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का इसमें कोई मतभेद नहीं था । यह मतभेद हुआ ४०-४२ वर्ष पूर्व ही और एक आचार्य की स्वयं की विचारणा से । इसके पीछे कल्पना के अतिरिक्त सैद्धांतिक आधार कुछ भी नहीं है । अतएव सैद्धांतिक धारणा यही है कि सम्यक्त्व के सद्भाव में मनुष्य और तिर्यंच एक वैमानिक देव की आयु का ही बंध करते हैं ।
अंतिम निवेदन
भगवती सूत्र का आदि से अंत तक का प्रकाशन कर के स्वाध्याय प्रेमियों तक पहुँचाने का कार्य पूर्ण करते हुए मुझ संतोष का अनुभव हो रहा है। इस विशाल आगम का अनुवाद, समाज के जाने-माने और अनुभवी विद्वान् पं. श्री घेवरचंदजी बांठिया वीरपुत्र ने किया और समाज के धर्म-रसिक, श्रुतज्ञान प्रचार के प्रेमी, उदार हृदयी दानवीर महानुभावों के द्रव्य सहयोग से अ. भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ से इसका प्रकाशन हुआ । मैं तो प्रूफ देखने वाला और छपाई आदि प्रकाशन की व्यवस्था करने वाला रहा । प्रूफ देखने में भी मुझ से अनेक प्रकार की भूलें रह गई है। यही काम यदि कोई अनुभवी अधिकारी विद्वान् करता, तो बहुत अच्छा होता। फिर भी जैसी-तैसी सेवा बन गई, उससे एक अभाव की पूर्ति तो हो गई है और यही संतोष है । मेरी अल्पज्ञता, असावधानी एवं प्रतिकूल परिस्थिति से जो भी भूलें रही, उसका में भगवद् साक्षी से मिच्छामि दुक्कडं देता हुआ क्षमायाचना करता हूँ ।
परिशिष्ट में भगवती सूत्र की हुंडी भी दी जा रही है । यह हुंडी धर्म- रसिक उत्साही युवक श्री घीसूलालजी पितलिया ने भेजी थी। जैसी आई. वैसी छपने को दे दी गई । उस समय यदि में स्वस्थ होता और अवकाश मिलता तो स्वयं भी कुछ परिश्रम कर के दूसरे रूप में उपस्थित करता । फिर भी श्री पितलियाजी का परिश्रम पाठकों को
विशेष सुविधा प्रदान कर ही देगा ।
कार्तिक शुक्ला ज्ञानपंचमी
वीर सं. २४९९, वि. सं. २०२९
दिनांक ११-११-७२
नोट-- उपरोक्त प्रस्तावना में पृष्ठ क्रमांक इस नयी आवृत्ति के अनुसार कर दिये गये है ताकि पाठकों को वह आगम स्थल देखने में सुविधा रहे -- स. सं.
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- रतनलाल डोशी
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