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________________ (13) लेश्या होती ही है, तब मानना चाहिए कि संयत अवस्था में कभी अशुभ लेश्या का आ जाना असंभव नहीं है। ऐसे प्रसंग किसी संयत के जीवन में आ भी सकते हैं कि किसी दुष्ट के द्वारा अत्यंत पीडित हो कर वे क्रुद्ध हो जायँ, इतने क्रुद्र कि उस दुष्ट को भस्म ही कर दें। जैसे कि तपस्वी संत श्री सुमगल अनगार ने गाशालक के जीव विमलवाहन को रथ, घोड़े और सारथि सहित तेजोलेश्या से भस्म करने का उल्लेख है (भ. श. १५ भा. ५ पृ. २४८६) अतएव श्रमण अवस्था में कमी अशश लेश्या का आ जाना असम्भव नहीं है। चतुर्थ कर्मग्रंथ के, मार्गणाओं के अल्प-बहुत्व अधिकार गा. ३७ में निरूपण है कियथाख्यात चारित्र, सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र और केवल ज्ञान-केवल दर्शन, इन चार मार्गणाओं में एक शुक्ल लेश्या है । शेष ४१ मार्गणाओं में छहों लेश्या है । वे ४१ मार्गणाएँ ये हैं; १ देवगति १ मनुष्यगति १ तिर्यंचगति १पंचेन्द्रिय जाति । त्रसकाय ३ योग ३ वेद ४ कषाय ४ ज्ञान ३ अज्ञान ३ चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि) १ देशविरति १ अविरति ३ दर्शन १ भव्यत्व १ अभव्यत्व ३ सम्यक्त्व (क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक) १ सास्वादन १ मिश्र १ मिथ्यात्व १ सज्ञित्व १ आहारकत्व और १ अनाहारकत्व । उपरोक्त ४१ मार्गणाओं में सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र भी है, जिसमें छहों लेश्या है । (परिहारविशुद्धि में भी छहों लेश्या बताई, यह आगम-विरुद्ध है । भगवती श. २५ उ. ७ पृ. ३४६६) । अप्रशस्त विनय शतक २५ उ. ७ पृ. ३५१७ में 'मन-विनय' प्रशस्त के साथ अप्रशस्त भी बताया है । इसी प्रकार वचन और काय-विनय भी । अप्रशस्त मन-वचन को 'विनय' नामक 'आभ्यंतर तप' में गिना । इसका तात्पर्य है- 'अप्रशस्त मन-वचन नहीं होने देना'--बचे रहना । कुछ लोग इसका अर्थ करते हैं कि अपवाद-मार्ग में पापकारी सावध भादि मनवचन धारण करना भी 'विनय' नामक तप है। किंतु ऐसा मानना सत्य नहीं है । इस सूत्र में तो केवल नाम ही बताये हैं, स्वीवार या अस्वीकार करने का उल्लेख नहीं है। किन्तु उववाई सूत्र २० में स्पष्ट रूप से अप्रशस्त मन-विनय के १२ भेद बतलाने के बाद मूलपाठ में ही लिखा है कि-"तहप्पगारं मणो णो धारेज्जा"--इस प्रकार के मन को धारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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