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भगवती सूत्र - श. २९ उ. २ अनन्तरोपपत्रक कर्म - भोग
विवेचन पाप कर्म को भोगने का प्रारंभ और समाप्ति के लिए समकाल और विषमकाल की अपेक्षा नौभंगी कही है। यह चौभगी सम आयु और विषम आयु तथा सम उत्पत्ति और विषय उत्पत्ति वाले जीवों की अपेक्षा घटित होती है ।
शंका- यह नौभगी आयु-कर्म की अपेक्षा तो घटित हो जाती है, किन्तु पाप-कर्म की अपेक्षा कैसे घटित होगी, क्योंकि पाप-कर्म, आयु-कर्म की अपेक्षा न तो प्रारंभ होता है और न समाप्त होता है ?
समाधान - यहाँ कर्मों का उदय और क्षय, भव की अपेक्षा से माना है । इसी अपेक्षा " को ले कर आयु-कर्म की समानता और विषमता तथा परभव में उत्पत्ति की समानता और विषमता को ले कर पाप कर्म का प्रारम्भ और समाप्ति का कथन किया है। अतएव पापकर्म सम्बन्धी चौमंगी घटित हो जाती है ।
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॥ उनतीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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शतक २६ उद्देशक २
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अनन्तरोपपन्नक कर्म-भोग
१ प्रश्न - अनंतरोववण्णगा णं भंते! णेरड्या पावं कम्मं किं समायं पट्टर्विसु समायं णिट्टर्विसु- पुच्छा |
१ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टविंसु समायं णिट्ठर्विसु, अत्थेगया समायं पट्टविंसु विसमायं णिविंसु ।
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