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________________ (26) समाधान---नपुंसकवेदी दो प्रकार के होते हैं-१ स्त्री-नपुंसक और २ पुरुषनपुंसक । 'पंच संग्रह' ग्रन्थ के प्रथम द्वार गाथा २४ और इसकी टीका से भी स्पष्ट है कि असन्नी पंचेंद्रिय (जो वेद की दृष्टि से केवल नपुंसकवेदी ही होते हैं) भी पुरुष-लिंगी और स्त्री-लिंगी होते हैं । इस गाथा के मूलपाठ में लिखा है कि -" च उचउ पुमिथिए, सव्वाणि नपुंससंपराएसु।" अर्थात् जीव के १४ भेदों में से पुरुष और स्त्री-वेद असंज्ञी और संज्ञी अपर्याप्त और पर्याप्त पंचेंद्रिय-इन चारों में होता है और नपुंसकवेद तो सभी में होता है। भगवती के विधान का तात्पर्य इतना ही है कि पुलाक-निग्रंथ न तो स्त्रीवेदी होते हैं और न स्त्री-नपुंसकवेदी । इसमें कृत्रिम-अकृत्रिम का भेद करने की आवश्यकता नहीं रहती। यहां यही समझना चाहिये कि पुलाक-निग्रंथ, पुरुषवेदयुक्त पुरुषलिंगी अथवा नपुंसकवेदयुक्त पुरुषलिंगी होते हैं । पुलाक-निग्रंथ के अतिरिक्त बकुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील निग्रंथ तथा सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत तथा नपुंसकलिंग-सिद्ध जन्म-नपुंसक भी हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं माने, तो बताना चाहिये कि अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य के चतुर्थ भंग-"बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ" की संगति किस प्रकार करेंगे ?? सूत्रकार स्वयं अपने शब्दों में अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य के लिये--"मणुस्साणं सव्वत्थ तइय-चउत्था भंगा" स्पष्ट रूप से बतला रहे हैं । इसकी संगति वे ४७ भेदों में से ३३ वें भेद में आयु-बन्ध के साथ चतुर्थ भंग के साथ किस प्रकार करेंगे ?? निश्चय ही यहां उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चतुर्थ भेद का पात्र अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य, जन्म-नपुंसक ही है और वह एकमात्र सिद्धगति ही प्राप्त करेगा। सम्यक्त्य में आयु-बन्ध सम्यक्त्व प्राप्त होने के पूर्व ही आयु का बन्ध हो जाय, तो वह सम्यक्त्वी आत्मा अपने बन्ध के अनुसार नरकादि चार गतियों में से किसी भी गति में जा सकती है । किंतु सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् आयुष्य का बन्ध हा, तो मनुष्य और तिथंच तो देव गति का आयुष्य ही बांध सकते हैं और वह भी भवनपति, व्यंतर और ज्योतिषी का नहीं, किंतु एकमात्र वैमानिक देव के आयु का ही बन्ध कर सकते हैं, अन्य नहीं । और नारक तथा देव, एकमात्र मनुष्य आयु का ही बंध कर सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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