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भगवती सूत्र-श. २६ उ. ३ परम्परोपपन्नक के बन्ध
१ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए पढम विइया । एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोक्वण्णएहि वि उद्देसओ भाणियब्वो णेरइयाइओ तहेव णवदंडगसहिओ । अgण्ह वि कम्मप्पगडीणं जा जस्स कामास वत्तव्बया सा तस्स अहीणमहरित्ता णेयव्वा जाव वेमाणिया अणागारो. वउत्ता।
* 'सेव भंते ! मेवं भंते !' त्ति के । ॥ छवीसहमे बंधिसए तइओ उद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ--अहीणमहरिता--न कम, न अधिक, बराबर ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक नरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था ?
१ उत्तर-हे गौतम ! किसी ने बांधा था इत्यादि पहला और दूसरा भंग कहना चाहिए। जिस प्रकार प्रथम उद्देशक कहा, उसी प्रकार परम्परोपपनक नैरयिक आदि के विषय में पापकर्मादि नौ दण्डक सहित यह तीसरा उद्देशक जानना चाहिए। आठ कर्म-प्रकृतियों में से जिसके लिए जिस कर्म की वक्तव्यता कही है, उसके लिए उस कर्म को वक्तव्यता बराबर कहनी चाहिये । इम प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त वैमानिकों तक।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-जिस प्रकार पहले उद्देशक में जीव नारकादि के विषय में कथन किया है, उसी प्रकार यह तीसरा उद्देशक भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि पहले उद्देशक में जीव नारकादि पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस उद्देशक में नैरयिकादि चौबीस दण्डक ही कहने चाहिये, क्योंकि औधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक इत्यादि विशेषण नहीं लग सकते ।
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