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________________ ३२०२ भगवती सूत्र-श. २५ उ. १ योग पन्द्रह । भाग हीन, संख्यातवें भाग हीन, संख्यात गुण हीन या असंख्यात गुण हीन होता है । यदि अधिक योगी होता है, तो असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक, संख्यात गुण अधिक या असंख्यात गुण अधिक होता है । इस कारण कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। योग पन्द्रह - VAARARARE५ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! जोए पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! पण्णरसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-१ सच्चमणजोए २ मोसमणजोए ३ सच्चामोसमणजोए ४ असच्चामोसमणजोए ५ सच्चवहजोए ६ मोसवइजोए ७ सच्चामोसवइजोए ८ असञ्चामोसवइजोए ९ ओरालियसरीरकायजोए १० ओरालियमीसासरीरकायजोए ११ वेउब्बियसरीरकायजोए १२ वेउन्वियमीसासरीरकाय. जोए १३ आहारगसरीरकायजोए १४ आहारगमीसासरीरकायजोए १५ कम्मासरीरकायजोए। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! योग पन्द्रह प्रकार के कहे गये हैं। यथा१ सस्य मनयोग २ मृषा मनयोग ३ सत्यमषा मनयोग ४ असत्यामषा मनयोग ५ सत्य वचनयोग ६ मृषा वचनयोग ७ सत्यमषा वचनयोग ८ असत्यामृषा वचनयोग ९ औदारिक-शरीर काययोग १० औदारिकमिश्र-शरीर काययोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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