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________________ ३६०२ भगवती सूत्र-॥ २९. उ. १ कर्म-वेदन का प्रारभ और गमाप्ति विसमायं णिविंसु । मे तेणटेणं गोयमा ! तं चेव । भावार्थ -२ प्रश्न-हे भगवन ! ऐसा क्यों कहा कि कितने ही जीव पाप कर्मों का वेदन एक साथ प्रारंभ करते है और एक साथ समाप्त करते है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जीव चार प्रकार के कहे हैं । यथा-१ कई जीव समान आय (एक साथ इस भव की आय के उदय) वाले हैं और समान (एक साथ परभव में) उत्पन्न होते हैं २ कई जीव समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम (भिन्न-भिन्न समय में) उत्पन्न होते हैं ३ कई जीव विषम आय वाले हैं और सम (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और ४ कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम उत्पन्न होते हैं । १ जो समान आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं, वे पाप कर्म का भोग एक साथ प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। २ जो समान आयु वाले और विषम उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग एक साय प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। ३ जो विषम आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग भिन्न समय में प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं और ४ जो विषम आय वाले और विषम उत्पन्न होते हैं, वे पाप-कर्म का भोग भिन्न समय में प्रारंभ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा है। ३ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं सब्वट्ठाणेसु वि जाव अणगारोवउत्ता। . पए सव्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियब्वा। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव, पाप-कर्म एक साथ भोगना प्रारंभ करते हैं ? - ३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । सभी स्थानों में यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त । इन सभी पदों में यही वक्तव्यता कहनी चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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