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________________ ३३३२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ४ पुद्गल सकम्प-निष्कम्प किसी स्थान रह कर फिर चलता है, तब अन्तर असंख्यात काल का होता है । जब परमाणु द्विप्रदेशादि स्कन्ध के अन्तर्गत होता है और जघन्य से एक समय चलन क्रिया से निवृत्त रह कर फिर पृथक् होकर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है । परन्तु जब वह परमाणु असंख्यात काल तक द्विप्रदेशादिक स्कन्ध रूप में रह कर पुनः उस स्कन्ध से पृथक् हो कर चलित होता हैं, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल का होता है । जब परमाणु निश्चल (स्थिर) हो कर जघन्य एक समय तक परिभ्रमण कर के पुनः स्थिर होता है और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप असंख्य समय तक परिभ्रमण कर के पुनः स्थिर होता है, तब अन्तर स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग का होता है। परमाणु निश्चल हो कर स्वस्थान से चलित हो और जघन्य एक समय पर्यंत द्विप्रदेशादि स्कन्ध के रूप में रह कर पुनः पृथक् हो कर निचल हो और उत्कष्ट असंख्यात काल तक द्विप्रदेशादि स्कन्ध रूप में रह कर फिर उससे पृथक हो कर स्थिर हो, तब परस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट होता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध चलित हो कर अनन्त काल तक उतरोतर दूसरे अनन्त पुद्गलों के साथ सम्बन्ध करता हुआ पुन: उसी परमाणु के साथ सम्बद्ध हो कर पुनः चलित हो, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का होता है। सकम्प परमाणु-पुद्गल लोक में सदा पाये जाते है, इसलिये उनका अन्तर नहीं होता। परमाणु-पुद्गल संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की सकम्पता और निष्कम्पता के द्रव्यार्थ से आठ पद होते हैं। इसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी आठ पद होते हैं । द्रग्यार्थ से उभय पक्ष में चौदह पद होते हैं, क्योंकि सकम्प और निष्कम्प परमाणुओं के द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता-इन दो पदों के स्थान में 'द्रव्यार्थ अप्रदेशार्थता' यह एक ही पद कहना चाहिये । इसलिये सोलह बोलों के स्थान में चौदह बोल ही होते हैं । द्रव्यार्थता सूत्र में निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, निष्कम्प परमाणुओं से संख्यात गुण कहे गये हैं और प्रदेशार्थता सूत्र में वे परमाणुओं से असंख्यात गुण कहे गये हैं, इसका कारण यह है कि निष्कम्प परमाणुओं से निष्कम्प संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात गण होते हैं। उनमें के बहुत से स्कन्धों में उत्कृष्ट संख्या वाले प्रदेश होने से वे निष्कम्प पीमाणुओं से प्रदेशार्थ से असंख्यात गुण होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट संख्या में एक संख्या की वृद्धि होने पर असंख्य हो जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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