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भगवती मत्र-श. २५ उ. ७ शुक्ल ध्यान
१ पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी-एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पथक-पृथक विस्तारपूर्वक, पूर्वगत श्रुन के अनुसार, द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक आदि नयों मे चिन्तन करना"पृथक्त्व-वितर्क सविचारी' शुक्ल ध्यान है । यह ध्यान विनार महित होता है । विचार का स्परूप है अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगों में संक्रमण । अर्थात् इस ध्यान में अर्थ में शब्द में, शब्द से अर्थ में, शब्द में शब्द में और अर्थ से अर्थ में एवं एक योग में दूसरे योग में संक्रमण होता है।
पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान, पूर्वधारी को होता है और मरुदेवी माता के समान जो पूर्वधर नहीं हैं, उन्हें अर्थ, व्यंजन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप यह शुक्ल ध्यान होता है।
२ एकत्व-वितर्क-अविचारी-पूर्वगत श्रत का आधार ले कर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व (अभेद) से किसी एक पदार्थ का अथवा पर्याय का स्थिर चित्त मे चिन्तन करना 'एकत्व-वितर्क अविचारी' है । इसमें, अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण नहीं होता। जिस प्रकार वायु रहित एकान्त स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त स्थिर रहता है।
३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती-मोक्ष जाने के पहले केवली भगवान् मन और वचन, इन दो योगों का तथा अर्द्ध काय-योग का भी निरोध करते हैं । उस समय केवली भगवान् के कायिकी, उच्छ्वास आदि मूक्ष्म क्रिया ही रहती है । परिणामों में विशेष बढ़े-चढ़े रहने से केवलो भगवान् यहां से पीछे नहीं हटते । यह तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती' शुक्ल ध्यान है।
४ समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती-शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर लेते हैं । योगों के निरोध से सभी क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं । यह ध्यान सदा जीवन पर्यन्त बना रहता है । इसलिये इसे 'समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' शक्ल ध्यान कहते हैं।
पृथक्त्व-वितर्क सविचारी शुक्ल ध्यान, सभी योगों में होता है। एकत्व-वितर्क अविचारी शुक्ल ध्यान किसी एक ही योग में होता है । सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती शुक्ल ध्यान केवल काय-योग में होता है । चौथा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान अयोगी अवस्था में ही होता है । छद्मस्थ के मन को निश्चल करना 'ध्यान' कहलाता है । और केवली के काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है ।
शुक्ल ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा-१ क्षान्ति (क्षमा) क्रोध न करना
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