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________________ भगवती सूत्र-२६ उ १ नैरयिक के पाप-बन्ध ३५५९ में पहला और दूसरा--भंग पाया जाता है । ___ इसी प्रकार असुरकुमारों में भी, किन्तु उनमें तेजोलेश्या, स्त्रीवेवक और पुरुषवेदक अधिक कहने चाहिये, नपुंसकवेदक नहीं। शेष पूर्ववत् । इनमें पहला और दूसरा भंग पाया जाता है । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त । .पृथ्वीकायिक, अप्कायिक यावत् पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक तक सभी के इसी प्रकार पहला और दूसरा भंग है। जिस जीव में जो लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद और योग हों, उसमें वही कहना चाहिये। शेष पूर्ववत । मनुष्य के लिए जीवपद को वक्तव्यता के अनुसार सभी कहना चाहिये। वाणव्यन्तर असुरकुमारों के समान है। ज्योतिषी और वैमानिक भी इसी प्रकार है, परन्तु जिसके जो लेश्या हों, वही कहनी चाहिये । शेष पूर्ववत् । १६ प्रश्न-जीवे पण भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं किं बंधो बंधह बंधिस्सइ-? ___ १६ उत्तर-एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया तहेव णाणावरणिजस्स वि भाणियब्वा, णवरं जीवपए मणुस्सपए य सकसायी जाव लोभकसाइंमि य पढम विइया भंगा, अवसेसं तं चैव जाव वेमाणिया । एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणिय वो गिरवसेमो। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था. ? १६ उतर-हे गौतम ! पापकर्म की वक्तव्यता के समान ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में भी जानना चाहिये। परन्तु जीवपद और मनुष्यपद में सकषायी यावत् लोम कषायी में पहला और दूसरा भंग ही कहना चाहिये, शेष पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त । ज्ञानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी सम्पूर्ण वण्डक कहने चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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