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और उदय में आये हुए क्रोध को विफल कर देना । इस प्रकार क्रोध का त्याग क्षमा है । २ मुक्ति - उदय में आये हुए लोभ को विफल करना । लोभ का त्याग मुक्ति ( शौच - निर्लोभता ) है ।
३ आर्जव - माया को उदय में नहीं आने देना एवं उदय में आई हुई माया को निष्फल कर देना आर्जव ( सरलता ) है ।
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४ मार्दव - मान नहीं करना और उदय में आये हुए मान को निष्फल कर देना । मान का त्याग करना मार्दव (मृदुता - कोमलता ) है ।
भगवती सूत्र - २५ उ. ७ शुक्ल ध्यान
बह- उपसर्गों से डर कर ध्यान से नलित नहीं होते ।
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अन्यत्र इनका क्रम इस प्रकार भी हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ।
शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा - १
२ असम्मोह - शुक्लध्यानी को अत्यन्त गहन सूक्ष्म विषयों में अथवा देवादि कृत माया में सम्मोह नहीं होता ।
३ विवेक शुक्लध्यानी, आत्मा को देह से भिन्न और सभी संयोगों को आत्मा से न समझता है ।
अव्यथ- शुक्लध्यानी परी
४ व्युत्सर्ग- शुक्लध्यानी निस्मंग रूप से देह और उपधि का त्याग करता है । अन्यत्र अव्यथ आदि को शुक्ल ध्यान के लक्षण बताये हैं और क्षमा आदि को अवलम्बन बताये हैं |
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शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं । यथा
१ अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा - अनन्त भव परम्परा की भावना करना । जैसे- 'यह जीव अनादि काल से संसार में चक्कर लगा रहा है। इस संसार रूपी महासमुद्र के पार पहुँचना अत्यंत दुष्कर हो रहा है। यह जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव भवों में निरन्तर एक के बाद दूसरे में, बिना विश्राम के परिभ्रमण कर रहा है।' इस प्रकार की भावना करना 'अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा' है ।
२ विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार करना । जैसे- 'सभी स्थान अशाश्वत है । यहां के और देवलोक के स्थान तथा मनुष्य और देवादि कीऋद्धियाँ और सुख अस्थायी है ।' इस प्रकार की भावना विपरिणामानुप्रेक्षा' है ।
३ अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना । जैसे- 'इस मंसार को धिक्कार है, जिसमें एक सुन्दर रूप वाला अभिमानी मनुष्य मर कर अपने ही मृत शरीर
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