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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ प्रायश्चित के भेद
७ प्रतिपृच्छना-गुरु महाराज ने पहले जिस कार्य का निषेध किया, उमी कार्य में आवश्यकतानुसार प्रवृत्त होना हो, तो गुरु महाराज से पूछना कि-'हे भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के लिये निषेध किया था, परन्तु यह कार्य करना आवश्यक है । आप अनुज्ञा प्रदान करें, तो करूं?' इस प्रकार पुनः पूछना 'प्रतिपृच्छना' समाचारी है ।
८ छन्दना-लाये हुए आहार के लिये दूसरे साधुओं को आमन्त्रण देना । जैसे'यदि आपके उपयोग में आ सके, तो यह आहार ग्रहण कीजिये ।'
९ निमन्त्रणा-आहार लाने के लिये दूसरे साधुओं को निमन्त्रण देना अर्थात् पूछना । जैसे-'क्या आपके लिये आहारादि लाऊँ ?' यह 'निमन्त्रणा' समाचारी है। , .
१० उपसम्पद्-ज्ञानादि प्राप्त करने के लिये अपना गच्छ छोड़ कर किसी विशेष ज्ञानी गुरु के समीप रहना-'उपसम्पद्' समाचारी है।
इस प्रकार साधु के आचरण करने की यह दस प्रकार की समाचारी है ।
प्रायश्चित्त के भेद
१०२-दसविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवटुप्पारिहे, पारंचियारिहे ।
१०२ भावार्थ-दस प्रकार का प्रायश्चित्त कहा हैं। यथा-१ आलोचनाह २ प्रतिक्रमणार्ह ३ तदुमयाह ४ विवेकाह ५ व्यत्सर्हि ६ तपाई ७ छेदाई ८ मूलाई ९ अनवस्थाप्याह और १० पारांचिकाह ।
विवेचन-अतिचारों की विशुद्धि के लिये आलोचना करना और गुरु के कथनानसार तपस्यादि करना 'प्रायश्चित्त' है । इसके दस भेद हैं । यथा
१ आलोचनाह-संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट करना 'आलोचना' है । जो दोष आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय, उमे 'आलोचनाह' या 'आलोचना प्रायश्चित्त' कहते हैं।
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