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________________ भगनती सूत्र-श. २५ उ. ७ व्युत्सर्ग ३५३७ में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है' इत्यादि से भावना करना 'अशुभानुप्रेक्षा' है । ४ अपायानुप्रेक्षा--जीव, जिन कारणों से दुःखी होता है, उन विविध उपायों का चिन्तन करना । जैसे-'वश में नहीं किये हुए क्रोध और मान तथा बढ़ती हुई माया और लोभ, ये चारों संसार के मूल को सींचने और बढ़ाने वाले हैं। इन्हीं से जीव विविध प्रकार के दुःख भोगता है' इत्यादि आश्रव से होने वाले अपायों का चिन्तन करना ‘अपायानुप्रेक्षा' है। . इस प्रकार ध्यान के ४८ भेद होते हैं। आर्त ध्यान के ८, रोद्र ध्यान के ८, धर्म-: ध्यान के १६ और शुक्ल ध्यान के १६, ये कुल मिला कर ४८ भेद होते हैं। . चार ध्यानों में से धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं, निर्जरा के कारण हैं,. अतः ग्राह्य हैं । आतं ध्यान और रोद्र ध्यान अप्रशस्त हैं, कर्मबन्ध और संसार वृद्धि के कारण हैं, अतः त्याज्य हैं। तप के प्रकरण में प्रशस्त और अप्रशस्त--दोनों प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया है। प्रशस्त ध्यानों का आसेवन करने से ओर अप्रशस्त ध्यानों को छोड़ने से तप होता है । इस अभिप्राय से तप के प्रकरण में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों का वर्णन किया है। व्युत्सर्ग ७ाण . . . १४९ प्रश्न-से किं तं विउसग्गे ? १४९ उत्तर-विउसग्गे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ दध्वविउसग्गे य भावविउसग्गे य। __भावार्थ-१४९ प्रश्न-हे भगवन् ! व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? . . १४९ उत्तर-हे गौतम ! व्युत्सर्ग दो प्रकार का है । यथा-द्रव्य व्युत्सर्गऔर भाव व्युत्सर्ग। . ...१५० प्रश्न-से किं तं दव्वविउसग्गे ? .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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