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________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. ७ विनय त यथा- पापकारी, सावद्यकारी यावत् भूताभिशंकित । यह अप्रशस्त वचन - विनय हुआ । यह वचन-विनय पूर्ण हुआ । ३५२० १३८ प्रश्न - से किं तं कायविणए ? १३८ उत्तर - कार्याविण दुविहे पण्णत्ते, तं जहा --पसत्थकायविणए य अप्पमत्थकार्याविणए य । भावार्थ - १३८ प्रश्न - हे भगवन् ! काय-विनय कितने प्रकार का है ? १३८ उत्तर - हे गौतम! काय-विनय दो प्रकार का कहा है । यथाप्रशस्त काय-विनय और अप्रशस्त काय-विनय । १३९ प्रश्न--से किं तं पसत्थकायविणए ? १३९ उत्तर--पसत्यका यविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ आउतं गमनं २ आउतं ठाणं ३ आउतं णिसीयणं ४ आउत्तं तुट्टणं ५ आउतं उल्लंघणं ६ आउत्तं पल्लंघणं ७ आउत्तं सव्वि दियजोगजुंजणया । सेत्तं पसत्थकायविणए । भावार्थ - १३९ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रशस्त काय-विनय कितने प्रकार का कहा है ? १३९ उत्तर - हे गौतम! प्रशस्त काय-विनय सात प्रकार का कहा है । यथा - आयुक्त गमन ( सावधानीपूर्वक जाना) आयुक्त स्थान ( सावधानीपूर्वक ठहरना --खड़े रहना) आयुक्त निषीदन ( सावधानीपूर्वक बैठना ) आयुक्त त्वग्वर्तन ( सावधानीपूर्वक सोना) आयुक्त उल्लंघन ( सावधानीपूर्वक उल्लंघन करना) आयुक्त प्रलंघन ( सावधानी से बार-बार लांघना) और आयुक्त सर्वेन्द्रिय योग जनता (सभी इन्द्रिय और योगों की सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना ) | यह प्रशस्त काय-विनय हुआ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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