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करते समय सुमुख में सम्यक्त्व थी ही ? यह सत्य है कि संसार-परिमित करते समय वह अवश्य ही समकिती था, परन्तु आयु-बन्ध के समय सम्यक्त्व का वमन हो कर मिथ्यात्व आ चुका था । इसी प्रकार मेघकुमार के हाथी-भव के विषय में भी समझना चाहिए ।
प्रश्न- दशाश्रुतस्कन्ध अ. ६ में सम्यग्दृष्टि क्रियावादी के नरक में जाने का उल्लेख है । इस विषय में आप क्या कहेंगे ?
उत्तर - यह प्रश्न ही व्यर्थ है । सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व या सम्यक्त्व वमन के पश्चात् नरकादि किसी भी गति का आयुष्य बाँधा जा सकता है और तदनुसार उत्पन्न होते हैं । इसमें तो मतभेद है ही नहीं । सम्यक्त्व युक्त छठे नरक तक जाने का सिद्धांत वचन है। (श. १३ उ. १ भाग ५ पृ. २९५३ ) तथा सम्यग्दृष्टि ही नहीं, मनः पर्यव ज्ञान वाले संत भी मृत्यु पा कर कोई सम्यक्त्व युक्त छठे नरक तक उत्पन्न हो सकते हैं (श. २४ उ. १ (भाग ६ पृ. ३०२६) यही बात पृथ्वीकाय के विषय में भी है, (श. २४ उ. १२ पृ. ३०९४ ) अतएव मिथ्यात्व अवस्था में बांधे हुए. आयुष्य के अनुसार सम्यग्दृष्टि नरकादि किसी भी गति में जा सकते हैं । दशाश्रुतस्कन्ध में ऐसे ही सम्यग्दृष्टियों का उल्लेख है । किन्तु यहाँ विचार हो रहा है - सम्यक्त्व के सद्भाव में आयु-बन्ध करने के विषय में । अतएव इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है ।
प्रश्न- यदि यह मान लिया जाय कि सम्यक्त्व युक्त वैमानिक देव का आयु-बन्ध करने वाले मनुष्य-तियंच, विशिष्ट कोटि के क्रियावादी हैं और उन्हीं का भगवती सूत्रादि में उल्लेख हुआ है, सामान्य कोटि के क्रियावादी मनुष्य-तियंच तो मनुष्यायु का बन्ध भी कर सकते हैं, तो ऐसा मानने पर मतभेद नहीं रहेगा ।
उत्तर - एक अप्रामाणिक बात का समन्वय करना, सिद्धांत के लिए बाधक हो जाता है । वैसे सामान्य विशेष के बन्ध का उल्लेख भी आगम में है ही (श. १ उ. २ पृ. १५३ तथा उववाई सूत्र ४१ और प्रज्ञापना पद २० ) में अविराधक श्रमण की जघन्य सोधर्म देवलोक और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान की, तथा श्रावक की जघन्य सोधमं स्वर्ग उत्कृष्ट अच्युत कल्प की गति बताई । श. ८ उ. १० जघन्य ज्ञान और दर्शन आराधक के लिए भी जघन्य तीन और उत्कृष्ट ७-८ भव बताये हैं । उत्कृष्ट तो सर्वोच्च है ही, जघन्यउत्कृष्ट गति आदि के विधान में सामान्य और विशेष सभी का समावेश हो जाता है । जघन्य से बाहर कोई सामान्य रह ही नहीं सकता । सामान्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य - तिथंच भी सौधर्म स्वर्ग से कम अन्य गति का आयुष्य नहीं बाँध सकता । अतएव तर्क व्यर्थ है । आज से ४०-४२ वर्ष पूर्व तक समस्त जैन समाज और उसके विभिन्न समुदायों
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