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________________ (30) ३ पूर्व में आयु बाँधा था, वर्तमान में नहीं बाँधता, किन्तु भविष्य में बांधेगा । यह तीसरा भंग यों घटित होता है कि उसने पहले आयु बाँधा था, वर्तमान उपशम सम्यक्त्व में या अबन्ध काल में नहीं बाँधता है, किन्तु भविष्य में बाँधेगा । चौथा भंग उस दशा में घटित होता है कि उस पंचेन्द्रिय तिर्यंच ने पहले मनुष्यायु का बन्ध कर लिया, उसके बाद सम्यक्त्वी हुआ । अब वह आयु का बन्ध नहीं करेगा और पूर्वबद्ध मनुष्याय से मनुष्य भव पा कर सिद्ध हो जायगा । इसलिए वह न तो अब आयु का बन्ध करता है और न आगे ही करेगा । मनुष्य के लिए भी सम्यक्त्व आदि पाँच बोलों में इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष में चौथे भंग में चरम शरीरी क्षपक भी हो सकता है । इस प्रकार सम्यक्त्व में मनुष्य - तिर्यंच के आयु-बन्ध हो, तो एक देव-भव का ही हो सकता है, अन्य नहीं । (७) भगवती सूत्र श. २ उ. १ ( भाग १ पृ. ४१० ) में मनुष्य मर कर पुनः मनुष्य हो, तो उसे 'तद्भव मरण' माना है और यह बाल-मरण के १२ भेदों में का चौथा भेद है। तद्भव मरण मिथ्यात्व दशा में होता है इस दृष्टि से भी कोई मनुष्य यदि मनुष्यायु का बन्ध करे, तो वह मिथ्यात्व दशा में ही करता है, जिसका फल स्वयं सूत्रकार ने अनंत संसार - परिभ्रमण बताया है ( पू. ४९१ ) ऐसा सम्यक्त्वी के लिए नहीं कहा जाता । (८) तीसरे कर्मग्रंथ गाथा ८ में पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चौथे गुणस्थान में " " सुराउ सरि संमे "सूर -- देव आयु सहित ७० प्रकृतियों का बन्ध बताया है । आयु-बन्ध में केवल देवायु ही बन्धना इससे भी सिद्ध है और गाथा 8 में मनुष्य के लिए भी तियंच के समान देव आयु सहित ७० और विशेष में एक जिन नामकर्म, यों ७१ प्रकृतियों का बन्ध होना लिखा है । ६ गाथा १३ में औदारिक मन वचन और काय योग के बन्ध में भी मनुष्य के समान चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों का बंध होना स्वीकार किया है, जिसमें आयुष्य-कर्म की प्रकृति तो एकमात्र देवगति की ही है । प्रश्न - सुमुख गाथापति (सुखविपाक ) ने संसार परिमित किया, वे सम्यग्दृष्टि थे, फिर उन्होंने मनुष्यायु का बन्ध क्यों किया ? उत्तर-- आयु तो पूरे जीवन में केवल एक बार ही बंधता है और सम्यक्त्व तो एक जीवन में प्रत्येक हजार बार आ-जा सकती है (अनुयोग द्वार ) तब यह कैसे माना जाय कि सुमुख गाथापति ने मनुष्य का आयुष्य, सम्यक्त्व के सद्भाव में बाँधा ? और आयु-बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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