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भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक ३-४
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उद्देसओ तहेव जाव वेदेति । एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिएगिदियमए एकारम उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्ससए वि भाणियव्वा जाव चरिमअचरिमकण्हलेस्सा पगिदिया।
॥ बिइयं एगिंदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के कर्म-प्रकृतियां कितनी कही हैं ? . २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक उद्देशक के अनुसार परम्परोपपत्रक सम्बन्धी भी यावत् वेदते हैं' तक जानना चाहिए। अधिक एकेन्द्रिय शतक में ग्यारह उद्देशक कहे, उसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णलेश्या शतक में भी कहना चाहिये, यावत् चरम और अचरम कृष्णलेश्या वाले एकेंद्रिय पर्यन्त । ३३-२-३ से ११ उद्देशक तक। ॥ तेतीसवें शतक का दूसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥
अवान्तर शतक ३ -जहा कण्हलेस्सेहिं भणियं एवं णीललेस्सेहि वि सयं भाणियव्वं । 'सेवं भंते'।
॥ तइयं एगिदियसयं समत्तं ॥ भावार्थ-कृष्णलेश्या के समान नौललेश्या के विषय में भी शतक कहना चाहिये । ३३-३।
अवान्तर शतक ४ -एवं काउलेरसेहि वि सयं भाणियव्वं, णवरं 'काउलेस्से'
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