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________________ भगवती मूत्र-श ३० उ. १ समवसरण चाहिए जिसके जो हो, शेष नहीं कहना चाहिये । नरयिक के समान असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त भी। ९ प्रश्न-पुढविकाइया णं भंते ! किं किरियावाई-पुच्छा। ९ उत्तर-गोयमा ! णो किरियावाई, अकिरियावाई वि. अण्णाणियवाई वि, णो वेणइयवाई । एवं पुढविकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दोमज्झिल्लाइं समोमरणाइं जाव अणागारोवउत्ता वि। एवं जाव चरिंदियाणं । सव्वठाणेसु एयाइं चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई । सम्मत्तणाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाइं दो समो. सरणाइं । पंचिंदियतिरिक्वजोणिया जहा जीवा । णवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं । मणुस्सा जहा जीवा तहेव णिरवसेसं । वाणमंतर-जोइ. सिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक क्रियावादी हैं.? ९ उत्तर-हे गौतम ! वे क्रियावादी और विनयवादी नहीं, अक्रियावादी और अज्ञानवादी हैं । पृथ्वीकायिक जीवों में जो पद संप्रवित हों, उन ममी पदों में अक्रियावादी और अज्ञानवादी-ये मध्य के दो समवसरण जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पृथ्वीकायिक पर्यन्त और इसी प्रकार यावत् चौरिन्द्रिय जीवों तक सभी पदों में मध्य के दो समवसरण होते हैं। इनके सम्यक्त्व और ज्ञान में भी मध्य के ये दो ही समवसरण हैं। पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक का कथन औधिक जीवों के समान है, किन्तु इनमें भी जो बोल हों, वही कहना चाहिये। मनुष्य, औधिक जीवों के समान है। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, असुरकुमार के तुल्य हैं। - विवेचन-अनेक प्रकार के परिणाम वाले जीव जिसमें हो, उसे 'समवसरण' कहते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को 'समवसरण' कहते हैं । 'समवसरण' के चार भेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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