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भगवती सूत्र - श. २५ उ ७ शुवल ध्यान
अणियो ४ समुच्छिणकिरिए अप्पडिवायी । सुकस्स णं झाणस्म चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा - १ खंती २ मुत्ती ३ अज्जवे ४ मद्दवे । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा - १ अव्व २ असंमोहे ३ विवेगे ४ विउसग्गे । सुकस्स णं झाणस्म चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १ अनंतवत्तियाणुप्पेहा २ विष्परिणामहा ३ सुभाणुहा ४ अवायाणुप्पेहा । सेत्तं झाणे ।
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भावार्थ - १४८ - शुक्ल ध्यान के चार प्रकार और चतुष्प्रत्यवतार कहे हैं । यथा - १ पृथक्त्व-वितर्क सविचारी २ एकत्व-वितर्क - अविचारी ३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती और ४ समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ।
- शुक्ल ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा -१ क्षान्ति (क्षमा) २ मुक्ति ३ आर्जव और ४ मार्दव ।
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शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा - १ अन्यथा २ असम्मोह ३ विवेक और ४ उत्सर्ग ।
शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं । यथा - १ अनन्त-वर्तितानुप्रेक्षा २ विपरिणामानुप्रेक्षा ३ अशुभानुप्रेक्षा और ४ अपायानुप्रेक्षा । यह ध्यान का वर्णन हुआ।
विवेचन -- शुक्ल ध्यान -- पूर्व विषयक श्रुत के आधार से मन की अत्यन्त स्थिरता और योग का निरोध, 'शुक्ल ध्यान' कहलाता है । अथवा जो ध्यान आठ प्रकार कर्म- मल को दूर करता है । अथवा जो शोक को नष्ट करता है, वह 'शुक्ल ध्यान' हैं । तात्पर्य यह है कि परावलम्बन रहित शुक्ल अर्थात् निर्मल आत्म-स्वरूप का तन्मयतापूर्वक चिन्तन करना 'शुक्ल ध्यान' है । अथवा जिस ध्यान में विषयों का सम्बन्ध होने पर भी वैराग्य-बल से चित्त, बाहरी विषयों की ओर नहीं जाता तथा शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी स्थिर हुआ चित्त ध्यान से लेश मात्र भी नहीं डिगता, उसे 'शुक्ल ध्यान' कहते है। शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं। यथा-
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