________________
विषय
शतक उद्देशक भाग पृष्ठ अचित्त तेजोलेश्या के पुद्गल प्रकाश करते ७ १० ३ १२२८- ३० अकृत्य स्थान सेवित साधु-साध्वी के आलोचना के विचारों से आराधना
३ १३९९ ---१४०५ अन्यतीथिकों द्वारा स्थविर साधुओं को असंयतादि कहना
८ ७ . ३ १४१५ - २८ अन्तर्वीपों का वर्णन
६ ३-३० ४ १५७६-७८ (श. १० उ. ७ भा. ४ पृ. १८४१-४२ भी) असोच्चा और सोच्चा केवली का अधिकार ९ ३१ ४ १५७९-१६१४ अश्व के फेफड़े की वायु के खू खू शब्द . १० ३ ४ १८०६ - ७ अस्तिकाय के लक्षण, गुण तथा तत्स्वरूप लोक १३ ४ ५ २१८८- ९३ अस्तिकाय के प्रदेशों की परस्पर स्पर्शना १३ ४ ५ २१९३-२२०९ अस्तिकाय के प्रदेशों की अवगाहना, स्थानाधिकार १३ ४ ५ २२१०-२२२२ अंतर सहित या रहित नैरयिकादि का उत्पाद व उद्वर्तन
१३ ५ २२२७ . अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक निर्गत, अनिर्गत १४ १ ५ १२८०- ८७ अग्नि में जीवों का गमन, जलने न जलने संबंधी १४ ५ ५ २३१०- १५ अनुत्तर विमानवासी देवों का अवधिज्ञान अनन्त ___ मनोद्रव्य वर्गणा युक्त
१४ ७ ५ २३२७- २८ अनुत्तरोपपातिक देव कहे जाने के कारण १४ ७ ५ २३३४- ४. अंतर-रत्नप्रभादि पृथ्वियों देवलोक, सिद्ध शिला आदि का
१४ ८ ५ २३४१- ४४ अम्बड परिव्राजक के शिष्यों का वर्णन,
१०० घरों में पारणा, उववाई का निर्देश १४ . ८ ५ २३४७- ४८ अध्याबाध देव कहे जाने के कारण
१४८ ५ २३४९- ५० अत्ता, अनत्ता ईर्ष्यादि पुद्गलों का दंडकापेक्षा १४ ९ ५ २३५६- ५८ अग्निकाय का वायुकाय से संबंध व स्थिति १६ १ ५२५०४- १ अधिकरण अधिकरणी संबंधी जीवों का अव्रत १६ १ ५२५०८- १७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org