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________________ भगवती मूत्र-श: २६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध विवेचन--नैरयिक जीव में उपशम श्रेणी या क्षषक श्रेणी नहीं होती इमलिये उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है। इसी प्रकार सलेशी इत्यादि विशेषण युक्त नारक पद में भी जानना चाहिये और इसी प्रकार असुरकुमारादि में भी जानना चाहिये। ___ औधिक जीव और सलेशी आदि विशेषण युक्त जीव के लिये जो चतुर्भगी आदि क्क्तव्यता कही है, वह मनुष्य के लिये भी उसो प्रकार को चाहिये, क्योंकि जीव और मनुष्य, दोनों समान धर्म वाले हैं । इस प्रकार औधिक जीव सहित पच्चीस दण्डक पापकर्म सम्बन्धी कहे, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में भी पच्चीस दण्डक कहने चाहिये, किन्तु पापकर्म के दण्डक में जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी और लोभ कषायी की अपेक्षा सूक्ष्म-संपराय गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय कर्म रूप पाप कर्म का अबन्धक होने से चार भंग कहे थे, किन्तु यहाँ ज्ञानावरणीय कर्म के दण्डक में पहले के दो भंग ही कहने चाहिये, क्योंकि सकषायी जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक अवश्य होता है, अबन्धक नहीं होता । ज्ञानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय के दण्डक भी कहना चाहिये । - १७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं किं बंधी-पुच्छा। १७ उत्तर-गोयमा ! १ अत्थेगइए बंधी बंधा बंधिस्सइ २ अत्थे. गइए बंधी बधंह ण बंधिस्सइ ४ अत्थेगहए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ, सलेस्से वि एवं चेव तइयविहूणा भंगा । कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बिइया भंगा, सुकलेस्से तइयविहणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खिए पढम-बिइया । सुकपक्खिया तइयविहूणा । एवं सम्मदिहिस्स वि, मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स य पढम बिइया। गाणिस्स तइयविहूणा, आभिणिबोहियणाणी जाव मणपजवणाणी पढम बिइया, केवलणाणी तइयविहूणा । एवं णोसण्णोवउत्ते, अवेयए, अकमायी। सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते एएसु तइयविहूणा । अजो. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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