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भगवती सूत्र-श. २९ उ १ कर्म-वेदन का प्रारंभ और समाप्ति
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४ प्रश्न-णेग्इया णं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्टविंसु ममायं णिटविंसु-पुन्छ । ____४ उतर-गोयमा ! अस्थेगड्या समायं पट्टविंसु-एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्यं जाव अणागागेवउत्ता । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियव्वं । जहा पावेण दंडओ, एएणं कमेणं अट्टसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ट दंडगा भाणि. यवा जीवाईया वेमाणियपजवसाणा। एसो णवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियब्बो।
के 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति के ॥ एगूणतीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! नेरयिक पाप-कर्म का भोग एक साथ प्रारंभ करते है और एक साथ समाप्त करते हैं ?
४ उत्तर-हे गौतम ! कई नैरयिक एक साथ पाप-कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं इत्यादि जीवों को वक्तव्यतानुसार पावत् अनाकारोपयुक्त तक। इसी प्रकार यावत वैमानिक तक, जिसमें जो बोल पाये जाते हों, वे इसी क्रम से कहना चाहिये । जिस प्रकार पाप-कर्म का दण्डक कहा, उसी प्रकार उसी क्रम से आठों कर्म-प्रकृतियों के आठ दण्डक, जीवादि से ले कर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये। यह नौ दण्डक सहित प्रथम उद्देशक कहना चाहिये।
. 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
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