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के उपशांत-मोह वीतराग भगवान् यदि मिथ्यात्व में चले जायें और उत्कृष्ट काल तक संसार परिभ्रमण करे, तो अर्ध पुद्गल-परावर्तन तक जन्म-मरण करने के बाद मुक्त होते हैं (पृ. ३४२७)।
निग्रंथ और संयत में लेश्या
निग्रंथ और संयत में लेश्या कितनी होती है ? इस विषय में प्रथम भाग की प्रस्तावना में कुछ विचार किया गया है । विशेष में;
भगवती सूत्र श. ८ उ. २ पृ. १३४७ में ९६ वा प्रश्न है-"कृष्ण-लेश्या वाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी ?" उत्तर है-"यथा सइन्द्रिय ।" सइन्द्रिय सूत्र है-पृ. १३३२ का ८६ वौं । उसमें सइन्द्रिय में चार ज्ञान और तीन अज्ञान--भजना से बताये हैं । जब मन:पर्यव ज्ञान में भी कृष्णलेश्या हो सकती है, तो निग्रंथ संयत में भी छह लेश्या माननी चाहिये। मनःपर्यवज्ञानी तो साधु ही है, क्योंकि मनःपर्यवज्ञान साधु को ही होता है, गृहस्थ को नहीं।
(२) कषाय-कुशील निग्रंथ में भी छह लेश्या होने का स्पष्ट उल्लेख पृ. ३४०३ में हुआ है, यहाँ तक कि--" कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए।"
(३) सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत अधिकार पृ. ३४६६ के ४९ वें प्रश्न के उत्तर में भी उपरोक्त कषाय-कुशील निग्रंथ के समान छह लेश्या होना बतलाया है।
___ यद्यपि साधुओं के प्रमत्त-संयत गुणस्थान में छहों लेश्याओं का सद्भाव माना है, तथापि मुख्यता तीन शुभ लेश्याओं की रहती है और सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति भी शुभ लेश्याओं में ही होती है। प्राप्ति के बाद कभी अशुभ निमित्त से अशुभ लेश्या उत्पन्न होने की संभावना भी संयमी अवस्था में रहती है। तथा संभावना यह भी है कि जिस आत्मा ने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु का बंध कर लिया, उसे कालान्तर में सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति भी प्राप्त हो सकती है। इतना होते हुए भी मृत्यु के समय उनमें अशुभ लेश्या आ ही जाती है और उसी अशुभ लेश्या में मृत्यु प्राप्त कर के वे नरक में उत्पन्न होते हैं। ऐसे साधुओं में कोई-कोई तो आहारक-लब्धि और मनःपर्यवज्ञानी भी होते हैं (भगवती श. २४ उ. १ भाग ६ पृ. ३०२६ प्रश्न ६२) ।
जब तीर्थकर नामकर्म के बन्धक जैसी उच्च आत्माओं में से भी कोई तीसरे नरक तक जा सकते हैं और उनमें श्रावक और साधु भी होते हैं, तथा नरक में जाते समय अशुभ
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