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भगवती सूत्र-श. २६ उ. ३ परंपरोपपन्नक के वन्ध
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४७ बोल पाये जाते हैं । अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में ग्यारह बोल तो वजित किये हैं. किन्तु नपुंसक का बोल वजित नहीं किया। अनन्तरोपपन्नक-नपुंसक, जन्म-नपुंसक ही होता है, कृत्रिम नहीं। - शंका-कोई जन्म-नपुंसक मोक्ष गया हो-ऐसा कोई उदाहरण शास्त्रों में मिलता है ?
समाधान-यद्यपि ऐसा उदाहरण शास्त्रों में देखने में नहीं आया, तथापि उपर्युक्त सूत्रपाठ से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि जन्म-नपुंसक उसी भव में मोक्ष जा सकता है।
... शंका--वृहत्कल्प सूत्र के चौथे उद्देशक में नपुंसक को दीक्षा के अयोग्य बताया है, फिर वह उसी भव में मोक्ष कैसे जा सकता है ? . __ समाधान--वृहत्कल्प सूत्र में जो नपुंसक को दीक्षा के अयोग्य बताया है, वह श्रुनव्यवहारी के लिये है, अर्थात् श्रुतव्यवहारी नपुंसक को दीक्षा नहीं दे सकता, किन्तु आगमव्यवहारी दीक्षा दे सकते हैं। वृहत्कल्प स्वयं श्रुतव्यवहार है, आगमव्यवहार नहीं । यदि यहां के निषेध से सम्पूर्णतया नपुंसक की दीक्षा का निषेध समझा जाय, तब तो जन्म-नपुंसक और कृत्रिम-नपुंसक सभी का निषेध हो जायगा। किन्तु शास्त्रकार को यह इष्ट नहीं हैं, क्योंकि नपुंसक-लिंग सिद्ध' बताया है। आगम-व्यवहारी को विशिष्ट ज्ञान होने से वे जन्म-नपुंसक और कृत्रिम नपुंसक दोनों को दीक्षा दे सकते हैं और वे दोनों उसी भव में मोक्ष भी जा सकते हैं। ... ॥ छब्बीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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शतक २६ उद्देशक ३
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परम्परोपपत्रक के बन्ध १ प्रश्न-परंपरोववण्णए णं भंते ! गेरइए पावं कम्मं किं बंधीपुच्छा।
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