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भगवती सूत्र - श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध
भंगो, सव्वेसिं णाणत्ताई ताईं चेव ।
* 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति
॥ छवीसइमे बंधिस बीओ उद्देसो समत्तो ॥
भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने आयुकर्म बांधा था० ?
४ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् तीसरा भंग होता है। इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त तक सर्वत्र तीसरा मंग। इसी प्रकार मनुष्य के अतिरिक्त यावत् वैमानिक तक | मनुष्य में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग कहना चाहिये, किन्तु कृष्णपाक्षिक में तीसरा भंग ही है। सभी स्थानों में नानात्व ( मिनता) पूर्ववत् है ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन - आयु- कर्म के विषय में मनुष्य में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक मनुष्य आयु नहीं बांधता, वह बाद में बांधेगा । इस अपेक्षा तीसरा भंग होता है । यदि वह चरमशरीरी हो, तो आयु-कर्म नहीं बांधता और नहीं बांधेगा । इस प्रकार चौथा भंग घटित होता है। कृष्णपाक्षिक में केवल तीसरा भंग ही होता है । सभी नैरयिक आदि जीवों में पाप-कर्म दण्डक में जो भिन्नता कहीं, वह सभी आयु-दण्डक में कहनी चाहिये । मनुष्य के अतिरिक्त सभी दण्डकों में आयु की अपेक्षा एक तीसरा भंग ही पाया जाता है ।
आयु- कर्म की पृच्छा में तेईस दण्डक में एक तीसरा भंग ही बताया है। मनुष्य में कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर अनन्त रोपपन्नक मनुष्य में पाये जाने वाले पैंतीस बोलों में तीसरा और चौथा मंग बताया है। "बंधी, न बंध, न बंधिप्स" - यह चौथा भंग है । अर्थात् भूतकाल में आयु बांधा था, वर्तमान काल में नहीं बांधता और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा”—यह चौथा भंग चरमशरीरी जीव में ही घटित हो सकता है । समुच्चय मनुष्य में
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