३ ३ ३ ૪ For Personal & Private Use Only ५ ४. २०५६- ५ : २२६२- ५ २३६२- २५०६- ५. ५. ५ ५ १३८६- ९१" १५ १४५१-- ६२ ५ ५ .६ १५५२- ५६ १५५६-- ६५ १६१५- २३. १९८३ ८५ २०४६- ५० ६० ६३ ६७ ८ २५२६-. २५२८ २६२४ २६६५ २८ २५७० ७१ २५९५ - २६०० २६०१ ३ ६ २६८० ३१ २७ ७४ ८१ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ १८ ४ ६ २६९३-९५ १८ ७ ६ कषाय वर्णन प्रज्ञापना का निर्देश केवली यक्षावेष्ठित नहीं होते, वे निर्दोष __ भाषा ही बोलते हैं करणों (द्रव्यादि शरीर, इंद्रियादि) का वर्णन कतिसंचितादि व छक्कसमझियादि का वर्णन कर्म बंधन (बंधी शतक) का वर्णन कर्म-करण (करी शतक, करिसु शतक) वर्णन • कर्म-समर्जक शतक वर्णन क्षीण भोगी, (दुर्बल-शरीरी) मनुष्य भी भोग त्याग से ही त्यागी कहे जाते हैं। क्षेत्रातिक्रान्तादि दोषों का वर्णन २० १० २६ १--११ २७ १-११ २८ १-११ २७१४-१५ ६ २८२१-२५ ६ २९२२-४० ७ ३५४९--८९ ७ ३५९०-६२ ७ ३५९३-९९ __७ १ ३ १९७५-७८ ३ १०६६-११०१ खेचर तिर्यञ्च पंचेंद्रिय का योनि वर्णन जीवाभिगम का निर्देश ७ ५ ३ १९४७-४६ ७ १ २९६-३०२ ७ ७. १ १ ३०२-३१० ३०४-३०८ गर्भ में जीव की इंद्रिय सहित-रहित उत्पत्ति १ गर्भ में उत्पन्न होते ही आहार किसका ? माता____ पिता के अंग, स्थिति आदि गर्भ वर्णन १ गर्भ में मर कर नारकी या देव होने का वर्णन १ गर्भ में जीव को सुख-दुःखादि माता के समान • शुभाशुभ वर्णादि होने के कारण, साधा, उलटा, तिरछा उत्पन्न होना . गर्भ स्थिति, जल मनुष्य तिर्यंच की काय • भवस्थ । गर्भकाल, कितने का पुत्र हो सकता है, मैथुन में असंयम बुरे का दृष्टान्त २ गोशालक का सिद्धान्त, श्रावक का आचार .८ गतिप्रपात पर प्रज्ञापना का निर्देश .८ ७ १ ३०४-- १० ५ ५ ७ १ ४६२-- ६७ .३ १५८६-९१ ३ १४२६-२० For Personal & Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) 'विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ ८ ३२ ३ १४२८-- ३१ ४ १६१४-- ८९ ५ ८ . ५ गुरु आदि के प्रत्यनीक का वर्णन ८ गांगेय अनगार के प्रश्न भययुक्त ९ गर्भ में उत्पन्न होते हुए ही जीब के वर्णादि (श.२० उ. ३ भाग ६ पृ.२८४१-४३ में भी है) १२ गोलंगूलादि प्राणियों का नरक गमन १२ गौशालक का विस्तृत वर्णन १५ गंगदत्त कृत वंदनादि व उनके पूर्व भव १६ गुड़ आदि द्रव्यों में निश्चय व व्यवहार से वर्णादि निरूपण १८ गौतमस्वामी द्वारा अन्यतीथियों से वाद और - विजय, प्रभु द्वारा प्रशंसा १८ गम्मा शतक (चौबीसा) चौबीस दण्डक के ____उत्पादादि का वर्णन .२४ गणिपिटक (द्वादशांग) अनुयोगविधि २५. ४ २०५३-- ५९ ४ २०८२-- ८५ ५ . २३६८-२५०२ ५ २५४३-- ५२ ६ ६ २७०८-- १० ८ ६ २७३७- ४५ .. १-२४ ६ २९७८--३१९३ ३ । ७ ३२५७-५८ . १ । २१- ८३ . चलमाणे चलिए आदि ९ बोल, चौबीस दण्डक के जीवों की स्थिति, श्वासोश्वास आहार परिणमन चयोपचय उदीरणा वेदना और निर्जरादि ४५ द्वारों का वर्णन . चलमाणे अचलिए आदि अन्यतीथियों की मान्यता का उत्तर १ चमरेंद्र की राजसभा व चमरचंचा राजधानी २ चमरेंद्र का पूर्वभव सोधर्मस्वर्ग में उत्पात, वीर शरण ३ चमरेंद्र, शक्र, चक्र आदि की गति आदि ३ चमरेंद्र द्वारा वीरवंदन नृत्यादि प्रदर्शन ३ चौदहपूर्वी की शक्ति १ को १००० दिखा सकता है ५ चंद्रमा का वर्णन ५ ८ १० १ ३६२-६८ १ ५०३-५११ २ २ ६१७- ३७ २ २ ६३७- ४५ २ २ ६४५ - ५० ४ २ ८३०- ३२ ९. २ ९२९ - ३० For Personal & Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय चौबीस दण्डक के जीव कहाँ आयुष्य बाँधते, भोगते व महावेदना वेदते हैं चरमाचरम पर प्रज्ञापना का निर्देश (१३) चंद्र राशि तथा सूर्य को आदित्य कहने के कारण चमरेंद्र का चमरचंचा आवास चौबीस दण्डक के जीवों में सत्कारादि योग्यता चौबीस दण्डक में ईष्ट-अनिष्ट शब्दादि का अनुभव चौबीस दण्डक के जीवों का आहार चैतन्य कृत कर्म वर्णन चलना के भेद-प्रभेद चोबीस दण्डकों में जीवों की उत्पत्ति, गति उ. ६ भव्य, उ. १० अभव्य, उ. ११ सम्यग्दृष्टि, उ. १२ में मिथ्यादृष्टि (छ) छठे आरे का वर्णन छद्मस्थ दस स्थानों को सर्वथा नहीं जानते छद्मस्थ के समुद्घात पर प्रज्ञापना का निर्देश छद्मस्थ साधु अपने कर्म - लेश्या को नहीं जानते परं तद्युक्त जीव को जानते हैं । कर्म योग्य लेश्या पुद्गल प्रकाशित होते हैं (ज) जीव और पुद्गलों के संबंध पर नाव का दृष्टांत जिस लेश्या में जीव काल करता है, उसी में उत्पन्न होता है जीवों के कर्मोपचय मनादि प्रयोगों से और वस्त्र के पुद्गलोपचय दोनों प्रकार से जीवों के सुख या दुःखादि को कोई निकाल कर नहीं बता सकता शतक उद्देशक भाग ७ ६ ८ ५ १२ १३ १४ १४ १४ १६ १७ १३ १४ ७ ६ ८ २ १ ३ ३ ६ ४ ६ २५ ८-१२ ७ ३ ३ ५ ६ ६ २ ३ १० ९ ६ ४ १० ५ ५ For Personal & Private Use Only ३ ३ ५ ५ ५ ५ ५ २६१८-२ ५ १ २ पृष्ठ २ ११४९ -- ५२ १३७१-- ७२ २०६५-- ६६ २२२७- ३१ २२६७-२३०२ २३१६-- १८ २३२०-- २१ २५२४- २६ ३५४० ४८ ११५८ ६७ १२९६ ९७ २२७२-- ७४ २३५४-- ५६ २८० - ८२ ६७९ - ८१ ६४६ ५६ २ १०६६-६६ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१४) سه سه سه . विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ जीव-चैतन्य की एकता, जीव के प्राणों की पृथक्ता तथा भव्य-अभव्य ६. १० .२ . १०६९-- ७१ जीवों के सुख-दुःखादि वेदने का वर्णन ६ १० २ १०७२-- ७३ जीव द्रव्य से शाश्वत भाव से अशाश्वत है ७ . २ ३. ११२८- ३० जीव द्रव्याथिक नय से शाश्वत पर्यायाथिक __नय से अशाश्वत है ___७ ३ ३ ११४३-- ४५ जीव हाथी व कुंथुए का समान है । राजप्रश्नीय सूत्र का निर्देश ७ ८ ३ ११८२-- ८३ . जीव के शरीर और अवयवों के बीच में रहे आत्म-प्रदेशों को अग्नि आदि कोई बाधा नहीं होती (श. १८ उ. ७ भाग ६ पृ. २७२९-३० में भी) ८ ३ ३ १३७९-- ७० जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों जितने हैं ८ १० , ३ १५५१-- " ५२ जीवादि पुद्गल-पुपली तथा सिद्ध पुद्गल ८ १० ३. १५६५-- ६७ जम्बूद्वीप कहां है ? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का निर्देश ६ १. ४ १५७२-- ७३ जमाली वर्णन ९ ३३ ४ १७०५-- ७१ जागरिका तीन का वर्णन १२ १ ४ १९८२-- ८३ जयन्ति श्राविका के प्रश्न १२ २ . ४ १९८६-- ९८ ज्योतिषियों व तदंतरगत व्यन्तर व भवनपतियों के काम-भोगों का वर्णन १२ ६ ४ २०६७- ७० जीव ने पूरे लोक में अनन्त बार जन्म-मरण किया है, सभी स्थान व सभी जीवों से संबंध कर चुका है। बकरियों के बाड़े का दृष्टांत १२ ७ ४ २०७०- ८१ जीव एक समय में सुखी, एक समय में दुःखी : १४ ४ . ५ २३०५- ६ मुंभक देवों के भेद, स्थिति, निवास, कोप आदि . १४ ८ ५ २३५१- ५४ जरा शारीरिक शोक मानसिक का वर्णन १६ २ ५ २५१७- १९ For Personal & Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ २५ जीवों के पापकर्मों के बंध की अपेक्षा भेद है। ___ धनुष का दृष्टान्त १८ ३ ६ २६८८ -- ९० जुम्मा (युग्म ) चार का जीवादि २६ संबंधी वर्णन १८ ४ ६ ६६९५-- ९९ जीव जिस गति में रहता है, उसी के आयुष्य का वेदन करता है तथा परभव का आयुष्य सन्मुख करता है १८ ५ ६ २७०४- ५ जिनान्तर २३, सात जिनांतरों में कालिक सूत्रों का विच्छेद २० ८ ६ २६०४- ६ जंघाचारण विद्याचारण की शीघ्र गति ६ २९११-- १८ जीव के १४ भेद, उनके जघन्य उत्कृष्ट योग २५ १ ७ ३१९७---३२०६ जीव द्रव्य अनन्त है '७ ३२०६८ जीव, अजीव द्रव्यों से शरीर आदि १४ निष्पन्न ___करता है । असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य हैं २५ २ .७ ३२०८- १२ जीव द्वारा शरीरादि रूप से ग्रहीत स्थित, अस्थित पुद्गलों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव २५ २ ७ ३२१२जुम्मा चार का द्रव्य प्रदेश, अवगाहना .. . स्थिति और पर्याय का तत्संबंधी वर्णन २५ ४ ७ ३२६२--- ८० जुम्मा (क्षुल्लक युग्मादि) का उत्पाद आदि वर्णन . ३१ १-२८ ५ ३६४०- ५७ जुम्मा का उद्वर्तना वर्णन २ १-२८ ७ ३६५८- ६० अन्तर शतक जुम्मा (एकेंद्रियादि महायुग्म) १२ ३५ १३२ ७ ३७३०- ५८ " . बेइंद्रियादि " ३६ १३२ ७ ३७५९- ६४ तेइंद्रियादि ३७ १३२ ७.३७६५ " पारिद्रिय " ३८ ... १३२ ७ ३७६६ " असंज्ञी पंचेंद्रिय " ३६ १३२ ७ ३७६७ " संशी पंचेंद्रिय " ४० : २१ ७. ३७६८-८६ " राशि युग्म वर्णन . ४१ १९६ ७ . ३७८७-३८१४ For Personal & Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ (त) तुंगिया नगरी के श्रावकों का वर्णन, प्रश्नोत्तर २ ५ १ ४६८- ४९१ तथारूप के श्रमण माहन की सेवा का फल २ ५ १ ४९१-४९५ तमस्काय का स्वरूप ६ ५ २ ९९९-१०११ तथारूप के संयती-असंयती को दान देने का फल ८ ६ ३ १३९२- ९५ त्रायत्रिंशक देव वर्णन १० ४ ४ १८०९- १९ तमस्काय । ईशानेन्द्र का तमस्करण कारण १४ २ ५ २२९३- ९५ तुल्यता के भेद-प्रभेद १४ ७ ५ २३२९- ३६ तीर्थकर और तीर्थ का स्वरूप २० ८. ६ २९०३- ५ तप के भेद-प्रभेद २५ ७ ७ ३५००-३५४० ७ १ २८६- ९२ ७ १ २९२- २९६ ७. ४ १ २ ५००-- ५०३ ८१४-- १७ देश से देश व आधे से आधा उत्पन्न होने व ___आहार लेने सम्बन्धी प्रश्नोत्तर १ देव कुछ समय तक लज्जा व जुगुप्सा के कारण ___ आहार नहीं लेते १ देव चार प्रकार के व उनके स्थानादि वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश । कल्पविमानों के आधार के लिए जीवाभिगम का निर्देश २ देव नोसंयती है । देवों की भाषा अर्द्धमागधी है ५ . देवलोक चार प्रकार के । श. ८ उ. ५ भाग ३ पृ. १३८७-९१ पर तथा श. २० उ. ८ भाग ६ पृ. २९०८-९ पर भी है ५ देवों की पुद्गलों को ग्रहण कर के विकुर्वणा करने की शक्ति, भिन्न वर्णादि रूप से परिणमन ६ देवों के शुद्ध-अशुद्ध लेश्या व उपयोग रहित या सहित जानने न जानने संबंधी १२ भांगे ६ दीपक नहीं जलता, अग्नि जलती है ८ ९ २ ९२७- २९ ९ २ १०६०-- ६३ १. २ १०६३- ६ ३ १४०६-- ६६ ७ For Personal & Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ द्वीप-समुद्रों में ज्योतिषियों की संख्या पर जीवाभिगम का निर्देश ९ २ ४ १५७३- ७५ दिशाएँ व उनमें रहे जीवादि पदार्थों का वर्णन १० १ ४ १७८३-८९ देव आत्म-ऋद्धि से ४-५ आवास तक ही जा सकते हैं । मध्य होकर निकलने की क्षमता १० ३ ४ १८००- ६ '. देव स्थिति, ऋषिभद्र पुत्र का प्रभु कथित आगामी भव वर्णन ११ १२ ४ १९६०-६६ देव (महद्धिक) चव कर सर्प, हाथी, मणि, वृक्षादि में उत्पन्न हो कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर मनुष्य बन कर मोक्ष जा सकते हैं १२ ८ ४ २०४२- ८५ देवावासों में लेश्यादि बोल वालों के उत्पन्न होने आदि की संख्या व लेश्याओं के शुभाशुभ ..होने का वर्णन । देवों में दृष्टि १३ २ ५ २१५९-७४ दिशाओं का प्रारंभ, वृद्धि व संस्थान आदि वर्णन १३ ४ ५ २१८५- ८८ देवता वृष्टि क्यों व कैसे करते हैं ? १४ २ ५ २२६१-६३ देवों का मुनियों से बर्ताव व उनके मध्य गमन १४ ३ ५ २२९५- ९७ देवों के सहस्र रूपों की भाषा एक ही कही जाती है १४ ९ ५ २३५७-- ५८ द्वीपकुमार उदधि, दिशा, स्तनित आदि के समाहारादि का कुछ वर्णन १६ ११-१४ ५ २५८९-- ९२ देव रूपी से अरूपी व अरूपी से रूपी नहीं कर सकता ___ १७ २ ५ २६१२-- १५ दो देव (एक ही आवास के) मनोज्ञ व अमनोज्ञ विकुर्वणा क्यों दिखाई देते हैं १८ ५ ६ २७००-- २ दो देवों (एक ही आवास के) में एक इच्छानुसार विकुर्वणा कर लेता है दूसरा इच्छा के विपरीत क्यों १८ ५ ६ २७०५ - ७ देवों की विकुर्वणा से संग्राम वर्णन . १८ ७ ६ २७२९- ३१ देवासुर संग्राम में देव स्पर्शित तृणादि भी शस्त्र रूप बन जाते हैं १८ ७ ६ २७३०- ३१ For Personal & Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय देव रुचकवर द्वीप तक चौतरफ पर्यटन करते हैं, आगे जाते तो हैं, पर पर्यटन नहीं करते देवों के कर्माशों का क्षय काल आदि द्वीप समुद्र वर्णन पर जीवाभिगम का निर्देश देवों के आवासों का वर्णन (ध) (१८) धान्यों का कालमान धर्मास्तिकायादि तीनों पर बैठना, सोना नहीं हो सकता, दीपक का दृष्टांत धर्माधर्मं स्थिति अपेक्षा वर्णन, धर्माधर्म पर कोई बैठ या सो सकता है क्या धर्मास्तिकाय आदि पाँचों के पर्यायवाची नाम (त) नमस्कार मंत्र, राजगृह नगर, प्रभु-देशना, गौतमस्वामी का वर्णन नैरयिक नरक में उत्पन्न होते हैं, इस पर प्रज्ञापना का निर्देश नैरयिक चार सौ पाँच सौ योजन तक खचाखच भरे रहते हैं, उनकी विकुर्वणा आदि पर जीवाभिगम का निर्देश नरक तथा देवलोकों के नीचे गृह- मेघादि वर्णन देवों के सातवीं नरक के नीचे जाना इस पाठ से भी प्रमाणित होता है नैरयिक दस प्रकार की वेदना वेदते हैं। नरकादि में लेइयादि ३९ बोल बालों के उत्पन्न होने की संख्या तथा शुभाशुभ लेश्या नरकावास किस नरक से किसके बड़े हैं, आदि शतक उद्देशक भाग पृष्ठ १८ १८ १९ १९ १३ ६ १७ २० १ ३ ७ १३ १३ For Personal & Private Use Only 9 9 ur 9 ७ ७ ६ ७ ७ ४ २ २ १ ८ ८ १ ४ ६ ६ ६ ६ २ ५ ५ -२२२१-२३ ६ १ २ २ २ ३ ५ २७३०- ३१ २७३१- ३५ २८०५-- ६ २८०७-- १० ५ १०३१- ३३ २६०५- ७ २८३६- ४१ १-- २० ७४४-- ४५ ८५६- ५८ १०४४ - ५० १९८४- ८६ २१३६- ५८ २१७५-८१ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ नैरयिक पृथ्व्यादि पाँचों का अनिष्ट स्पर्शानुमव १३ ४ ५ २१७५-८१ नरकों की परस्पर अपेक्षाकृत लम्बाई, चौड़ाई १३ ४ ५ २१७५-- ८१ नरकावासों के पास वाले पृथ्वीकायादि महाकर्म महावेदना वाले है १३ ४ ५ २१८१ नारकी जीव पुद्गलों व संज्ञाओं का अनिष्टादि परिणाम अनुभव करते हैं १४ ३ ५ २३०२- ३ नरयिकों में मिथ्यात्वी की महाकर्म समकिती को अल्प १८ ५ ६ २७०२- ३ नरक, देवलोक व सिद्धशिला के नीचे के द्रव्यों में वर्णादि २० बोल १८ १०६ २७५२-५४ निर्वृत्ति-जीव, इंद्रिय, कर्मादि का वर्णन ६ २८१०-२१ निगोद के भेदों पर जीवाभिगम का निर्देश ७ ३३४८ निग्रंथादि पांच के भेदादि ३६ द्वार ७ ३३५१-३४३८ नरक पृथ्वी वर्णन, जीवाभिगम का निर्देश १२ ३ ४ १९९८-२००० १ ४ ३ ३ ४ २१४-- १५ ४५४-- ५६ ६६५ - ६७ ८१९-२१ २ २ परमाणु पुद्गल, स्कंध और जीव शाश्वत हैं १ पृथ्वी (नरक) के वर्णन पर जीवाभिगम का निर्देश २ प्रमत्त-अप्रमत्त संयत की स्थिति ३ प्रमाण के भेदों पर अनुयोगद्वार सूत्र का निर्देश । ५ परमाणु पुद्गलादि का एजनादि कंपन, असिधारा अवगाहन ५ परमाणु सार्द्ध, समध्य व सप्रदेशी हैं क्या ? ५ परमाणु आदि के परस्पर स्पर्शना संबंधी नौ भंग ५ परमाणु आदि की स्थिति, कंपन, अकंपन, अंतरकाल ५ पुद्गलों के द्रव्य, क्षेत्र, अवगाहन तथा भाव स्थान ५ पुद्गलों के द्रव्यादि आश्रित सप्रदेशी अप्रदेशी आदि ५ प्रत्याख्यानादि का ज्ञान व उनके द्वारा आयुष्य बंधन ६ ७ ७ ७ ७ ७ ८ ४ २ २ २ २ २ २ २ ८६४-६८ ८६८-- ७० ८७०-- ७६ ८७७- ८४ ८८२-- ८४ ८९३--९०२ ९९५-९९९ For Personal & Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद आदि ७ २ ३ ११०९-२८ पापकर्म दुःख का हेतु, निर्जरा सुख का कारण है ७ ८ ३ ११८३-८६ पाप व कल्याण के विपाक पर विष व औषधि मिक्षित पकवान का उदाहरण । कालोदायी का ७ १० ३ १२२१-२५ पुद्गल के प्रयोगादि भेद-प्रभेद ८ १ ३ १२३२-५४ पुद्गल के वर्णादि पांच परिणाम, द्रव्य प्रदेशादि ८ १० ३ १२५४--८७ पुरुष, ऋषि आदि की घात करने वाला कितने जीवों का घातक ९ ३४ ..१७७१-७६ पृथ्वी आदि पांचों का उच्छ्वास रूप से ग्रहण - होना व उससे लगने वाली क्रिया १७७७-८१ पुद्गल परिव्राजक का वर्णन १९६६-७० पुद्गलों के संयोग-वियोग के भंग १२ ४ ४ २०००-३१ पुद्गल परावर्तन अधिकार १२ ४ ४ २०३१-४५ परिचारणा । प्रज्ञापना का निर्देश १३ ३, ५ २१७४-७५ पृथ्वीकाय आदि का परस्पर अवगाहन १३ ४ ५ २२१५-२१ परमदेवावास अप्राप्त अनगार की गति । देवों में भावलेश्या ही परिवर्तित होती है २२७६-७८ पुद्गलों का एक समय रूक्ष, एक समय अरूक्ष, एक समय रूक्षारूक्ष आदि परिणमन १४ ४ ५ २३०३- ५ परमाणु पुद्गल द्रव्य से शाश्वत भाव से अशाश्वत हैं १४ ४. ५ २३०६-- ८ परमाणु का द्रव्य-क्षेत्रादि से चरमाचरम २३०६-८ परिणमन स्वरूप पर प्रज्ञापना का निर्देश २३०८-९ परिणत हुए पुद्गलों को परिणत कहना . १६ ५ ५ २५४३-५२ . परमाणु की एक समय में लोकांत से लोकांत तक गति १६ ८ ५ २५८२-८३ प्रथम-अप्रथम तथा चरमाचरम वर्णन १८ १ ६ २६४८-६४ परमाणु आदि में वर्ण, गंधादि (श. २० उ. ५ भाग ६ पृ. २८४५ में भी है) १८ ६ ६ २७१०-१३ For Personal & Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) . विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ पुद्गलों (परमाणु आदि) के ज्ञानाज्ञान व देखना न देखना १८ ८ ६ २७४२-- ४५ परमाणु पुद्गलादि की वायुकाय के साथ स्पर्शना १८ १०६ २७५१-- ५४ पृथ्वी आदि के ४-५ जीव साधारण शरीर नहीं __बांधते । उनमें लेश्यादि के १५ बोल १६ ३ ६ २७७१-- पृथ्वी आदि में कौन सूक्ष्म व कौन बादर है ? १९ ३ ६ २७८५-- पृथ्वी आदि के शरीर की सूक्ष्मता पर चक्रवर्ती की दासी का दृष्टान्त १९ ३ ६ २७९०पृथ्वी आदि के स्पर्श का दुःख । वृद्ध का दृष्टान्त १९ ३ ६ २७९१-- ९३ प्राणातिपातादि आत्मा से भिन्न परिणत नहीं होते २० ३ ६ २८४१-- ४५ परमाणु द्रव्यादि चार का स्वरूप २० ५ ६ २८८६--८८ पृथ्वी, पानी, वायुकाय के जीव उत्पन्न हो कर - आहार लेते हैं (श. १७ उ. ६-११ में भी) २० ६ ६ २८८९-- ९५ पूर्वो का ज्ञान वीरशासन में १००० वर्ष तथा अन्य शासनों में संख्यात-असंख्यातकाल रहा २० ८ ६ २९०६- ७ प्रवचन-प्रवचनी तथा कुलों में सिद्ध होने का वर्णन २० ८ ६ २९०७-- ८ परमाणु आदि का द्रव्यादि कृतयुग्मादि तथा सार्दादि का विस्तृत वर्णन २५ ४ ७ ३२६२-३३३३ पर्यवों के भेदों पर प्रज्ञापना का निर्देश २५ ५ ७ ३३३६प्रतिसेवनादि वर्णन ७ ३४४८-३४९२ प्रायश्चित्त के दस भेद २५ ७ ७ ३४९८-३५०० बंध-ईर्यापथिक व सांपरायिक ८ बंध-प्रयोगादि का विस्तृत वर्णन (बंध छत्तीसी) बलिंद्र की सुधर्मा सभा व बलिचंचा राजधानी १६ बंध-द्रव्य व भाव उनके भेद-प्रभेद १८ ८ । ९ ३ ३ १४३५- ५१ ३ १४६९-१५३७ ५ २५८६- ८८ ६ . २६८५- ८८ For Personal & Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ १८ । ४ ६ २६९५- ९६ बादर अग्निकाय के जीव जघन्य उत्कृष्ट आयु वाले समान हैं। कोई सूक्ष्म के समान मानते हैं बेइंद्रियादि ४-५ जीव मिल कर साधारण शरीर नहीं बाँधते हैं तदाश्रित लेश्यादि बोल बंध-प्रयोगादि तीन व उनका विस्तृत वर्णन २०१६ २८२८- ३० २० ७ ६ २८९६-२९०० भाषा वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश २ ६ १. ४९९-५०० भिक्षु-प्रतिमा पर दशाश्रुतस्कंध सूत्र का निर्देश १० २ ४ १७९७-~- ६६ भाषा (व्यवहार भाषा) के १२ भेद १० ३ ४ १८०६-- ६ भव्यद्रव्यादि ५ देवों का वर्णन १२ ४ ४ २०८६-२१०५ भावदेव भवनपति आदि की अल्पाबहुत्व पर __ जीवाभिगम का निर्देश १२ ४ २१०२-२१०५ भक्त-प्रत्याख्यानी अनगार का आहार १४ ७ ५ २३३६- ३८ भाव ६ प्रकार के (श. २५ उ. ५ भाग ७ में भी) भव्य-द्रव्य नरकादि चौबीस दडंकों का वर्णन, स्थिति १८९ ६ २७४५-- ५० (म) मोहनीय कर्म के उदय से उपस्थान व अपक्रमणादि १ ४ १ २०७-- १० मृतादि अनगार का वर्णन २ . १ १ ३८५-६० महा तपोतीर-प्रभव नामक गरम पानी का झरना २. ५ १ ४९५- ९८ महाशुक्र के दो देवों का शिष्यों की सिद्धि विषयक प्रश्न ५ ४ २ ८.९-- ८१४ महावेदना व महानिर्जरादि पर वस्त्र का दृष्टान्त प्रशस्त निर्जरा ही श्रेष्ठ है ६ १ २ ६३२- ३४ मारणांतिक समुद्घात एक या दो बार कर के उत्पन्न होने व आहार लेने का वर्णन ६ ६ २ १०२५-- ३० महाशिलाकंटक संग्राम का वर्णन ७ ९ ३ ११९०- ९९ मरण-आविचि आदि के ५ भेद-प्रभेद १३ ७ ५ २२५४.- ६२ For Personal & Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय महावीर स्वामी द्वारा गौतम स्वामी को आश्वासन, चिरकालीन संबंध माकंदी पुत्र व उनके प्रश्न मद्रुक श्रावक का वर्णन ( २३ ) (य) योनि वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश महास्रवादि के सौलह मंगों की दण्डकापेक्षा पृच्छा महाकर्मादि के चौबीस दण्डक पर आयुष्य आश्रित प्रश्न महाव्रत ४ तथा ५ की प्ररूपणा वर्तमान अवसर्पिणी की चौबीसी (र) रोह अनगार के लोकालोक संबंधी प्रदर राजगृह नगर किसे कहते हैं ? रथमूसल संग्राम का वर्णन रूपी अरूपी वस्तु का वर्णन राहु ( पर्व व नित्य) के विमानादि का वर्णन (ल) लेश्याधिकार पर प्रज्ञापना का निर्देश ( श. २५ उ. १ भाग ७ पृ. ३१९६ में भी है) लोकांतिक स्पर्शना लोक स्थिति के आठ प्रकारों का वर्णन शतक उद्देशक भाग पृष्ठ १४ १८ १८ १९ १९ २० लवण समुद्र के चतुर्दशी आदि को बढ़ने - घटने लोकपालों (शके) का वर्णन लोकपालों (ईशानेंद्र के) के चार विमान व चार राजधानियाँ श्याओं के परस्पर परिणमन पर प्रज्ञापना का निर्देश (श. १९ उ. १ भाग ६ पृ. २७६६ पर भी ) १० १ ५ ७ १२ १२ १ १ ३ ४ ૪ ४ ७ ५ ३ ६ ७ ६ ६ ४ ५ ८ २ ६ ९ For Personal & Private Use Only ९ ५ ६ २ ६ ६ ६ ६ १ १ १. ३ २ १-८ २ ܢ ४ १ १ ३ ४ ४ १-८ २ २ २३२६- २९ २६७४-- ९१ २७२०-- २८ २७९४ - २८०१ २५०१- ५ २९०३ - ५. १७९३-९७ २६९ ७६ ९१४- १५ ११९९ - १२१३ २०४६- ५९ २०६०-- ६६ १४२- ४५ २६१- ६४ २७६- ८० ६६८- ६९ ७३९- ४३ ७३९-- ४३ ७४६- ४९ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ २ ७८५--८६ २ १०१८--२३ २ १०५६--५९ ३ १०८१-८२ ३ ११३४-१७ ४ (टीका में) लवण समुद्र के विष्कंभादि पर जीवाभिगम का निर्देश ५ २ लोकांतिक देवों का वर्णन ६ . ५ लवणादि समुद्र व द्वीपों का वर्णन, संख्या आदि६ ८ लोक संस्थान ७ १ लेश्या वाले नैरयिकादि के कर्मों की न्यूनाधिकता ७ ३ लोकालोकस्वरूप के अन्तर्गत निगोद छत्तीसी है ११ १. लोक, अधोलोक आदि का मध्य भाग लोक का सम, संक्षिप्त व वक्रभाव कहाँ है ? १३ ४ लोक संस्थान व अल्पाबहुत्व लेश्या (भाव) ही देवों में पलटती है, द्रव्य नहीं १४ लवसप्तम सर्वार्थसिद्ध के देव कहे जाते हैं १४ ७ लोक महत्ता तथा चरमान्तों में जीवाजीवादि १६ ८ लेश्या वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश १९ २ ५ २२२३-२४ ५ २२२४-२५ ५ २२७६ ५ २३३८-४. ५ २५७३-८२ २७७०-७१ ६ व्यन्तर देवों के आवासों का वर्णन विग्रह गति-अविग्रह गति का वर्णन १ वीर्य (लब्धि व करण) सहित या रहित जीवादि वर्णन १ वायुकाय का उच्छ्वास । कायस्थान . २ वाय-विकूर्वणा तथा बादल के रूप ३ वायु के दिशा, विदिशा द्वीप समुद्रादि में चलने के प्रकार ५ वृद्धि हानि अवस्थित तथा सोपचयादि का जीवादि ___ आश्रित वर्णन ५ वेदना व निर्जरा की चौभंगी उदाहरण सहित ६ वनस्पतिकाय किस ऋतु में कम व अधिक आहार लेती है तथा मूल से बीज पर्यन्त भेद ७ वेदना व निर्जरा का वर्णन ७ ७ ८ १ ४ २ १ १ १ २ २ २९२-६६ ३२६-२९ ३८२--८५ ६७३-७९ ७७४-८१ ८ १ २ २ ९०२-१३ ९३२-३८ ३ ३ ३ ११३०-३४ ३ ११३७-४३ For Personal & Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ वरण नागनत्तुआ व उसके बालमित्र का वर्णन ७ ९ ३ १२०३-- १३ बनस्पति, संख्यात, असंख्यात व अनंतजीवी, भेद-प्रभेद ८ ३ ३ १३६७- ६९ व्यवहार के ५ भेद ८ ८ ३ १४३२-- ३४ वृक्ष मूलादि को हिलाने से वायुकाय को लगने वाली क्रियाएँ ९ ३४ ४ १७७८-- ८१ वीचि (कषाय) अवीचिमान साधु को रूप निरीक्षण ___ करते लगती हुई क्रिया १० २ ४ १७९१- ९३ वेदना वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश (श. १९ उ. ५ भाग ६ में भी) १० २ ४ १७९३- ९७ विग्रहगति एकेंद्रिय में ४ तथा शेष में १, २, ३ समयों की १४ १ ५ २२७८-- ८. वीचि-अवीचि द्रव्यों का आहार चौबीस दण्डक पर १४ ६ ५ २३२०-- २१ वर्षा जानने के लिए हाथ फैलाने वाले को क्रियाएँ १६ ८ ५ २५८३- ८४ व्यन्तर देव के समाहारादि । - १९ १०६ २८२६ : वनस्पति वर्ग वर्णन २१, २२ २३ तीन शतकों में २१ ८. ६ २६४२- ७४ व्युत्सर्ग के भेद-प्रभेद २५ ७ ७ ३५३७-- ४० ९ १ १ ३३९-- ४१ २ ५९५-- ९६ श्रमण-निर्ग्रथों का लाघव । क्रोधादि का अभाव प्रशस्त है तथा कांक्षा प्रदोष क्षीण होने से मोक्ष जाते हैं १ शकेंद्र के विमानों से ईशानेंद्र के विमान कुछ उँचे हैं ३ शक्र-ईशानेन्द्र का मिलन, आलाप-संलाप तथा विवाद निर्णय ___३ श्रमणोपासक को सामायिक में भी सांपरायिकी क्रिया ७ श्रावक वनस्पति की हिंसा का त्यागी हो, तो पृथ्वीकाय खोदते हुई वनस्पति की हिंसा से व्रत भंग नहीं ७ श्रावक श्रमण-माहनों को दान देता हुआ समाधि प्राप्त करता है यावत् सिद्ध होता है ७ १ २ ५९६-६०१ २ १०८२-- ८३ १ १ ३ १०८३- ८५ । ३ १०८५--- ८७ For Personal & Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) विषय शतक उद्देशक भाग पृष्ठ शस्त्रातीत, शस्त्र परिणत, एषित वेषित आदि आहार वर्णन (आहार के ४२ दोष) ७ १ ३ ११०१- ९ श्रावक व्रत के ४९ व ७३५ भांगों का वर्णन ८ ५ ३ १३७८-- ८६ श्रुत शील की चोभंगी ८ १० ३ १५३७- ४१ शरीर वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश ४ १७९० शकेंद्र की सुधर्मा सभा आदि का वर्णन १० ६ . ४ १८३६-- ४१ शिव राजर्षि चरित्र ११ ९ ४ १८७४- ९६ शंख-पुष्कली वर्णन ४ १९७१-- ८५ शीघ्र गति का उदाहरण सहित वर्णन .५ २२७८- ८० शाल वृक्षादि की एकावतारता १४ ८ ५२३४५- ४७ शक शक्ति मस्तक छेदन संबंधी वर्णन ५२३४९- ५० श्रमण-निग्रंथों की दैविक सुखों से तुलना १४ ९ ५ २३५९- ६२ शकेंद्र की सावद्य निरवद्य भाषा व भव्यत्व आदि १६ २ ५ २५२१- २४ श्रमण-निग्रंथों को उपवासादि से हुए कर्मक्षय का वर्णन १६ ४. ५.२५३१- ३७ शकेंद्र द्वारा संभ्रान्त होकर पूछे आठ प्रश्न व शीघ्र गमन १६ ५ ५ २५३७- ४३ श्रेणी वर्णन ७ ३२४४-- ५३ श्रेणियाँ ७ तथा जीव पुद्गल अनुश्रेणी से गति करते हैं २५ ३ ७ ३२५३- ५६ शरीर वर्णन पर प्रज्ञापना का निर्देश । २५ ४ ७ ३२८० २५ स्वकृत दुःख-सुख व आयु वेदन १ सम शरीर आहार उच्छ्वास आदि . संसार संस्थान (संचिट्ठन) काल । १ सूर्य उदय-अस्त होते समय की समान दूरी १ समान वयादि के दो पुरुषों की हार-जीत का कारण १ स्कंध वर्णन और प्रश्नोत्तर : समदघात के भेदादि पर प्रज्ञापना का निर्देश २ समय-क्षेत्र वर्णन पर जीवाभिगम का निर्देश २ २ १ ११०- १४ २ १ ११४- ३६ २ १ १४५ - ५१ ६ १ २५८- ६१ ८ . १ ३२५ - २६ १ ३९०-४५० २ १ ४५०- ५३ ९ १ ५११- १२ For Personal & Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) विषय सनत्कुमारेंद्र का स्वरूप संसारी जीवों के भेदों, सम्यक्त्व- मिथ्यात्व क्रिया साता-असातावेदनीय कैसे बाँधते हैं ७ ७ संज्ञा १० का चौबीस दण्डक की अपेक्षा वर्णन सामायिक में बैठे श्रावक के चुराए भांड की गवेषणा ८ साधु को अन्य स्थविरों के लिए दिए आहारादि और उनके न मिलने पर क्या करना सूर्य पृथ्वी से समान ऊँचा है फिर भी दिखाई क्यों देता है ? दूर . सिद्धि किस संहनन में होती है, सिद्धगंडिका सुदर्शन सेठ........ पूर्व-भव का महाबल चरित्र साधु की नाना-नाना प्रकार की विकुर्वणा, शक्ति, गति, आराधना आदि निकट संवेग - निर्वेद आदि का अंतिम फल मोक्ष सोमिल ब्राह्मण के यात्रा आदि के प्रश्न सोपक्रम - निरूपम आयुष्य वर्णन स्व-पर निरूपक्रम से तथा आत्म- ऋद्धि कर्म प्रयोग से उत्पत्ति, मरण सम-विषम योगी वर्णन शतक उद्देशक भाग पृष्ठ २ ६०१ ३ ११४५- ३ ११५६ ३ ३ ३ ७ ८ १३ . सूर्योदय को देख कर गौतम स्वामी द्वारा किए गए प्रश्न १४ • स्वप्न अधिकार १६ १७ १८ २० ८ ११ ११ २० २५ संस्थान ६ व ५, रत्नप्रभादि संस्थान, प्रदेश अवगाह तथा संस्थान के प्रदेशादि कृतयुग्मादि २५ सेजन निरेजना का सिद्ध संसारी जीव आश्रित वर्णन संयत वर्णन के ३६ द्वार २५ २५ समाचारी के १० भेद २५ समवसरण शतक ३० For Personal & Private Use Only १ ४ ६ ८ ५ ६ ८ ९ ११ ९ ९ ६ ३ १० १० १० १ ४ ७ ५ ४७ ५८ १९८३- ८६ १३७४- ७८ ७ ३ १३९५- ९९ ३ १४६२-- ६९ ४ १८९४-- ९६ ४ १९१५- ६० ७ १२१७- ७३२८० ७ ३४४१ ७ ३४६६ १-११७३६०८ ५ २२६३- ७२ ५ २३५८ ५९ ५ २५५२-- ७० ५ २६२१- २३ ६ २७५४-- ६७ ६ २९१८-- २० ६ २६२०- ७ ३१६८-३२०६ २२ ૪૪ ८३ ९१ £4 ४८ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय (ह) • हरिणेगमेषी देव द्वारा गर्भ-संहरण वर्णन हेतु अहेतु पंचक ज्ञान-अज्ञान व ज्ञानादि लब्धि वर्णन (२८) शतक उद्देशक भाग ५ ८ * ७ २ For Personal & Private Use Only २ ८०२ २ ८९० ३ पृष्ठ ॥ भगवती सूत्र की हुंडी सम्पूर्ण .. प्रथम के ३२ शतकों में व ४१ वे शतक में अवान्तर शतक नहीं है । शतक ३३ से ३९ तक के ७ शतकों में १२-१२ अवान्तर शतक हैं । शतक ४० में २१ अवान्तर शतक हैं। इस प्रकार भगवती सूत्र के १३८ शतक होते हैं । ( ३३+१२४७ ८४ + २१=१३८) संग्रहणी गाथा के यंत्रानुसार उद्देशक १९२३ हैं, परंतु अधिकतर १९२५ माने जाते हैं । कारण यह है कि १२ वें शतक के १२ उद्देशक गिने जाते हैं । परन्तु प्रस्तुत वाचना ( आगमोदय समिति ) में पृथ्वी, अप, वायु का सम्मिलित छट्टा उद्देशक होने से १० हैं, इस प्रकार १९२३ उद्देशक होते हैं । ५ ९२ १२९८ - १३४४ || Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35-00 संघ के अन्य प्रकाशन क्रं. नाम __ मूल्य क्रं. नाम मूल्य 1. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग 1 14-00 | | 24. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग 3 10-00 2. अंगपविठ्ठसुत्ताणि भाग 2 40-00 | 25. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग 4 10-00 3. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग 3 30-00 26. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त 15-00 4. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त 80-00 27. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग 1 8-00 5. अनंगपविठ्ठसुत्ताणि भाग 1 35-00 28. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग 2 10-00 6. अनंगपविठ्ठसुत्ताणि भाग 2 40-00 26. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग 3 10-00 7. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त 80-00 | 30-32. तीर्थंकर चरित्र भाग 1,2,3 140-00 8. अनुत्तरोववाइय सूत्र 3-50 | 33. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग 1 6. आयारो 8-00 | 34. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग 2 30-00 10. सूयगडो 6-00 | 35-37. समर्थ समाधान भाग 1,2,3 57-00 11. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 10-00 38. सम्यक्त्व विमर्श 15-00 12. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) 5-00 36. आत्म साधना संग्रह 20-00 13. णंद्री सुत्तं (गुटका) अप्राप्य 40. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी 20-00 14. चउछेयसुत्ताई 15-00 | 41. नवतत्वों का स्वरूप 13-00 15. आचारांग सूत्र भाग 1 25-00 | 42. अगार-धर्म 10-00 16. अंतगडदसा सूत्र 10-00 | 43. Saarth Saamaayik Sootra 10-00 17-16. उत्तराध्ययनसूत्र भाग 1,2,3 45-00 | 44. तत्त्व-पृच्छा 10-00 20. आवश्यक सूत्र (सार्थ) 10-00 | 45. तेतली-पुत्र 45-00 21. दशवैकालिक सूत्र . 10-00 | 46. शिविर व्याख्यान 12-00 22. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग 1 10-00 | 47. जैन स्वाध्याय माला 23. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग 2 10-00 | 48. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग 1 22-00 - 18-00 For Personal & Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***本中部中中中中中非少$$************本***** 多 多多多多本 * ** ****** * ****************** * मूल्य 3-00 4-00 1-00 2-00 0-50 . . 3-00 1-00 2-00 3-00 1-00 क्रं. नाम . 46. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग 2 50. सुधर्म चरित्र संग्रह 51. लोंकाशाह मत समर्थन 52. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 53. बड़ी साधु वंदना 54. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय 55. स्वाध्याय सुधा 56. आनुपूर्वी 57. सुखविपाक सूत्र 58. भक्तामर स्तोत्र 56. जैन स्तुति 60. सिद्ध स्तुति 61. संसार तरणिका 62. आलोचना पंचक 63. विनयचन्द चौबीसी 64. भवनाशिनी भावना 65. स्तवन तरंगिणी 66. सामायिक सूत्र 67. सार्थ सामायिक सूत्र 68. प्रतिक्रमण सूत्र 69. जैन सिद्धांत परिचय 70. जैन सिद्धांत प्रवेशिका 71. जैन सिद्धांत प्रथमा मूल्य | क्रं. नाम 15-00 | 72. जैन सिद्धांत कोविद 10-00 | 73. जैन सिद्धांत प्रवीण 10-00 - 74. तीर्थंकरों का लेखा | 75. जीव-धड़ा 10-00 76. 102 बोल का बासठिया 5-00 / 77. लघुदण्डक 7-00 78. महादण्डक 1-00 | 76. तेतीस बोल 2-00 80. गुणस्थान स्वरूप 2-00 81. गति-आगति 6-00 82. कर्म-प्रकृति 3-00 | 83. समिति-गुप्ति' 84. समकित के 67 बोल 2-00 85. पच्चीस बोल 86. नव-तत्त्व 2-00 87. सामायिक संस्कार बोध 5-00 88. मुखवस्त्रिका सिद्धि 1-00 86. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है 3-00 60. धर्म का प्राण यतना 3-00 61. सामण्ण सब्धिम्मो 3-00 62. मंगल प्रभातिका 4-00 63. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप 4-00 1-00 2-00 7-00 2-00 3-00 1-00 6-00 4-00 3-00 3-00 2-00 अप्राप्य 3 1.25 4-00 For Personal & Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरक ANTES यासमोर STROलक