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________________ ( 28) ३६१८ उ. १५) है। वह देवों और मनुष्य-तियंच की अपेक्षा है । देव, मनुष्यायु और मनुष्य तथा तिथंच देवायु का बन्ध करते हैं--वैमानिक देवायु का । यही बात पद्म और शुक्ल लेश्या के विषय में भी समझनी चाहिए (उ. १६)। . (३)तियंच पंचेंद्रिय क्रियावादी के विषय में पृ. ३६२६ उ. २८ में लिखा है कि"जहा मणपज्जवणाणी"--मनःपर्यय ज्ञानी के समान, और मनःपर्यवज्ञानी तो मात्र वैमानिक देव का ही आयु बाँधते हैं (पृ. ३६२१ उ. २१-२२) यही विधान मनुष्य के लिए भी है-"जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियच्या" (पृ. ३६२७ उ. २९) । अतएव निश्चित हो गया कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिथंच एकमात्र वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधते हैं, दूसरा नहीं। प्रश्न-वैमानिक देवों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्या ही है । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य-तियंच, इन शुभ लेश्या में आयु-बन्ध करे, तो वैमानिक देवों का कर सकते हैं, किंतु जो कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या में हों, तो वे वैमानिक देव का आयुष्य कैसे बांध सकते हैं ? उत्तर-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियंच, देव आयुष्य का बंध नहीं कर सकते। यह बात इसी २६ वें प्रश्न के उत्तर पृ. ३६२६ में स्पष्ट लिखी है । प्रश्न है _ "हे भगवन् ! कृष्णलेशी क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिथंच जीव, नैरयिक तियंच, मनुष्य अथवा देव आयु का बन्ध कर सकता है ?" इसके उत्तर में स्पष्ट लिखा है कि-- "नहीं. नरयिक तियंच, मनुष्य और देव का आयु नहीं बाँध सकता"--"गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेइ, णो तिरिक्ख० णो मणुस्साउयं० णो देवाउयं पकरेइ ।" आगे लिखा है-" जैसा कृष्णलेश्या का विधान है, वैसा ही नील और कापोत लेश्या का है"जहा कण्हलेस्सा एवं णीललेस्सा वि काउलेस्सावि ।" इसी सूत्र में आगे चल कर विशेष स्पष्ट किया है कि--"सम्मदिट्ठी जहा मणपज्जवणाणी तहेव माणियाउयं पकरेइ"--अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव, मनःपर्यव ज्ञानी के समान वैमानिक देवायु का ही बंध करता है (पृ. ३६२६)। (४) उपरोक्त समवसरण प्ररूपणा के अतिरिक्त भगवती श. १ उ. ८ के प्रश्न २५९ से २६३ पर्यंत (भाग १ पृ. ३११-१२) में बताया है कि एकान्त बाल तो चारों गति के आयुष्य का बन्ध कर सकता है, किन्तु एकान्त पंडित और बाल-पंडित तो वैमानिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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