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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश
प्रदेशावगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेश और असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है । घनपरिमण्डल जघन्य चालीस प्रदेश, चालीस प्रदेशावगाढ़ और उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशक, असंख्येय प्रदेशावगाढ़ होता है।
, विवेचन-पाँच संस्थानों में प्रथम 'परिमण्डल' संस्थान है, अतः उसका कथन पहले किया जाना चाहिये, किन्तु यहाँ परिमण्डल को छोड़ कर 'वृत्त' त्र्यस आदि नाम से कथन किया है, इसका कारण यह है कि इन चारों में सम प्रदेश और विषम प्रदेशो का कथन होने से सभी में प्रायः समानता है । इसलिये पहले इनका कथन किया है और परिमण्डल का पीछे कथन किया है, अथवा सूत्र का क्रम विचित्र होने से इस प्रकार कथन किया है।
एक, तीन, पाँच आदि विषम (एकी वाली) संख्या को 'ओज' कहते हैं और दो चार, छह आदि सम (जोड़े वाली) संख्या को 'युग्म' कहते हैं।
__ लड्डू अथवा गेन्द के समान जो गोल हो, उसे 'घनवृत्त' कहते हैं और मण्डक(पकाया हुआ एक प्रकार का अन्न घेवर) के समान, जो गोल होने पर भी मोटाई में कम हो, उसे 'प्रतरवृत्त' कहते हैं। : ओज-प्रदेशी प्रतरवृत्त में दो प्रदेश ऊपर, एक प्रदेश बीच में और दो प्रदेश नीचे होते हैं।
युग्म-प्रदेशी प्रतरवृत्त में बारह प्रदेश होते हैं। ऊपर दो प्रदेश, उसके नीचे चार प्रदेश, उसके नीचे फिर चार प्रदेश और उसके नीचे दो प्रदेश होते हैं ।
ओज-प्रदेशिक घनवृत्त में सात प्रदेश होते हैं। एक मध्य परमाणु के ऊपर एक परमाणु और नीचे एक परमाणु तथा उसके चारों ओर चार परमाणु होते हैं। ..
युग्मप्रदेशिक घनवृत्त में बत्तीस प्रदेश होते हैं। उनमें से दो ऊपर, चार नीचे, फिर चार नीचे और उनके नीचे दो प्रदेशी स्थापित करना चाहिये। उसके ऊपर इसी प्रकार का बारह प्रदेशों का दूसरा प्रतर रखना चाहिये और दोनों प्रतरों के मध्य भाग के चार प्रदेशों के ऊपर दूसरे चार प्रदेश ऊपर और चार प्रदेश नीचे रखना चाहिये । इस प्रकार बत्तीस प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घनवृत्त होता है।
ओजप्रदेशिक घनश्यस जघन्य पैंतीस प्रदेशों का होता है, जिनमें से पहले पन्द्रह प्रदेशों का प्रतर रखना चाहिये । उसके ऊपर दस प्रदेशों का प्रतर, उसके ऊपर तीसरा छह प्रदेशों का प्रतर, उसके ऊपर चौथा तीन प्रदेशों का प्रतर और उसके ऊपर एक प्रदेश रखना चाहिये । इस प्रकार ये पैंतीस प्रदेश होते हैं। .
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