________________
भगवती गूत्र-श. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-बन्ध
३५५७
है । उपशमक सूक्ष्म-मंगय जीव की अपेक्षा तीसरा भग है और चौथा भग क्षगक मूक्ष्मसम्पराय जीव की अपेक्षा है । इसी प्रकार लोभ-कषायी जीवों के विषय में भी समझना चाहिये । क्रोध-कषायी. मान-कषायी और माया-कषायी जीवों में पहले के दो भंग पाये जाते हैं । पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा और दूसरा भंग भव्य विशेष की अपेक्षा है। उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, क्योंकि क्रोधादि के उदय में अबन्धकता नहीं होती। अकषायी जीवों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है। तीमग भंग उपशमक अकषायी में और नीथा भंग क्षपक अकषायी में पाया जाता है।
सयोगी में अभव्य, भव्यविशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं । अयोगी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता और भविष्य में भी नहीं होगा, इसलिये एक चौथा भंग ही पाया जाता है।
साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं । इसकी घटना पूर्ववत् है।
नैरयिक के पाप-बन्ध १४ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ ?
१४ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए बंधी० पढम-बिइया । . भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव ने पाप-कर्म बांधा था इत्यादि. ?
१४ उत्तर-हे गौतम ! किसी नयिक जीव ने पाप-कर्म बांधा था, इत्यादि पहला और दूसरा भंग।
१५ प्रश्न-सलेस्से णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं . ?
१५ उत्तर-एवं चेव । एवं कण्हलेस्से वि, णीललेस्से वि, काउ. लेस्से वि । एवं काहपरिखए, सुक्कपक्खिए, सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org